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हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आईपीईएफ़ पर दूसरे देशों को साथ लाना कठिन कार्य होगा
"इंडो-पैसिफ़िक इकनॉमिक फ़्रेमवर्क" बाइडेन प्रशासन द्वारा व्याकुल होकर उठाया गया कदम दिखाई देता है, जिसकी मंशा एशिया में चीन को संतुलित करने वाले विश्वसनीय साझेदार के तौर पर अमेरिका की आर्थिक स्थिति को मज़बूत करना है।
एम. के. भद्रकुमार
26 May 2022
Modi

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की जापान यात्रा के साथ ही, सोमवार को अमेरिका और हिंद-प्रशांत क्षेत्र के 12 अन्य देशों का एक नया आर्थिक समूह सामने आया। "इंडो-पैसिफिक इक्नॉमिक फ्रेमवर्क- आईपीईएफ", अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति का पारस्परिक आर्थिक संगठन है।

बाइडेन प्रशासन को उम्मीद है कि आईपीईएफ, चीन के खिलाफ़ अमेरिका की भूराजनीतिक और आर्थिक प्रतिस्पर्धा में उनके देश के लिए एक अहम उपकरण साबित होगा। अमेरिका के अलावा, इस ढांचे में शुरुआती भागीदारों के तौर पर भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और दक्षिण कोरिया जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं और इंडोनेशिया, फिलिपींस, मलेशिया, थाईलैंड और विएतनाम जैसे विकासशली देशों के अलावा ब्रूनेई, न्यूजीलैंड और सिंगापुर जैसे छोटे राष्ट्र शामिल हैं।

व्यापक तौर पर आईपीईएफ ब्लॉक श्रृंखला आपूर्ति के मुद्दों पर शुरुआती चेतावनी देने का काम करेगा, उद्योगों को कार्बन स्तर को कम करने के लिए प्रोत्साहित करेगा और अमेरिका को चीन से इतर विश्वसनीय एशियाई साझेदार उपलब्ध करवाएगा। कुलमिलाकर, अमेरिका एशिया के आर्थिक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति को बढ़ाना चाहता है, जहां चीन एक प्रभुत्वशाली देश है। 

आईपीईएफ में चार अलग-अलग अनुखंड होंगे, जिसमें व्यापार, श्रृंखला आपूर्ति क्षमता, अवसंरचना एवम् 'डिकॉ़र्बोनाइज़ेशन (कार्बन हटाने की प्रक्रिया)', कर एवम् भ्रष्टाचार रोध शामिल हैं। सोमवार की शुरुआत के बाद जल्द ही इन क्षेत्रों में आपसी बातचीत शुरु हो जाएगी। सभी 13 भागीदार देशों को यह विकल्प दिया जाएगा कि वे किन चार क्षेत्रों में समझौते करना चाहेंगे, उन्हें सारे क्षेत्रों पर प्रतिबद्धताओं से छूट दी जाएगी। जून के आखिर या जुलाई की शुरुआत में बातचीत के लिेए पैमाने तय कर दिए जाएंगे और बाइडेन प्रशासन को उम्मीद है कि हर एक समझौता करीब़ 12 से 18 महीने में हो जाएगा और इसके बाद संबंधित देशों की सरकारों को इसे पारित करवाने के लिए भेज दिया जाएगा।

लेकिन वास्तविकता में आईपीईएफ, बाइडेन प्रशासन द्वारा व्याकुलता के साथ उठाया गया कदम है, जिसके ज़रिए एशिया में अपनी आर्थिक स्थिति बेहतर करने की मंशा है, ताकि चीन के प्रतिसंतुलन के तौर पर खुद को एक भरोसेमंद विकल्प के तौर पर स्थापित किया जा सके। इसका मक़सद हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका को आर्थिक नेतृत्व की स्थिति में लाना है। यहां एशिया-प्रशांत क्षेत्र में हलचल पैदा करने की मंशा है, क्योंकि इसके पहले डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका ने "ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप" से अपने हाथ खींच लिए थे, विडंबना थी कि यह योजना अमेरिका द्वारा ही बनाई गई थी और तत्कालीन राष्ट्रपति ओबामा ने व्यापारिक समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे।

