NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
अगर तालिबान मजबूत हुआ तो क्षेत्रीय समीकरणों पर पड़ेगा असर?
कुलमिलाकर, तालिबान सरकार ने यदि जल्द ही सत्ता पर अपनी मजबूत पकड़ बना ली और अन्य क्षेत्रीय राज्यों ने काबुल से सीधे सबंधों को विकसित करने का विकल्प चुन लिया तो ताजिकिस्तान को अपनी दिशा को बदलने के लिए दबाव का सामना करना पड़ सकता है।
एम. के. भद्रकुमार
16 Sep 2021
अगर तालिबान मजबूत हुआ तो क्षेत्रीय समीकरणों पर पड़ेगा असर?
मध्य एशिया में सिल्क रोड पर व्यापार कारवां 

सिल्क रोड पर विदेशी शैतान 

पीटर हॉपकिर्क द्वारा 1980 में लिखी एक बेहद रोचक क्लासिक का शीर्षक उस समय भी ध्यान में आता है जब शंघाई सहयोग संगठन एवं सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन 17 सितंबर को ताजिकिस्तान के दुशांबे में एक के बाद एक शिखर बैठकों के आयोजन की तैयारियों में लगे हुये हैं।

सिल्क रोड पर विदेशी शैतान: मध्य एशिया के गुम हो चुके खजाने की तलाश उन साहसिक पुरुषों की बेहद रोचक कहानी को बयां करती है जिन्होंने सुदूर पश्चिमी चीन में लंबी दूरी की पुरातात्विक छापेमारी की थी, जो तब तक तकलामाकन रेगिस्तान के गुम हो चुके शहरों की तलाश में लगे रहे, जब तक उन्हें रेत की चलती लहरों द्वारा धीरे-धीरे निगल नहीं लिया गया (और 19वीं सदी की शुरुआत तक दोबारा से खोज नहीं हुई।)

मध्य एशिया का दौरा विदेश मंत्री एस. जयशंकर के यात्रा कार्यक्रमों से हमेशा परे रहा है। लेकिन इस बार वे व्यक्तिगत रूप से दुशांबे में होने वाले एससीओ कार्यक्रम में भाग लेने के लिए इसे एक बड़ा अपवाद बना रहे हैं और संभवतः साथ ही साथ सीएसटीओ शिखर सम्मेलन में भी हिस्सा ले सकते हैं।

निःसंदेह यह एक असाधारण परिस्थिति है क्योंकि 20 साल तक चले युद्ध में अमेरिका की हार के बाद अफगानिस्तान में तालिबान का सत्ता पर कब्जा जमा लेना चर्चा का मुख्य विषय होने जा रहा है। एससीओ और सीएसटीओ शिखर सम्मेलनों से उम्मीद है कि दो सुरक्षा संगठनों के सदस्य देशों के बीच से ‘इच्छा के गठबंधन’ द्वारा समर्थित क्षेत्रीय स्तर पर तालिबान विरोधी प्रतिरोध की यदि कोई संभावना है तो उसमें कुछ पारदर्शिता को प्रविष्ठ कराया जा सके।

इन शिखर सम्मेलनों में पश्चिम का सीधे तौर पर प्रतिनिधित्व नहीं हो रहा है, लेकिन फिर भारत की उपस्थिति इसकी भरपाई करने के लिए पर्याप्त है। दिल्ली क्वैड का झंडाबरदार भी है, जो 24 सितंबर को वाशिंगटन में अपना पहला शिखर सम्मेलन भी आयोजित करने जा रहा है, जिसकी अध्यक्षता राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ‘बाद के अफगानिस्तान’ की पृष्ठभूमि में की है। 

