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सिंघु बॉर्डर के सेवादार : “घर वालों को बोल आए हैं हमारी राह ना देखना”
सिंघु बॉर्डर पर हर क़दम पर आपको ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी मुफ़्त सेवा देकर सुकून कमा रहे हैं। कोई फटे कपड़ों की सिलाई कर रहा है तो कोई प्रेस, तो कोई जूता पॉलिश। इनमें किसी की अपनी कम्पनी है तो कोई विदेश की नौकरी छोड़ आया है।
नाज़मा ख़ान
26 Jan 2021
सिंघु बॉर्डर के सेवादार : “घर वालों को बोल आए हैं हमारी राह ना देखना”

''मुझे दुबई जाना था लेकिन वहां निकलने से पहले मैंने सोचा एक बार दिल्ली के बॉर्डर पर बैठे किसानों को देख आऊं, मैं और मेरा दोस्त आए थे यहां घूमने लेकिन हमने देखा यहां तो कुछ और ही चल रहा है। फिर मैं वापस नहीं जा पाया मेरा दिल लग गया यहां'' और फिर दुबई दूर हो गया और दिल्ली क़रीब आ गई। ये सिंघु बॉर्डर पर बैठे दलबीर सिंह हैं जो बरनाला, पंजाब से किसान आंदोलन को महज़ देखने आए थे लेकिन आंदोलन की कशिश में ऐसे बंध गए कि वापस लौट ही नहीं पाए, वो यहां फ्री में लोगों के फटे, उधड़े हुए कपड़ों को सिलते हैं। जिस वक़्त मैं उनसे बात कर रही थी वो लगातार अपने काम में लगे थे, कोई उनके पास अपना कोट लेकर पहुंचा था तो कोई कुर्ता, कभी वो मेरी बातों का जवाब देते तो कभी अपने काम में रम जाते। 

मुझसे बात करते-करते कई बार वो मशीन चलाने लगते लेकिन फिर उन्हें एहसास होता कि मैं उनकी बात ठीक से सुन नहीं पा रही तो वो ज़रा देर के लिए थम जाते और मेरे सवालों का जवाब देने लगते।

दलबीर सुबह नौ बजे मशीन चलाना शुरू करते हैं तो देर रात तक अपने काम में लगे रहते हैं,  कई बार तो रात के ढाई भी बज जाते हैं। मैंने पूछा अगर आप यहां आ गए तो अब घर कौन देखेगा? मुस्कुराते हुए दलबीर ने जवाब दिया जिसने मुझे यहां बैठा दिया वही देखेगा। मैंने पूछा ख़ुशी हो रही है, तो जवाब मिला ''बस मैं उसी के लिए यहां बैठा हूं''। ये बोलते-बोलते उनकी आंखों में उतरे सुकून को मैं साफ़ महसूस कर पा रही थी।

लेकिन दलबीर इकलौते नहीं जो सिंघु बॉर्डर पर अपनी फ्री सेवा देकर सुकून कमा रहे थे उनके जैसे हर चंद क़दम पर लोग मिल रहे थे। कुछ और आगे बढ़ी तो देखा कि तीन-चार लोग कपड़ों को प्रेस कर रहे थे और उन्होंने भी गुरुमुखी में फ्री सेवा का बैनर लगा रखा था। उनके पास भी काफी गहमागहमी थी, ऐसा लग रहा था कि कोई फ्री सेवा नहीं बल्कि बंपर कमाई में बिज़ी है, लोगों की भीड़ में गुम ये तीन लोग लगातार काम कर रहे थे, कोई कपड़ों को सीधा कर रहा था तो कोई उनकी तह बना रहा था तो कोई कपड़ों को प्रेस कर रहा था लेकिन इन सबके बीच मुझे ऐसा बिल्कुल नहीं लगा कि यहां काम को सिर्फ़ निपटाया जा रहा है बल्कि ऐसा महसूस हो रहा था कि कोई बहुत ही मोहब्बत से किसी इबादत में डूबा है।

