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विशेष : अराजकता की ओर अग्रसर समाज में मानवाधिकारों का विमर्श
अनेक अध्ययनों ने यह सिद्ध किया है कि वे देश जो धर्मनिरपेक्ष होते हैं एवं अल्पसंख्यकों, महिलाओं और बच्चों के अधिकारों का सम्मान करते हैं तीव्र गति से आर्थिक विकास करते हैं जबकि धर्मांधता को प्रश्रय देने वाले देशों में आर्थिक विकास अवरुद्ध हो जाता है और निर्धनता बढ़ने लगती है। क्या देश के मौजूदा आर्थिक संकट का संबंध भी हमारी बढ़ती धार्मिक संवेदनशीलताओं से है?
डॉ. राजू पाण्डेय
10 Dec 2019
human rights day
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: awarenessdays.com

क्या मानवाधिकारों के प्रति असंवेदनशीलता किसी ताकतवर राष्ट्र की पहली पहचान है? क्या राष्ट्रीय सुरक्षा तभी मजबूत हो सकती है जब हम मानवाधिकारों के प्रश्न को गौण बनाते हुए मुट्ठी भर आतंकवादियों या अलगाववादियों के खात्मे के लिए लाखों आम लोगों के साथ भी वैसा ही कठोर व्यवहार करें जैसा किसी संदिग्ध अपराधी के साथ किया जाता है? क्या हमारा आदर्श धार्मिक कानून के द्वारा संचालित होने वाले वे देश हैं जिनका रिकॉर्ड मानवाधिकारों के संबंध में अत्यंत खराब रहा है? क्या हमारी प्रेरणा वे देश हैं जो धार्मिक अल्पसंख्यकों पर अत्याचार करते हैं?

अनेक अध्ययनों ने यह सिद्ध किया है कि वे देश जो धर्मनिरपेक्ष होते हैं एवं अल्पसंख्यकों, महिलाओं और बच्चों के अधिकारों का सम्मान करते हैं तीव्र गति से आर्थिक विकास करते हैं जबकि धर्मांधता को प्रश्रय देने वाले देशों में आर्थिक विकास अवरुद्ध हो जाता है और निर्धनता बढ़ने लगती है। क्या देश के मौजूदा आर्थिक संकट का संबंध भी हमारी बढ़ती धार्मिक संवेदनशीलताओं से है? क्या सरकार की नीतियों की आलोचना को राष्ट्र द्रोह की संज्ञा दी जा सकती है?

संयुक्त राष्ट्र संघ ने पिछले कुछ महीनों में हमारे देश में बढ़ रही हिंसा और बलात्कार की घटनाओं, धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले हिंसा और भेदभाव के मामलों, एक्टिविस्टों पर भीड़ के हमलों व इनकी पुलिस प्रताड़ना तथा पुलिस एवं सुरक्षा बलों की ज्यादतियों को संरक्षण दिए जाने की प्रवृत्ति पर अनेक बयान जारी किए हैं। भारत सरकार इन रिपोर्टों और बयानों को दुर्भावनापूर्ण बताकर ख़ारिज करती रही है और इसे देश के आंतरिक मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप बताती रही है। सरकार के अपने तर्क हैं।

सरकार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की वर्ष 2016-17 की उस रपट का हवाला देती है जिसके अनुसार इस कालावधि में देश में मानवाधिकार उल्लंघन की 91887 घटनाएं हुईं जो वर्ष 2012 से 2017 की अवधि में सबसे न्यूनतम हैं। यद्यपि मानवाधिकारों से जुड़े लगभग सभी विशेषज्ञ यह मानते हैं कि जिस देश में मानवाधिकार हनन के जितने ज्यादा मामले रिपोर्ट होते हैं उतना ही अधिक वह देश अपने निवासियों के मानवाधिकारों की रक्षा में समर्थ होता है। हमारा देश प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 180 देशों में 140 वें स्थान पर है। इससे यह आशंका बलवती होती है कि लोगों में यह धारणा बन रही है कि मानवाधिकार हनन की घटनाओं की चर्चा भी भीड़ की हिंसा या सरकार के कोप को निमंत्रित कर सकती है।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की उच्चायुक्त (UNHCHR) मिशेल बचले ने 9 सितंबर 2019 को कहा कि वह कश्मीरियों के मानवाधिकारों पर भारत सरकार द्वारा हाल में उठाए गए कदमों के प्रभाव के बारे में गंभीर रूप से चिंतित हैं। उन्होंने विशेष रूप से इंटरनेट संचार और विधानसभा पर प्रतिबंध एवं स्थानीय राजनीतिक नेताओं तथा कार्यकर्ताओं की हिरासत पर चिंता जाहिर की। संयुक्त राष्ट्र संघ इंटरनेट पर प्रतिबंध को बड़ी गंभीरता से लेता है क्योंकि उसका मानना है कि लोगों को ऑफलाइन जो अधिकार प्राप्त हैं वही उन्हें ऑनलाइन भी मिलने चाहिए। इस संबंध में वह 2016 में एक नॉन बाइंडिंग रेसोल्यूशन भी पारित कर चुका है।

कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन के संबंध में संयुक्त राष्ट्र संघ भारत और पाकिस्तान से आवश्यक कदम उठाने का अनुरोध पहले भी 8 जुलाई 2019 को जारी एक रिपोर्ट के माध्यम से कर चुका था। भारत सरकार ने 5 अगस्त 2019 से धारा 370 के कुछ प्रावधानों को अप्रभावी बनाने को भारत का आंतरिक मामला बताया है और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों को आधारहीन बताते हुए इन्हें सिरे से खारिज किया है।

जब संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्टेटलेसनेस की वर्ष 2024 तक समाप्ति के लिए नवंबर 2014 में प्रारंभ किया गया एक दशक तक जारी रहने वाला आई बिलोंग अभियान ठीक अपने मध्य बिंदु पर पहुंच रहा था तब हमारे देश के असम राज्य में 31 अगस्त 2019 को नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स के माध्यम से 1906657 लोगों को- जो असम की लगभग 6 प्रतिशत जनसंख्या के बराबर हैं- देश की नागरिकता के अयोग्य ठहरा दिया गया। यद्यपि इनके पास अपील के अवसर उपलब्ध हैं किंतु अनिश्चय, आतंक और असुरक्षा का एक लंबा दौर इनकी प्रतीक्षा कर रहा है।

संयुक्त राष्ट्र संघ समेत मानवाधिकारों के लिए कार्य करने वाली विश्व की लगभग सभी संस्थाएं एक स्वर से एनआरसी को मानवाधिकारों के गम्भीर हनन की शुरुआत का दर्जा देती रही रही हैं। सितंबर 2019 में ही दुनिया के 125 सिविल सोसाइटी ऑर्गनाइजेशन्स ने एमनेस्टी इंटरनेशनल के माध्यम से इन उन्नीस लाख लोगों को नागरिकता से वंचित किए जाने की निंदा की और भारत सरकार से अपील की कि अनुचित और अन्यायपूर्ण भेदभाव वाली प्रक्रिया को रोककर लंबे समय से निवास कर रहे लोगों और उनकी संतानों के नागरिकता के अधिकार की रक्षा की जाए और इन्हें राज्य विहीन होने से बचाया जाए।

अपील में यह भी कहा गया कि इन लोगों पर नजरबंदी, हिरासत, निर्वासन, भेदभावपूर्ण व्यवहार, हिंसा, सामूहिक दंड जैसे मानवाधिकार विरोधी उपायों का प्रयोग न किया जाए। संवाद प्रारंभ हो तथा प्रभावितों को कानूनी और मानवीय सहायता दी जाए।

भारत सरकार नागरिकता संशोधन बिल 2019 के माध्यम से पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आये हिन्दू, पारसी,सिख, जैन, बौद्ध और ईसाई धर्मावलंबियों को शरणार्थी का दर्जा देते हुए उन्हें भारत की नागरिकता देने का मार्ग प्रशस्त कर रही है जबकि इन देशों से आए मुस्लिम धर्मावलंबी अब घुसपैठियों के रूप में चिह्नित किए जाएंगे। इस बिल के पास होने के बाद शायद एनआरसी अंततः धर्म के आधार पर भारत की नागरिकता देने का एक जरिया बन जाएगा और असम के उन्नीस लाख नागरिकता से वंचित लोगों में से केवल इस्लाम धर्मावलंबी भारत की नागरिकता पाने से वंचित हो जाएंगे। नेशन स्टेट्स के इस युग में जब मानवाधिकारों का संबंध किसी देश की नागरिकता से अपरिहार्य रूप से जुड़ गया है तब नागरिकता छिन जाने का अर्थ मानवाधिकारों की पात्रता छिन जाना भी है।

