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4.5% जीडीपी वृद्धि दर भी संदिग्ध है, हालात इससे भी ज़्यादा ख़राब
आर्थिक संकट की इस स्थिति में भी जीडीपी वृद्धि दर बहुत गिरने के बाद भी 4.5% कैसे हो सकती है? क्या यह विश्वसनीय है? नहीं...पढ़िए आर्थिक विश्लेषक मुकेश असीम का ये विश्लेषण
मुकेश असीम
30 Nov 2019
GDP

29 नवंबर को राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन (NSO) ने वित्तीय वर्ष 2019-20 की दूसरी तिमाही अर्थात जुलाई-सितंबर के लिए सकल घरेलू उत्पाद अर्थात जीडीपी के आँकड़े जारी किये तो आधिकारिक वृद्धि दर 4.5% घोषित की गई। यह वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर है अर्थात पिछले साल के मूल्यों के आधार पर। जीडीपी गणना पहले वर्तमान मूल्यों पर की जाती है जिसे आंकिक जीडीपी वृद्धि दर कहा जाता है। यह इस बार 6.1% रही है। फिर इसे पिछले वर्ष से अर्थपूर्ण तुलना के लिए इसमें से मुद्रास्फीति की दर घटाकर वास्तविक वृद्धि दर निकाली जाती है, अर्थात 1.6% थोक मूल्य सूचकांक दर को घटाकर 4.5% वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर प्राप्त हुई।

किंतु इसके पहले या साथ जो अन्य आँकड़े सामने आए हैं वे बताते हैं कि यह वृद्धि दर भी विश्वसनीय नहीं है। वर्ष के पहले 7 महीने में ही वित्तीय घाटा पूरे साल के लक्ष्य से भी 2% अधिक हो चुका है जबकि 5 महीने अभी बाकी हैं। कर वसूली लक्ष्य से लगभग 2 लाख करोड़ रुपये पीछे है। बिजली, कोयला, सीमेंट, इस्पात, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, तेल शोधन जैसे 8 मूल उद्योगों के उत्पादन में सितंबर में 5.1% कमी के बाद अक्टूबर में भी 5.8% की गिरावट है। सिर्फ रासायनिक खाद ही एक क्षेत्र है जहाँ उत्पादन नहीं गिरा है, संभवतः अगले बुआई मौसम की माँग को दृष्टि में रखते हुये।

बिजली की खपत में भारी गिरावट भी पूरी अर्थव्यवस्था की गति मंद पड़ने की गवाही दे रही है। रेल व वायु दोनों के जरिये माल ढुलाई घटी है, यहाँ तक कि यात्रियों की संख्या भी नहीं बढ़ रही है। निर्माण क्षेत्र में भारी गिरावट है क्योंकि 8 लाख से अधिक निर्मित घर बिना बिके पड़े हैं। कारों सहित सभी वाहनों एवं ट्रैक्टरों की बिक्री पिछले एक वर्ष से लगातार गिर रही है। खुद सरकारी सर्वेक्षण बता रहे हैं कि कम होती आय के कारण आम लोग भोजन – दाल, नमक, चीनी, चाय, जैसी जरूरी चीजों के उपभोग में भी कटौती करने पर मजबूर हो रहे हैं।

दूसरी ओर सेवा क्षेत्र को देखें तो उसके सबसे महत्वपूर्ण अंश वित्तीय क्षेत्र में बैंकों के बाद अब गैर बैंक वित्तीय कंपनियों में संकट फैलता ही जा रहा है और कई बड़ी कंपनियाँ दिवालिया हो चुकी हैं। फिर जहाँ आम लोग जरूरी उपभोग की वस्तुओं की ख़रीदारी में कटौती कर रहे हों वहाँ यह मान लेना तार्किक नहीं होगा कि यात्रा, होटल, पर्यटन, रेस्टोरैंट में भोजन, मनोरंजन, जैसी अन्य महत्वपूर्ण सेवाओं की माँग पुरानी दर पर ही बढ़ रही होगी। बल्कि हाल के दिनों में तो स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के हवाले से ऐसी भी खबरें आईं हैं कि लोग जीवन का प्रश्न न हो तो अहम स्वास्थ्य संबंधी कार्यों जैसे सर्जरी आदि तक को भी स्थगित कर रहे हैं।

उसकी वजह भी स्पष्ट है– रोजगार सृजन के बजाय रोजगारों का विनाश और परिणामस्वरूप मजदूरी दर में गिरावट और आय में कमी। कई डेटाबेस बता रहे हैं कि बेरोजगारी की दर 8.5% के ऐतिहासिक उच्च स्तर पर है, खास तौर पर नौजवान पीढ़ी अर्थात 15-29 साल के आयु वर्ग में तो यह लगभग 30% पहुँच चुकी है। किन्तु यह आँकड़ा भी आंशिक सच को ही जाहिर करता है क्योंकि बेरोजगारी दर की गणना सिर्फ उनमें से की जाती है जो श्रम बल का अंग हैं अर्थात या तो रोजगाररत हैं या सक्रिय रूप से रोजगार ढूँढ रहे हैं। किन्तु बेरोजगारी की बढ़ती समस्या के कारण जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा विशेषतया स्त्रियाँ एवं शिक्षित युवा श्रम बल से ही बाहर हो गए हैं।

