2014 में भारत की सत्ता सम्भालने के बाद मोदी केवल भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में एक ताकतवर नेता के रूप में उभरे थे। उनकी अन्तर्राष्ट्रीय प्रोफाइल को भी बढ़ावा या बूस्ट मिला। उनके उभार को वैश्विक मीडिया के द्वारा ‘मोदी परिघटना’ के रूप में वर्णित किया जाने लगा। फिर भारत को एक उभरते हुए प्रमुख वैश्विक आर्थिक शक्ति के रूप में देखा जा रहा था और मोदी इस प्रभावशाली उत्थान के प्रतीक बने।
मोदी को एक ‘बोल्ड मैन ऑफ ऐक्शन’ माना जाने लगा। गरीबों में उनकी लोकप्रियता दिन-दूना-रात-चोगुना के हिसाब से बढ़ रही थी; इसकी वजह थी उनके द्वारा चलाए गए ढेर सारे लोकलुभावन योजनाएं, जैसे उज्जवला योजना के तहत बीपीएल श्रेणी की महिलाओं के लिए मुफ्त गैस कनेक्शन, महिलाओं व किसानों के खातों में कैश ट्रांस्फर, प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत गरीबों के लिए आवास, जन धन योजना, मुद्रा स्कीम, आदि। नतीजा था कि मोदी की चमत्कारिक अपील ने 2019 के चुनाव में भी जनता को पुनः आकर्षित किया। मीडिया के बड़े हिस्से को भी उन्होंने अपने काबू में कर लिया।
दरअसल विमुद्रीकरण (demonetization) की भारी गलती और जीएसटी (GST) लागू करने के मामले में भारी अव्यवस्था करने से पहले तक उन्हें किसी प्रकार के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। फिर आयी सीएए की योजना, जो न केवल अदूरदर्शी बल्कि विवादास्पद भी थी और जिसकी वजह से मोदी ने मुसलमानों को भारी पैमाने पर रोष से भर दिया। इसके बाद आया किसानों का प्रतिरोध, जो उनके विरुद्ध केंद्रित हो गया, और लगा कि पहली बार मोदी संकट में फंस गए।
उनके लिए दुर्भाग्यपूण बात है कि 2019 और 2020 में भारत गहरे नकारत्मक विकास की ओर बढ़ने लगा था और अब 2021 में धीरे-धीरे वापस पट्री पर आ रहा है। फिर भी, स्लोडाउन का खतरा अब भी बना हुआ। जहां तक अर्थव्यवस्था को चाक-चैबंद काने की बात है, मोदी बुरी तरह विफल रहे हैं। मोदी के शूरुआती दिनोंमें भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवसथाओं में सबसे अधिक विकास दर्ज कर रही थी। परंतु बाद में भारत सबसे बुरी मंदी के दौर से गुरता नजर आया।
मोदी भारत के देंग-ज़िओ-पिंग बनना चाहते थे। उन्होंने आत्मनिर्भर भारत के अंतरगत चीन से भी आगे बढ़कर सुधार लाए, पर उन्हें अपेक्षित परिणाम नहीं मिले, बल्कि नगण्य परिणाम हासिल हुए। मोदी अभी भी वित्तीय क्षेत्र संकट को संभालने के लिए एड़ी-चोटी का दम लगा रहे हैं, खासकर सार्वजनिक क्षेत्र बैंकों के एनपीए संकट को। इसके बावजूद कि उन्होंने फैसला किया है कि संवेदनशील राष्ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में कार्यरत करीब एक दर्जन इकाइयों को छोड़कर सभी सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयों का वे निजीकरण कर देंगे, इस प्रक्रिया में भी कोई खास प्रगति नहीं दिखाई पड़ती। सरकार भारी राजस्व संकट से गुज़र रहा है और कोई नई योजनाएं भी लाई नहीं जा पा रहीं।
