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भारत
राजनीति
‘दिशा-निर्देश 2022’: पत्रकारों की स्वतंत्र आवाज़ को दबाने का नया हथियार!
दरअसल जो शर्तें पीआईबी मान्यता के लिए जोड़ी गई हैं वे भारतीय मीडिया पर दूरगामी असर डालने वाली हैं। यह सिर्फ किसी पत्रकार की मान्यता स्थगित और रद्द होने तक ही सीमित नहीं रहने वाला, यह मीडिया में हर उस आवाज़ को जिसे सरकार अपने लिए असहज मानती है उसे ख़ामोश करने का हथियार है।
कृष्ण सिंह
16 Feb 2022
press freedom

वर्तमान दौर में भारत में प्रेस की स्वतंत्रता का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। सरकार से सवाल पूछने का अर्थ अब यह माना जाने लगा है कि ऐसा करके आप देशहित में काम नहीं कर रहे हैं। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा, खासकर न्यूज चैनलों का बड़ा हिस्सा, वर्तमान सत्ता के लिए प्रोपगेंडा मशीन की तरह काम कर रहा है। वर्तमान सत्ता भारतीय मीडिया को एक आज्ञापालक मीडिया में तब्दील करने की कोशिश में जुटी है और जो आज्ञापालक बनने को तैयार नहीं हैं उन्हें भयभीत करने के कई तरीके अपनाए जा रहे हैं।

पत्रकारों को प्रेस इनफॉर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) की मान्यता के लिए सरकार की ओर से जो नए दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं उनको लेकर पत्रकारों और पत्रकार संगठनों ने गहरी चिंता व्यक्त की है। पत्रकार संगठनों का कहना है कि ये दिशा-निर्देश संविधान विरोधी और प्रेस की आजादी के खिलाफ हैं। इन दिशा-निर्देशों के कई प्रावधानों को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं, लेकिन इसमें एक प्रावधान ऐसा है जिसे मीडिया की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार के रूप में देखा जा रहा है। ऐसा नियम पहली बार लाया गया है, जिसके अनुसार- किसी समाचार से किसी की मानहानि होती है अथवा अदालत की अवमानना होती है या राष्ट्रीय एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए नुकसानदेह होता है तथा पड़ोसी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों पर असर पड़ता है, तो ऐसे पत्रकारों की मान्यता स्थगित या रद्द की जा सकती है। साथ ही यह भी कहा गया है कि अगर कोई खबर या रिपोर्ट उकसाती है या उससे कानून-व्यवस्था प्रभावित होती है, तो अमुक पत्रकार की मान्यता स्थगित या रद्द की जा सकती है। गौर करने की बात यह है कि इसमें शालीनता और नैतिकता का प्रश्न भी जोड़ा गया है।

इसे पढ़ें: ‘केंद्रीय मीडिया प्रत्यायन दिशा-निर्देश-2022’ : स्वतंत्र मीडिया पर लगाम की एक और कोशिश?

प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के अध्यक्ष उमाकांत लखेड़ा का कहना है “यह पत्रकारों को डराने और उनमें भय पैदा करने के लिए है। कोई लेख या रिपोर्ट संप्रभुता के खिलाफ है या नहीं है, यह सरकारी बाबू तय नहीं कर सकते। यह न्यायपालिका तय करेगी।” जाहिर है कि यदि कोई आर्टिकल या रिपोर्ट संप्रभुता के खिलाफ लगती है तो उसकी जांच संवैधानिक व्यवस्था के तहत होगी। उमाकांत लखेड़ा कहते हैं, “अगर कोई सरकार के काम-काज की आलोचना करेगा तो आप कहेंगे कि यह देश की संप्रभुता के खिलाफ है। इसकी आप कैसे व्याख्या करते हैं यह अधिकार तो आपको नहीं है। यह तो कोई स्वायत्त संस्था ही तय करेगी कि यह संप्रभुता के खिलाफ है या नहीं।” वह कहते हैं, “इन नए दिशा-निर्देशों से प्रेस की आजादी बुरी तरह से प्रभावित होगी। इस तरह की चेष्टा पत्रकारों की काम करने की आजादी छीने जाने की शुरुआत है। इस नई व्यवस्था में सरकार की आलोचना में लिखना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता की तलवार लटकाई जाती रहेगी। पत्रकारों की मान्यता रद्द करने का भय खड़ा करके यह मीडिया और पत्रकारों की आजादी को नियंत्रित करने का रोडमैप है।”

