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मज़दूर-किसान
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क्यों अगर मंडिया नहीं रहेंगी तो पूरे देश की खेती-किसानी बिहार की तरह बर्बाद हो जाएगी!
कई किसान संगठनों का कहना है कि सरकार चाहे तो पूरे कृषि बाजार को मुक्त कर दे लेकिन एक कानून बनाकर यह निश्चित भी कर दे कि किसी भी फसल की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम भारत के किसी भी इलाके में नहीं दी जाएगी।
अजय कुमार
21 Sep 2020
क्यों अगर मंडिया नहीं रहेंगी तो पूरे देश की खेती-किसानी बिहार की तरह बर्बाद हो जाएगी!
'प्रतीकात्मक तस्वीर' फोटो साभार: सत्याग्रह

मदन बिहार के सबसे पिछड़े इलाके में रहते हैं। यह नाम भी भारत के 86.2 फ़ीसदी किसानों की आबादी में से एक नाम है, जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है और खेती करने लायक 0.25 हेक्टेयर से भी कम जमीन है। इसमें से उन्होंने एक चौथाई जमीन पर मक्के की फसल  उपजाई। अपनी जमीन की निराई गुड़ाई पर उन्होंने खूब मेहनत किया। खरपतवार बड़े हुए तो खुद दोपहर की झुलसा देने वाली गर्मी में खेत में बैठकर खुरपी से साफ किया। जमीन ऊपर - नीचे  थी तो उसे बराबर करने की कोशिश की। हर दिन खेत में पहरेदारी दी। इसके बाद बारिश और मौसम की मार झेलने के बाद तकरीबन 70 किलो मक्का हुआ। लेकिन मक्का अचानक तो नहीं मिलता  है। खेत से मक्के का बाल लाकर इसकी सफाई करनी पड़ती है। जब मदन और उनके दो बच्चे सफाई कर रहे थे तो उस समय मौसम का मिजाज भी बदल रहा था। इसलिए मक्के को साफ करते समय उन्हें वायरल बुखार भी हो गया। इसमें तकरीबन हजार रुपये का खर्च आया। इस समय उनके इलाके में 12 से 15 रुपये किलो मक्का बिक रहा है। यानी 70 किलो मक्के की कुल कीमत 840 रुपये से लेकर 1050 रुपये तक है। अब आप खुद ही समझ गए होंगे कि मक्के पर मेहनत कितनी की गई और मक्के से पैसा कितना मिला। इसके साथ आप यह भी समझिए कि जब यही मक्का सिनेमा हॉल की सीट पर बैठकर कोई खाता है तो कितने रुपये देता है। जिसे हम पॉपकॉर्न कहते हैं उसके एक कप की कीमत तकरीबन 500 रुपये से अधिक होती है।

मदन की इस कहानी को सुनकर अगर हमारे मन में थोड़ा दुख पैदा होगा तो हम सोचेंगे कि काश मदन को अपनी मेहनत की वाजिब कीमत मिल पाती। लेकिन यही तो दुख है  कि हर तरह से गैर बराबरी वाले समाज में केवल दुख और अच्छे की कल्पना कर देने से कुछ नहीं होता है। उसके लिए एक जायज सिस्टम बनाना पड़ता है। अगर सही सिस्टम नहीं होता है तो उस सिस्टम के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती है। 

अगर आप सिस्टम बनाने की सोचेंगे तो यही सोचेंगे की कृषि उत्पादों का ऐसा बाजार बने जहां पर फसल बेचने के बाद वाजिब कीमत मिले और सब लोग जाकर वहीं पर फसल बेचें। यह बिल्कुल सही दिशा में सोचा गया कदम होगा। इसी हिसाब से सोचने के बाद  एपीएमसी (agriculture produce Market committee)  कृषि विपणन समितियों यानी मंडियों की अवधारणा हमारे सामने आई।

