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भारत
राजनीति
रोहतांग सुरंग के निर्माण में शामिल श्रमिकों की भूमिका को याद रखा जाना चाहिए
इस समूचे प्रचार की चकाचौंध में कोई भी ऐसा नहीं है जो उन श्रमिकों की भूमिका के बारे में बात कर रह हो, जिन्होंने रोहतांग सुरंग के निर्माण कार्य में दिन-रात एक कर दिया था। इस काम में ओडिशा, झारखण्ड, नेपाल, बिहार और हिमाचल प्रदेश से आने वाले तकरीबन 3,000 श्रमिक शामिल थे।
टिकेंदर सिंह पंवार
01 Oct 2020
Himachal Pradesh
रोहतांग टनल। चित्र सौजन्य: द ट्रिब्यून

आज से एक-दो दिन के भीतर ही रोहतांग सुरंग का उद्घाटन होने जा रहा है, और इसके साथ ही अब लाहौल-स्पीती एवं लद्दाख के लोगों के साथ-साथ भारतीय सेना के लिए रसद की आपूर्ति से लेकर अन्य उपकरणों को भारत-चीन सीमा तक पहुँचाना बेहद आसान हो सकेगा।

अब मनाली आने वाले पर्यटकों को हिमाचल प्रदेश के सबसे बड़े जिले लाहौल एवं स्पीति की प्राचीनतम सुंदरता का लुत्फ़ उठाना बेहद सुविधाजनक होने जा रहा है। हालाँकि इस क्षेत्र तक आसानी से पहुँच बना सकने के चलते यह क्षेत्र की नाजुक पारिस्थितिकी की भेद्यता को भी बढ़ाने वाला सिद्ध होगा। बहरहाल इसे मुद्दे से भविष्य में निपटना पड़ेगा।

अभी फिलवक्त हम अपना ध्यान रोहतांग सुरंग पर केंद्रित करते हैं, जिसके अगले हफ्ते तक सुर्ख़ियों में बने रहने की संभावना है, क्योंकि प्रधानमंत्री 3 अक्टूबर, 2020 के दिन इसका उद्घाटन करने जा रहे हैं। इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं कि मोदी सरकार की प्रचार मशीनरी इस बात को प्रचारित प्रसारित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ने जा रही है (जिसकी शुरुआत पहले से ही हो चुकी है) कि सीमाओं की सुरक्षा करने और इसके समीप रहने वाले लोगों की सेवा के प्रति वर्तमान सरकार कितनी ज्यादा गंभीर है।

सीमावर्ती क्षेत्रों के विकास की मांग कोई नई बात नहीं है। आज से काफी समय पूर्व यह 1950 के दशक के उत्तरार्ध की बात है जब राज्य सरकार के दो अधिकारियों (दोनों ही खंड विकास अधिकारी थे) ठाकुर देवी सिंह और ठाकुर शिव चंद ने केंद्र से इस सम्बंध में हस्तक्षेप करने के लिए नारा बुलंद किया था। ‘पेकिंग करीब है, दिल्ली दूर है’। इसने केंद्र को हैरान करके रख दिया था और इसके बाद जाकर उसने सीमा पर विकास कार्य की प्रक्रिया को आरंभ करना शुरू किया था।

सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) की स्थापना नेहरू सरकार द्वारा 1960 में भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में सड़कों के नेटवर्क के विकास एवं रखरखाव को ध्यान में रखकर की गई थी। देखते ही देखते न सिर्फ सड़क बल्कि अन्य बुनियादी ढांचे के विकास ने भी रफ्तार पकड़ ली थी। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद से सीमावर्ती क्षेत्रों के आधारभूत ढाँचे के विकास पर पहले से कहीं अधिक जोर दिया जाने लगा।

34 साल की कम उम्र में ही नौकरी से त्यागपत्र देने वाले पूर्व आईएएस अधिकारी लाल चंद ढिस्सा का कहना है कि ये दो अधिकारी थे जिन्होंने 1948 में लद्दाख में हमलावरों से निपटने के लिए भारतीय सेना का निर्देशन किया था। बाद में जाकर इन दोनों शिव चंद एवं देवी सिंह ने दिल्ली में डॉ. बीआर अंबेडकर से मुलाक़ात की, और नतीजे के तौर पर लाहौल एवं स्पीति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल हो सका। 1971 में जब हिमाचल प्रदेश की पहली बार राज्य सरकार गठित हुई तो डॉ. वाईएस परमार के नेतृत्व वाले राज्य मंत्रिमंडल में ठाकुर देवी सिंह इसके वन मंत्री नियुक्त किये गए थे।

रोहतांग में सुरंग निर्माण का कार्य क्यों आवश्यक है?