श्रम बल में जनसंख्या के काम करने लायक आयु वर्ग अर्थात 15-60 वर्ष तक में से असल में रोजगाररत या सक्रिय रूप से काम ढूँढने वालों को गिना जाता है। 2015-16 तक काम करने लायक आयु वर्ग में से 47-48% संख्या श्रम बल का हिस्सा थी किन्तु ताजा आँकड़ों के मुताबिक यह 42% ही रह गया है। अनुमानतः हम कह सकते हैं कि रोजगार ढूँढ पाने में असफलता की हताशा से कई करोड़ की तादाद में काम करने लायक नागरिक श्रम बल से ही बाहर हो गए हैं जो अर्थव्यवस्था में अतीव गहरे संकट की ओर इशारा करता है क्योंकि आम तौर पर दुनिया भर में यह आँकड़ा औसतन 55-65% के बीच है जबकि चीन में तो हाल के वर्षों में आई गिरावट के बावजूद भी यह लगभग 75-80% है। यह आँकड़ा ही भारत में बेरोजगारी की असली भयावहता को दर्शाता है। इसी की वजह से जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा किसी भी हालत में जिंदा रहने के लिए निम्न से निम्न मजदूरी पर बिना किसी सुरक्षा के खतरनाक से खतरनाक तक काम करने के लिए तैयार होता है और मजदूरी दर गिर जाती है जिससे गरीबी के चंगुल से निकलना और भी नामुमकिन होता जाता है।

तब सवाल उठता है कि आर्थिक संकट की इस स्थिति में भी जीडीपी वृद्धि दर बहुत गिरने के बाद भी 4.5% कैसे हो सकती है? क्या यह विश्वसनीय है? जीडीपी की गणना विधियों की चर्चा तो अपने आप में एक विस्तृत विषय है जो इस लेख में नहीं किया जा सकता, किन्तु खुद सरकार द्वारा इस वर्ष के बजट अनुमानों और अब तक ज्ञात वास्तविक आँकड़ों के आधार पर हम इस पर कुछ संकेत अवश्य प्राप्त कर सकते हैं।

वित्त मंत्री द्वारा फरवरी में प्रस्तुत बजट प्रस्ताव के अनुसार इस वित्तीय वर्ष में कर वसूली लगभग 19% बढ़ने का अनुमान था। इसका आधार था वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर में 7-8% तथा आंकिक जीडीपी वृद्धि दर में अनुमानित 12% वृद्धि। सरकार का मानना है कि नोटबंदी व जीएसटी के बाद अर्थव्यवस्था में औपचारिकीकरण बढ़ा है तथा काले धन व भ्रष्टाचार पर सख्त कार्रवाई के कारण लोग कर क़ानूनों का पालन भी अधिक कर रहे हैं। अतः कर उछाल दर बढ़ी है। इस आधार पर 12% आंकिक जीडीपी वृद्धि दर पर कर संग्रह में 19% वृद्धि का अनुमान लगाया गया था। लेकिन वास्तविक आँकड़े बता रहे हैं कि अभी तक कर संग्रह मुश्किल से 4-5% ही बढ़ा है।

अगर हम कॉर्पोरेट कर में दी गई छूट से हुई कमी को भी हिसाब में लें तब भी बजट अनुमानों के मुक़ाबले कर संग्रह में मुश्किल से 5-6% ही वृद्धि हुई है। किन्तु अगर 12% आंकिक जीडीपी वृद्धि से कर संग्रह 19% बढ़ने वाला था और कर संग्रह मुश्किल से 5-6% ही बढ़ा है तो राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन द्वारा घोषित दूसरी तिमाही की आंकिक जीडीपी वृद्धि दर अर्थात 6.1% कतई विश्वसनीय नहीं रह जाती, बल्कि यह मुश्किल से ही 4% से भी कुछ कम ही होनी चाहिये। इसमें से अगर हम खुद सांख्यिकी संगठन द्वारा घटाई गई महंगाई दर अर्थात 1.6% को घटा दें तो यह दर लगभग 2% से कुछ ही ऊपर रह जायेगी।

यह गणना भी हमने मात्र सरकारी आँकड़ों और सार्वजनिक जानकारी के आधार पर की है। अगर हम जीडीपी गणना पद्धति पर कई साल से उठ रहे सवालों को भी साथ में जोड़ें तो 2% का यह अनुमान भी अतिशयोक्ति जैसा ही सिद्ध होगा। वास्तविक सामाजिक जीवन में भी आम लोग जिस किस्म की आर्थिक तंगी महसूस कर रहे हैं, वह भी इस अनुमान की ही पुष्टि करता है कि वास्तव में भारतीय अर्थव्यवस्था या कहें सकल राष्ट्रीय आय में अगर कमी भी न कहें तो कोई वृद्धि तो नहीं ही हो रही है। इस आय में भी वितरण का प्रश्न अर्थात इसका कितना हिस्सा किसको मिलता है और किसके हिस्से में कमी या वृद्धि हो रही है, एक अलग प्रश्न है जो इस बात को स्पष्ट करता है आम जनता की आर्थिक स्थिति में संकट की वास्तविक प्रवृत्ति क्या है।      

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

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