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आम छात्रों को शिक्षा के अधिकार से और अधिक वंचित करने का नाम है फीस में बढ़ोत्तरी
यह कुछ और नहीं बल्कि चोर दरवाजे से सार्वजनिक शैक्षणिक संस्थानों के निजीकरण का प्रयास है, जिसमें विद्यार्थियों को अपनी शिक्षा का बोझ खुद उठाना पड़ेगा और आवश्यक धनराशि आवंटित न कर सरकार अपनी जिम्मेदारी से पल्ला छुड़ा रही है।
विक्रम सिंह
21 Nov 2019
fee hike student protest

हाल के दिनों में समूचे देश की शिक्षण संस्थाओं में फीस वृद्धि को लेकर चल रही बहस को अलग से नहीं देखना चाहिए, बल्कि इसे भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्रीय  सरकार की जारी शिक्षा नीति के रूप में ही देखना चाहिए।

मोदी 1.0 और वर्तमान में मोदी 2.0 के साढ़े पांच वर्षों के दौरान भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) से लेकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों और स्कूलों की फीस में बढ़ोत्तरी की खबरें अख़बारों में अटी पड़ी थीं।

हाल-फ़िलहाल यह फीस वृद्धि जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में हुई है, जिसने इस प्रश्न को व्यापक चर्चा में ला दिया है, लेकिन कई संस्थानों ने बढ़ी हुई फीस की दरों को पहले से ही लागू कर दिया गया है। पिछले दो सालों में आईआईटी की फीस में दो बार बढ़ोतरी की गई है।

हाल ही में आईआईटी की काउंसिल ने एमटेक के पाठ्यक्रम में 900% की शुल्क वृद्धि की है। जो शिक्षण शुल्क (ट्यूशन फीस) 20,000 रुपये से लेकर 50,000 रुपयों के बीच हुआ करती थी वह बढ़कर अब 2 लाख रुपये हो चुकी है।

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस(TISS) कैंपस के विद्यार्थी फ़ेलोशिप और फीस वृद्धि के सवाल पर अपना संघर्ष जारी रखे हुए हैं। पुडुचेरी यूनिवर्सिटी के छात्रों ने प्रशासन को इस अन्यायपूर्ण और अनुचित मात्रा में बढाई गई शुल्क वृद्धि को वापस लेने पर मजबूर कर दिया है।

शिमला में भी निजी स्कूलों में पढ़ रहे छात्रों के अभिभावक करीब हर साल ही फीस वृद्धि के खिलाफ आन्दोलन करते रहते हैं। और यह सूची जारी है।
 
बीजेपी सरकार अपनी पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों के ही नक्शेकदम पर उन्हीं नव-आर्थिक नीतियों को लागू करने में लगी हुई है। हालाँकि, अभी तक नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों नीतियों को लेकर जो शुरुआती उत्साह था, अब उसकी हवा निकल रही है।

25 वर्षों के नव-उदारवादी विकास की चाल ढाल ने हमारी शंकाओं की ही पुष्टि की है। राज्य द्वारा शिक्षा के पूरी तरह से व्यवसायीकरण करने और गैर-जिम्मेदार रुख ने हमारी शिक्षा नीति के स्वरूप को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है।

कई अन्य प्रभावों के साथ वर्तमान में, भारतीय शिक्षा नीति ने दो ठोस नतीजे सामने रखे हैं। पहला है शिक्षा का बेहद व्यवसायीकरण करना और दूसरा शिक्षा शुल्क के मामले में असाधारण वृद्धि लाना। यह शुल्क बढ़ोत्तरी सिर्फ निजी शैक्षणिक संस्थानों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों में भी देखा जा सकता है। इस विषय को समझने के लिए दोनों क्षेत्रों के उदाहरण नीचे दिए गए हैं।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि निजीकरण ने पहले से ही छात्रों के व्यापक हिस्से को गुणवत्ता वाली शिक्षा से दूर रखने का काम किया है। दूसरे शब्दों में, इसने अधिकतर शिक्षण संस्थाओं को साधन संपन्न वर्ग की पहुँच तक बनाये रखने तक सीमित कर दिया है।

निजीकरण का कोई भी कदम आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित हिस्से को शिक्षा से वंचित करने की और ले जाता है। भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में 68% और स्कूली छात्रों का 37% से अधिक हिस्सा आज निजी क्षेत्र के जिम्मे है।

निरंतर फीस में बढ़ोत्तरी के चलते अब निजी क्षेत्र में लोगों की पहुँच घटती जा रही है। सभी नियमों और कानूनों को धता बताकर निजी संस्थान अपने व्यावसायिक मॉडल के हिसाब से शुल्क बढ़ोत्तरी के लिए आजाद हैं।

