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राष्ट्रीय आपदा में नागरिक समाज की मदद, अमिताभ कान्त की पहल और कुछ ज़रूरी सुझाव
पिछले साल देश के नागरिक समाज और एनजीओ ने आगे बढ़कर भूखे लोगों को खाना खिलाने और कोरोना को लेकर जागरूकता बढ़ाने का काम मुख्य रूप से किया था। लेकिन सरकार को सोचना चाहिए कि उसने उसके साथ क्या व्यवहार किया!
सत्यम श्रीवास्तव
28 Apr 2021
राष्ट्रीय आपदा में नागरिक समाज की मदद, अमिताभ कान्त की पहल और कुछ ज़रूरी सुझाव
कोरोना लॉकडाउन के दौरान अप्रैल 2020 का नज़ारा। जब नागरिक समाज और एनजीओ ने अपने दम पर सड़क पर उतरकर लोगों की मदद की।

24 अप्रैल 2021 को नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कान्त का एक बयान और योजना राष्ट्रीय अखबारों में शाया हुई है। इस बयान  और योजना में वो कहते हैं कि कोरोना की इस दूसरी लहर में देश में बनी विकट परिस्थितियों से सामना करने के लिए देश भर की एक लाख स्वयं सेवी संस्थाओं (एनजीओ) से सहयोग लेने के लिए उन्हें साथ लाया जाएगा। पिछले साल जब देश में 4 घंटे की मोहलत पर बलात लॉक-डाउन थोपा गया था और उसके बाद देश विभाजन के बाद से सबसे बड़ा पलायन सड़कों पर देखा गया था तब देश की सिविल सोसायटी- गैर-लाभकारी संस्थाओं ने बेहद ज़रूरी और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस भूमिका को याद करते हुए और भारत सरकार की तरफ से आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने फिर से इन संस्थाओं को आगे आकर मदद करने का आग्रह किया है।

पिछले साल देश के नागरिक समाज और एनजीओ ने भूखे लोगों को खाना खिलाने और कोरोना को लेकर जागरूकता बढ़ाने का काम मुख्य रूप से किया था। इसके लिए इन संस्थाओं ने अपने पास मौजूद आर्थिक संसाधनों के अलावा समाज से अपील करके संसाधन जुटाये थे। मानवीयता व उच्च आदर्शों व मूल्यों से प्रभावित एनजीओ के कार्यकर्ताओं ने सड़कों पर निकलकर लोगों की मदद की थी। उन्हें कोरोना जैसी महामारी में खुद को सुरक्षित रखने के तौर-तरीके बताए थे और ये सब काम नागरिक समाज व एनजीओ ने अपनी मानवीय व नैतिक जिम्मेदारियों के आधार पर किए थे।

अमिताभ कान्त को इस अभूतपूर्व संकट के दौर में फिर से एनजीओ की याद आना लाजिमी है क्योंकि सरकार अकेले इस भयावह संकट का सामना नहीं कर सकती। बीते एक साल में न केवल केंद्र सरकार बल्कि तमाम राज्य सरकारों ने अपने इस महामारी को लेकर ऐसे आचरण प्रस्तुत नहीं किए जिन्हें देखकर आम जनता में इसे लेकर सजगता आती। अति-आत्मविश्वास, एक नेता की छवि और दूरदर्शिता के गंभीर अभाव ने पूरे देश को एक विनाशकारी संकट की स्थिति में ला दिया है।

हालांकि अमिताभ कान्त यह ज़रूर समझ रहे होंगे कि सरकार ने इस महामारी के दौरान भी इस नागरिक समाज और एनजीओ को लेकर क्या रुख अपनाया? सहायता करने और सहायता लेने के विशुद्ध मानवीय व्यवहार को आपराधिक नज़रिये से न केवल देखा गया बल्कि ऐसी संस्थाओं पर नकेल कसने और उन्हें देश के खिलाफ षणयंत्र रचने जैसी उपाधियों से भी नवाजा गया। अंतत: सितंबर 2020 में विदेशी अनुदान नियामक कानून (FCRA) में इस तरह के संशोधन कर दिये जिनसे इस तीसरे सेक्टर (थर्ड सेक्टर) कहे जाने वाले सेक्टर की रीड़ की हड्डी तोड़ दी जाए। अकस्मात किए गए इन बदलावों से आज देश की एनजीओ इस अवस्था में नहीं रह गए हैं कि वो इस आपदा में सामने आकर सरकार का सहयोग कर पाएँ।

मार्क्स, गरीबी की परिभाषा उस ‘अवस्था’ से देते हैं जहां इंसान की सहयोग लेने की क्षमता खत्म हो जाती है। भारत सरकार ने अगर गैर-लाभकारी संस्थाओं की सहयोग लेने की क्षमताओं पर प्रहार किया है और अंतरराष्ट्रीय साथीभाव के लिए तमाम गुंजाइशें खत्म कीं हैं तो इसका असर भारत सरकार को भी शायद अब महसूस हो रहा होगा। आज पूरी दुनिया में भारत को इस संकट से उबारने के लिए सहयोग के हाथ बढ़ाए जा रहे हैं लेकिन भारत सरकार की वह क्षमता नहीं है कि अपनी नौकरशाही मात्र के बल पर उस सहयोग का सही जगह इस्तेमाल सुनिश्चित करवा सके।