आईपीईएफ ना तो कोई "सौदा" है और ना ही कोई "अनुबंध", जबकि भारतीय मीडिया ऐसा सोचता है। यह वही है, जो वह कहता है- एशियाई देशों का एक ढीलाढाला समूह, जो श्रृंखला आपूर्ति मुद्दों से संबंधित शुरुआती चेतावनियां जारी करेगा, उद्योगों को कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए प्रोत्साहित करेगा और अमेरिका को चीन से इतर विश्वसनीय साझेदार उपलब्ध करवाएगा। 

आईपीईएफ, व्यापारिक सौदों या मुफ़्त व्यापार समझौतों की बाज़ार तक पहुंच उपलब्ध करवाने वाले क्षेत्र में कोई भी अनिवार्य प्रतिबद्धता लागू नहीं करता। क्योंकि ऐसा करने पर अमेरिका के भीतर बहुत दिक्कत हो सकती थी, आखिर वहां संरक्षणवादी भावनाएं काफ़ी गहराई तक पैठ बनाए हुए हैं। लेकिन इससे महत्वकांक्षी श्रम उपलब्ध हो पाएगा और पर्यावरण पैमाने भी तय किए जाएंगे, साथ ही इससे एक नया दिशा-निर्देश बन पाएगा कि अलग-अलग देशों के बीच डेटा का कैसा प्रवाह होना चाहिए। व्हाइट हाउस का एक तथ्यों संबंधी दस्तावेज़ सीधा यह कहते हुए मुख्य बिंदु पर आता है कि "आईपीईएफ से अमेरिका और हमारे साथियों नियमों को तय करने की क्षमता मिलेगी, यह तय करेंगे कि अमेरिकी कामग़ारों, छोटे उद्यमों और पशुओं के फॉर्म पर काम करने वालों को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा करने का मौका मिलेगा।

आईपीईएफ के ज़रिए बाइडेन प्रशासन आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और 5जी जैसी डिजिटल तकनीकों के पैमाने और नियमों में प्रभुत्व बनाने की कोशिश भी कर रहा है। लेकिन अमेरिका जिन डिजिटल व्यापार और तकनीक नियमों को प्रोत्साहन देना चाहता है, वह बहुत ज़्यादा अमेरिकी हितों वाले हैं। इस क्षेत्र के देश इन तथाकथित उच्च पैमानों को पूरा नहीं कर सकते।

बल्कि चीन को क्षेत्रीय देशों से अलग-थलग करने का अमेरिकी लक्ष्य आईपीईएफ को लागू करने की प्रक्रिया को जटिल बनाता है, क्योंकि इसका ढांचा डिजिटल अर्थव्यवस्था, पर्यावरण सुरक्षा और दूसरे क्षेत्रों में अमेरिकी नीतियों की तरह के उच्च पैमाने तय करता है, जिसके चलते क्षेत्रीय देशों के हितों की कीमत पर आईपीईएफ अमेरिकी हितों को पूरा करता है। इसके अलावा, आसियान देश चीन से दूर जाने के मूड़ में नहीं हैं और वहां आपूर्ति श्रृंखला का ढांचा लंबे समय से चल रहा है व इसने हिंद-प्रशांत क्षेत्रों के देशों को मुनाफ़ा कमाकर दिया है।

अहम बात यह भी है कि चीन एशिया में एक समग्र मुफ़्त व्यापार की कवायद में लगा हुआ है, खासतौर पर क्षेत्रीय समग्र आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) को लागू करवाने के लिए चीन बहुत कोशिश कर रहा है, जबकि आईपीईएफ अमेरिकी बाज़ार तक ज़्यादा एशियाई लोगों को पहुंच उपलब्ध कराने जैसे आर्थिक लाभ एशियाई देशों को उपलब्ध नहीं करवाता। इसके ढांचे में किसी तरह की बाज़ार पहुंच या टैरिफ में कमी वाले प्रावधान शामिल नहीं हैं, जिसके चलते क्षेत्रीय देशों के लिए वांछित व्यापारिक प्रोत्साहन की इसमें कमी है। सबसे बड़ी बात, आईपीईएफ को अपना आकार लेने में सालों लग सकते हैं, इतने वक़्त में चीन इसे आसानी से अप्रभावी बनाने के तरीके ढूंढ लेगा।

