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भारत
राजनीति
नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बने तो उनके नैतिक आभामंडल का क्या होगा?
नीतीश कुमार ने 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी की करारी हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री से इस्तीफा दे दिया था। इससे पहले उन्होंने वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री रहते हुए भी बढ़ती रेल दुर्घटनाओं की जिम्मेदारी लेते हुए मंत्री पद छोड़ दिया था।
अनिल जैन
12 Nov 2020
नीतीश

बिहार विधानसभा के चुनाव में एनडीए यानी भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यू) के गठबंधन को जैसे-तैसे बहुमत भले ही मिल गया है, लेकिन एनडीए के भीतर के समीकरण बिल्कुल बदल गए हैं। सीटों के लिहाज भाजपा अब एनडीए में सबसे पार्टी है और जनता दल (यू) होगा उसका जूनियर पार्टनर। इसके बावजूद भाजपा नेतृत्व की ओर से साफ कर दिया गया है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे।

चुनाव की घोषणा होने के बाद से ही खबरें आने लगी थीं कि भाजपा और जनता दल (यू) के बीच अंदरूनी तौर पर सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। खटपट की वजह चिराग पासवान को बताया जा रहा था। चिराग ने अपने को बिहार में एनडीए से अलग कर लिया था। उन्होंने नीतीश कुमार पर अहंकारी होने का आरोप लगाते हुए ऐलान किया था उनकी लोक जनशक्ति पार्टी अपने अकेले के दम पर तो चुनाव लडेगी, लेकिन सिर्फ जनता दल (यू) के खिलाफ ही अपने उम्मीदवार उतारेगी।

इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा था कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना नेता मानते हैं और केंद्र में उनकी पार्टी एनडीए का हिस्सा बनी रहेगी। मतलब साफ था 'मोदी तुझ से बैर नहीं, नीतीश तेरी खैर नहीं!’

आमतौर पर यही माना जा रहा था कि भाजपा इस बार नीतीश कुमार के बजाय अपना मुख्यमंत्री बनाना चाहती है और इसीलिए उसने चुनाव में जनता दल (यू) को कमजोर करने के लिए चिराग पासवान को नीतीश कुमार के पीछे लगा दिया है। इन अटकलों को तब और बल मिला जब एक-एक करके भाजपा के कई वरिष्ठ नेता और पूर्व विधायक चिराग की पार्टी से उम्मीदवार बन कर मैदान में उतर गए। यही नहीं, चिराग ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि बिहार में अगली सरकार भाजपा-लोजपा की बनेगी और भ्रष्टाचार के मामलों में नीतीश कुमार को जेल भेजा जाएगा।

हालांकि भाजपा के दूसरी और तीसरी कतार के कई नेताओं ने साफ कर दिया था कि बिहार में एनडीए के नेता नीतीश कुमार ही हैं और चुनाव के बाद भी वे ही रहेंगे, भले ही सीटें किसी की भी कम-ज्यादा हो। लेकिन नीतीश कुमार की अपेक्षा थी कि प्रधानमंत्री जब बिहार आएं तो वे एनडीए के सर्वोच्च नेता होने के नाते लोक जनशक्ति पार्टी और चिराग पासवान के बारे में जनता के बीच स्थिति स्पष्ट करें। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

मोदी ने पूरे चुनाव के दौरान बिहार की चार यात्राएं की और 12 रैलियों को संबोधित किया, लेकिन किसी एक रैली में भी चिराग और उनकी पार्टी की चुनाव मैदान में मौजूदगी को लेकर कुछ नहीं कहा। अलबत्ता उन्होंने अपनी पहली ही रैली में नीतीश कुमार की मौजूदगी में दिवंगत रामविलास पासवान को याद करते हुए उनकी जमकर तारीफ जरूर की।

नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री की चिराग पर प्रतिक्रिया का उनकी दो यात्राओं तक इंतजार किया। जब उन्होंने अपनी दोनों यात्राओं में चिराग को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की तो नीतीश ने अपनी पार्टी के नेताओं से चिराग पर बयान दिलवाना शुरू किया। जनता दल (यू) की ओर से राज्य सरकार के मंत्रियों ने कहना शुरू कर दिया कि चिराग तो जमूरा है, मदारी तो कोई और है जो उसको नचा रहा है। कहने कि जरूरत नहीं कि इशारा भाजपा के शीर्षस्थ नेतृत्व की तरफ था। जो भी हो, चिराग मैदान में डटे रहे और नीतीश पर तीखे से तीखे हमले करते रहे।

