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तबाही मचाने वाली नोटबंदी के पांच साल बाद भी परेशान है जनता
2016 की नोटबंदी के दुस्साहसिक क़दम और उससे लगे आघात ने आम जनता की आजीविका को नष्ट कर दिया था और भारतीय मुद्रा प्रणाली की अखंडता को नुकसान पहुंचाया था, पांच साल गुज़रने के बाद, इसका भूत आज भी भारतीयों को सता रहा है।
वी श्रीधर
09 Nov 2021
Translated by महेश कुमार
Demonetisation

आज, असहाय भारतीयों पर नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा थोपी गई नोटबंदी की अभूतपूर्व और खुद से तबाही मचाने वाली आपदा की पांचवीं वर्षगांठ है। मोदी ने 8 नवंबर, 2016 की आधी रात को तुगलकी फरमान के जरिए, जिसकी मिसाल वैश्विक वित्तीय इतिहास में अद्वितीय है,ने अर्थव्यवस्था को घुटनों पर ला दिया था और लाखों लोगों पर अंतहीन दुख लाद दिए थे। नोटबंदी की घोषणा के बाद महीनों तक, भारतीयों को बैंकों और एटीएम से खुद का पैसा निकालने के लिए लंबी कतारें लगानी पड़ी; कई लोग तो प्रयास कर-कर के इतने थक गए थे कि कतारों में लगे-लगे उनके प्राण ही उड़ गए थे। 

पांच साल बाद भी भारतीयों की चेतना में वह पीड़ादायक अनुभव देखने को मिलता है, यहां तक ​​कि आज मोदी सरकार के पास देश को इतनी बड़ी कसरत कराने के फैसले के पीछे कोई औचित्य पेश करने की हिम्मत नहीं है और न ही तर्क मौजूद है। 

500 और 1,000 रुपये के उच्च मूल्य वाले करेंसी नोटों की बंदी के परिणामस्वरूप बाज़ार से  86 प्रतिशत मुद्रा रातोंरात गायब हो गई थी। वास्तव में, नकदी रखने वाले इसका इस्तेमाल नहीं कर सकते थे। और, लाखों भारतीयों ने पाया कि वे अब बेकार के नोटों को नए नोटों से केवल इसलिए नहीं बदल सकते थे क्योंकि वे कहीं मिल ही नहीं रहे थे। इस बीच, जिस ट्रोइका ने इस दुस्साहसिक कदम को उठाया था – यानि प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के गवर्नर, जिनकी ज़िम्मेदारी राष्ट्रीय मुद्रा का प्रबंधन करना है - ने इस अभूतपूर्व दुस्साहसिक कदम को उठाने से पहले कोई व्यवस्था नहीं की थी।

स्रोत: आरबीआई वार्षिक रिपोर्ट (2020-21)

जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था चरमरा रही थी – जो दुनिया में कहीं भी किसी भी गैर-युद्धकालीन देश की अर्थव्यवस्था के मामले में बेजोड़ स्थिति थी – नाकामी की इस स्थिति में मोदी सरकार नोटबंदी के पीछे के लक्ष्यों को बार-बार बदलने में लगी थी। पहले उन्होने कहा कि इस कदम का उद्देश्य काला धन वापस लाना है, जो 2014 के चुनावों में सत्ता पर क़ाबिज़ होने के लिए मतदाताओं से किया गया एक महत्वपूर्ण वादा था। बाद में, जब देखा कि हर इंसान नकदी/नोट को बदलने के लिए संघर्ष कर रहा है, तो फिर कहा कि इस कदम का उद्देश्य देश में डिजिटल बदलाव को गति देना है, भले ही लोगों को नकदी के बजाय डिजिटल भुगतान का विकल्प चुनने के लिए मजबूर किया गया हो। जब यह भी फ्लॉप हो गया, क्योंकि नकदी अधिकांश भारतीयों की आजीविका को अंतर्निहित आधार प्रदान करती है, विशेष रूप से सामाजिक पैमाने के निचले स्तर के लोगों को, इसने फिर से अपना लक्ष्य बदल दिया। अंतत: मोदी सरकार ने कहा कि नोटबंदी का मक़सद नकदी की जगह अधिक औपचारिक भुगतान प्रणालियों द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण करना है। 