दरअसल रोहतांग दर्रा समुद्र तल से 13,058 फीट की ऊंचाई पर स्थित है, और हर साल करीब छह महीने तक के लिए सड़क बर्फ से ढकी रहने के कारण लाहौल-स्पीति घाटी का संपर्क देश के बाकी हिस्सों से टूट जाता है। इसकी वजह से लद्दाख के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी आपूर्ति बाधित रहती है। रोहतांग वास्तव में पीर पंजाल पर्वत श्रेणी में पड़ता है जोकि हिमालय क्षेत्र में जम्मू-कश्मीर तक फैला हुआ है। रोहतांग में सुरंग निर्माण हो जाने से सीमा क्षेत्र में पूरे साल भर सड़क मार्ग से ट्रैफिक का आवागमन जारी रहना सुलभ हो सकेगा।

रोहतांग दर्रे में सबसे पहले सुरंग बनाए जाने की बात 1960 में मोरावियन मिशन द्वारा चलाई गई थी। हालांकि सुरंग के विचार की नींव रखने का काम भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और लाहौल-स्पीति की पूर्व विधायक लता ठाकुर द्वारा रखी गई थी और बाद में जाकर 2000 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस चर्चा को आगे बढाया था। यूपीए-1 के कार्यकाल के दौरान इसके लिए आवश्यक फण्ड का आवंटन किया गया और इसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा 28 जून, 2010 के दिन इसकी आधारशिला रखी गई थी।

इस सुरंग परियोजना के निर्माण-कार्य का आवंटन सितंबर 2009 में एक भारतीय कम्पनी एफकॉन इन्फ्रास्ट्रक्चर और एक ऑस्ट्रियाई कंपनी स्ट्राबैग एजी के संयुक्त उद्यम को सौंपा गया था। सुरंग निर्माण के इस काम को 2014 तक संपन्न हो जाना था, लेकिन सेरी नाला के पास सुरंग की खुदाई के दौरान जमीन की ढीली परत के चलते काम में देरी होती चली गई। 3 अक्टूबर को शुरू होने वाली यह परियोजना अपने शुरुआती 1,500 करोड़ रुपये के बजटीय अनुमान की तुलना में 4,000 करोड़ रुपये लागत की हो चुकी है।

एक इंजीनियरिंग उत्कृष्टता का नमूना

इस सुरंग का निर्माण समुद्र तल से लगभग 10,000 फीट की ऊंचाई पर किया गया है। मुख्य सुरंग जिसकी कुल लंबाई 9.02 किलोमीटर है, में दो-तरफा यातायात के गुजरने की सुविधा है। इसके अतिरिक्त एक और सुरंग का निर्माण, बचाव एवं सुरक्षा कार्यों के लिए किया गया है। ‘हेडरेस’ टनल या कहें कि मुख्य सुरंग की चौड़ाई जहाँ तकरीबन दस मीटर है, वहीँ इसके नीचे वाले सुरंग की चौड़ाई भी इतनी पर्याप्त है कि उसमें आसानी के साथ एक कार चल सकती है।

किसी अन्य साधारण मार्ग की तुलना में इस सुरंग के प्रत्येक 150 मीटर की दूरी पर एक टेलीफोन, प्रत्येक 60 मीटर पर एक अग्नि शमन हाइड्रेंट, हर 500 मीटर पर भूमिगत सुरंग से बाहर निकलने के लिए आपतकालीन निकास द्वार, प्रत्येक किलोमीटर पर हवा की गुणवत्ता की निगरानी रखने वाले सिस्टम के साथ-साथ हर 250 मीटर पर सीसीटीवी कैमरे के साथ-साथ स्वत: दुर्घटना का पता लगा सकने वाले सिस्टम की तैनाती की गई है।

श्रमिकों के योगदान को न भूलें  

इस समूचे प्रचार की चकाचौंध में कोई भी उन श्रमिकों के बारे में बात नहीं कर रहा है जिन्होंने दिन-रात एक करके इस रोहतांग सुरंग के निर्माण-कार्य को संपन्न किया है। इस काम में ओडिशा, झारखंड, नेपाल, बिहार और हिमाचल प्रदेश से आये हुए तकरीबन 3,000 श्रमिक शामिल थे। इस संबंध में मुझे एक किस्सा याद आता है जो कि हिमाचल प्रदेश की सतलुज घाटी में हाइड्रो प्रोजेक्ट के हिस्से के तौर पर सुरंग की खुदाई कर रहे श्रमिकों के संघर्ष का नेतृत्व करते हुए देखने को मिली थी।