लेकिन सोचने और योजना बना देने से सब कुछ हो जाता तो इस दुनिया में गरीबी और जुल्म कब का खत्म हो चुका होता।

हकीकत यह है कि देश में 86.2 फ़ीसदी किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है और इनमें से औसतन एक किसान के लिए मंडी की दूरी तकरीबन  450 किलोमीटर जबकि नेशनल कमीशन एग्रीकल्चर फ्रेमवर्क ने यह सुझाव दिया था कि एक किसान और मंडी के बीच की दूरी 80 किलोमीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए। इस लिहाज से पूरे देश में 42000 मंडियों की जरूरत है लेकिन मौजूदा समय में केवल 7000 मंडियां हैं।

चूंकि कृषि राज्य सरकार का विषय है इसलिए ऐसे राज्य भी हैं जिन्होंने अपने यहां एपीएमसी एक्ट को लागू नहीं किया है। बिहार भी उनमें से एक है। बिहार के लिए तर्क दिया गया कि बिहार में किसी तरह का एपीएमसी नहीं बनेगा। यानी किसी तरह की मंडियां नहीं होंगी। जिसको जहां मर्जी वहां अपने कृषि उत्पाद को बेच सकेगा। इससे प्रतियोगिता बनेगी और जब प्रतियोगिता बढ़ेगी तो किसानों को अच्छी कीमत मिलेगी। लेकिन बिहार में इसका बिल्कुल उल्टा हुआ। APMC कानून के तहत यह प्रावधान होता है कि किसानों को अपनी फसल को एपीएमसी द्वारा रजिस्टर्ड खरीदार के पास ही बेचना होगा। यह सरकार का कृषि बाजार में किया हुआ हस्तक्षेप है। इसी वजह से फसलों पर मिलने वाला एमएसपी भले कहीं और मिले या न मिले लेकिन एपीएमसी की मंडियों में जरूर मिल जाता है। इसलिए पंजाब और हरियाणा जैसे  राज्यों ने एपीएमसी एक्ट को अपनाया और अपने यहां मंडियों की व्यवस्था की वहां पर तो सरकार की एमएसपी ठीक से पहुंच पाई लेकिन बिहार इससे अछूता रहा। इसी वजह से बिहार में जिस अनाज की कीमत हजार रुपए क्विंटल भी पार नहीं कर पाती उसी अनाज की कीमत हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में  1800 से 2000 रुपये प्रति क्विंटल तक को पार कर जाती है।

इससे यह निष्कर्ष तो साफ़ है की खेती किसानी में सरकार के रेगुलेशन का हस्तक्षेप होना बहुत जरूरी है। जहां पर रेगुलेशन नहीं है और सब कुछ प्राइवेट खरीदारों के हाथों छोड़ दिया गया है वहां की स्थिति बहुत बुरी है।

खेती किसानी से जुड़े जिन तीन अध्यादेश/विधेयकों से लेकर किसानों का सरकार से जमकर संघर्ष हो रहा है उनमें एक कानून ऐसा ही है जो एपीएमसी एक्ट के खात्मे की बात करता है।

केंद्र सरकार ने नया कानून (द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रोमोशन एंड फेसिलिएशन) अध्यादेश, 2020) एफपीटीसी नाम से बनाया है जिसका मकसद कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) के एकाधिकार को खत्म करना और हर किसी को कृषि-उत्पाद खरीदने-बेचने की अनुमति देना है।