नोटबंदी के पांच साल बाद भी नकदी अभी भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, खासकर अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में जो अधिकांश भारतीयों की आजीविका को बनाती है।

इस नोटबंदी की व्यवस्था के बाद, ट्रोइका ने उन शर्तों की समीक्षा कर उन्हे संशोधित किया, कि जिन शर्तों पर लोग अपने खुद के बैंकों से पैसा निकाल सकते थे। दस दिनों में यह स्पष्ट हो गया था कि प्रशासनिक अभिजात वर्ग ने इससे उत्पन्न होने वाले परिणामों से निपटने की कोई योजना नहीं बनाई थी; आम भारतीय कैसे अपनी आजीविका कमाएंगे इस बात से वे पूरी तरह अनभिज्ञ, कठोर और असंवेदनशील थे। 

नोटबंदी की पूर्व संध्या पर - भारतीय मुद्रा व्यवस्था - दुनिया भर में अन्य सभी जगहों की तरह एक किस्म की संरचना थी जो इस तर्क पर आधारित थी कि इसे अर्थव्यवस्था में तरलता या नक़दी के प्रवाह को कायम रखने में सहायता करनी चाहिए। इस तरह के निज़ाम के तहत विभिन्न किस्म के नोटों को संरचित किया जाता है जो इसे सुविधाजनक बनाता है। 2016 में भारतीय मुद्रा प्रणाली की केंद्रीय धुरी स्पष्ट रूप से 500 रुपये का नोट था, जो प्रचलन में सभी नोटों के मूल्य का लगभग आधा था। इसका प्राथमिक कार्य न केवल तत्काल नकदी/तरलता प्रदान करना था बल्कि उन लोगों के लिए मूल्य के भंडार के रूप में भी कार्य करना था जिन्हें अल्प सूचना पर इसकी जरूरत होती थी। स्पष्ट रूप से, मोदी सरकार के अनुचरों का मानना था कि 500 रुपये का नोट गलत तरीके से अर्जित धन का आधार है, जो स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करता है कि वे भारतीय वास्तविकता से कितने दूर थे। उन्हें यह बताने वाला कौन था कि नोट, जो काफी आसानी से परिवर्तनीय था, अधिकांश भारतीयों को एक सुविधाजनक विकल्प प्रदान करता है?

1,000 रुपये के नोट ने थोड़ा अलग काम किया। यह अपेक्षाकृत उच्च मूल्य के लेन-देन के लिए विशेष रूप से छोटे और अनौपचारिक व्यवसायों के लिए नकदी प्रदान करने का काम करता था।  एक ऐसी अर्थव्यवस्था में जिसमें राष्ट्रीय आय का आधा हिस्सा अनौपचारिक गतिविधियों से पैदा होता है, अपेक्षाकृत उच्च मूल्य जरूरी रूप से उच्च आय में परिवर्तित नहीं होते हैं।

उदाहरण के लिए, एक गाँव या छोटे शहर में किसी छोटे उर्वरक व्यापारी के बारे में विचार करें जो एक दिन में लगभग 15 बोरी (50 किग्रा) उर्वरक बेचता है। जिससे वह लगभग 15,000 रुपये का दैनिक कारोबार कर सकता है। ऐसे व्यापारी को कारोबार से लाभ का छोटा सा अंश प्राप्त होता है। ऐसे लेनदेन के लिए 1,000 रुपये का नोट एक सुविधाजनक विकल्प था। जबकि, मंदबुद्धियों की समझ यह है कि अपेक्षाकृत उच्च मूल्य के मूल्यवर्ग में लेनदेन अनिवार्य रूप से अवैध गतिविधि को जन्म देते हैं और संदिग्ध होते हैं, जो भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति और उसमें मुद्रा की भूमिका की एक दयनीय समझ को प्रदर्शित करता है।

