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स्वामीनाथन आयोग के आधार पर किसानों को नहीं मिली एमएसपी, सरकार कर रही है भ्रमित
किसानों का कहना है कि कृषि उपज की लागत को स्वामीनाथन आयोग के फार्मूला के तहत ( C 2) निर्धारित किया जाए, ( A2+F L) वाले फार्मूला के तहत नहीं है। कंप्रिहेंसिव कॉस्ट के तहत खेती करने में लगी पूरी लागत को शामिल किया जाता है जबकि सरकार द्वारा निर्धारित किए A2+ FL के तहत आंशिक लागत को शामिल किया जाता है। 
अजय कुमार
13 Sep 2021
स्वामीनाथन आयोग के आधार पर किसानों को नहीं मिली एमएसपी, सरकार कर रही है भ्रमित
Image courtesy : Business Standard

जब सरकार भाजपा की हो तो कारोबार झूठ का न हो, इसकी काम ही संभावना है। इसलिए आंकड़े बड़ी तफसील से अपनी छानबीन की मांग करते हैं। रबी की फसलों की एमएसपी सरकार द्वारा घोषित की जा चुकी है। विशेषज्ञों और किसान नेताओं ने पिछले साल की एमएसपी से तुलना कर यह भी बता दिया कि किसानों को कुछ भी नहीं मिला है। केवल आंकड़ों की हेर फेर का का खेल है।

कमरतोड़ महंगाई की दर को जोड़ते हुए वास्तविक कीमतों के आधार पर रबी की 6 फसलों में से 4 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पिछले साल के मुकाबले कम घोषित की गई है। गेहूं रबी के सीजन में सबसे अधिक क्षेत्रफल में बोई जाने वाली फसल है इसपर नॉमिनल कीमतों के आधार पर महज 2% की वृद्धि हुई है। जो पिछले 12 सालों में सबसे कम है। गेहूं की एमएसपी की कीमत सरकार ने 1975 रुपए प्रति क्विंटल निर्धारित की थी। इस बार गेहूं की कीमत 2015 रुपए प्रति क्विंटल निर्धारित की गई है। पिछले साल के मुकाबले 40 रुपए की बढ़ोतरी हुई है। लेकिन अगर 6% की महंगाई दर के हिसाब-किताब को जोड़कर देखें तो असली कीमत महज 1901 रुपए प्रति क्विंटल निकलती है। यानी किसानों को पिछले साल के मुकाबले इस साल प्रति क्विंटल गेहूं बेचने पर वास्तविक कीमत के आधार पर ₹74 कम मिलेगा। इसी तरह से जौ, चना, सूरजमुखी की एमएसपी पिछले साल से कम है और केवल सरसों और मसूर की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है।

यह सच्चाई जब समाने आई तो भाजपा के दरबारी पत्रकार झूठ का नया पुलिंदा लेकर समाने आए। झूठ यह कि गेहूं पर किसानों को अपनी लागत का 100% मुनाफा जोड़कर एमएसपी तय किया गया है। चने पर लागत से 60% अधिक एमएसपी तय की गई है। इसी तरह से चना सूरजमुखी और सरसों पर दिए जाने वाले एमएसपी को लागत से 60% से अधिक देने की बात कही गई।

यह सरासर झूठ था। वही झूठ था जिसके खिलाफ किसान पिछले 9 महीने से लड़ते आ रहे हैं। किसानों का कहना है कि कृषि उपज की लागत को स्वामीनाथन आयोग के फार्मूला के तहत ( C 2) निर्धारित किया जाए, ( A2+F L) वाले फार्मूला के तहत नहीं है। कंप्रिहेंसिव कॉस्ट के तहत खेती करने में लगी पूरी लागत को शामिल किया जाता है जबकि सरकार द्वारा निर्धारित किए A2+ FL के तहत आंशिक लागत को शामिल किया जाता है। किसान संगठनों ने शुरू से ही मांगी है कि उन्हें स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर लागत से 50 फ़ीसदी अधिक की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत दी जाए। किसान संगठनों ने नारा भी दिया था कि आमद लागत का देयौधा मिलना चाहिए।

कृषि बाजार और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ढेर सारा काम करने वाले पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के प्रमुख अर्थशास्त्री प्रोफेसर सुखपाल सिंह का कहना है कि सरकार जिस तरह से कृषि उपज की लागत की गणना कर रही है, उस तरह से लागत की गणना करने पर ढेर सारा खर्च छूट जा रहा है। खेती करते वक्त लगाई गई पूंजी, अगर दूसरे जगह पर लगाई जाती है तो पूंजी से जो ब्याज मिलता है उसे लागत में नहीं जोड़ा जा रहा है। इसी तरह से जिस जमीन पर खेती हो रही है, उस जमीन को दूसरे को देने के बाद जो किराया मिलता है,उ से लागत में नहीं शामिल किया जा रहा है। पट्टे पर ली गई जमीन पर खेती के लिए पट्टे की कीमत निकालते हुए सरकार पट्टे वाली जमीन पर उत्पादित हुए फसल की एक तिहाई कीमत को लागत के तौर पर जोड़ रही है। जबकि ऐसा नहीं होता है। एक तिहाई का दोगुना पट्टे पर खेती करने वालों से वसूल किया जाता है।

