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भारत
राजनीति
क्या आख़िरकार मोदी सरकार को समझ आया कि शहरों में भयंकर  बेरोज़गारी है?
एक अनुमान के अनुसार शहरी क्षेत्रों में  क़रीब 2.8 करोड़ व्यक्ति बेरोज़गार हैं, लेकिन, इस स्थिति से निपटने के लिए कोई नौकरी गारंटी योजना शायद ही मदद कर पाए।
सुबोध वर्मा
04 Sep 2020
Translated by महेश कुमार
 बेरोज़गारी

पिछले कई महीनों से भारत के शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी बहुत अधिक बढ़ रही है। 2018 में बेरोजगारी का औसत 7 प्रतिशत था और 2019 में यह 8 प्रतिशत से अधिक बढ़ गया था, फिर हालिया लॉकडाउन के दौरान यह अविश्वसनीय रूप से 26 प्रतिशत तक बढ़ गया। जून में लगभग 12 प्रतिशत और जुलाई में 9.2 प्रतिशत तक गिरने के बाद, अगस्त 2020 में इसके लगभग 10 प्रतिशत पर ठहरने का अनुमान है। ये सभी आंकड़े सीएमआईई (CMIE) के सामयिक  सर्वेक्षणों से लिए गए हैं, जो इस तरह के उच्च आवृत्ति डेटा का एकमात्र स्रोत हैं। शहरी दरें ग्रामीण क्षेत्रों के मुक़ाबले लगातार अधिक रही हैं। [नीचे चार्ट देखें]

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हालाँकि, मोदी सरकार इस संकट पर भयभीत है और चुप है। सरकार के प्रचार तंत्र की सभी किस्म की चकाचौंध के माध्यम- जैसे “राष्ट्र को संबोधन’, यानि मन की बात, वेब पोर्टल और सोशल मीडिया सेनाएँ- यानि सभी संदर्भों या भाषणों से शहरी बेरोजगारी, विशेष रूप से शिक्षित युवाओं की दुर्दशा गायब थी। यह वह निर्वाचन क्षेत्र था जिसे मोदी और भाजपा ने गंभीरता से लिया था यानि युवाओं को रिझाना, उन्हें ग्लोबल सुपरपावर आदि के सपने दिखाए गए थे। इसमें कोई शक नहीं कि शहरी मध्य वर्ग आसानी से इसे निगल भी गया था।

फिर भी, जैसा कि चार्ट से पता चलता है, एक भयंकर संकट जारी है। हाल ही में, ऐसी रिपोर्टों की सुगबुगाहट हुई है कि सरकार लोकप्रिय ग्रामीण योजना (MGNREGS) की तर्ज पर एक शहरी रोजगार गारंटी योजना शुरू करने पर विचार कर रही है। आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के एक नौकरशाह को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि सरकार पिछले साल से इस पर विचार कर रही है। उन्होंने वास्तव में यह सुझाव दिया था कि इस पर 35,000 करोड़ रुपये खर्च किए जा सकते हैं, और इसकी शुरुवात छोटे शहरों से हो सकती है।

इस वर्ष की जनवरी-अप्रैल तिमाही के अनुसार, सीएमआई के मुताबिक शहरी श्रम बल (जो कि सभी रोज़गार में और बेरोजगार भी हैं) 14.5 करोड़ है, जिसमें से कुछ 11.7 करोड़ कार्यरत थे। यानि लगभग 2.8 करोड़ बाहर रह गए जो बेरोजगार है और ये वे लोग हैं जो सक्रिय रूप से रोजगार की तलाश में हैं जबकि अन्य 1.1 करोड़ ऐसे हैं जो बेरोजगार हैं, काम करने के इच्छुक थे लेकिन इतने निराश हो गए कि उन्होने सक्रिय रूप से काम की तलाश छोड़ दी है। सीएमआईई द्वारा बेरोजगारी की इस व्यापक श्रेणी को 'अधिक से अधिक या भयंकर बेरोजगारी' कहा जाता है और यह देश की वास्तविकता तस्वीर है।

तो मोदी सरकार शहरी इलाकों में इस 2.8 करोड़ बेरोजगारी के बारे में क्या सोच रही है। उनमें से लगभग 60 प्रतिशत 29 वर्ष से कम उम्र के हैं।

लॉकडाउन का असर 

जैसा कि हम अच्छी तरह से जानते हैं, इस साल 24 मार्च को मोदी द्वारा घोषित किए गए दुर्भावनापूर्ण लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था, विशेष रूप से औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों, जो बड़े पैमाने पर शहरी क्षेत्रों में स्थित हैं और रोजगार के बड़े स्रोत हैं, को अचानक बंद कर दिया था। इसी के चलते बड़े शहरों से लाखों मज़दूरों की गाँवों में वापसी हुई। ग्रामीण क्षेत्रों में 22 प्रतिशत की बेरोज़गारी की तुलना में मई में शहरों और कस्बों में बेरोजगारी बढ़कर लगभग 26 प्रतिशत हो गई थी। यह इस तथ्य के बावजूद है कि कई प्रवासी श्रमिक पहले ही अपने गांवों को रवाना हो गए थे- इसलिए उनकी गिनती शहरी केंद्रों में नहीं की जा सकी।

तब से, इस स्थिति में "सुधार" हुआ है कि अगस्त में बेरोजगारी की दर लगभग 10 प्रतिशत तक गिर गई है। लेकिन यह नया 'रोजगार' क्या है जिस पर शहरी क्षेत्रों में लोग काम कर रहे हैं?

