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भारत
राजनीति
जो घुमंतू हैं वो दस्तावेज कहाँ से लाएंगे ?
सिकंदर बहुरुपिये का काम करते हैं।  सिकंदर के पास अपनी भारतीय पहचान का एकमात्र दस्तावेज उनको अपने पुरखों की हवेली है । अब उन्हें चिंता सता रहा है कि नागरिकता रजिस्टर ओर नागरिकता संशोधन कानून के अंतर्गत देश से बाहर निकलना पड़ेगा या रिफ्यूजी कैम्पों में रहना पड़ेगा क्योंकि उनके पास अपनी पहचान के अन्य कोई दस्तावेज नहीं हैं।
अश्वनी कबीर
20 Feb 2020
 घुमंतू समुदाय

पिछले 30 वर्ष से अहमदबाद में रह रहे बहुरूपिया सिकंदर अब्बास और उसका परिवार तनाव में जी रहा है। सिकंदर के परिवार में कुल 64 लोग हैं। सिकन्दर के पिता सौकत जाने-माने बहुरूपिया थे। सिकंदर और उसके भाइयों को ये फ़न उनके अब्बा से ही मिला है। सिकंदर के परिवार में उनके छह भाई और उनके बीबी- बच्चे हैं।

सिकंदर ओर उनके बड़े भाई इकबाल बहुरूपिया।राजस्थान के दौसा ज़िलें के सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगा रहे हैं। उनका कहना है कि उनके बुज़र्ग बसवा, बांदीकुई के रहने वाले थे। वे जयपुर राज घराने के शाही बहुरूपिये खानदान से सम्बन्धित थे।

वे बांदी- कुई में जर्जर हालत में खड़ी अपने पुरखों की हवेली के कागजात निकलवा रहे हैं। उनका कहना है कि उनके पुरखे जयपुर रियासत में शाही बहुरूपिये थे। राजा ने उनको रहने के लिये ये हवेली दी थी।

सिकंदर के पास अपनी पहचान का यही एक मात्र दस्तावेज है। अन्यथा उन्हें भी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर ओर नागरिकता संशोधन कानून के अंतर्गत देश से बाहर निकलना पड़ेगा या रिफ्यूजी कैम्पों में रहना पड़ेगा क्योंकि उनके पास अपनी पहचान के अन्य कोई दस्तावेज नहीं हैं।

उनको ये डर सत्ता रहा है कि न जाने किस दिन सरकार उन्हें इन कैम्पों में बंद कर दे। जैसे अंग्रेजों ने 1871 जन्मजात अपराधी कानून बनाकर किया ओर दूसरे विश्व युद्ध में हिटलर ने रोमा ओर यहूदी लोगों के साथ किया था।

सिकन्दर कह रहे हैं कि एक मुसीबत से पीछा छुड़ाते हैं तब तक दूसरी मुसीबत गले पड़ जाती है। पिछले दिनों राजस्थान के बांसवाड़ा ज़िलें में भांड जाति के 3 लोगों को, भीड़ ने बच्चा चोर समझकर पीट- पीटकर अधमरा कर दिया।

ऐसे ही मध्य- प्रेदेश के रीवा ज़िलें में 2 बहुरूपियों को चोर समझकर स्थानीय लोगों ने बुरी तरह से पीटा। महाराष्ट्र में तो नाथ पंथ के 5 खाना- बदोश लोगों को भीड़ ने बच्चा चोर समझकर पीट- पीटकर मार ही डाला। अब ये पहचान का नया खेल शुरू हो गया।
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पहचान का संकट

सरकारों के पास इन समाजों के बारें में कितनी समझ है, ये इस बात से पता चलता है कि राजस्थान में बहुरूपियों को पहले भांड बोला जाने लगा और अब उन भांडों, नट, भाट, राणा को उठाकर ढोली जाति के अंतर्गत रख दिया।

इकबाल कहते हैं कि पहले हमारा नाम समाप्त किया। अब भांडों के अस्तित्व पर भी संकट आ गया। आखिर हम क्या हैं बहुरूपिये, भांड या फिर ढोली? एक साथ इतने चरित्र जीने वाला व्यक्ति आज एक पहचान का मोहताज़ है। आज ये लोग कहीं बच्चा चोर का तमगा लेकर घूम रहे हैं तो कहीं पर इनका धर्म पूछा जा रहा है।

और भांड कौन हैं ?