अफगानिस्तान में जारी घटनाक्रम पर क्षेत्रीय प्रतिक्रिया समान धरातल पर नहीं हैं। इसके एक छोर पर पाकिस्तान, ईरान और चीन खड़े हैं जो तालिबान के साथ जुड़ने की वकालत करते हैं, ताकि एक समावेशी सरकार और अफगानिस्तान के भीतर मौजूद आतंकी समूहों को मिटाने की प्रतिबद्धता के बारे में अपनी नीतियों को सकारात्मक दिशा में ‘मार्गदर्शन और आग्रह’ कर सकें। वे तालिबान की ग्रहणशीलता को लेकर काफी हद तक आश्वस्त लगते हैं।

इसके दूसरे छोर पर ताजिकिस्तान खड़ा है जो किसी भी परिस्थिति में अपने पड़ोस में एक कट्टरपंथी इस्लामी सरकार को स्वीकार करने से साफ़ इंकार करता है। इन दोनों के बीच में दो मौसम विशेषज्ञ रूस और उज्बेकिस्तान खड़े हैं।

बहरहाल अभी तक किसी भी क्षेत्रीय देश ने तालिबान सरकार के साथ प्रतिरोध में जाने की वकालत नहीं की है। हालाँकि रुसी प्रचार तंत्र क्रेमलिन के आदेश पर यू-टर्न मारकर साफ़-साफ़ गैर-दोस्ताना व्यवहार कर रहा है, जो कि कल तक मास्को द्वारा आंदोलन की एक वैध अपरिहार्य अफगान ईकाई के तौर पर भूरी-भूरी प्रशंसा करता रहा है से लेकर राष्ट्रपति पुतिन का तालिबान के बारे में अपने अभिमानी वर्णन में साथ के लिए पर्याप्त रूप से ‘सभ्य’ नहीं मानना है।

अफगान सरकार में गैर-पश्तून जातीय समूहों के गैर-प्रतिनिधित्व को लेकर ईरान का गंभीर मसला बना हुआ है। वास्तव में, ईरान का अफगानिस्तान के (सुन्नी) ताजिकों और हज़ारा शियाओं से जातीय आत्मीयता रही है, जो एक साथ मिलकर आबादी का तकरीबन 45% हिस्सा हैं। ईरान के इस मुद्दे पर समझौता करने की उम्मीद नहीं है। एक तरह से देखें तो ईरान अफगानिस्तान के लोकतंत्रीकरण को बढ़ावा देने का काम कर रहा है। जो कि एक अच्छी बात है।

लेकिन ईरान ने तालिबान के इस आश्वासन को भी मान लिया है कि वह सऊदी-इजरायली-अमीराती समर्थित आतंकी समूहों को अफगानिस्तान से संचालन करने की इजाजत नहीं देगा। बुनियादी तौर पर ईरान को इस बात से संतोष है कि तालिबान ने अमेरिकी कब्जे को सफलतापूर्वक खत्म कर दिया है।

ईरान और रूस को पाकिस्तान का कथित प्रभुत्व पसंद नहीं आया है, जैसा कि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के मामले में हासिल किया है। हालाँकि इसका मतलब यह नहीं है कि इससे मानसिकता पूरी तरह से नकारात्मक हो चुकी है या ‘खेल बिगाड़ने’ की कोई इच्छा जाग्रत हो रही है, खासकर यह देखते हुए कि अफगानिस्तान की समग्र तौर पर स्थिरता, विशेष रूप से सीमा सुरक्षा को लेकर उनका काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है। अमेरिकी कब्जे के 20 वर्षों के दौरान ईरान को सीमा-पार आतंकवाद और नशीले पदार्थों की तस्करी से गंभीर समस्या होती रही है।

रूस के लिए भी सीमा सुरक्षा का मुद्दा बेहद अहम है। एक शुरूआती नजर डालें तो हम पाते हैं कि अफगान सीमा से महज 100 किलोमीटर की दूरी पर नुराक में (ताजीकिस्तान के गोर्नो-बादाख्शान क्षेत्र) में, रूस के पास बाहरी अंतरिक्ष में वस्तुओं का पता लगाने के लिए अपनी अंतरिक्ष निगरानी प्रणाली है। समूचे उत्तर-सोवियत काल में इसके लिए यह अपनी तरह का एकमात्र स्थान है, जो पामीर पर्वत में साफ़ आकाश क्षेत्र में मौजूद है। यह स्टेशन पूरी तरह से स्वचालित है और इसमें बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के काम करने की क्षमता है। इसमें अन्तरिक्ष से सूचना एकत्र करने के अलावा भूस्थिर कक्षा में मौजूद रहकर अन्तरिक्ष में वस्तुओं की 120 किमी से लेकर 40,000 किमी की दूरी से निगरानी करने की क्षमता है। रूस के लिए यह एक अपूरणीय रणनीतिक संपत्ति है।