भारत ने अक्टूबर 2019 में संयुक्त राष्ट्र संघ में इस बात पर निराशा व्यक्त की कि एनआरसी को अल्पसंख्यक अधिकारों से जोड़ कर देखा जा रहा है जबकि देश का संविधान अल्पसंख्यकों को सारे बुनियादी अधिकार प्रदान करता है।

ह्यूमन राइट्स वॉच की वर्ल्ड रिपोर्ट 2019 यह बहुत विस्तार से बताती है कि किस प्रकार वर्ष 2018 में अल्पसंख्यकों, दलितों और सरकार के विरुद्ध आवाज उठाने वाले लोगों के विरुद्ध हिंसक आक्रमण हुए। कई बार आक्रमणकारी स्वयं को सत्ताधारी दल की विचारधारा से

सहानुभूति रखने वाले के रूप में प्रचारित करते रहे। भीड़ की हिंसा में अल्पसंख्यक और दलित समुदाय के लोग मारे गए और हिंसा में शामिल लोगों की सत्ताधारी दल के राजनेताओं से नजदीकियां भी चर्चा में रहीं और इन राजनेताओं द्वारा इन अपराधियों के समर्थन में दिए गए बयानों पर विवाद भी होता रहा। पुलिस द्वारा भीड़ की हिंसा के आरोपियों के साथ रियायत बरतने के आरोप भी अक्सर लगाए जाते रहे।

ह्यूमन राइट्स वॉच की वर्ल्ड रिपोर्ट 2019 में विस्तारपूर्वक यह भी बताया गया है कि किस प्रकार आतंकवादियों द्वारा जम्मू एवं कश्मीर में आम लोगों और सेना तथा पुलिस पर क्रूर,अमानवीय व बर्बर हमले किए गए। रिपोर्ट में सुरक्षा बलों एवं पुलिस द्वारा आम नागरिकों के साथ की गई ज्यादतियों का भी उल्लेख है।

ह्यूमन राइट्स वॉच की वर्ल्ड रिपोर्ट 2019 बताती है कि किस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने अब तक के इतिहास में पहली बार जून 2018 में कश्मीर में मानवाधिकारों पर अलग से प्रतिवेदन जारी किया। इसमें भी स्पेशल आर्म्ड फोर्सेज प्रोटेक्शन एक्ट द्वारा सुरक्षा बलों को गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में भी संरक्षण दिए जाने का उल्लेख है।

स्वयं सरकार द्वारा नियुक्त आयोगों, संयुक्त राष्ट्र संघ और मानवाधिकारों के लिए कार्य करने वाले संगठनों की सिफारिशों और अपीलों के बाद भी सरकार देश के अनेक प्रदेशों में लागू इस एक्ट में बदलाव करने के लिए राजी नहीं है। ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट कॉपर प्लांट के प्रदर्शनरत मजदूरों पर भीड़ नियंत्रण की क्रमिक प्रक्रियाओं का उल्लंघन करते हुए तमिलनाडु पुलिस द्वारा गोली चलाए जाने की घटना का उल्लेख करती है जिसमें 13 प्रदर्शनकारी मारे गए और 100 घायल हुए। उत्तरप्रदेश पुलिस द्वारा बड़ी संख्या में एनकाउंटर किए जाने का उल्लेख भी इस रिपोर्ट में है।

छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के सारकेगुड़ा में सन 2012 में 28-29 जून को हुई एक कथित मुठभेड़ में सुरक्षा बल के जवानों ने 17 नक्सलियों के मारे जाने का दावा किया था। इस मुठभेड़ में गांव वालों ने गोलियां नहीं चलाईं थीं। इस बात के भी प्रमाण नहीं मिले हैं कि इस मुठभेड़ में नक्सली शामिल थे। सुरक्षा बलों ने आत्मरक्षा के लिए गोलियां नहीं चलाई थीं। सभा में सम्मिलित लोगों को काफी निकट से गोलियां मारी गईं थीं। लोगों की जमकर पिटाई किए जाने के भी प्रमाण मिले हैं। यह खुलासा मामले की जांच में जुटे जस्टिस वीके अग्रवाल की न्यायिक रिपोर्ट से हुआ है।