आखिर ये बहरूपिया और भांड लोग कौन है? ये काम क्या करते थे? आज इनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति कैसी है ? इनको मुस्लिम और हिन्दू धर्म के चश्मे में क्यों देखा जाने लगा है ? ये लोग भविष्य की हमें कैसी सम्भावनाएं देते हैं?

भांड ओर बहरूपिये उन 1200 घुमन्तू समाजों से संबंधित हैं जो अपना सम्पूर्ण जीवन घुमते हुए बिता देते हैं। ये जातियाँ इतिहास की शुरुआत से ही यायावर रही हैं। इन दोनों जातियों के अलावा घुमन्तु जातियों में नक्काल और डूम भी इनसे मिलती- जुलती जातियां हैं किंतु इन चारों मे अंतर है।

इन चारों जातियाँ की समानता इनकी वाक्पटुता और अभिनय से सामने वाले व्यक्ति के मन को मोह लेने की क्षमता हैं। ये सभी लोग राज दरबार से सम्बंधित थे। जिन्हें राज- परिवार का संरक्षण प्राप्त था।

भांड गाल बजाने का काम किया करता था। डूम लोग चंग बजाकर राज परिवारों के लुभावने गुणगान करता था। नक्काल लोग मनोरंजन के लिये लोगों की नकल करते थे, किंतु इनका कोई मेकअप और गेटअप नहीं होता था। इसमें बहुरूपिया सबसे ख़ास था।

बहुरूपिया इकबाल बताते हैं कि राज दरबार मे एक दूती भी होती थी जिसका काम चुगली लगाना होता था। वो दरबार की ख़बर राजा को देती, वो ये बताती की दरबार मे राजा के पीठ पीछे किस तरहं की बातें हो रही है ? कोन षडयंत्र कर रहा है ? राजा के अलावा दरबार मे किसी को ये पता ही नही रहता था कि ये बहुरूपिया है।

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बहुरूपीये कला की खूबी

बहुरुपिये तो वे लोग हैं, जिन्हें मज़हब की दीवारों में नही बांटा जा सकता। जहां मुस्लिम बहुरूपिया शिव और पार्वती का किरदार निभाता है तो हिन्दू बहरूपिया फ़कीर और मुस्लिम साधु बनने में कोई गुरेज़ नहीं करता। इनका  मेकअप, गेटअप ओर संवाद इनको खास बनाता है।

ये भारत की सबसे प्राचीन विलक्षण विधा है, जहां संवाद के बोलने से लेकर श्रंगार और पहनावे का चयन खुद से करना पड़ता है। यहां कोई रीटेक का मौका नही है बल्कि एक टेक में आपको सब कुछ करना पड़ता है।

उसी एक टेक से उसकी बॉडी लैंग्वेज, उसका एक्सप्रेशन और उसका अभिनय तय होता है। इस अभिनय की एक ख़ास विशिष्टता विनम्रता और सहिष्णुता है। इसके बिना ये कला एक मिनट भी नही चल सकती। फंकार को हर तरह की प्रतिक्रिया के लिये तैयार रहना होता है।

बहुरूपीया कला की दुनिया की सबसे ईमानदार कला है। यहां कला ओर कलाकार के फन की सफलता उसकी ईमानदारी से तय होती है।

ऐतिहासिक परम्परा क्या थी

बहुरूपिया ही राज परिवार की खुफ़िया एजेंसी हुआ करता था। जिन्हें अय्यार बोला जाता था। ये लोग कभी साधु का भेष बनाकर तो कभी व्यापारी का रूप बनाकर अन्य राज्यों में जाते, वहाँ की खुफ़िया जानकारी लाते। उनकी सेना की स्थिति, उसमे कितने तीरंदाज हैं ? कितने भाला फेंकने वाले हैं ? उनका असला कितना है(गोला- बारूद) ? प्रजा का, राजा के प्रति रवैया और राज दरबार के विश्वासी व्यक्तियों की सूची।

ये सभी काम अपने जान को ज़ोखिम में रखकर किये जाते हैं, यदि पहचान लिये जाते तो आजीवन कारावास मिलता या फिर मौत। इतिहास में इनकी पहचान भी इसलिये छुपाई गई क्योंकि इनका काम ख़ुफ़िया होता था।