पांच दशकों से ज्यादा समय से भारतीय राजनीति को कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी कहते हैं, “अगर मीडिया सरकार का ही समर्थन करेगा तो स्वतंत्रता कहां रह जाएगी। जनता की आवाज कहां रह जाएगी। यह पहली बार हो रहा है कि कई शर्तों के साथ पत्रकारों पर लगाम लगाने की कोशिश की जा रही है।” वह कहते हैं, “इस दौर में मीडिया के प्रति मोदी सरकार का रवैया लोकतंत्र विरोधी है। इसकी शुरुआत संसद को कवर करने वाले पत्रकारों पर लगाए गए विभिन्न प्रकार के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रतिबंधों से होती है जो मोदी सरकार के मीडिया विरोधी रवैये को स्पष्ट करते हैं। यह पहली बार हुआ है कि जब संसद को कवर करने वाले पत्रकारों पर तरह-तरह की पाबंदियां लगाई गईं। इतना ही नहीं सेंट्रल हॉल में जाने की जो अनुमति उन्हें प्राप्त थी, वह लगभग समाप्त कर दी गई। यहां तक कि लॉटरी से पत्रकारों को बारी-बारी से संसद में जाने की अनुमति दी जाने लगी और इसके लिए कोविड का बहाना बनाया गया। जबकि ऐसा नहीं है, इसके पीछे असली मंशा पत्रकारों को नियंत्रित और अनुकूलित करने की है। और यह कहानी यहीं नहीं रुकती है, बल्कि प्रेस इनफॉर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) से मान्यता प्राप्त पत्रकारों की मान्यता के नवीनीकरण के नए नियमों पर आती है।”

मान्यता के लिए नए दिशा-निर्देशों पर प्रकाश डालते हुए रामशरण जोशी कहते हैं, “नवीनीकरण का सिलसिला प्रायः नवंबर में शुरू हो जाता है, लेकिन जनवरी तक शुरू नहीं किया गया। इसके पीछे कई बहाने बनाए गए। अंततः फरवरी के दूसरे सप्ताह में नवीनीकरण की अनुमति दी गई, लेकिन इसके साथ ही कई शर्तें लगा दी गईं यानी यह पहली बार हुआ है कि जब पत्रकार के लिए मान्यता के साथ नैतिकता का सवाल जोड़ा गया है, राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल जोड़ा गया है।”

वह कहते हैं कि मुझे याद है कि 1975 में भी किसी भी पत्रकार को नैतिकता या राष्ट्र विरोधी गतिविधि से नहीं जोड़ा गया था। वह कहते हैं कि संघ परिवार और भाजपा परिवार को स्वतंत्र मीडिया नहीं चाहिए, बल्कि ऐसा मीडिया चाहिए जो अपने मन, कर्म और वचन से गोदी मीडिया बने।

जाहिर है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब कोई सत्ता मीडिया और असहमति की आवाजों को दबाएगी तो इसका साफ अर्थ है वह लोकतंत्र को समाप्त करने की ओर बढ़ रही है। इस तरह के कदमों को लोकतंत्र विरोधी ही कहा जाएगा। इन नए दिशा-निर्देशों में एक मुद्दा अवमानना का है। अगर किसी पत्रकार के खिलाफ अवमानना का मामला दायर होता है तो उसको देखने का काम न्यायालय का है। उसने अवमानना की है या नहीं, इसको निर्धारित करने का काम तो अदालत का है। यहां सवाल उठता है कि क्या सरकार अदालत है। आप कैसे निर्धारित करेंगे कि अमुक पत्रकार ने अवमानना की है? मानहानि के मामले में पत्रकार के पर भी आईपीसी का वही नियम लागू होता है, जो आम नागरिक के मामले में लागू होता है। इसके अलावा यह समझना भी जरूरी है कि मीडिया की जो स्वतंत्रता है वह उसे किसी सरकार से नहीं मिली है बल्कि यह आजादी उसे संविधान से मिली है। मीडिया की यह स्वतंत्रता भारतीय संविधान के आर्टिकल 19 (1) ए की कोख से जन्मी है।

