NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
आंदोलन
नज़रिया
भारत
राजनीति
सरकार कैसी चाहिएः जो अत्याचार करे या जो भ्रष्टाचार करे?
अत्याचार और भ्रष्टाचार दोनों सगे भाई हैं। जहां एक रहेगा वहां दूसरा आएगा ही। वे एक दूसरे के विकल्प नहीं हैं।
अरुण कुमार त्रिपाठी
21 Mar 2021
सरकार कैसी चाहिएः जो अत्याचार करे या जो भ्रष्टाचार करे?
तस्वीर प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। साभार : NDTV

भारतीय लोकतंत्र अजीब स्थिति में फंस गया है। वह समझ नहीं पा रहा है कि उसे कैसी सरकार चाहिए। उसके सामने दो विकल्प उपलब्ध हैं। एक अत्याचारी और दूसरा भ्रष्टाचारी। कुछ लोग भ्रष्टाचार को बहुत बड़ी बुराई मानते हैं। उनका मानना है कि अत्याचार चाहे जितना हो जाए लेकिन भ्रष्टाचार नहीं होना चाहिए। इसी के साथ यह सोच भी है कि जो अपने हैं वे भ्रष्टाचार भी कर सकते हैं लेकिन जो पराए हैं उनका भ्रष्टाचार और अत्याचार कुछ भी सहन नहीं होगा।

उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार के चार साल पूरे होने पर एक पत्रकार मित्र का फोन आया। वे पूछ रहे थे कि इस सरकार के चार सकारात्मक और चार नकारात्मक काम गिनाइए। इस औपचारिकता के साथ ही यह बहस भी छिड़ गई कि कम से इस सरकार को आप भ्रष्ट तो नहीं कह सकते। फिर यह भी तर्क आया कि दरअसल जो राजनेता अविवाहित है, परित्यक्त है या संन्यासी है उसके ईमानदार होने की ज्यादा संभावना है। बल्कि वही ईमानदार हो सकता है। बाकी जिस राजनेता के पास परिवार है और संतानें हैं उसके बेईमान होने की गारंटी है। जब उनसे पूछा कि हिटलर तो शादीशुदा भी नहीं था, संतान होने की बात ही अलग। ऐसे में क्या हम उसे ईमानदार और न्यायप्रिय कह सकते हैं। उसके ठीक विपरीत महात्मा गांधी जैसे नेता विवाहित थे और उनके चार बेटे थे, तो क्या हम उन्हें भ्रष्ट और अत्याचारी कह सकते हैं। संतान तो जयललिता के भी नहीं थी और ममता बनर्जी भी अविवाहित हैं तो क्या हम उन्हें ईमानदार कह सकते हैं? इसी प्रकार मायावती भी अविवाहित हैं और उनकी अपनी कोई संतान नहीं है तो क्या हम उन्हें ईमानदार कह सकते हैं?

दरअसल भारतीय लोकतंत्र में परिवारवाद विरोध के नाम पर कुतर्कों का वायरस बुरी तरह घुस चुका है। अब ऐसे लोगों को आदर्श के रूप में स्थापित किया जाने लगा है जिनकी न तो लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था है और न ही लोकतांत्रिक संस्थाओं में। भारतीय समाज के राजनीतिक मानस में तानाशाही और अत्याचार का वायरस आपातकाल के साथ घुसा और धीरे धीरे उसने कांग्रेस का दामन छोड़कर गैर कांग्रेसवाद और भाजपा का दामन थाम लिया। आपातकाल के दौरान भी यह कहा जाता था कि वास्तव में इस देश को चलाने के लिए डंडे की जरूरत है। अगर शासक हाथ में डंडा लेकर चलेगा तो देश ठीक रहेगा। इमरजेंसी में कहा जाता था देखों रेलगाड़ियां समय से चलने लगी हैं। राशन मिलने लगा है, बाबू समय से दफ्तर आने लगे हैं और हर कोई नसबंदी कराने के लिए लाइन में लगा हुआ है और अतिक्रमण टूट रहा है। गुंडे, बदमाश और तस्कर या तो जेलों में हैं या दुम दबा कर भाग गए हैं।