इस कानून का असर क्या होगा? बिहार के उदाहरण के जरिए तो यह बात बताने से समझी जा सकती है। लेकिन अब जरा इसे थियोरेटिकल ढंग से भी समझते हैं। मंडियों में ऐसा नहीं है कि परेशानियां नहीं है। मंडिया की परेशानियों की भरमार है। किसानों का यहां भी शोषण होता है। आढ़ती और बिचौलिए कम दाम में उत्पाद खरीदते हैं और बहुत अधिक दाम में अंतिम व्यापारी को बेचते हैं। तो इन परेशानियों को खत्म करने के लिए कहा जा सकता है कि ऐसी व्यवस्था बनी जिसमें अंतिम व्यापारी आकर किसान से कुछ सामान खरीद ले। बिचौलिए ना हो। भरपूर कंपटीशन हो और किसान को अपनी फसल का वाजिब कीमत मिल पाए। सरकार भी यही बात कह रही है। लेकिन बिहार का उदाहरण सरकार के सामने है। सरकार यह नहीं कह रही है कि जो भी खरीदार किसान से फसल खरीदेगा वह किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक पैसा ही देगा। सरकार यह नियम नहीं बना रही है। इस तरह से बिना ऐसे सरकारी हस्तक्षेप के होगा यह कि पूरे देश के किसानी बिहार की तरह बदहाल हो जाएगी।

एपीएमसी में यही तो फायदा मिलता है की फसल सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेची जाती है। अगर यह नियम बना दिया जाए कि किसान अपनी फसल कहीं भी बेच सकेंगे और दूसरी जगहों पर एपीएमसी की मंडियों में लगने वाले छह फीसदी टैक्स की तरह टैक्स नहीं लगेगा तो यह सोचने वाली बात है कि आखिर कौन सा किसान व्यापारी एपीएमसी की रजिस्टर्ड मंडियों में खुद को रजिस्टर्ड करवा कर खरीदार बनेगा? जब यह कानून ही नहीं होगा कि किसान की उपज खरीदने वाले खरीददार एपीएमसी मंडियों में रजिस्टर्ड खरीदार ही होंगे तो कैसे किसान तक न्यूनतम समर्थन मूल्य की कीमत पहुंच पाएगी?

सरकार कहती है की एपीएमसी एक्ट में बदलाव किया जा रहा है लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य में कोई बदलाव नहीं आ रहा है। सरकार का यह तर्क पूरी तरह से गलत है, भले कानून में ऐसी बात नहीं लिखी हुई है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में कोई बदलाव होगा। लेकिन एपीएमसी में बदलाव की वजह से सारे परिणाम ऐसे निकल रहे हैं जिनका साफ इशारा है की न्यूनतम समर्थन मूल्य का खात्मा हो जाएगा। एक सर्वे का अनुमान है कि तकरीबन 51.4 फ़ीसदी किसान अपने लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को किसान हित के नजरिए से सबसे पहले नंबर पर रखते हैं। इसलिए कई किसान संगठनों का कहना है कि सरकार चाहे तो पूरे कृषि बाजार को मुक्त कर दे लेकिन एक कानून बनाकर यह निश्चित भी कर दे कि किसी भी फसल की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम भारत के किसी भी इलाके में नहीं दी जाएगी।

पहले भी किसानों का बहुत छोटा हिस्सा ही एपीएमसी की मंडियों में अपने उत्पाद बेच पाता था। बहुत बड़ा हिस्सा एपीएमसी की मंडियों से बाहर रहता था। इन किसानों के साथ अगर अब तक भला नहीं हो पाया तो आगे कैसे भला हो सकता है? कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि एपीएमसी के अधिकार को हटाकर सबको खरीदने बेचने की पूरी आजादी देकर किसानों को वाजिब दाम मिलेगा।

इस पूरे विश्लेषण का निष्कर्ष यही है कि भारत जैसे गैर बराबरी वाले मुल्क में किसानी एक ऐसा उद्यम है जिसमें करोड़ों मदन जैसे किसान भरे पड़े हैं। इनकी फसल को वाजिब दाम मिले इसके लिए जरूरी है कि सरकार कृषि फसल के बाजार को लोकहित में नियंत्रित करने वाले उपाय बनाकर साधे ना कि ऐसा करें कि सबको खरीदने बेचने की आजादी दे दे ताकि किसानों का जमकर शोषण होता रहे और कोई रोकने टोकने वाला भी ना हो।

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