इन नए दिशा-निर्देशों के एक अन्य पहलू पर प्रकाश डालते हुए उमाकांत लखेड़ा कहते हैं, “जो भी दिशा-निर्देश बनाए जाते हैं तो उसमें यह होता है कि वह फलां-फलां वर्ष, महीने या तारीख से लागू होंगे। उसमें आगे की तारीख होती है। अगर आपने फ्रीलांस पत्रकारों के संबंध में गाइडलाइन्स में कोई संशोधन किया है तो उसमें आगे की तारीख होनी चाहिए। बैकडेट में गाइडलाइन कैसे लागू कर सकते हैं। बैकडेट में कौन-सी गाइडलाइन्स लागू होती हैं। बैकडेट में कोई गाइडलाइन्स तैयार नहीं होतीं। यह असंवैधानिक है।”

पीआईबी मान्यता के दिशा-निर्देशों के आलोक में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के परिसर में पत्रकार संगठनों की जो बैठक हुई थी उसमें भी साफ कहा गया कि ये दिशा-निर्देश एकतरफा और अन्यायपूर्ण हैं। इतना ही नहीं ये नए दिशा-निर्देश प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा निर्धारित की गई गाइडलाइन्स का खुला उल्लंघन है। इस संबंध में कई पत्रकार संगठनों ने केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री को संयुक्त रूप से एक पत्र लिखा है और इन दिशा-निर्देशों को वापस लेने की मांग की है। पत्रकार संगठनों का कहना है कि जो पहले के नियम थे उसमें संशोधन करने से पहले उनको भरोसे में नहीं लिया गया है। उनका कहना है कि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और पत्रकार संगठनों के साथ मिलकर नए दिशा-निर्देश बनाए जाएं।

जैसा कि अंग्रेजी दैनिक ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने इन नए दिशा-निर्देशों के संबंध में अपने संपादकीय में उचित ही टिप्पणी की है। अखबार लिखता है, “बहुत सारे मायनों में यह स्वतंत्र प्रेस के अधिकारों का अतिक्रमण है। सबसे पहले तो आधिकारिक मान्यता देना (अक्रेडटैशन) कोई सरकार के द्वारा किया गया अहसान नहीं है, वह (सरकार) लोकतांत्रिक नियमों के चलते इस बात के लिए बाध्य है कि वह पत्रकारों को अपना काम करने के लिए एक्सेस (पहुंच) उपलब्ध कराए। दूसरा, नैतिकता और शालीनता की परिभाषा क्या है और इसे कौन परिभाषित करेगा?”

दरअसल, अवमानना, देश की एकता, अखंडता एवं संप्रभुता, नैतिकता, शालीनता, कानून-व्यवस्था, आदि की जो शर्तें मान्यता के लिए जोड़ी गई हैं वे भारतीय मीडिया पर दूरगामी असर डालने वाली हैं। यह सिर्फ किसी पत्रकार की मान्यता स्थगित और रद्द होने तक ही सीमित नहीं रहने वाला, यह मीडिया में हर उस आवाज को जिसे सरकार अपने लिए असहज मानती है उसे खामोश करने का हथियार है। इसकी आड़ में निर्भीक पत्रकारों की अपने कार्य के लिए सरकारी विभागों और संसद तक पहुंच को समाप्त कर दिया जाएगा। असहमति की आवाजों के संदर्भ में वर्तमान सत्ता का अब तक जो रवैया रहा है उसके परिप्रेक्ष्य में देखें तो सरकार अपने हिसाब से इन शर्तों की व्याख्या करेगी और जिसे इसके घेरे में लिया जाएगा उस पत्रकार की केवल मान्यता ही स्थगित या रद्द ही नहीं होगी, बल्कि जिस संस्थान वह काम करता है या करती है उसके पास अप्रत्यक्ष रूप से यह संकेत जाएगा कि अमुक पत्रकार राष्ट्रहित के खिलाफ है। फिर ट्रोल सेना भी अपना काम करेगी। यहां यह भी गौर करने की बात है कि वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत का स्थान 142वां है।

यह सही है कि मीडिया पर लगाम लगाने के प्रयास पूर्व में भी हुए हैं। लेकिन जो अब हो रहा है वह कई मायनों में पहले से एकदम भिन्न है। इस दौर में मीडिया को नियंत्रित करने और पत्रकारों के अपने हिसाब से अनुकूलित करने के प्रयास राष्ट्रवाद की चाशनी में लिपटकर आ रहे हैं। वर्तमान में राष्ट्रवाद और देशभक्ति का अर्थ हो गया है - संघ परिवार और भाजपा के हर कार्य में हां में हां मिलाना। ऐसा लग रहा है कि जैसे-जैसे 2024 नजदीक आएगा, वैसे-वैसे मीडिया पर लगाम कसने के लिए नए-नए नियम और दिशा-निर्देश भी आएंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)  

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