लोकतंत्र का यह बड़ा सवाल है कि क्या अत्याचार, या दमन होने पर भ्रष्टाचार खत्म होता है या दब जाता है? आमतौर पर मध्यवर्ग का यही मानना है कि डंडा चलाओगे तो भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। इसी के साथ यह भी दलील दी जाती है कि सत्ता का केंद्रीकरण कर लीजिए लूट पाट कम हो जाएगी। इसी तर्क को बढ़ाते हुए कहा जाता है कि मोदी सरकार और योगी सरकार ने कड़ाई की और देखो न तो पिछले छह सालों में केंद्र में कोई बड़ा घोटाला हुआ और न ही चार साल में उत्तर प्रदेश में कुछ हुआ। इस बात को दूसरी तरह से भी देखा जा सकता है। सत्ता का केंद्रीकरण और अत्याचार इस हद तक है कि कोई भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने का साहस ही नहीं कर सकता। भ्रष्टाचार सिर्फ उन्हीं के पकड़े जाते हैं जो अपने पक्ष की बजाय विपक्ष में हैं या जो सत्ता में नहीं हैं। यह देखना दिलचस्प है कि विगत वर्षों में न तो नियंत्रक और लेखा महापरीक्षक की कोई रिपोर्ट चर्चा में आई, न सीवीसी की और न ही लोकपाल और लोकायुक्त की। क्या सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा है और कहीं कुछ गड़बड़ नहीं है या गड़बड़ है लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं की उंगली उठाने की हिम्मत नहीं है?

ऐसे में हमें एक बात पर ध्यान देना होगा कि कैसे हमारी लोकतांत्रिक संस्थाएं और उन्हें चलाने वाला वर्ग अत्याचार मिटाते मिटाते भ्रष्टाचारी हो गया और कैसे दूसरा वर्ग भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर अत्याचारी हो गया। पिछली सदी में अत्याचार मिटाने के विरुद्ध सबसे बड़ा तो आजादी का ही आंदोलन था। उसी ने लोगों के भीतर स्वतंत्रतता और समता की चेतना पैदा की और इतना बड़ा स्वाधीनता संग्राम संभव हो सका। लेकिन वह आंदोलन भी बंधुत्व के मूल्य से विचलित हो गया और भारत का विभाजन इसके इतिहास का सबसे रक्तरंजित अध्याय साबित हुआ।

आजादी के अत्याचार विरोधी मूल्यों को संस्थागत रूप देने के लिए संविधान बना और उसमें छुआछूत मिटाने के साथ मौलिक अधिकारों की ऐसी व्यवस्था की गई जो लोकतांत्रिक क्रांति की वाहक हो सकती थी। इन्हीं मौलिक अधिकारों में सबसे बड़ा था बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का अधिकार। हमारे स्वाधीनता संग्राम से निकले नेताओं ने आजादी के बाद भी तमाम लोकतांत्रिक संघर्षो में इस अधिकार का भरपूर इस्तेमाल किया। इससे औपनिवेशिक राज्य को लोकतांत्रिक बनाने और उसके अत्याचारी चरित्र को बदल कर न्यायप्रिय बनाने में मदद मिली। आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष भी स्वाधीनता संग्राम की विशाल चेतना और संवैधानिक मूल्यों को आगे बढ़ाने के उसी अभियान का एक हिस्सा था।

लोकतांत्रिक अधिकारों की यह क्रांति पिछड़ा वर्ग, दलित वर्ग, आदिवासी समाज, किसान-मजदूर और स्त्री समाज के आंदोलनों से आगे बढ़ी और समाज और सत्ता से बाहर यह वर्ग हर जगह अधिकार संपन्न होने लगा। लेकिन अत्याचार के विरोध में बराबरी के लिए खड़ा हुआ यह संघर्ष कब भ्रष्ट होने लगा उसे पता ही नहीं चला। उसने सत्ता में भागीदारी को अपना प्रमुख लक्ष्य बना लिया और अपने आंदोलन और नेतृत्व को नैतिक बनाने के आग्रह को भूल गया। पिछली सदी के अस्सी और नब्बे के दशक में समाज के इस वंचित वर्ग का उभार इतना प्रबल था कि उसे अपने ईमानदार बने रहने की फिक्र ही नहीं रही। उसका आत्मविश्वास सातवें आसमान पर था। बल्कि तर्क यह भी दिया जाने लगा कि क्या इससे पहले जो सत्ता थी और जो सवर्ण शासक वर्ग था वह भ्रष्ट नहीं था।