चुनाव मैदान में उनके अलग से उतरने का असर भी चुनाव नतीजों में साफ दिखाई दिया। हालांकि उन्हें महज एक ही सीट हासिल हुई लेकिन करीब 20 से 25 सीटों पर उनके उम्मीदवार जनता दल (यू) की हार का कारण बने। लोक जनशक्ति पार्टी ने जनता दल (यू) के खिलाफ सभी 123 सीटों पर उम्मीदवार खडे किए थे, इसलिए जनता दल (यू) को कुल प्राप्त वोटों के प्रतिशत में भी गिरावट आई।

शुरू में जैसी कि अटकलें लगाई जा रही थी, वही हुआ। भाजपा को जनता दल (यू) से 31 सीटें ज्यादा मिली और वह 74 सीटों के साथ एनडीए में सबसे बडी पार्टी बनकर उभरी। यानी चिराग की उछलकूद उसके लिए फायदेमंद साबित हुई। जनता दल (यू) को महज 43 सीटें ही मिल सकी, जो कि उसका अब तक सबसे निम्नतम प्रदर्शन है। पिछले चुनाव में उसने राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ महागठबंधन में रहते हुए 71 सीटें जीती थीं। यानी पिछले चुनाव के मुकाबले उसे इस बार 28 सीटों का नुकसान हुआ।

हालांकि वोटों की गिनती के दौरान नतीजों की तस्वीर साफ होते ही भाजपा के कुछ नेताओं और बिहार से जुड़े कुछ केंद्रीय मंत्रियों के ऐसे बयान आने लगे थे, जिनसे लग रहा था कि नेतृत्व को लेकर दोनों दलों के बीच खींचतान हो सकती है। कहा जा रहा था कि भाजपा गठबंधन की सबसे बडी पार्टी है इसलिए मुख्यमंत्री उसी का होना चाहिए।

कुछ नेताओं ने नीतीश कुमार को केंद्र में मंत्री बनाए जाने की बात भी कही। नीतीश पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए भाजपा की ओर झुकाव रखने वाले पत्रकारों और राजनीतिक विश्लेषकों ने इसी तरह की बातें टीवी चैनलों पर कहना शुरू कर दी थी।

दरअसल नीतीश के नेतृत्व के खिलाफ बिहार भाजपा में पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से ही आवाजें उठना शुरू हो गई थीं। पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान समेत ऐसे कई नेता थे, जो चाहते थे कि अब बिहार में बडे भाई की भूमिका में भाजपा को होना चाहिए। कारण यह था कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा को देश भर में 2014 से भी बडी जीत हासिल हुई थी।

बिहार में भी एनडीए ने राज्य की 40 में से 39 लोकसभा सीटों पर कब्जा जमाया था। भाजपा के प्रादेशिक नेताओं का कहना था कि यह करिश्मा सिर्फ मोदी के नाम पर पड़े वोटों के कारण हुआ है, अन्यथा 2014 के लोकसभा चुनाव में महज 2 सीटें जीतने वाला जनता दल (यू) 2019 में 16 सीटें कैसे ले आता। लेकिन गृह मंत्री अमित शाह ने पार्टी के नेताओं को समझाते हुए साफ कह दिया था कि चुनाव में एनडीए का चेहरा नीतीश कुमार ही होंगे।

दरअसल बिहार में अपना मुख्यमंत्री बनाने की भाजपा की हसरत पुरानी है। समूचे उत्तर भारत में बिहार ही एकमात्र ऐसा सूबा है जहां भाजपा आज तक अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई है। मोदी, शाह और नड्डा भी चाहते हैं कि राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी भाजपा को मिले। अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए भाजपा पास यह अभी तक का सबसे बडा मौका है, लेकिन वह जानती है कि नीतीश इसके लिए राजी नहीं होंगे। और उनके राजी हुए बगैर भाजपा की मनोकामना पूरी हो नहीं सकती।