पहला पत्रकार, आर्टिस्ट ओर मेकअप मैन
 
वे बहुरूपिये ही थे, जो आवाम की आवाज को नाटक के जरिये राजा तक पहुँचाता। वहां पर व्याप्त भ्रष्टाचार की जानकारी देते। इस तरह से ये पत्रकार की भूमिका निभाता ओर सुशासन की दिशा में योगदान देता।

रानी का श्रृंगार करते, उसके श्रृंगार के लिये विभिन्न फूल- पतियों को पीसकर सामाग्री तैयार करते। राजा को वेष बदलवाकर बाहर प्रजा से बात करवाते। आज भी बहुरूपिये सिकंदर का परिवार अपनी परम्परा को बनाये हुए है, वे आज भी फूल - पत्तियों ओर शब्जियों से विभिन्न रंग तैयार करते हैं। जिनको वे अपने फ़न में उपयोग करते हैं।

सामासिक संस्कृति के पालक।

इकबाल बताते हैं कि आज जिस हिन्दू- मुस्लिम की बहस चल रही है। जिस रामायण और महाभारत का अभिनय आज करते हैं ओर इस अभिनय के आधार पर हम हिन्दू धर्म की व्याख्या करते हैं। इनके किरदारों को उनके चरित्र को उनके श्रंगार से लेकर, संवाद और पहनावे तक को गांव- गांव किसने पहुँचाया ?

सिनेमा को आये तो मुश्किल से 100 वर्ष बीते हैं जबकि गांवों में रामायण- महाभारत का अभिनय तो पीढ़ियों से चल रहा है। ये काम बहुरूपियों ने किया है। जबकि आज आप उसी हिन्दू संस्कृति की बात करके हमसे ही नागरिकता का पता पूछ रहे हैं ? हिन्दू देवी- देवता की वेशभूषा कैसी होगी ये तय कोन किया?

जिस सिनेमा की बात हम आज करते हैं उस मुम्बई सिनेमा में बी. आर. चोपड़ा और अन्य निदेशक अपने टीम में सबसे आगे बहुरूपियों को रखते थे। वे बहुरूपिये ही मेकअप करते, वेशभूषा का चयन करते थे। और आज हम उन्ही से नागरिकता के दस्तावेज मांग रहे हैं।

गुजरात दंगों के दौरान जब सारा मुल्क दो धड़ों में बंटा था। तो इन बहुरूपियों ने प्रेम और शांति का संदेश बांटा। मुस्लिम बहुरूपिये दंगों के दौरान हिन्दू देवी- देवताओं का रूप बनाकर हिन्दू बस्ती में प्रेम भाईचारे का संदेश दिया तो हिन्दू बहरूपिये ने जोगी बनकर मुस्लिम बस्तियों में अमन का संदेश बांटा।

बहुरूपिया तो गंगा- जमुना तहज़ीब का सबसे ऊंचे दर्जे का हिमायती रहा है। जहां धर्म के आधर पर विभाजन नहीं कर सकते। जो सभी धर्मों को साथ लेकर चलता है।

आज बेगाने हो गए

सिकंदर कहते हैं कि पहले गांवों में जाते थे तो हमारा बहुत सम्मान होता था। हम अपने पूरे परिवार के साथ गधों पर लादकर गांवों की यात्रा करते। सराय में ठहरते। गांव के बूढ़े- बड़े लोग हमारे पास घंटों बैठे रहते। गांव- समाज की बात करते। बूढ़ी महिलायें हमसे नाक में सूंघने की चूंटी मंगवाती थी।

हम सुबह 7 बजे मेकअप करने लग जाते। 9 बजे से पहले तैयार होकर अपने फ़न को दिखाने निकल पड़ते हैं। दोपहर 3/4 बजे कभी- कभी तो 6 बजे तक बिना कुछ खाये-पिये ऐसे ही अपना फ़न दिखाना पड़ता है।

हमें बिना कुछ खाये- पिये अपने सम्वाद, चेहरे के भाव और शरीर मे वो ही दम, ऊर्जा ओर ताजगी रखनी पड़ती है जो सुबह की सुरुवात में थी। यदि इसमे जरा सा भी हेर- फेर हुआ तो समझो कि आपका किरदार फैल हो गया।