दुर्भाग्य का विषय है कि सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन पर कभी सार्थक और वस्तुनिष्ठ चर्चा होने नहीं दी जाती। इस प्रश्न को उठाने वालों को राष्ट्रद्रोही, आतंकवाद समर्थक अथवा शहरी नक्सली करार दे दिया जाता है।

दरअसल राजनीतिक नेतृत्व की असफलता का खामियाजा आम लोगों और सुरक्षा बलों दोनों को भुगतना पड़ता है। चाहे वे आतंकवादी या अलगाववादी हों या नक्सली - यह सभी आम लोगों को डरा धमकाकर उनका समर्थन हासिल करते हैं और आम लोगों के बीच जा छिपते हैं। यह आम लोगों में व्याप्त असंतोष को अपनी हिंसा की विचारधारा के समर्थन में प्रयुक्त करने में निपुण होते हैं। सुरक्षा बलों को ऐसी परिस्थितियों में काम करने को कहा जाता है जो उनके लिए सर्वथा अपरिचित होती हैं। उनके लिए निर्दोष आम आदमी, नक्सली या आतंकी की स्पष्ट पहचान करना कठिन हो जाता है। आतंकवादी और नक्सली आम लोगों को सामने रख अपनी गतिविधियां करते हैं ताकि आम लोग मारे जाएं और सुरक्षा बलों की बदनामी हो तथा जनता में असंतोष फैले।

कुल मिलाकर यह राजनीतिक नेतृत्व की असफलता का परिणाम होता है कि सामाजिक आर्थिक पिछड़ेपन अथवा धार्मिक सांस्कृतिक भेदभाव के कारण हिंसा और अलगाववादी ताकतों को जमीन मिलती है। जब चर्चा, विमर्श और संवाद का सेतु भंग होता है तो सुरक्षा बलों का प्रयोग अपने ही देश के नागरिकों पर करने की नौबत आती है। जब हिंसा होती है तो उभय पक्षों द्वारा सीमाएं लांघी जाती हैं। सरकार के आदेशों का पालन सुरक्षा बलों के लिए आवश्यक है। आम लोग और अंतरराष्ट्रीय समुदाय सुरक्षा बलों को एक पृथक इकाई की भांति देखते हैं जबकि सच्चाई यह है कि उन्हें ऐसी कठिन परिस्थितियों में कार्य करने को सरकार द्वारा बाध्य किया जाता है जिसमें गलतियों की संभावनाएं अधिक होती हैं। जब हम सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन की चर्चा करते हैं तो उस सरकार की मंशा और नीतियों पर भी बहस होनी चाहिए जिसके अधीन ये कार्य कर रहे हैं।

जब हम मानवाधिकारों की रक्षा पर विमर्श करते हैं तो न्याय पालिका हमें अंतिम शरण स्थली के रूप में दिखाई देती है। किंतु पिछले कुछ समय से कुछ राजनीतिक दलों, धार्मिक-सांस्कृतिक संगठनों और सोशल मीडिया पर सक्रिय कुछ समूहों द्वारा न्याय पालिका पर भी यह निरंतर दबाव बनाने की चेष्टा की जा रही है कि वह ऐसे फैसले ले जो बहुसंख्यक वर्ग को स्वीकार्य हों, सरकार विरोधी न हों और सरकार की देशहित और राष्ट्रभक्ति की परिभाषा से संगत हों।

स्थिति ऐसी बन जाती है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मानो यह बीड़ा उठाते हैं कि अपनी सेवा निवृत्ति के पहले रामजन्म भूमि विवाद पर फैसला सुना देंगे, जनहित के अन्य अनेक मुद्दों पर वरीयता देते हुए लगातार 40 दिनों तक 5 जजों की संविधान पीठ इस मामले की सुनवाई करती है और जब फैसला बहुसंख्यक समुदाय की आशाओं और उम्मीदों के अनुसार आता है तो मीडिया इन न्यायाधीशों का प्रशस्तिगान करते करते इन्हें रामभक्त की संज्ञा देने की सीमा तक पहुंच जाता है, लेकिन हमें इस पूरे घटनाक्रम में कुछ भी असंगत नहीं लगता। हम पर इतना दबाव बना दिया जाता है कि हम न्यायपालिका से एक खास निर्णय की अपेक्षा करने लगते हैं। ऐसा ही दबाव न्यायाधीशों पर भी बनाया जाता है कि वे जन आकांक्षाओं के अनुरूप निर्णय दें। पता नहीं वे इस दबाव का सामना किस प्रकार करते होंगे।