यहीं पर डॉ. लोहिया का वह मशहूर वाक्य याद आता है कि पिछड़ा वर्ग अगर खीरे की चोरी करता है तो पकड़ा जाता है और सवर्ण अगर हीरे की चोरी करता है तो बच जाता है। जाहिर है कि सामाजिक क्रांति करने वालों की खीरे की चोरी पकड़ी गई और लालू प्रसाद जैसे नेता जेल में घुट घुट कर रहने मजबूर हो गए तो मायावती और मुलायम सिंह यादव जैसे नेता शांत रहने को विवश हो गए। दूसरी ओर प्रतिक्रांति के रथ पर सवार होने वाली शक्तियों ने ईमानदारी का ऐसा आख्यान रचा कि उनका अत्याचार लोगों को बेहतर लगने लगा। भ्रष्टाचार और ईमानदारी का यह आख्यान बेहद पोला है। इसके साथ खड़ी शक्तियों की ऊर्ध्व यात्रा इतनी विवादास्पद और संदेहास्पद है कि कहा जा सकता है कि सूप हंसे सूप हंसे, चलनी हंसे जिसमें बहत्तर छेद। अस्सी के दशक में अंबानी के संपत्ति निर्माण की गड़बड़ियों पर इंडियन एक्सप्रेस ने लंबे समय तक अभियान चलाया। हैमिश मेकडोनाल्ड ने `पालियस्टर प्रिंस’ जैसी किताब लिखी जो अचानक गायब हो गई तो उन्होंने `अंबानी एंड हिज सन्स’ जैसी पुस्तक लिख डाली। उन पर  मणिरत्नम ने `गुरु’ जैसी फिल्म भी बनाई। सवाल उठता है कि आज इतना सन्नाटा क्यों है भाई?

वास्तव में हमारे ग्रामीण अभिजात वर्ग को न तो अत्याचार से दिक्कत है और न ही भ्रष्टाचार से। वह लंबे समय से अत्याचार और भ्रष्टाचार में जीता रहा है। जब उसे अत्याचार करने का मौका नहीं मिलता तो वह भ्रष्टाचार में लग जाता है और जब भ्रष्टाचार करने का मौका नहीं मिलता तो अत्याचार में लगा जाता है। मौका मिलता है तो वह दोनों करता है। शीर्ष स्तर पर आए राजनीतिक बदलावों के बावजूद ग्रामीण समाज में न तो मानवाधिकारों के लिए चेतना विकसित हुई है और न ही ईमानदारी के लिए। सामान्य वर्ग दोनों की आदर्श स्थिति की कल्पना ही नहीं कर सकता। उसे कभी कभी उसकी झलकियां मिलती हैं। यह जरूर है कि पिछड़ा दलित समाज जबसे सशक्त हुआ है तबसे अभिजात वर्ग को अत्याचार करने में दिक्कत आ रही है। इसलिए उसने अपनी हिंसक भावना अल्पसंख्यक समुदाय की ओर मोड़ दी है।

अत्याचार की इस चेतना को निर्मित करने में उस शहरी मध्य वर्ग ने प्रमुख भूमिका निभाई है जिसे भ्रष्टाचार तो चाहिए लेकिन नीति के आवरण में। उदारीकरण और निजीकरण का आवरण उसके लिए सबसे उपयुक्त है। उसे अत्याचार चाहिए उनके विरुद्ध जो जाति और धर्म की सत्ता को चुनौती देते हैं। इसके लिए बहुसंख्यकवाद और अस्मिता की राजनीति सबसे उपयुक्त है। मानवाधिकार और मौलिक अधिकारों के प्रति उसके भीतर कभी गहरा प्रेम नहीं था। मानवाधिकार को वह विदेशी सरकारों और संस्थाओं की साजिश मानता रहा है और बालिग मताधिकार से लेकर बराबरी के अन्य अधिकारों को निचले तबके के उपद्रव का कारण।

संयोग से भ्रष्टाचार मिटाने के बहाने एक अत्याचारी ढांचा निर्मित हो रहा है। यह बदले की भावना से काम करता है और अपनों को बचाता है और गैरों को फंसाता है। इस ढांचे का गौरवगान इस बिना पर किया जाता है कि देखो शीर्ष पर बैठा नेता भ्रष्ट तो नहीं है। स्वाधीनता संग्राम के समाजवादी और साम्यवादी नेताओं को इस बात की बड़ी चिंता थी कि लोग बराबरी के लिए उतनी तेजी से सक्रिय नहीं होते जितनी तेजी से आजादी के लिए। डॉ. लोहिया ने समता के लिए इस व्यवस्था की सभी संरचनाओं से टकराव लिया। लेकिन अब तो लगता है कि लोग आजादी के लिए भी जागृत नहीं होते। वास्तव में भ्रष्टाचार से वही लड़ सकता है जो न अत्याचारी हो न दमनकारी हो। वह पारदर्शी हो और लोकतांत्रिक हो। उसकी सत्ता केंद्रीकृत न होकर विकेंद्रित हो। अत्याचार और भ्रष्टाचार दोनों सगे भाई हैं। जहां एक रहेगा वहां दूसरा आएगा ही। वे एक दूसरे के विकल्प नहीं हैं। इनसे लोकतंत्र ही लड़ सकता है जो अहिंसा, न्याय और  व्यक्ति की गरिमा में विश्वास करता हो। वही इन दोनों का विकल्प है।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

farmers protest
Fundamental Rights
Right to Protest
Central Government
Narendra modi
corruption in India
BJP