हमारा सारा अभिनय एक ही टेक पर टिका है यहां रीटेक का कोई मौका नहीं है उसी एक टेक में हमारा अभिनय, पहनावा, मेकअप, संवाद सब तय होता है। हमारे श्रृंगार का सारा सामान हमारे घर की महिलायें तैयार करती। वे, गांव की महिलाओं को अलग - अलग रंग देती। ये सारा रंग हम फूल- पत्तियों से तैयार करते थे।

जजमानी व्यवस्था का टूटना

हमारे गांव बंटे होते थे। हम 15 दिन से ज्यादा एक गांव में नही रुकते। हर दिन अलग- अलग किरदार निभाते। कभी जादूगर, शैतान, जोकर, अलादीन, भील, भोपा-भोपी, लुहार- लुहारिन, पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, साधु, बिंजारी, थानेदार, भगवान शिव, नारद मुनि, बादशाह अकबर, ईमाम, हक़ीम, औलिया, मौलवी, शिरडी वाले बाबा, पीर- फ़क़ीर, किसान, बनिया, कालबेलिया, मुनीम, राम, रावण, हनुमान, सीता इत्यादि।

हम भले ही अनपढ़ हैं किंतु हमारे संवाद और किरदार हम खुद से तैयार करते हैं। हमारा अभिनय देखने को बनता है। हम बचपन से उन किरदारों को देखते हैं, सुनते है, उनको जीते है। हम लुहार का किरदार करने से पहले उनके साथ रहते उनका जीवन देखते, भोपा- भोपी को देखते उनके साथ रहते तब जाकर किरदार के संवाद याद करते फिर उसको दोहराते।

हमारे अभिनय का पैमाना है कि खुद असल किरदार भी हमारा अभिनय देखकर अपने दांतों तले अंगुली दबाये बिना नही रह सकता। सिकन्दर बताते हैं कि हमे महिला का किरदार करने में दोगुना खर्चा लगता लगता है। क्योंकि श्रृंगार पर खर्चा ज्यादा होता है।

दम तोड़ती बहुरूपी कला

आज ये कला केवल जोकर बनने तक सिमट कर रह गई है। क्योंकि किरदार के अभिनय पर होने वाला खर्च भी नही निकलता। ओर आज बहुरूपिये को सम्मान से नही देखा जाता। हमारे बच्चे इस विरासत को आगे नही बढ़ाना चाहते क्योंकि इस कला में जीवन ही नही बचा है। हमे दुत्कार मिलती है।

सिकंदर कहते हैं अब गांवों में सरायें नही बची। पहले वहां रुक जाते थे। अब कमरे का किराया 2 से 3 हज़ार है।  हर दिन किरदार पर होने वाला खर्च 300/ 400 रु है। परिवार के खाने का खर्च 100/ 200 रु। मतलब हमे रोजाना का 800 से 900 रु केवल अपना गुजारा करने हेतु।

किराये- भाड़े के 200 - 300 रु।  कुल मिलाकर 15 दिन के हो गये 11 से 12 हज़ार रु। जबकि हमे मिलेगा मुश्किल से 5 से 6 हज़ार तो हम क्या क़िरदार पर खर्च करेंगे और हम खायेंगे क्या ?

इसका परिणाम ये हुआ कि ये कला महज एक -दो किरदारों के इर्द -गिर्द सिमट कर रह गई। क्योंकि हर बार अलग मेकअप ओर गेटअप पर खर्चा कहाँ से करें? ऊपर से नये किरदार के लिए अलग से सम्वाद गढ़ने की दिक्कत। हमे केवल वो किरदार ही नहीं बल्कि उसका चरित्र भी जीना पड़ता है।

वैसे तो ये लोग पूरे हिंदुस्तान में फैले हैं किंतु राजस्थान राज्य को इस कला का केंद्र माना जाता है। क्योंकि यहां राजे- रजवाड़े हुआ करते थे। पूरे हिंदुस्तान में इनकी जनसंख्या 6 लाख के करीब मानी जाती है।

स्थिति बिगड़ने के कारण

इनकी स्थिति बिगड़ने के कई कारणों में एक बड़ा कारण राज- परिवारों की सत्ता समाप्त होना और उसके बाद सरकारों ने इन समाजों के लिए कोई ठोस काम  नहीं किया। ये लोग हाशिये का जीवन जी रहे हैं। जिनको न तो किसी सरकारी सुविधा का कोई लाभ मिलता है और न ही कला केंद्रों पर अपने फ़न को दिखाने का कोई अवसर।