न्याय यदि लोकप्रियता की कसौटी पर भी खरा उतरना चाहे और सरकारी फैसलों का समर्थक बन जाए तो उसे अन्याय में बदलते देर नहीं लगेगी। जन आकांक्षाओं पर खरा उतरना नेताओं के लिए आवश्यक हो सकता है, न्यायाधीशों को तो न्याय की कसौटी पर ही खरा उतरना होता है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल ने 2019 में प्रकाशित डिज़ाइण्ड टू एक्सक्लूड शीर्षक रिपोर्ट में असम में फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल की कार्य प्रणाली पर प्रश्न चिह्न लगाए हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के सदस्यों की नियुक्ति में योग्यता का ध्यान नहीं रखा गया है और ट्रिब्यूनल के अनेक फैसलों में पक्षपात एवं भेदभाव बरतने की शिकायतें भी मिली हैं।

एमनेस्टी इंटरनेशनल इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है कि किस प्रकार सर्वानंद सोनोवाल वर्सेज यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट का 2005 का निर्णय भारत में नागरिकता के निर्धारण के आधारों में बदलाव लाने का माध्यम बना। एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में माइग्रेशन को एक्सटर्नल अग्रेशन के रूप में चित्रित किया गया और इसे असम में संवैधानिक संकट उत्पन्न करने वाला बताया गया।

एमनेस्टी इंटरनेशनल इस बात की ओर भी ध्यानाकर्षण करता है कि संविधान निर्मात्री सभा की बहसों और पिछले न्यायिक प्रकरणों में इस संबंध में कोई मार्गदर्शन नहीं दिया गया था जिस कारण सर्वोच्च न्यायालय ने अग्रेशन की व्याख्या अमेरिका व ब्रिटेन के विधिक प्रावधानों तथा अंतरराष्ट्रीय कानून के आधार पर की और स्थानीय कानूनों एवं अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों के पहलू को गौण बना दिया।

वर्तमान परिदृश्य चिंताजनक है और विश्व मानवाधिकार दिवस पर हमें गहन आत्म मंथन करना होगा। क्या हम एक ऐसे धैर्यहीन, हिंसाप्रिय और आक्रामक तथा अराजक समाज में बदलते जा रहे हैं जिसका विश्वास लोकतंत्र और न्याय प्रक्रिया में नहीं है। हो सकता है कि हमारी न्याय प्रणाली दोषपूर्ण हो, यह भी संभव है कि भ्रष्टाचार का दीमक हमारी संस्थाओं को खोखला कर रहा हो, यह भी हो सकता है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर धनबल और बाहुबल का आधिपत्य स्थापित हो गया हो किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम लोकतांत्रिक व्यवस्था को नकार दें और स्वयं कानून और पुलिस का स्थान ले लें अथवा स्वयं को अनुशासित करने के लिए किसी तानाशाह की तलाश करने लगें जिसे लोकतांत्रिक स्वीकृति देकर हम और निरंकुश बना दें। मॉब लिंचिंग की बढ़ती प्रवृत्ति यह दर्शाती है कि हम अराजक कबीलाई समाज बनने की ओर अग्रसर हैं।

हैदराबाद में गैंगरेप के आरोपियों के एनकाउंटर पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए जोधपुर के एक कार्यक्रम में चीफ जस्टिस शरद अरविंद बोबडे ने कहा कि न्याय कभी भी आनन-फानन में किया नहीं जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि न्याय बदले की भावना से किया जाए तो अपना वह अपना मूल चरित्र खो देता है। यह देखना एक भयंकर अनुभव था कि किस प्रकार हमारा सभ्य समाज इस एनकाउंटर को लेकर आनंदित था। चाहे वह दिल्ली का निर्भया कांड हो या कठुआ, उन्नाव, मुजफ्फरपुर और हैदराबाद में हुई बलात्कार की घटनाएं इन सब में क्रूरता की सीमाएं लांघी गई हैं। न्याय प्रक्रिया की जटिलताओं के कारण रेप पीड़ितों को न्याय मिलने में विलंब हुआ है।