मैं उन्हें डिस्टर्ब नहीं करना चाहती थी लेकिन जैसे ही उन्हें महसूस हुआ कि मैं उनसे बात करना चाह रही हूं लेकिन कुछ हिचक रही हूं तो बहुत ही प्यार से बुलाकर कहा बताइए क्या पूछना है आपको। इनके जवाब हंसी और चुटकुलों का कूल मिक्सचर था। मैंने उनसे पूछा आप पंजाब में किस जगह से आएं हैं?  तो उन्होंने बताया कि वो लोग तरनतारण से आए हैं। मैं जानना चाहती थी कि वो क्या कर रहे हैं तो जवाब मिला कपड़े प्रेस कर रहे हैं फ्री सेवा के तौर पर। उनके हर जवाब के बाद मेरे सवाल बढ़ रहे थे।

मैंने पूछा कि उन्हें इस तरह की फ्री सेवा का ख़्याल कैसे आया?  तो उन्होंने बताया कि ''आजकल धुंध का मौसम है और ऐसे मौसम में कपड़ों को सुखाना मुश्किल हो जाता है, तो हमने सोचा इस तरह से जो कपड़े थोड़े बहुत गीले रह जाते हैं वो सूख जाएंगे''। वो आगे कहते हैं ''हमारे पंजाबी लोग कुर्ता पायजामा ज़्यादा पहनते हैं, जिसे प्रेस ना किया जाए तो वो अच्छा नहीं लगता, लेकिन अगर प्रेस किया हो तो बढ़िया लगता है, फिर वो हंसते हुए कहते हैं हम मोदी जी के जमाई बन गए हैं इसलिए हमारे कपड़े अच्छे दिखने चाहिए''।

मज़ाक़ का दौर आगे बढ़ा तो मैंने पूछा कुर्ता पायजामा तो मोदी जी भी पहनते हैं तो वो हंसते हुए कहते हैं कि ''वो भी आ जाएं हम उनकी भी इसी मोहब्बत से सेवा करेंगे''। और हवा में एक बार फिर ठहाका गूंजने लगा, इतनी परेशानी में रहते हुए भी इनके चेहरों पर मुस्कुराहट थी और बात में चुटकुले। शायद यही पंजाबी मिज़ाज की पहचान है। चलते-चलते मैंने उनसे भी पूछा कैसा लगता है ऐसी सेवा करके? और उनकी आंखों में भी वही सुकून तैरने लगा जो मैं कुछ देर पहले दलबीर जी की आंखों में झांक आई थी।

क़रीब दो महीने से सर्द रातों रातों और शीत लहर में दिन गुज़ार रहे इन लोगों को देखकर कौन कह सकता है कि ये परेशानी में हैं? जिनकी ज़मीनें हैं वो आंदोलन कर रहे हैं और जिनकी ज़मीनें नहीं है वो सेवा कर रहे हैं एक गज़ब की अंडरस्टैंडिंग है।

मैं जब भी सिंघु बॉर्डर जाती हूं यही सवाल मेरे ज़ेहन में आता है कि आख़िर इस आंदोलन को कौन और कैसे रन करा रहा है? लेकिन जब दलबीर जैसे लोगों को देखती हूं तो बातें कुछ-कुछ समझ में आती हैं। जिस आंदोलन को कोई नहीं चलाता, समझ लेना चाहिए कि वो आंदोलन ख़ुद-ब-ख़ुद चल रहा होता है, बिल्कुल समंदर की उन लहरों की तरह जहां एक लहर से दूसरी लहर बनती चली जाती है। सेवा के नाम पर कपड़े धोने वाले, सुखाने वाले, प्रेस करने वाले और फटे और उधड़े हुए सिलने के साथ ही कुछ लोग और थे जो यहां अपनी सेवा दे रहे थे और ऐसी है एक सेवा है लाइब्रेरी। लंगर के नाम पर जहां हर दूसरा टेंट खाने-पीने का है वहीं तेज़ी से बढ़ती लाइब्रेरी भी यहां ख़ूब दिखाई दे रही हैं ऐसी ही एक लाइब्रेरी 'सांझी सत्थ' जहां  मेरी मुलाक़ात मनिंदर सिंह से हुई जिन्होंने बताया कि वो और उनके दोस्त 11 से 1 बजे यहां ग़रीब बच्चों को पढ़ाते या फिर कहें एक अच्छा इंसान बनने का सबक सिखाने की कोशिश करते हैं।