मोदी के शासन में दलित अलगाव भी गहराया है। मोदी शुरुआती दौर में subaltern यानि सबसे निचले खेमे और नव-मध्यम वर्ग के ‘डार्लिंग’ बन गए थे। पर अब महामारी और लाकडाउन के कारण मची तबाही के चलते इनमें से अधिकांश को लग रहा है कि उन्हें छला गया है। आज ‘हर-हर मोदी’ का जयघोष सुनाई नहीं पड़ता। मोदी का मीडिया पावर अब ह्रासमान प्रतिफल दे रहा है।
आर्थिक संकट को संभालने में मोदी की विफलता अब भी जनमानस की स्मृति में बनी हुई है, जबकि वर्तमान में अर्थव्यवस्था ने जनवरी-मार्च 2021, त्रिमास में 6.4 प्रतिशत विकास दर्ज किया है और नए लॉकडाउन के बावजूद अनुमान है कि वह पूर्व के 12 प्रतिशत (विश्व बैंक आकलन) की जगह अब 11 प्रतिशत जीडीपी विकास दर्ज करने वाली है (एशियन डेवलपमेंट बैंक आकलन)। क्योंकि यह वित्तीय वर्ष 2020-21 में 8 प्रतिशत के तीव्र नकारात्मक विकास के बाद आएगा, इसका रोजगार और आय पर प्रभाव सीमित होगा। पर मोदी का इस आर्थिक रिवाइवल से राजनीतिक लाभ उठा पाना अभी भी बाकी है। उनके लिए अगले तीन वर्षों तक इस उच्च विकास को टिकाए रख पाना बेहद संदेहास्पद लगता है। एडीबी ने पहले ही भविष्यवाणी की है कि वित्तीय वर्ष 2022-23 में जीडीपी ग्रोथ (GDP growth) मध्यम से 7 प्रतिशत होगा।
मनमोहन सिंह के नेतृतव वाले यूपीए शासन से बरखिलाफ मोदी सरकार पर मेगा घोटालों का साया नहीं है; राफाल घोटाले को आप एकमात्र अपवाद मान सकते हैं। पर सर्वोच्च न्यायालय मोदी के बचाव में आ गया। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा क्लीन चिट मिलने के कारण मोदी राफ़ाल के कुप्रभाव से निकल पाने में समर्थ रहे। काले धन के विरुद्ध उनका अभियान अब पूरी तरह से स्थगित हो गया है। यद्यपि मोदी ‘मिस्टर क्लीन’ के अवतार बनकर आए थे और भ्रष्ट भारतीय व्यवस्था को साफ करने की ठाने हुए थे, अगले 7 वर्षों में उन्होंने इसी व्यवस्था से समझौता कर लिया और अब ऐसा कोई कदम नहीं उठा रहे जिससे उसकी नय्या डगमगाए।
मोदी की विदेश नीति का रिकार्ड कुछ मिला-जुला है। उन्होंने पाकिस्तान को कुछ हद तक पीछे हटने पर मजबूर किया है, जो शायद डोकलाम और सर्जिकल स्ट्राइकों का असर है। पर चीन के साथ एक संयमित रणनीतिक रिश्ते के मामले में भारी गड़बड़ की है; शायद इस फिराक में कि यूएस से नज़दीकी बढ़ेगी, पर यूएस की ओर से अब तक पूर्ण प्रतिफल नहीं प्राप्त हुआ। उनका राजनीति से प्रेरित निर्णय कि चीन की बेल्ट ऐण्ड रोड (बीआरआई) पहल से बाहर रहेंगे और रीजनल काॅम्प्रिहेंसिव इकनाॅमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) में भाग न लेना भविष्य में भी विवादास्पद बना रहेगा।
यद्यपि मोदी 2002 के गुजरात नरसंहार के रचयिता वाली छवि से उबरने में सफल रहे हैं, और साम्प्रदसयक दंगों को भी काबू में रखे हुए हैं ,उन पर एक नया दाग लग चुका है-सीएए का। सीएए पर आगे वह क्या करेंगे, यह अभी खुला प्रश्न है। और जहां तक राम मंदिर निर्माण की बात है, तो वह एक सीमा के बाद सम्भवतः चुनावी लाभ नहीं दे सकेगा। मोदी सरकार तानाशाही और नव-फासीवाद का प्रतीक बन गई है। इसके मानवाधिकार रिकॉर्ड की भर्त्सना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही है, खासकर कश्मीर में उसके आक्रमणकारी कदम।