अधिकांश उद्योग या तो बंद हो गए हैं या बहुत कम क्षमता पर काम कर रहे हैं। बाजार और कार्यालय भी बंद हैं या आंशिक रूप से खोले जा रहे हैं। इसलिए नौकरियां नहीं हैं। लॉकडाउन में खो गई सभी नौकरियों का वापस आना बाकी है। एमएसएमई (माइक्रो स्मॉल एंड मीडियम एंटरप्राइजेज) सेक्टर और यहां तक कि छोटे अनौपचारिक क्षेत्र में फैली पर्सनल सर्विसेज, पेटीएम रिटेल आदि नष्ट हो गए हैं। ऐसा अनुमान है कि इनमें से आधे से अधिक फिर से कभी काम नहीं कर पाएंगे।

इसलिए, इन दिनों लोग जो काम कर रहे हैं, वह काम बहुत कम मजदूरी या कमाई पर कर रहे हैं, बहुत कम कमाई के लिए कड़ी मेहनत की जा रही है।

प्रस्तावित शहरी योजना

अभी तक प्रस्तावित शहरी रोजगार योजना के बारे में कुछ नहीं पता है। यदि इसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGS) की तर्ज पर बनाया जा रहा है, तो इसका मतलब होगा कि ज्यादातर सिविल कार्य (निर्माण, मिट्टी का काम, आदि)। मनरेगा (MGNREGS) के मानकों के अनुसार, हर महीने लगभग एक सप्ताह का काम हर घर के लिए उपलब्ध होगा। इसके एवज़ में प्रति दिन की मजदूरी लगभग 200 रुपये हो सकती है। इसका मतलब है कि, प्रति माह लगभग 1,400 रुपए। क्या शहरी क्षेत्रों के शिक्षित युवा को इस हद गिराया जाएगा।

यह भी संभव है कि योग्य युवाओं को आकर्षित करने के लिए नए उत्पादन उद्यम की शुरुआत की जाए। एंटरप्राइज़ आधारित समाधानों को उसी संकट का सामना करना पड़ेगा जिनका सामना मौजूदा उद्यम कर रहे हैं- यानि मांग की कमी। तो इनके भी सफल होने की संभावना कम है।

यह सब, कुछ समय के बाद होगा- इस योजना की घोषणा अभी होनी बाकी है, फिर इसे जमीन पर लाने में कुछ महीने तो लगेंगे।

हालांकि कुछ आय अर्जित करने की सख्त जरूरत के मामले में इसे एक राहत माना जा सकता है, योजना का सार यह है कि यह शहरी आबादी के बीच उभरे असंतोष को दूर करने में सहायक हो सकती है। हालाँकि, इसकी संभावना नहीं है कि शहरी क्षेत्रों में मौजूदा 2.8 करोड़ बेरोजगारों को किसी भी तरह की वास्तविक राहत इससे मिलेगी। न ही भौतिक या आकांक्षात्मक दृष्टि से, इन बेरोजगारों की अपेक्षाओं को पूरा करने की संभावना है।

सरकार को जो करना चाहिए उसमें सभी परिवारों की आय को बढ़ाने का काम करना चाहिए था, जिसमें मुफ्त खाद्यान्न और अन्य आवश्यक चीजें वितरित करना शामिल है, और साथ ही औद्योगिक गतिविधि शुरू करने के लिए धन को प्रणाली में पंप करना था। हालांकि, मोदी सरकार इस रास्ते को अपनाने से इंकार कर देगी क्योंकि यह सरकारी खर्च बढ़ाने के खिलाफ और निजी क्षेत्र की भागीदारी के प्रति जुनून की हद तक उनके साथ है। शहरी नौकरी की गारंटी की इन योजनाओं में निजी क्षेत्र की कोई भी भागीदारी अन्य शहरों की योजनाओं जैसे कि स्मार्ट सिटी और शहरी आवास की तरह बुरी तरह से विफल हो जाएगी।

इस बीच, शहरी क्षेत्रों में अभी भी महामारी की भयंकर मार जारी है और ऐसे में गरीब लोगों को सिर्फ इसलिए संक्रमित होने का जोखिम उठाने के लिए मजबूर करना क्योंकि उन्हें ज़िंदा रहने के लिए कमाने की जरूरत है, उन क्रूर नीतियों का ही असर है जिन्हे देश में मोदी निज़ाम द्वारा अपनाया गया है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Finally, Modi Govt Wakes Up to Urban Joblessness – Or Does it?

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