मनिंदर के मुताबिक़ जहां इस लाइब्रेरी में पहले 20 -30 बच्चे आते थे आज डेढ़ सौ बच्चे आने लगे हैं। लाइब्रेरी में कई बातों पर डिस्कशन भी चलता रहता है, तिरपाल वाली इस लाइब्रेरी में चारों तरह गुरुमुखी, हिंदी और इंग्लिश में लिखे पोस्टर झंडियों और झालर की तरह लटक रहे थे। मनिंदर से मैंने पूछा कैसे लग रहा है इस तरह की लाइब्रेरी का हिस्सा बनकर? मेरे सवाल के जवाब में बहुत ही गर्मजोशी से वो बोलते हैं पढ़ाई तो होती रहेगी पहले तो बच्चों को बताया जाए कि ज़िन्दगी में रहना कैसे है? ज़िन्दगी क्या चीज़ है ? मनिंदर की बात बहुत वज़नदार थी अगर किसी ने ये सीख लिया कि ज़िन्दगी क्या है तो फिर बाक़ी क्या बचेगा?  अच्छी सोच के साथ बच्चों को ज़िन्दगी जीने का सबक सिखा रहे ये लोग बहुत ख़ास हैं और इनकी सेवा बेशक़ीमती।

ख़िदमत कर सुकून कमाने वाले यहां बहुत से लोग थे ऐसे ही चार-पांच लोग सड़क किनारे बैठे लोगों के जूते साफ़ करने में लगे थे,कोई पानी से जूतों को चमका रहा था, तो कोई पालिश कर रहा था, तो कोई ब्रश से जूतों पर लगी धूल झाड़ रहा था।

मुस्कुराते हुए इन लाजवाब लोगों से ख़ुद ही बात करने का मन कर जाता है। 'एंड माइंड इट' ये लोग किसान नहीं बल्कि पढ़े, लिखे इंग्लिश बोलने वाले लोग थे, जूतों की सफ़ाई करने की सेवा कर रहे ये लोग पंजाब के श्री अनंतपुर साहिब से आए थे, इनमें से अजीत पाल जी ने मुझसे बात करनी शुरू की जबकि बाक़ि उसी तरह अपना काम करते रहे जैसे पहले कर रहे थे। मैंने पूछा आपको जूतों को साफ़ करने की सेवा का ख़्याल कैसे आया? तो उनका जवाब था ''जैसे जवान बॉर्डर पर बैठते हैं उसी तरह ये किसान भी दिल्ली के बॉर्डर पर डटे हैं, इनके चरणों की धूल साफ़ करना हमारे लिए सौभाग्य की बात है, और सेवा तो हमारे ख़ून में है हमारे गुरु नानक साहब ने सेवा का हुक्म दिया है''।

उन्होंने बताया कि उनमें से कोई भी किसान नहीं है, अजीत पाल के मुताबिक़ उनकी चंडीगढ़ में मैनेजमेंट कम्पनी है, तभी उन्होंने अपने बगल में बैठकर जूते पॉलिश कर रहे शख़्स की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि ये भाई अमेरिकन कम्पनी में काम करते थे छुट्टी लेकर आए थे छुट्टी आगे नहीं बढ़ी तो इन्होंने रिज़ाइन कर दिया, हम सबने नौकरी से किनारा कर लिया यहां किसानों की सेवा करने में बहुत आनंद आ रहा है। चूंकि ये पढ़े लिखे लोग थे मैंने पूछा आपको क्या लगता है 10-11 दौर की बैठक हो गई कोई नतीजा निकलेगा?  तो उन्होंने हंसते हुए कहा बिल्कुल निकलेगा जी और नहीं निकला तो हम लोग कहीं जाने वाले नहीं हैं घर वालों को बोल आए हैं हमारी राह ना देखना। तभी उन्होंने एक और साथी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि ये तीन बहनों का इकलौता भाई है लेकिन घर से निकलते वक़्त बोल आया है मेरी राह ना तकना मैं तब तक पलट के नहीं लौटने वाला नहीं जबतक की आंदोलन ख़त्म ना होगा।

मैंने पूछा आप लोगों में ये जज़्बा कहां से आ रहा है? तो जवाब मिला मैडम हम तो भगवान को तलाश रहे थे, हमें लगा क्या पता इस सेवा के दौरान जाने किस रूप में भगवान ही हमारे सामने से गुज़र जाएं। राह चलते लोगों में भगवान तलाशने वाले इन लोगों से कोई कैसे गोली बंदूक़ से लड़ सकता है? मेरी समझ के तो परे है। 