भाजपा जानती है कि बिहार की जटिल सामाजिक संरचना के चलते उसका अकेले सत्ता में आना बेहद मुश्किल है। वैसे भी भाजपा कभी बिहार की स्वाभाविक राजनीतिक पार्टी नहीं रही है। इसलिए साझेदार के तौर पर सत्ता में रहने के लिए उसे नीतीश कुमार या फिर उनके ही जैसे सामाजिक समीकरण वाला कोई नेता चाहिए, जो खुद भी पर्याप्त संख्या में सीटें जीत सके और भाजपा को भी जिताने में मददगार हो सके। इस चुनाव में चिराग पासवान वाला उसका प्रयोग बुरी तरह नाकाम रहा है। इससे पहले वह रामविलास पासवान को भी आजमा चुकी है।

इस चुनाव में चाहे जैसे भी हो, भाजपा का प्रदर्शन जनता दल (यू) से निश्चित ही बेहतर रहा है। लेकिन सवाल फिर वही है कि अकेले दम पर या कोई और सहयोगी ऐसा नहीं है, जिसके सहारे 243 सदस्यों की विधानसभा बहुमत के आंकड़े 122 तक पहुंचा जा सके। इसलिए फिलहाल नीतीश को ही बिहार में एनडीए का चेहरा स्वीकार करने के अलावा दूसरा विकल्प उसके पास नहीं है।

अगर वह ऐसा नहीं करती है तो एक बड़ा राज्य उसके हाथ से निकल जाएगा। लेकिन इस बार के चुनाव नतीजे भाजपा के सूबाई नेताओं की उम्मीदों को फिर हवा दे रहे हैं। असल में बिहार में भाजपा के कई नेता हैं जो खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानते हैं। उन्हें लगता है कि अगर इस बार भी नीतीश को स्वीकार कर लिया तो फिर पांच साल बाद ही भाजपा को अपना मुख्यमंत्री बनाने का मौका मिलेगा।

तब तक मुख्यमंत्री बनने वाले भाजपा के तमाम दावेदारों की उम्र भी ढल चुकी होगी। इसलिए ये नेता 'अभी नहीं तो कभी नहीं’ के अंदाज में तरह-तरह से कोशिश कर रहे हैं कि नीतीश कुमार केंद्र में चले जाएं, लेकिन लगता नहीं कि नीतीश कुमार इसके लिए राजी हो जाएंगे।

बहरहाल नतीजे आने के बाद प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष नड्डा ने साफ कर दिया कि एनडीए की सरकार का नेतृत्व नीतीश कुमार ही करेंगे। चूंकि भाजपा की ओर आधिकारिक तौर पर नीतीश कुमार के नाम का ऐलान कर दिया गया है, लिहाजा यह माना जाना चाहिए अगर अगले दो-चार दिन के दौरान बिहार में कोई बड़ी राजनीतिक उठापटक नहीं हुई और सबकुछ सामान्य रहा तो दीपावली के बाद नीतीश कुमार की अगुवाई में नई सरकार का गठन हो जाएगा।

सवाल है कि छोटी पार्टी के नेता के तौर मुख्यमंत्री रहते हुए क्या वे उसी हनक से काम कर पाएंगे, जिस तरह अभी तक करते रहे हैं? भाजपा चूंकि बड़ी पार्टी है, इसलिए उसके नेताओं की तरफ से आए दिन कई तरह के दबाव आएंगे, जिन्हें झेलना उनके लिए आसान नहीं होगा। अभी तक तो कई मुद्दों पर वे केंद्र सरकार के फैसलों से बेझिझक असहमति जताते रहे हैं, लेकिन मौजूदा स्थिति में मुख्यमंत्री बनकर क्या वे ऐसा कर पाएंगे?

इन सारे सवालों से एक बड़ा सवाल यह है कि अगर नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बन जाते हैं तो उनके स्वनिर्मित नैतिक आभामंडल का क्या होगा? नीतीश कुमार ने 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी की करारी हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री से इस्तीफा दे दिया था। इससे पहले उन्होंने वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री रहते हुए भी बढ़ती रेल दुर्घटनाओं की जिम्मेदारी लेते हुए मंत्री पद छोड़ दिया था।

अपने इन दोनों इस्तीफों का जिक्र वे अपने भाषणों और मीडिया से चर्चा के दौरान भी अक्सर करते रहते हैं, यह बताने के लिए कि वे सत्ता के भूखे नहीं हैं। इसलिए यह देखना ज्यादा दिलचस्प होगा कि इस बार वे अपनी पार्टी के बेहद खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हैं या नहीं। सवाल यह भी है कि बुरी तरह हार जाने के बाद भी गठबंधन सरकार का नेतृत्व करना क्या नैतिकता के तकाजे के अनुरूप होगा?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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