Related Stories

गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया

छात्र संसद: "नई शिक्षा नीति आधुनिक युग में एकलव्य बनाने वाला दस्तावेज़"

मूसेवाला की हत्या को लेकर ग्रामीणों ने किया प्रदर्शन, कांग्रेस ने इसे ‘राजनीतिक हत्या’ बताया

दलितों पर बढ़ते अत्याचार, मोदी सरकार का न्यू नॉर्मल!

बिहार : नीतीश सरकार के ‘बुलडोज़र राज’ के खिलाफ गरीबों ने खोला मोर्चा!   

आशा कार्यकर्ताओं को मिला 'ग्लोबल हेल्थ लीडर्स अवार्ड’  लेकिन उचित वेतन कब मिलेगा?

दिल्ली : पांच महीने से वेतन व पेंशन न मिलने से आर्थिक तंगी से जूझ रहे शिक्षकों ने किया प्रदर्शन

राम सेना और बजरंग दल को आतंकी संगठन घोषित करने की किसान संगठनों की मांग

विशाखापट्टनम इस्पात संयंत्र के निजीकरण के खिलाफ़ श्रमिकों का संघर्ष जारी, 15 महीने से कर रहे प्रदर्शन

आईपीओ लॉन्च के विरोध में एलआईसी कर्मचारियों ने की हड़ताल


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: अभी नहीं चौथी लहर की संभावना, फिर भी सावधानी बरतने की ज़रूरत
    14 May 2022
    देश में आज चौथे दिन भी कोरोना के 2,800 से ज़्यादा मामले सामने आए हैं। आईआईटी कानपूर के वरिष्ठ वैज्ञानिक प्रो. मणींद्र अग्रवाल कहा है कि फिलहाल देश में कोरोना की चौथी लहर आने की संभावना नहीं है।
  • afghanistan
    पीपल्स डिस्पैच
    भोजन की भारी क़िल्लत का सामना कर रहे दो करोड़ अफ़ग़ानी : आईपीसी
    14 May 2022
    आईपीसी की पड़ताल में कहा गया है, "लक्ष्य है कि मानवीय खाद्य सहायता 38% आबादी तक पहुंचाई जाये, लेकिन अब भी तक़रीबन दो करोड़ लोग उच्च स्तर की ज़बरदस्त खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे हैं। यह संख्या देश…
  • mundka
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    मुंडका अग्निकांड : 27 लोगों की मौत, लेकिन सवाल यही इसका ज़िम्मेदार कौन?
    14 May 2022
    मुंडका स्थित इमारत में लगी आग तो बुझ गई है। लेकिन सवाल बरकरार है कि इन बढ़ती घटनाओं की ज़िम्मेदारी कब तय होगी? दिल्ली में बीते दिनों कई फैक्ट्रियों और कार्यस्थलों में आग लग रही है, जिसमें कई मज़दूरों ने…
  • राज कुमार
    ऑनलाइन सेवाओं में धोखाधड़ी से कैसे बचें?
    14 May 2022
    कंपनियां आपको लालच देती हैं और फंसाने की कोशिश करती हैं। उदाहरण के तौर पर कहेंगी कि आपके लिए ऑफर है, आपको कैशबैक मिलेगा, रेट बहुत कम बताए जाएंगे और आपको बार-बार फोन करके प्रेरित किया जाएगा और दबाव…
  • India ki Baat
    बुलडोज़र की राजनीति, ज्ञानवापी प्रकरण और राजद्रोह कानून
    13 May 2022
    न्यूज़क्लिक के नए प्रोग्राम इंडिया की बात के पहले एपिसोड में अभिसार शर्मा, भाषा सिंह और उर्मिलेश चर्चा कर रहे हैं बुलडोज़र की राजनीति, ज्ञानवापी प्रकरण और राजद्रोह कानून की। आखिर क्यों सरकार अड़ी हुई…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License