सुखपाल सिंह आगे बताते हैं कि सरकार द्वारा लागत की गणना करते वक्त कुछ गैर जरूरी चीजें शामिल की जा रही हैं। जैसे विदेशी बाजार में गेहूं की कीमत क्या है? सरकार के स्टॉक में कितना गेहूं पड़ा हुआ है? MSP का निर्धारण चुनाव वाले दौर में किया जा रहा है या नहीं? इसके अलावा कई तरह की सरकारी सब्सिडीओं में बिना किसी जायज तर्क के कमी की जा रही है।

यह कैसे संभव है कि ऑस्ट्रेलिया के बाजार में बिक रही गेहूं की कीमत के आधार पर पंजाब के खेतों में मेहनत करने वाले किसानों को उनकी उपज की कीमत निर्धारित की जाए? सरकार के स्टॉक में जो गेहूं पड़े हैं, उनका इस्तेमाल सबसे गरीब लोगों तक अनाज पहुंचाने में किया जाता है, इसे आधार बनाकर कैसे एमएसपी तय की जा सकती है? चुनाव के समय अधिक एमएसपी चुनाव न होने के समय कम एमएसपी यह कैसी सरकारी नीति है?

जब एक किसान अनाज पैदा करता है तो उस समय लगने वाले खर्चे को आधार बनाकर ही एमएसपी का निर्धारण करने की जरूरत होती है। ऐसा नहीं है कि कीमतों को तय करते वक्त ऐसे कारणों को शामिल कर लिया जाए जिनका किसानों के अनाज उत्पादन से कोई लेना देना नहीं है। सरकार ने 2015 रुपए प्रति क्विंटल MSP का निर्धारण किया है। लेकिन पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सटी और पंजाब एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट के विशेषज्ञों ने आपस में मिलकर स्वामीनाथन कमीशन की अनुशंसा के आधार पर गेहूं MSP की जो कीमत निकाली है, वह 2830 रुपए प्रति क्विंटल बनती है। यानी प्रति क्विंटल गेहूं पर किसानों को ₹725 कम देने वाली एमएसपी की कीमत सरकार द्वारा तय की गई है।

किसान संगठनों ने गणना करके निकाला था कि स्वामीनाथन आयोग के सुझावों से लेकर साल 2018 तक किसानों को कम न्यूनतम समर्थन मिलने की वजह से तकरीबन 22 लाख करोड़  रुपए का घाटा सहना पड़ा है। इस दौरान किसानों ने कुल 14 लाख करोड़ रुपए का लोन लिया था। इसलिए किसान संगठन कहा करते थे कि सरकार या तो पूरी एमएसपी दे दे या किसानों का लोन माफ कर दे।

यह सारी बातें रखने के बाद कोई उठकर फिर वही पुराना सवाल पूछ सकता है कि सरकार सारे कृषि उपज को कैसे खरीद सकती है? अगर खरीदेगी तो उसका खजाना खाली हो जाएगा? बुनियादी तौर पर ऐसे सवालों का जवाब बिना किसी लाग लपेट के एक लाइन में दिया जाना चाहिए कि सरकार और सरकार का खजाना लोगों  के टैक्स से भरता है और लोगों की भलाई के लिए होता है और उस पर यह खर्च होना चाहिए। लेकिन फिर भी थोड़ा गणित लगा कर पता करते हैं कि आखिर कर MSP की लीगल गारंटी देने पर सरकार का कितना खर्चा बढ़ेगा?

हरीश दामोदरन कृषि पत्रकारिता के जाने-माने नाम है। इंडियन एक्सप्रेस में  छपे अपने एक लेख में उन्होंने विस्तार से इस पर लिखा है। उसका सार कहे तो MSP की लीगल गारंटी का मतलब यह नहीं है कि सरकार को किसानों की सारी उपज खरीदनी है बल्कि यह है कि सरकार को यह गारंटी देनी है कि किसानों की उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर कोई भी न खरीदें। इसके लिए सरकार को कृषि बाजार में ऐसा हस्तक्षेप करना होगा जिससे कीमतें बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर न गिरे। ऐसा करने के लिए सरकार अभी तक MSP पर जो खर्च करते आई है, उससे महज 1 से 1.5 लाख करोड़ रुपए अधिक साल में खर्च करना पड़ेगा।

अब आप पूछेंगे 1 से 1.5 लाख करोड रुपए कहां से आएंगे। पूरे देश के हिसाब से देखें तो यह कोई बहुत बड़ा आंकड़ा नहीं है। ठीक-ठाक समय में देश की जीडीपी  का केवल 1 फीसदी है। उतना है जितना इस वित्त वर्ष में पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज ड्यूटी के तौर पर सरकार ने इकट्ठा किया है।

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