कुछ दिनों की हड़ताल के बाद ही श्रमिक यूनियन की मांगों पर प्रबंधन ने अपनी रजामंदी दे दी थी। परियोजना का निर्माण कर रही कंपनी के मालिक ने मुझसे जानना चाहा कि क्या मुझे इस बारे में कोई जानकारी है कि उसने क्यों हमारी शर्तों को आसानी से मंजूर कर लिया था। मेरा जवाब था “हमारी ताकत और एकजुट श्रमिक संघ की बदौलत” मैंने जवाब में कहा था।

उनके अनुसार इसमें आंशिक सच्चाई थी। उनके द्वारा इन माँगों को स्वीकार किये जाने की सबसे मुख्य वजह यह थी कि वे “दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खुदाई करने वालों को” खोने का जोखिम नहीं उठा सकते थे। उनके कहने का अभिप्राय यह था कि झारखण्ड से आने वाले श्रमिकों को पहाड़ों के अंदर सुरंग निर्माण के मामले में दुनिया में सबसे बेहतरीन ड्रिलर माना जाता है। श्रमिकों की यह योग्यता रोहतांग टनल की खुदाई के वक्त देखने को मिली है, लेकिन उद्घाटन का वक्त आते-आते शायद ही कोई उनकी इस प्रतिभा को स्वीकार करे।

सुरक्षात्मक उपाय

बाकी की सुरंग परियोजनाओं के विपरीत, विशेष तौर पर पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण के संदर्भ में तुलनात्मक तौर पर रोहतांग सुरंग के निर्माण में एक अनोखी विशिष्टता देखने को मिली है। 2009 में एक बड़े हिमस्खलन के चलते रानी नाले में बीआरओ के 14 श्रमिक दफन हो गए थे। पहाड़ों में इस प्रकार के काम बेहद खतरे से भरे हुए हैं और सुरंगों का निर्माण कार्य बेहद असुरक्षित है। तकरीबन सभी टनल प्रोजेक्ट्स में काम के दौरान ढीली परत की अनिश्चितता के कारण अक्सर बड़ी संख्या में श्रमिकों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। लेकिन इस सुरंग के निर्माण के दौरान एक भी श्रमिक के हताहत होने की सूचना नहीं प्राप्त हुई है। आखिर ऐसा कैसे संभव हो सका?

इस सम्बंध में स्पष्टता मुझे सीटू के नेतृत्व वाले श्रमिक संघ के कुछ नेताओं के साथ किये गए साक्षात्कार के जरिये हो पाई थी। इसके पीछे की वजह जो उन्होंने बताई वो यह थी कि संयुक्त उद्यम में शामिल विदेशी उपक्रम स्ट्राबैग एजी, सुरंग निर्माण के दौरान सुरक्षा उपायों के बेहद उच्च मानकों को बनाए रखने पर अडिग बनी रही। यदि उन्हें जरा भी इस बात की आशंका होती थी कि खदान कटाई के दौरान ढीली परत गिरने वाली है तो वे किसी भी श्रमिक को सुरंग के भीतर घुसने की इजाजत नहीं देते थे। यह एक ऐसा सबक है जिसे बाकी की अन्य परियोजनाओं को निष्पादित करने वाले अधिकारियों को सीखने की जरूरत है। इसके साथ-साथ सुरंग के उत्तरी और दक्षिणी छोर पर दो पोर्टल चौबीसों घंटे सुरंग के भीतर की सुरक्षा चुनौतियों की निगरानी के प्रति तैनात किये गए थे।

इसलिए इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं कि अब से कुछ दिनों के भीतर जिस प्रोजेक्ट का उद्घाटन होने जा रहा है वह एक लंबे समय से चली आ रही योजना का प्रतिफलन है, जिसके निर्माण में तत्कालीन सरकारों की भी भूमिका रही है। इस मामले में दूसरों की भूमिका को कमतर दिखाने की किसी भी कोशिश या खुद के बारे में बढ़ा-चढाकर दिखाने के प्रयास, वो चाहे योजना अथवा परियोजना के सन्दर्भ में हो, को विवेकसम्मत नहीं कहा जा सकता।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
https://www.newsclick.in/rohtang-tunnel-remember-workers-who-built-it

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Himachal Pradesh
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