न केवल हिंदुस्तान बल्कि दुनिया में कहीं भी अगर आपदाओं के दौरान अंतरराष्ट्रीय सहयोग के सही इस्तेमाल के इतिहास को देखें तो इन्हीं संस्थाओं की भूमिका बहुत सराहनीय रही है। तमाम अंतरराष्ट्रीय कल्याणकारी संस्थाओं ने उन देशों में एनजीओ पर भरोसा जताया है और उनके माध्यम से मानवता की मदद की है जहां सरकारें भी नहीं पहुँच पायीं।

सितंबर 2020 के बाद से भारत सरकार ने विदेशी अनुदान नियामक कानून (FCRA) में संशोधन करके इस महत्वपूर्ण स्तम्भ को जैसे खुद ही ढहा दिया है। अभी अप्रैल का महीना चल रहा है और देश की किसी भी संस्था के लिए विदेशी अनुदान पाने के लिए यह अनिवार्य शर्त हो गयी है कि उसका विदेशी अनुदान संबंधी बैंक खाता, पूरे देश के लिए मात्र एक शाखा में ही होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ है तो वो संस्थाएं विदेशों से प्राप्त होने वाले अनुदान को लेने में सक्षम नहीं हैं। यहाँ तक कि जो प्रोजेक्ट्स अभी जारी हैं उनकी भी राशि तब तक हासिल नहीं हो सकती जब तक संसद मार्ग, दिल्ली में अवस्थित स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की एक शाखा में उनका खाता नहीं खुला है।

इन संशोधनों के जरिये अधिकांश गैर-लाभकारी संस्थाओं को अपने कार्यबल को घटाना पड़ा है क्योंकि भारत सरकार ने प्रशासनिक खर्चों में सख्त पाबंदी लगा दी है। आज गैर लाभकारी संस्थाएं आर्थिक संसाधनों के साथ साथ मानव संसाधनों के मामले में भी सबसे कमजोर स्थिति में हैं। वो चाह कर भी इस राष्ट्रीय विपदा मं  सरकार का सहयोग करने की स्थिति में नहीं हैं।

भारत में उल्लेखनीय आर्थिक तरक्की के बाद ‘सोशल गिविंग- पे बैक टू सोसायटी’ की संस्कृति विकसित हो रही थी। अपनी अच्छी आय का एक अंश लोग स्वेच्छा से ऐसी गैर-लाभकारी संस्थाओं को देने के लिए आगे आ रहे थे लेकिन नोटबंदी के बाद हुए आर्थिक असुरक्षा के माहौल ने इन बनते हुए स्रोतों को भी सुखा डाला।

इसके अलावा वित्त मंत्रालय ने 2019-20 के बजट में प्रत्यक्ष आयकर के मामले में इस ‘सोशल गिविंग’ की संस्कृति को प्रोत्साहित करने के बजाय उल्टा हतोत्साहित किया। पहले गैर लाभकारी संस्थाओं को दान देने के एवज़ में आयकर दाता को सौ प्रतिशत की छूट मिलती थी जिसे आयकर के एक नए फार्मूले का विकल्प दे दे दिया गया। इसके तहत कोई आयकर दाता चाहे तो अपनी सेविंग या दान से आयकर में छूट ले या अपनी पूरी आय का एक निश्चित अंश जो लगभग पहले फार्मूले के बराबर ही है, सरकार को दे। इसका बहुत नकारात्मक असर इन गैर-लाभकारी संस्थाओं को देश के भीतर से ही मिलने वाले दान पर पड़ा।

आयकर विभाग ने भी दानदाताओं को संदेह की नज़र से देखा और उन्हें नोटिस भेजना शुरू किया। इससे भी दानदाताओं पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ा और गैर- लाभकारी संस्थाओं पर इसका भारी नकारात्मक असर हुआ।

ऐसे में सरकार के एक जिम्मेदार नुमाइंदे अमिताभ कान्त अगर फिर से इन गैर-लाभकारी संस्थाओं को एकजुट होकर इस आपदा से निपटने का आह्वान कर रहे हैं तो उन्हें इन ज़रूरी सवालों के जबाव देना चाहिए। उन्हें हालांकि इस बात से आश्वस्त होना चाहिए कि ये संस्थाएं हमेशा जनता के सबसे करीब हैं और अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी को बखूबी समझती हैं।

2015 से विदेशी अनुदान नियामक कानून के तहत गैर-लाभकारी संस्थाओं को हर पाँच साल में अपना FCRA नवीनीकरण करवाना अनिवार्य कर दिया गया था। अधिकांश संस्थाओं को इस नवीनीकरण की प्रक्रिया में भी जाना है। उनके सामने घनघोर अनिश्चितता है कि उनका नवीनीकरण होगा या नहीं? इसकी वजह भी संदेह की बिना पर संशोधित किए गए कानून में निहित हैं। नवीनीकरण की प्रक्रिया को एक तरह से इन नागरिक मंचों के ‘इन्वेस्टीगेशन’ की प्रक्रिया में बदला जा चुका है।