यदि 500 रुपये के नोट को नए नोट से बदलने का निर्णय मूर्खतापूर्ण था, तो 1,000 रुपये के नोट की जगह 2,000 रुपये के नए नोट को बदलने का कदम भी सकारात्मक रूप से गैर-जिम्मेदाराना था, जैसा कि बाद की घटनाओं से साबित हुआ है।

दुनिया भर में हर मुद्रा की एक श्रेणीबद्ध संरचना होती है जो आर्थिक प्रणाली में नकदी/तरलता के प्रवाह को सुगम बनाती है। पहले की व्यवस्था में, जिसे मोदी शासन ने रातोंरात उखाड़ दिया था, उच्चतम मुद्रा का मूल्य 500 रुपये के नोट से दोगुना था। इसे 2,000 रुपये के नोट से बदलने के निर्णय का मतलब था कि उच्चतम मूल्यवर्ग का मूल्य अब पदानुक्रम में पहले के मुक़ाबले अब मूल्य का चार गुना हो गया था। इसका मतलब यह था कि हालांकि मूल्य के भंडार के रूप में इसका उपयोग अधिक था, लेकिन इसकी नकदी/तरलता काफी कम हो गई थी। इसके अलावा, दो उच्चतम मूल्यवर्ग के मूल्यों के बीच बढ़ते अंतर के परिणामस्वरूप, 2,000 रुपये के नोटों का समर्थन करने के लिए 500 रुपये के नोटों की अधिक जरूरत पड़ेगी। यह वही वजह है जो लोगों की को नए गुलाबी नोटों को स्वीकार करने या उन्हे रखने में अत्यधिक अनिच्छा की व्याख्या करता है, जिसे आम बोलचाल में 2,000 रुपये के नोट का “खुल्ला” करने में समस्या माना जाता है।

इसके अलावा, भारत में कम आय के संदर्भ में, नया गुलाबी नोट वह नहीं था जिसे भारतीय चाहते थे। इस बात से बेपरवाह, और पूरी तरह से वित्तीय प्रणाली में मुद्रा के मूल्य को तेजी से वापस पंप करने के लिए जुनूनी, मोदी शासन ने नए 500-रुपये के नोट सहित अन्य मूल्यवर्ग के नोटों के उत्पादन की उपेक्षा करते हुए 2,000 रुपये के अधिक नोट छापे। इन सबसे ऊपर, ट्रोइका को यह बताने वाला कौन था कि 2,000 रुपये के नए नोट ने 1,000 रुपये के नोट को हटाने के घोषित उद्देश्य को हरा दिया था क्योंकि इससे कला धन का भंडराण और भी आसान हो गया था, जिसे शासन के दुस्साहस का कारण माना गया था? [डिमोनेटाईजेशन और काले धन पर एक उत्कृष्ट प्राइमर पढ़ें, नोटबंदी: डिमोनेटाईजेशन एंड इंडियाज़ इलुसिव चेज़ ऑफ ब्लेक मनी (जिसे टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोश्ल साइंस, मुंबई के प्रो. आर. रामकुमार ने संपादित और पेश किया गया है।) किसी भी मामले में, नोटबंदी के हफ्तों और महीनों के बाद भी, जब भारतीय मुद्रा को छापने की मांग और सप्लाइ में तालमेल रखने के लिए संघर्ष कर रही थी, तो 100 रुपये के मामूली नोट का सहारा लिया गया था; बैंक कर्मचारियों के वास्तविक साक्ष्य मौजूद हैं जिन्हौने बताया कि संकटग्रस्त बैंक (ज्यादातर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक) ने यहां तक ​​​​कि गंदे नोट भी चलाने के लिए अतत्पर हो गए थे।  

नोटबंदी के पांच साल बाद यह स्पष्ट हो गया है कि भारतीय मुद्रा व्यवस्था की संरचना नवंबर 2016 से पहले की स्थिति में वापस आ गई है। दो उच्चतम मूल्यवर्ग के नोट, मार्च 2021 में जो प्रचलन में हैं वे मुद्रा के मूल्य का 85.6 प्रतिशत है; नोटबंदी की पूर्व संध्या पर उनकी 86 प्रतिशत हिस्सेदारी थी।