फिलहाल बाइडेन प्रशासन इस बात को लेकर उलझन में है कि क्या आईपीईएफ को अमेरिकी कांग्रेस से पारित करवाया जाए या नहीं, जबकि अमेरिकी कांग्रेस में यह विधेयक गिर भी सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो 2024 के बाद आईपीईएफ के बने रहने पर सवालिया निशान लगाने की जरूरत है। एशिया-प्रशांत के कुछ देश जो आईपीईएफ में शामिल हुए हैं, वे फिलहाल सावधान रहेंगे।

रिपोर्टों के मुताबिक़, पहले भारत आईपीईएफ में शामिल होने को लेकर उत्सुक नहीं था, क्योंकि भारत की मंशा अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौता और क्वाड के साथ बहुपक्षीय समझौता करने की थी। गैर-एफटीए (मुफ़्त व्यापार समझौते) के सौदों पर भारतीय चिंता को समझा जा सकता है, यहां भारत टैरिफ में कमी ना करने वाले बहुपक्षीय ढांचे को लेकर सावधानी बरत रहा है और उसे शक है कि क्या यह दक्षिण एशिया की किसी उभरती अर्थव्यवस्था को बड़ा लाभ दे सकता है या नहीं।

लेकिन दिल्ली और वाशिंगटन, भारतीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की पिछले महीने अमेरिका यात्रा के दौरान एक समझौते पर पहुंच गए, वहां यह तय किया गया कि- हालांकि आईपीईएफ आपूर्ति श्रृंखला व इसकी अवसरंचना को मजबूत कर, और व्यापारिक सुविधाओं का प्रबंधन व उनकी स्थापना कर "उच्च पैमानों" की मांग करेगा, लेकिन यह कभी "रणनीतिक कदम" नहीं बनेगा, जो चीन को निशाना बनाता हो। 

अमेरिका के लिए आईपीईएफ में भारत को शामिल करना बहुत जरूरी था, क्योंकि अमेरिका की हिंद-प्रशांत नीति में भारत एक आधार स्तंभ है। हालांकि दिल्ली की प्राथमिकता अमेरिका से द्विपक्षीय मुफ़्त व्यापार समझौते हासिल कर दक्षिण एशिया-हिंद महासागर आर्थिक क्षेत्र का निर्माण करना होती, लेकिन भारत ने अमेरिका की अपील मान ली।

नतीज़तन जब आईपीईएफ पैकेज आकार लेगा, तब भारत को कुछ बेहतरीन लाभ हासिल होंगे। बाइडेन प्रशासन भी भारत की अर्ध-निरंकुश अर्थव्यवस्था और निरंकुश राजनीति को उदार वैश्विक अर्थव्यवस्था में शामिल करने की कोशिशों की निर्रथकता को जानता होगा।

बाइडेन की एशिया यात्रा पर टिप्पणी करते हुए न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा, "कीमतें बढ़ रही हैं, स्टॉक बाज़ार नीचे जा रहा है और मंदी का डर देश में छा रहा है, ऐसी स्थितियों में राष्ट्रपति यह प्रदर्शित करने के लिेए व्याकुल हैं कि वे अर्थव्यवस्था को स्थिर करने पर केंद्रित हैं, खासतौर पर ऐसा इसलिए भी है क्योंकि पांच महीने बाद ही मध्यावधि चुनाव होने वाले हैं, लेकिन हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आईपीईएफ पर दूसरे देशों को राजी करना कठिन काम होगा।"

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिेए लिंक पर क्लिक करें।

IPEF Will be a Hard Sell in Indo-Pacific

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