उत्तराखंड में फीस वृद्धि के हालिया मामले में 13 निजी कॉलेजों के बैचलर ऑफ़ आयुर्वेदिक मेडिसिन एंड सर्जरी (बीएएमएस) का मामला इसका एक सटीक उदहारण है। यहाँ पर 3,500 से अधिक छात्र अन्यायपूर्ण फीस वृद्धि को वापस लिए जाने की माँग कर रहे हैं। पिछले कुछ महीनों से वे लोग भूख हड़ताल पर बैठे हैं।

उच्च न्यायलय के आदेश की खुली अवहेलना कर कॉलेजों में बढ़े हुए दर पर विद्यार्थियों से फीस वसूली जा रही है। 2015 में जहाँ सालाना फीस 80,000 रुपये थी उसे बढ़ाकर 2.15 लाख कर दिया गया, जिसपर उच्च न्यायालय की सिंगल बेंच ने रोक लगा दी थी।

इसमें कॉलेज प्रबंधनों को आदेश दिया गया था कि वे बढ़ी हुई फीस छात्रों को वापस करे। प्रबंधन ने इस आदेश को चुनौती दी और 9 अक्टूबर 2018 को उच्च न्यायालय की एक बेंच ने अपने फैसले में लिखा कि वे प्रबुद्ध सिंगल जज के विचारों से सहमति रखते हैं।

कॉलेज प्रबंधन न सिर्फ उच्च न्यायालय के आदेशों की खुली अवहेलना कर रहे हैं, बल्कि उन्होंने छात्रों को धमकी देने, डराने और शारीरिक हमले जैसे हथकण्डों से भी बाज नहीं आ रहे हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र के शिक्षण संस्थानों में फीस वृद्धि का कदम न सिर्फ आम छात्रों को और अधिक बहिष्कृत करने का काम कर रही है बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र से भी उन्हें दूर हटा रही है।

इस परिघटना को आप जेएनयू में हुई फीस वृद्धि से भली भांति समझ सकते हैं। जेएनयू शिक्षण संस्थान अपने समावेशी चरित्र के चलते मशहूर है। विद्यार्थियों को सस्ती शिक्षा व्यवस्था प्रदान करने के रूप में विख्यात होने के कारण यह देश के पिछड़े क्षेत्रों और हाशिये पर खड़े लोगों को इसने अपनी ओर आकृष्ट करती रही है। और इसी कारण से पीढ़ियों से इसने सामाजिक रूप से सचेत नागरिकों को निर्मित करने का काम किया है।

जेएनयू के किसी भी पाठ्यक्रम के किसी भी क्लासरूम में आप असली भारत की तस्वीर देख सकते हैं। जेएनयू का इतिहास वंचित परिवेश से आये छात्रों को सफलता की सीढ़ियों को पार करने वाली कहानियों से अटा पड़ा है, जो न्यूनतम फीस और हॉस्टल के खर्चे देने में असमर्थ थे।

हालिया फीस वृद्धि ऐसे तमाम विद्यार्थियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित करने का काम करेगी। वर्तमान में हॉस्टल के कमरे की फीस एकल विद्यार्थी के लिए 10 रुपये और दो लोगों के लिए 20 रुपये प्रतिमाह थी, जिसे 300 रुपये और 600 रुपये तक बढ़ाने का प्रस्ताव है। (जिसे अब आंशिक रूप से कम कर 150 और 300 रुपये कर दिया गया है।) इसी तरह भोजनालय (मेस) के लिए अरक्षित सिक्योरिटी फीस को 12,000 रुपये (जिसे अब वापस कर 5,500 रुपये कर दिया गया )है।

विवादास्पद ‘सेवा शुल्क’ करीब 1,700 रुपये प्रति माह कर दिया गया है। यदि मान कर चलें कि बिजली और पानी का शुल्क 500 रुपये प्रति माह होगा और मेस शुल्क 2,500 रुपये प्रति माह होगा तो एक जेएनयू के छात्र को एक डबल रूम के लिए हर साल हॉस्टल में रहने के लिए 62,500 रुपये वहन करने होंगे।

यह रकम किसी उच्च-मध्यम वर्ग से आने वाले छात्र के लिए बहुत बड़ी रकम नहीं होगी, लेकिन वंचित समाज से आने वाले छात्र के लिए यह बहुत भारी रकम है। जेएनयू की सालाना रिपोर्ट के अनुसार, करीब 40% छात्र जिन्होंने 2017 में प्रवेश लिया था, उनके परिवार की मासिक आय 12,000 रुपये से कम थी।