सरकारें भले ही किसी भी दल की हों ये लोग न तो पहले कभी इनके बही- खाते का हिस्सा थे और न ही आज इनके बही- खाते का हिस्सा हैं। राजस्थान, मध्य-प्रदेश ओर उत्तर- प्रेदेश के बहुरूपिये भूखे मरने की स्थिति में पहुँच गये है।

राजस्थान के बांदी कुई के रहने वाले बहुरूपिये अकरम ने बताया कि सरकारों के एजेंडे हम लोग नही हैं। सरकारें जहां लाखों रूपये के मानदेय पर दिल्ली- मुम्बई से कलाकार बुलाये जाते हैं तो वहां चंद पैसे देकर इन लोक- कलाकारों पर बुलाने पर किसको आपत्ति है ?

बहुरूपिया अकरम बताते हैं कि कला केंद्र पर हमें हर साल 15 दिन का काम मिलता है। बाकी 350 दिन हम क्या करें ? चार- पांच साल में एक बार बहुरूपिया महोत्सव होता है। कला केंद्रों पर बिचोलिये हैं। मेलों में भी हमारे फ़न की कोई कद्र नहीं बची।

सरकार ने भीख मांगने को रोकने के लिए कानून बनाया है किंतु वो कानून सड़क पर मजमा लगाने वाले घुमन्तू समाज को भी भिखारी का दर्जा देता है। ये लोग भले ही अपने फ़न को दिखाकर पैसे मांगते हों किन्तु कानून में ये प्रावधान है कि रोड पर यदि मजमा लगाकर पैसा मांगेंगे तो ये भीख में शामिल होगा। हमारे साथ बन्दर वाले मदारी, भालू वाले कलन्दर, जादूगर, रस्सी वाले नट, साँप और बीन वाले कालबेलिया लोग भी भिखारी की सूची में आ गए।

सरकार ने स्किल इंडिया योजना चलाई। उसमे सैंकड़ों हुनरमंदों को स्थान दिया। किन्तु उसमे भी हमारे फ़न को स्थान नहीं दिया। हम परम्परा से जुड़े रहकर भी जमीन से बेगाने हो गए।

कला में संभावनाएं

जबकि इस कला में ढेरों सम्भावनायें हैं। इस कला के जरिये हम अंतर-धार्मिक संवाद कर सकते हैं। विभिन्न समाजों के मध्य सामाजिक सौहार्द को बनाने में इनकी भूमिका उपयोगी हो सकती है। इन जातियों का कभी भी एक धर्म नहीं  रहा है। इन समाजों के लोगों के जीवन के आधे रीति- रिवाज हिन्दू धर्म से चलते हैं तो आधे मुस्लिम से। चुनावों में बढ़ते जाति ओर धर्म के खेल को कमजोर करने में बहुरूपिये महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

क्या हो सकता है?

बहुरूपियों को सामाजिक सुधार के कार्यक्रमों से जोड़ सकते हैं। उन्हें सरकारी योजनाओं को गांव के कोने- कोने तक पहुँचाने में लगा सकते हैं। वे स्वास्थ्य के प्रिवेंटिव एप्रोच को चलाने वाले हो सकते हैं। उन्हें पर्यावरण प्रबन्धन के साथ जोड़ सकते हैं। इससे सरकारी योजनाओं का परिणाम भी सकारात्मक होगा और इससे हमारा ये सदियों पुराना फ़न, हमारी परम्परा भी बचेगी ओर बहुरूपीयों को रोजगार मिलेगा।

क्या खोयेंगे ?

यदि इन लोगों को धर्म के चश्मे से देखा जाने लगा तो हम उस गंगा- जमुना तहज़ीब के बनाने वाले उसे सहेजने वाले ओर उसे चलाने वाले लोगों को खो देंगे। उस विचार को भुला देंगे जो हमे एक धागे में पिरोता है। उन पुरखों को अपने से दूर कर देंगे जो हमें मांजते हैं।

CAA
NRC
NPR
Citizenship Amendment Act
Shikander Abbas
BJP
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