मैं अपना काम ख़त्म कर जा रही थी लेकिन तभी मेरी मुलाक़ात कुछ और ख़ास लोगों से हो गई, इनमें से एक 70 साल के संजोक सिंह थे जिन्हें इस आंदोलन का 'पोस्टर बॉय' कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा। उनके पास-पास मिलने वालों की भीड़ लगी थी। मैंने उन्हें दूर से नमस्ते किया तो उन्होंने भी बहुत ही प्यार से सिर झुका दिया। लोग छटे तो वो मेरे क़रीब आए, दो महीने होने को आए लेकिन उनकी आंख में लगी चोट की सुर्ख़ी पूरी तरह से नहीं गई थी, चेहरे पर सरकारी ज़ुल्म के निशान अब भी बाक़ी थे। उन्हें देखकर मेरी आंखों के सामने उनकी ज़ख्मी हालत में वायरल हुई तस्वीर घूमने लगी।

मैंने पूछा आपके चेहरे का ज़ख़्म ठीक हो गया लेकिन निशान अब भी है तो वो हंसते हुए कहने लगे तीन टांके।

कितनी आसानी से उन्होंने तीन टांके की बात कहकर उस ज़ुल्म की दास्तां को ख़त्म करने की कोशिश की। हालचाल पूछने के बाद मैंने पूछा दो महीने होने को आए क्या होगा इस आंदोलन का? उन्होंने हाई पिच में अपना जवाब देना शुरू किया। फुल एनर्जी से भरे हुए संजोक सिंह जी कहते हैं मैं बस मोदी जी से कहना चाहता हूं ''आपने चाय बनाई होगी आप खेती के बारे में कुछ नहीं जानते। बस एक बार हमारे साथ आकर बैठें हम आपको बताना चाहते हैं कि खेती होती कैसी है?” उन्हें लगा कि वो खेती-किसानी के बारे में मोदी जी से रूबरू होकर बातों को अच्छी तरह से समझा सकते हैं, मुझसे बातचीत के दौरान सरकार के रवैए पर वो कभी नाराज़ हुए तो कभी उनका चेहरा तमतमाने लगा तो कभी वो उस ग़ुस्से को शांत करने के लिए हंसी का सहारा लेने लगते। बात ख़त्म हुई तो वो बिल्कुल शांत हो गए एकटक ज़मीन की तरफ़ देखने लगे, उसी ज़मीन को जिससे जुड़ाई लड़ाई की ख़ातिर वो इस सर्द मौसम में दिल्ली की दहलीज पर बैठे हैं लेकिन सुनने वाला कोई नहीं।

संजोक सिंह के साथ एक और शख़्स लोगों से मिल रहे थे और थे गुरजीत सिंह जो एक एनआरआई थे और उनकी इस आंदोलन में एंट्री ख़ासा चर्चा में थी। वो 20 दिसंबर को फतेहगढ़ से सिंघु बॉर्डर आए थे वो महज़ एक बनियान में अपनी बाइक पर दिल्ली पहुंचे थे उनके स्वैग को कई अख़बारों ने जगह दी थी।

बहुत ही मीठी बोली बोलने वाले गुरजीत सिंह बताते हैं कि उनके स्वैग उन्हें सिंघु बॉर्डर पर एक सेलेब्रिटी बना दिया। लेकिन जब उन्होंने सरकार की बेरुख़ी की बात शुरू की तो उनका गला रुंध गया और वो कहते हैं कि ''ये कैसी सरकार है इस आंदोलन में 90 साल के बुज़ुर्ग से लेकर नौ महीने के बच्चे पहुंचे हैं, इन लोगों का जज़्बा देखकर मोहब्बत, भाईचारा का संदेश देखकर किसी की भी आंखें नम हो जाए पर जाने ये सरकार किस मिट्टी की बनी है जो पिघलने को तैयार नहीं है''? 

गुरजीत सिंह की बातें सरकार के लिए मायने ना रखती हों, हो सकता है सरकार को इस बात से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि सड़कों पर बैठे किसान सरकार के बारे में क्या सोचते हैं लेकिन सरकार को नहीं भूलना चाहिए कि ये किसान उसी जनता का हिस्सा है जिसके बीच उसे भले ही अभी जाने कि दरकार नहीं लेकिन पांच साल पूरे होने पर हाजरी लगानी ही होगी।

(नाज़मा ख़ान स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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