इन सभी छात्रों को अपनी पढाई को बीच में ही छोड़कर वापस जाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। फीस वृद्धि के अलावा, जेएनयू के नए हॉस्टल नियमों में हॉस्टल के बंटवारे में आरक्षण की व्यवस्था को खत्म कर दिया है। एक ऐसे कैंपस में जो महिला-समर्थक माहौल और लैंगिक समानता के लिए जाना जाता है, वहाँ पर ड्रेस कोड का भी प्रस्ताव है। फीस बढ़ोत्तरी का मुद्दा अधिकतर सार्वजनिक क्षेत्र के शिक्षण संस्थानों में एक जैसा है और वे छात्रों की शिक्षा पर बेहद ख़राब असर डाल रहे हैं।

बेतहाशा शुल्क वृद्धि का कदम और कुछ नहीं बल्कि सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों को चोर दरवाजे से निजीकरण करने की हरकत है। छात्रों को अपनी शिक्षा के खर्च का बोझ खुद उठाना पड़ रहा है और सरकार आवश्यक कोष के प्रबंधन के अपने कर्तव्य से हाथ पीछे खींच रही है।

काफी समय से अधिकतर संस्थानों के ग्रांट्स में बढ़ोत्तरी नहीं हुई है, और अगर हुई भी है तो वो नाममात्र की है, जो मुद्रास्फीति से लड़ने में नाकाफी है। पहले से ही पाठ्यक्रमों का एक बड़ा हिस्सा स्व-वित्तीय पाठ्यक्रम के नाम पर चलाया जा रहा है। बेतहाशा फीस वृद्धि ने परिसरों के भीतर स्थिति को और गंभीर बनाने का ही काम किया है।

अधिकतर मामलों में शुल्क बढ़ोत्तरी के खिलाफ जमकर संघर्ष जारी है। यहाँ तक कि इसका असर उन परिसरों में भी देखने को मिला है, जहाँ पर संगठित छात्र आंदोलनों की मौजूदगी नहीं है।

हालाँकि, हमारे समाज में फीस वृद्धि को लेकर आम सहमति की खतरनाक प्रवत्ति दिखाई दे रही है। छात्रों के शुल्क में यह बढ़ोत्तरी कोई सामान्य परिघटना नहीं है और इसे दूसरे अति आवश्यक वस्तुओं में होने वाली मूल्य वृद्धि से तुलना नहीं की जा सकती, जैसा कि फीस वृद्धि की वकालत करने वाले लोग अक्सर करते रहते हैं।

शिक्षा कोई वस्तु नहीं बल्कि एक सेवा है, एक ऐसी सेवा जिसकी कीमत को आर्थिक आधार पर नहीं आँका जा सकता है। यह एक पूरी तरह से स्थापित सत्य है कि किसी भी कल्याणकारी राज्य में शिक्षा की कीमत छात्रों से न तो वसूली जाती है और न ही उसे किसी भी कीमत पर वसूला जाना चाहिए।

बहस का दूसरा हिस्सा वह नैरेटिव है जिसे लेकर उच्च-मध्यवर्ग अपने टैक्स को लेकर बड़ी बड़ी डींगे हाँकता है। जेएनयू में फीस वृद्धि के बाद से मीडिया के एक हिस्से द्वारा और सोशल मीडिया के जरिये संगठित प्रचार किया जा रहे कि छात्रों को अपनी शिक्षा का भार खुद वहन करना चाहिए।

यह सिर्फ टैक्स के पैसों की बर्बादी है, जिसे आम नागरिकों से वसूला जाता है और जेएनयू जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षा के नाम पर सब्सिडी देकर इसे बर्बाद किया जा रहा है। यह तर्क पूरी तरह से पाखण्ड से भरा है, क्योंकि जब कॉरपोरेट्स को टैक्स में बड़ी राहत की घोषणा होती है और हर दूसरे दिन कर दाताओं के पैसे को भ्रष्टाचार और नॉन परफोर्मिंग एसेट्स (NPA) के रूप में बैंक घोटालों के जरिये एक के बाद एक कर लूटा जा रहा है, तब इनकी आवाज जरा भी सुनाई नहीं पड़ती।

हज़ारों करोड़ रुपये की मूर्तियों की स्थापना के लिए मध्य वर्ग से जयकारों की गूंज सुनाई पड़ती है, वहीं दूसरी ओर शिक्षा के नाम वे हाय तौबा मचाने का कोई मौका नहीं चूकते, जो यह दर्शाता है कि हमारे शासक वर्ग के लिए शिक्षा का क्या महत्त्व है।

समाज के प्रगतिशील और समान विचारधारा वाली शक्तियों को इस अभियान के भंडाफोड़ के लिए आगे आना चाहिए। बुनियादी प्रश्न यह है कि यदि विभिन्न किस्म के टैक्स के माध्यम से अर्जित आय को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी प्राथमिकताओं पर पर ही नहीं खर्च करना है तो इस टैक्स वसूली की आखिर जरूरत ही क्या है?