नोटबंदी के तुरंत बाद, प्रशासन ने 2,000 रुपये के नोटों को खूब छापा, इस बात से बेपरवाह होकर कि यह प्रणाली में मुद्रा को असामान बना देगा। और फिर, नुकसान की भरपाई करने के लिए इसने इन नोटों की बड़ी मात्रा को वापस भी ले लिया। इस प्रकार, मार्च 2019 और मार्च 2021 के बीच, आरबीआई ने 1.68 लाख करोड़ रूपए मूल्य के 2,000 रुपये के नोटों को प्रचलन से बाहर कर दिया था। जो 2019 में प्रचलन में सभी मुद्रा के मूल्यवर्ग का 31.2 प्रतिशत था; 2021 तक यह गिरकर 17.3 फीसदी पर आ गया था। यह देखते हुए कि उच्च मूल्य के मुद्रा नोटों का जीवन छोटे मूल्यवर्ग के छोटे नोटों की तुलना में काफी अधिक है, इसने संसाधनों की पूरी बर्बादी का काम तो किया साथ ही पूरी आबादी को कष्ट पहुंचाने का भी काम किया है। 

नोटबंदी के स्थायी मिथकों में से एक यह धारणा थी कि अमीर और गरीब सभी भारतीयों को इसके दयनीय परिणामों का सामना करना पड़ेगा। सच्चाई से अधिक महत्वपूर्ण कुछ नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए, खरीफ फसल के तुरंत बाद नोटबंदी के कारण देश भर में किसानों को अपनी फसल को छूट या सस्ते में बेचने पर मजबूर होना पड़ा था; वास्तव में, देश के कई हिस्सों में, ऐसी खबरें थीं कि नई मुद्रा में भुगतान करने पर जोर देने वाले किसानों को या तो इंतजार करना पड़ा या अपनी फसल की बिक्री को एक महत्वपूर्ण छूट या सस्ते में बेचना पड़ा था। 

इसके अलावा, उदाहरण के लिए, कर्नाटक में व्यापारियों और यहां तक कि राजनेताओं ने भी किसानों से सस्ते में उपज खरीदी। इस बीच, छोटे और मध्यम उद्यमों, और सभी प्रकार की अनौपचारिक आर्थिक गतिविधियों के लिए नकदी के गायब होने से सभी व्यवसाय को काम बंद करना पड़ा। इस सबका परिणाम गरीबों से धन और संसाधनों का बड़े पैमाने पर धनवानों के हाथों में हस्तांतरण होना था। वास्तव में, नोटबंदी ने धन के संकेंद्रण को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया है जो सामान्य रूप से संभव नहीं होता। शायद यह साबित करता है कि इससे फायदा उठाने वाला छोटा सा तबका  इसे "मास्टरस्ट्रोक" क्यों मानता है।

पांच साल के इस घातक दौर के बाद, इस बात का कोई सबूत नहीं मिलता है जो मशीनरी काला धन तैयार करती है वह अब बिलकुल चुप हो गई है; डिजिटल भुगतान में बढ़ोतरी के बावजूद नकदी पहले की तरह प्रासंगिक बनी हुई है; और भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंसी हुई है। शायद, नोटबंदी, 2017 में माल और सेवा कर (जीएसटी) के जल्दबाजी में लागू करने और उसके विनाशकारी कार्यान्वयन और 2020 में महामारी की शुरुआत के बाद कठोर लॉकडाउन की निरंतरता में देखना सार्थक होगा - आपदाओं की एक ऐसी श्रृंखला जिसे मोदी सरकार ने निर्मित किया था, केवल इसलिए कि जनता की कीमत पर कुछ के हितों को सुरक्षित किया जा सके। 

लेखक  'फ़्रंटलाइन' के पूर्व एसोसिएट संपादक, हैं और उन्होंने द हिंदू ग्रुप के लिए तीन दशकों से अधिक समय तक काम किया है। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें। 

Five Years On The Disaster of Demonetisation Still Haunts Indians

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