2011 के बाद से अगर विदेशी अनुदान लेने की इच्छुक संस्थाओं की संख्या देखें तो इनमें लगातार गिरावट आयी है। भारत सरकार के एफसीआरए विभाग की बेवसाइट पर मौजूद डैशबोर्ड को देखें तो आज की तारीख में सक्रिय पंजीयन के साथ मौजूद संस्थाओं की संख्या मात्र 22585 है। जबकि कुल पंजीकृत संस्थाओं की संख्या 49938 है। बीते 10 सालों में करीब 20673 संस्थाओं के पंजीकरण निरस्त किए गए हैं और 6680 संस्थाओं के पंजीकरण निरस्त मान लिए गए हैं। इस डैशबोर्ड से यह भी पता चलता है कि 2015 के बाद देश में केवल 9562 संस्थाओं ने एफसीआरए के लिए पंजीकरण करवाए हैं तो 27353 संस्थाओं के पंजीकरण निरस्त हुए हैं।

इसके पीछे ज़रूर कुछ वाजिब वजहें रहीं होंगीं लेकिन इस मौजूदा सरकार ने ऐसे नागरिक समाज को हर तरह से हतोत्साहित और प्रताड़ित करने का काम किया है जो जाति, धर्म, मजहब और क्षेत्रीयताओं से ऊपर उठकर समाज के बीच काम करते रहा है। समाज में लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए मन मानस तैयार करते रहा है।

नीति आयोग के काबिल अफसर और देश के थिंक टैंक की बा हैसियत अमिताभ कान्त को शायद इस घनघोर विपदा में भी दिल्ली पुलिस द्वारा की जा रही उन कार्यवाहियों का अंदाज़ा होगा जो वह उन लोगों पर कर रही है जो महज़ सोशल मीडिया पर सक्रिय रहकर न्यूनतम आर्थिक संसाधनों के बल पर जरूरतमंदों को ऑक्सीज़न या हस्पताल में एक अदद बेड दिलवाने की कोशिशें कर रहे हैं। ऐसी कई संदेश मिल रहे हैं जहां दिल्ली पुलिस ऐसे लोगों को फोन करके प्रताड़ित कर रही है।

जिस विकरालता के साथ ये महामारी भारत में फैली है उसने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है। मौजूदा सरकार की आलोचनाएँ अंतरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां हैं तो वहीं दुनिया की कई सरकारों के मदद की पेशकश की है और कर भी रही हैं। ऐसे में एक भारत एक ऐसा अभागा देश बन चुका है जिसने मदद ले पाने के कई भरोसेमंद और विश्वसनीय रास्ते खुद बंद कर दिये हैं।

ये प्रवृत्ति केवल मौजूदा केंद्र सरकार की नहीं है बल्कि राज्यों की सरकारों ने भी इस आपदा में जान-बूझकर इस नागरिक समाज और गैर-लाभकारी संस्थाओं से दूरी बना कर रखी है। छत्तीसगढ़ से जो खबरें मिल रही हैं उसमें राज्य के मुख्यमंत्री जाति आधारित समाजों मसलन जैन समाज, क्षत्रीय समाज, साहू समाज के प्रतिनिधियों को इस मुहिम में शामिल कर रहे हैं लेकिन राज्य की भरोसेमंद संस्थाओं को बलात दूर रखा जा रहा है। यह एक नयी प्रवृत्ति उभर रही है ताकि कल जब ये नागरिक समाज सरकार के नकारेपन पर सवाल उठाएँ तो सरकारें पलटकर उनसे पूछ सकें कि तब कहाँ थे?

खैर, अमिताभ कान्त के इस कदम की सराहना की जाना चाहिए लेकिन उन्हें संबोधित कुछ सुझाव यहाँ देना ज़रूरी है-पहले तो गैर-लाभकारी संस्थाओं को निर्धारित बैक शाखा में खाते खुलवाने की बाध्यता को खत्म किया जाना चाहिए ताकि वो विदेशों से सहयोग लेने में सक्षम हो सकें और दूसरा, उनके पंजीयन के नवीनीकरण की तय अवधि को कुछ समय के लिए स्थगित किया जाये ताकि ऐसी संस्थाएं निश्चिंतता के साथ समाज में काम कर सकें। तीसरा सुझाव ये है कि सित्मबर 2020 में किए गए संशोधनों में प्रशासनिक खर्चों के अनुपात को पहले की तरह किया जाए ताकि गैर-लाभकारी संस्थाओं के पास पर्याप्त मानव संसाधन हों।

इन सुझावों पर अमल करके भारत सरकार इन संस्थाओं से ज़्यादा खुद अपनी मदद करेगी।

(लेखक पिछले डेढ़ दशकों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। समसामयिक मुद्दों पर टिप्पणियाँ लिखते हैं। व्यक्त किए गए विचार निजी हैं।) 

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