चीख चीखकर यह सन्देश देने की भी जरूरत है कि शिक्षा ऋण (एजुकेशन लोन) को सरकार के द्वारा शिक्षा पर खर्च के दायित्व का विकल्प घोषित नहीं किया जा सकता है। पहले से ही छात्र, इन शिक्षा पर आधारित बैंक ऋणों का शिकार बन रहे हैं और मौत को गले लगाने जैसे अतिरेकपूर्ण कदम उठाने के लिए उन्हें मजबूर होना पड़ रहा है।

किसी भी लोकतान्त्रिक देश में जनता इस आशा से अपनी सरकार को चुनती है कि वह ऐसी नीतियों का निर्माण करेगी जिससे उनकी जिन्दगी को खुशहाल बनाया जा सके। यह किसी भी चुनी हुई सरकार की जिम्मेदारी है कि वह स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था सुनिश्चित करे।

भारतीय संविधान में ऐसे प्रावधान हैं जो सरकार को बाध्य करते हैं कि वह समस्त नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के, चाहे वे किसी भी जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा को मानने वाले हों, के साथ एक समान व्यवहार करे। लेकिन आज हम भारत में जो देख रहे हैं वह सामान्य रूप से लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों और विशेष रूप से भारतीय संविधान के विपरीत है।

इसके अलावा सत्तारूढ़ सरकार अपने खुद के लम्बे चौड़े दावों को पूरा करने के मामले में असफल साबित हुई है। छात्र-विरोधी नीतियों को अपनाने से लेकर संवैधानिक रूप से लेकर गारंटीशुदा अधिकारों को रौंदने तक, भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने सत्ता में आने के बाद से शैक्षणिक संस्थानों को नष्ट करने की दिशा में पूरी तरह से काम किया है।

लेकिन ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं हो रहा है, बल्कि यह सभी पूंजीवादी देशों में एक वैश्विक प्रवत्ति के रूप में दिखाई पड़ रहा है। वैश्विक स्तर पर, विश्वविद्यालयों में छात्रों की संख्या में इजाफ़ा हुआ है। इसके बावजूद, सारी दुनिया में सरकारें शिक्षा पर अपने खर्च को कम करने और शैक्षिणक शुल्क में बढ़ोत्तरी करने पर तुली हुई हैं। छात्रों पर बढ़ते कर्ज और उच्च शिक्षा पर बढ़ते खर्चों के बोझ की क्षतिपूर्ति के लिए नौकरी के अवसरों में होने वाली कमी ने छात्रों को यह अहसास करा दिया है कि उनके लिए भविष्य उतना उज्ज्वल नहीं है जितने की उन्होंने कल्पना की थी।

इन सभी चीजों ने छात्रों को वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ गोलबंद करने में मदद की है और वे उच्च शिक्षा को मुफ्त किये जाने की माँग कर रहे हैं। जैसा कि चिली और दक्षिण अफ्रीका के उदाहरणों से देखा जा सकता है, जहाँ पर ट्यूशन फीस में घटोत्तरी की माँग को लेकर एकतरफा ध्यान ने राजनैतिक परिदृश्य को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया है।

भारत में भी, इन नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है। छात्रों का आन्दोलन जारी है लेकिन इसकी जिम्मेदारी सिर्फ छात्रों के कन्धों पर नहीं है। यह सारे समाज की जिम्मेदारी है कि वह शिक्षा पर होने वाले इस हमले के खिलाफ उठ खड़े हों।

हमें शासक वर्ग के लोकप्रिय नैरेटिव के खिलाफ जबर्दस्त प्रचार अभियान में उतरना होगा। समाज को न सिर्फ विभिन्न परिसरों में शुल्क वृद्धि के खिलाफ चल रहे आंदोलनों के समर्थन में अपनी एकजुटता जाहिर करनी चाहिए बल्कि इन आंदोलनों में सक्रिय रूप से अपनी भागीदारी भी सुनिश्चित करनी चाहिए।

(लेखक स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इण्डिया के पूर्व महासचिव रहे हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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