पर मोदी की छवि को सबसे भारी धक्का उनके महामारी के लचर प्रबंधन की वजह से लगा है। विश्व पैमाने पर उन्हें एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप् में देखा जा रहा है जो भारत को महामारी के कयामत या तबाही की दिशा में ले जा रहा है।
मोदी राज्य के भाजपा सरकारों को प्रेरित नहीं कर पाए कि वे महामारी का प्रभावशाली काट प्रस्तुत कर सकें। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक, और गुजरात भी ऑक्सीजन संकट का समाधान कर पाने और कोविड-19 की दवाओं व आईसीयू बेड्स की कमी का मामला हल न कर सके। मोदी और शाह भाजपा-शासित प्रदेशों को लामबंद नहीं कर पाए हैं। इसका कुप्रभाव 2024 में सामने आ सकता है।
मतदाताओं में मोदी का क्रेज़, जो कि केवल 2014 ही नहीं, 2019 में भी देखा गया था, कुछ हद तक कम हुआ है पर उनके पक्ष में टीना फैक्टर यानि (there is no alternative) या कोई विकल्प नहीं है, काम कर रहा है। कांग्रेस एक व्यवहार्य विकल्प (viable alternative) के रूप में उभर पाने की स्थिति में नहीं है। यह अभी देखना बाकी है कि क्या क्षेत्रीय दलों का कोई फ्रन्ट या मोर्चा अथवा कोई महागठबंधन अगले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर एक शक्तिशाली राजनीतिक विकल्प के रूप में उभर पाता है। पर यह चमत्कार ही होगा यदि मोदी अपना जीतने वाला तेवर वापस ला पाते हैं।
मोदी संघ परिवार के अविवादित नेता के रूप में उभरे हैं, जो आरएसएस तक को साथ लिए चल रहे हैं। पर आज महामारी से निपटने के मामले वे संघ परिवार की समग्र दिवालियापन के प्रतीक बन चुके हैं। कहीं भी आरएसएस जनसेवा करने वाले संगठन के रूप में नहीं देखा जा रहा। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नैतिक विफलता है और मोदी की व्यक्तिगत विफलता भी!
महामारी के प्रबंधन में मोदी पूरी तरह विफल साबित हुए हैं; अब 4 लाख केस प्रतिदिन के हिसाब से कोविड का प्रस्थान जारी है। वर्तमान रेट, यानि 4000 मौतें प्रतिदिन की दर बनी रही या थोड़ी बहुत भी बढ़ी तो 2021 के अगस्त माह तक 10 लाख लोगों की जानें जाएंगी। केस बढ़ते ही जा रहे हैं। उत्तर भारत में आॅक्सिजन संकट और दवाओं की कमी का हल दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा। अस्पतालों में बेड नहीं मिल पा रहे तो एंबुलेंस में लोग दम तोड़ रहे हैं। शव दाह करने या दफनाने के लिए लंबी कतारें हैं। पुनः लाॅकडाउन का दौर चल रहा है। इसलिए आर्थिक संकट एक चुनौति बना हुआ है। पर किसी भी प्रमुख राज्य का चुनाव अभी नहीं होना है। गोवा 2022 में और छत्तीसगढ़ 2023 में चुनाव की प्रक्रिया में जाएंगे।
महामारी का प्रबंधन करना मोदी-शाह की दुखती रग बन गया है। और इसमें कोई शक नहीं कि महामारी ने मोदी की विरासत को भारी धक्का पहुंचाया है। मोदी, जो नाटकीय सफलताओं के निर्माता थे, अब वैसे ही नाटकीय विफलताओं के सिरमौर बने हैं।
यह मोदी पर कोई व्यक्तिगत टिप्प्णी नहीं है। बल्कि यह मोदी के बदलते राजनीतिक प्रोफाइल का विवरण है और इसका मकसद है लोकतांत्रिक शक्तियों को आगाह करना कि एक कमजोर, हताश व व्याकुल मोदी शायद लोकतंत्र के लिए उतना ही खतरनाक होगा, शायद अधिक भी, जितना कि एक ताकतवर मोदी।
(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)