लेकिन अफगान की ओर के गोर्नो-बादाख्शान क्षेत्र में आतंकी समूहों के इकट्ठा होने की खबरें आ रही हैं, जिसमें मध्य एशियाई समूह, विशेषकर तालिबान के साथ लड़ने वाला जमात अंसाररुल्लाह है, जिसकी स्थापना ताजिक युद्ध सरदार अम्रिद्दीन ताबारोव 2010 में की गई थी।

जहाँ तक भारत का संबंध है तो उसका चीन, ईरान और रूस के साथ आतंकवाद का मुकाबला करने को लेकर समान हित हैं, लेकिन उनकी खतरे को लेकर धारणा और दृष्टिकोण में फर्क है। भारत की मुख्य चिंता इस बात को लेकर है कि पाकिस्तान समर्थित आतंकी समूह कहीं अफगानिस्तान में अपनी पनाहगाह न बना लें।

इसके साथ ही साथ, भारत और रूस में अशांत मुस्लिम आबादी भी है जो खुद को दबा हुआ महसूस करती है और दिल्ली और मास्को को उनके ‘कट्टरपंथी’ हो जाने की चिंता खाए जा रही है। काबुल में तालिबान की जीत ने क्रेमलिन द्वारा नियुक्त किये गए मौजूदा चेचेन नेता, रमज़ान काद्यरोव को चिंता में डाल दिया है, जो इस बात से घबराया हुआ है कि यह रूस के खिलाफ ‘एक अमेरिकी परियोजना’ तो नहीं है। 

हालाँकि काद्यरोव के अपने खुद के धार्मिक मामलों के सलाहकार अदम शाखिदोव ने एक इन्स्टाग्राम टिप्पणी में तालिबान की सफलता को सराहा है, कुछ हद तक गुप्त रूप से उनके मातुरीदी-हनाफ़ी पंथी होने का हवाला दिया है! अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आ जाने से उत्तरी काकेशस उग्रवादियों का हौसला निश्चित रूप से बढ़ा है। तालिबान की सत्ता में वापसी पर सबसे ज्यादा उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया काकेशस अमीरात की तरफ से आई है। यह एक पैन-काकेशस उग्रवादी समूह है जिसके चेचेन शाखा ने “अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात, मुजाहिदीन और अफगानिस्तान के सभी मुसलमानों को इस महान, ऐतिहासिक जीत पर” बधाई दी है।

क्रेमलिन चिंतित नजर आता है। खबर है कि राष्ट्रपति पुतिन ने निर्देशित किया है कि किसी भी सीएसटीओ सदस्य देश को अमेरिकी निकासी योजना पर बिना उनकी स्पष्ट मंजूरी के कुछ भी लेना-देना नहीं रखना चाहिए। (मध्य एशियाई देशों के साथ रूस का वीजा मुक्त शासन है।)

स्पष्टतया रूस भारत की चिंताओं को लेकर सहानभूति रखता है, और यही वजह है कि जिसने शीर्ष क्रेमलिन अधिकारी निकोलाय पत्रुशेव को परमार्श के लिए दिल्ली लाने का काम किया। हालांकि, रूस को घात लगाये बैठे आइएसआईएस की भी चिंता सता रही है जो किसी भी अराजकता का फायदा उठाने के लिए तैयार बैठा है। भारत के विपरीत, जो कि अमेरिका का एक जूनियर पार्टनर है, रूस को इस बात की चिंता खाए जा रही है कि वाशिंगटन का भूत आइएसआइएस को उसके खिलाफ भू-राजनीतिक औजार के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है। रुसी सुरक्षा प्रतिष्ठान के कुछ हलकों को भी तालिबान के संबंध में अमेरिका-पाकिस्तान की आपसी मूक सहमति का संदेह है।