कई बार आरोपियों को राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण भी मिला है। रेप पीड़ित युवतियों की सामान्य पृष्ठभूमि के कारण धन और शक्ति के समक्ष शरणागत होने वाले पुलिस तंत्र ने आरोपियों को सजा दिलाने से अधिक उन्हें संरक्षण देने में रुचि दिखाई है। यदि आरोपी रसूखदार हैं तो उन्होंने पीड़ित महिलाओं और उनके परिजनों पर हिंसक और जानलेवा हमले भी किए हैं और उनकी हत्या तक की है। लेकिन इस विषम परिस्थिति का किसी फिल्मी क्लाइमेक्स की भांति सरल और सस्ता हल नहीं निकाला जा सकता। इस तरह की प्रायोजित मुठभेड़ों को प्राकृतिक न्याय की संज्ञा देना जल्दबाजी और भोलापन है। मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा किसी घटना विशेष को लेकर लोगों की संवेदनाओं को कृत्रिम रूप से उद्दीपित करना और फिर उन्हें गलत दिशा देकर हिंसा को स्वीकारने और महिमामंडित करने के लिए प्रेरित करना चिंतनीय और निंदनीय है।

ऐसा लगता है कि लोगों को सुनियोजित रूप से हिंसा का आश्रय लेने के लिए मानसिक प्रशिक्षण दिया जा रहा है। हिंसक भीड़ को एक जाग्रत समाज के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और भीड़ की हिंसा को जनक्रांति की तरह प्रदर्शित किया जा रहा है। हो सकता है आने वाले समय में निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए हिंसा की अभ्यस्त इस भीड़ का प्रयोग किया जाएगा, इस भीड़ का निशाना निर्दोष लोग होंगे- शायद वे तर्कवादी हों, धार्मिक अल्पसंख्यक हों,वंचित समुदाय के लोग हों या वैचारिक असहमति रखने वाले बुद्धिजीवी या शायद वे हमारी आपकी तरह सीधी राह पर चलने वाले डरे-सहमे, हताश, हारे हुए शहरी हों। तब हम इन घटनाओं का विरोध करने की स्थिति में नहीं होंगे क्योंकि हमारी सोच को हिंसा करने, हिंसा देखने और हिंसा सहने के लिए कंडिशन्ड कर दिया गया होगा।

भारत का एक बड़ा हिस्सा अभी भी अशिक्षा और अज्ञान के अंधकार में डूबा है। आदिवासियों तक स्वतंत्रता और लोकतंत्र का प्रकाश पहुंच नहीं पाया है और यदि पहुंचा भी है तो उसका लाभ लेकर पुराने छोटे शोषकों का स्थान लेने नए कॉरपोरेट शोषक वनों तक पहुंच गए हैं जो आदिवासियों की जल-जंगल-जमीन सब उनसे छीनने पर आमादा हैं। लाखों वंचितों के लिए अभी भी सामंतशाही का दौर समाप्त नहीं हुआ है। शोषण और दमन के वे इस तरह अभ्यस्त हैं कि स्वतंत्रता और सहानुभूति मिलने पर वे घबरा जाते हैं कि कहीं यह मालिक की कोई नई रणनीति तो नहीं। हमारी पूरी व्यवस्था पर पितृसत्ता की गहरी पकड़ है। चाहे शोषक वर्ग हो या शोषित वर्ग- स्त्री की नियति में कोई विशेष अंतर नहीं देखा जाता है।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी जाग्रत और अपने मानवाधिकारों के प्रति सजग समाजों के मुद्दे ही उठाता है। कई बार मानवाधिकारों के विमर्श के पीछे अंतरराष्ट्रीय राजनीति की जटिलता और कुटिलता छिपी हुई होती है। किंतु पीढ़ियों से शोषित हो रहे उन लोगों की चर्चा कभी नहीं होती जिनके मानवाधिकारों का सर्वाधिक हनन होता है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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