क्या यह सघन प्रतिमान काबुल में तालिबान को सैन्य बल से उखाड़ फेंकने के लिए एक साझे ईरान-रूस-भारत उद्यम के तौर पर परिवर्तित करने में सक्षम है? हर्गिज नहीं। हर किसी के अपने विशिष्ट हित हैं और किसी के पास भी तालिबान सरकार का विकल्प मौजूद नहीं है।

इसके अलावा आज परिस्थितियां भी पूरी तरह से भिन्न हैं। भारत ने 1990 के दशक में भारत में आतंकवाद को पाकिस्तानी समर्थन देने के खिलाफ बदले की कार्यवाई के तौर पर तालिबान विरोधी प्रतिरोध की मदद की थी। बदले में, तालिबान ने एक भारतीय नागरिक विमान के कंधार अपहरण के वक्त पलटवार किया था। प्रतिरोध के लिए ईरान के समर्थन ने तालिबान को 1998 में मज़ाई-ए-शरीफ में इसके वाणिज्यिक दूतावास में तैनात 11 ईरानी राजनयिकों की भयंकर हत्या से जवाबी हमले की ओर ले गया था। इसी तरह तालिबान ने चेचन्या में विद्रोही सरकार को मान्यता देकर रूस पर जवाबी हमला किया था।

उज्बेकिस्तान जो कि सबसे महत्वपूर्ण मध्य एशियाई देश है, अध्ययन के लिए एक मामला प्रस्तुत करता है। ताशकंद निश्चित ही इस बात से चिंतित है कि किस प्रकार की सरकार अफगानिस्तान में बनने जा रही है और क्या तालिबान विभिन्न जातीय समूहों और राजनीतिक शक्तियों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के साथ रह पाने में सफल हो सकेगा। आदर्श रूप में देखें तो ताशकंद काबुल में एक समावेशी सरकार को प्राथमिकता देना पसंद करेगा।

लेकिन जिंदगी तो वास्तविक है। संक्षेप में कहें तो ताशकंद न केवल अफगानिस्तान के लिए गठबंधन सरकार को ही समर्थन देने में खुद को सीमित करने जा रहा है, बल्कि किसी भी नतीजे को स्वीकार करने और गृह युद्ध में किसी अन्य के उपर किसी एक का पक्ष लेने से बचने की फ़िराक में है। ताशकंद ने सारा ध्यान अपनी सेना को मजबूत करने पर लगा रखा है ताकि वह किसी भी खतरे से निपटने के लिए चाक-चौबंद और तैयार रहे। अफगानिस्तान से आने वाले किसी भी शरणार्थी प्रवाह का उज्बेकिस्तान समर्थन नहीं करता है।

ताशकंद मास्को से सुरक्षा मामलों में मदद लेना जारी रखेगा, लेकिन उसने रुसी दादागिरी को दूर रखने और अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को बनाये रखने के लिए हमेशा एक लाल लकीर खींच रखी है। वास्तव में, ताशकंद अफगानिस्तान के लिए मध्य एशियाई क्षेत्र में घुसने के लिए मुख्य प्रवेश द्वार भी है और वह अफगान पुनर्निर्माण में अपनी भागीदारी के लिए तत्पर रहने वाला है।

कुलमिलाकर, उज्बेकिस्तान उसी नीतिगत दृष्टिकोण को व्यवहार में लागू कर रहा है जिसे उसने 1996 में लिया था जब तालिबान ने काबुल में सत्ता पर कब्जा कर लिया था। यकीनन, 1990 के दशक की तुलना में यह कूटनीति के मामले में पहले से अधिक जानकार, आत्मविश्वासी, स्थिर चित्त और कुशल बन चुका है। यहाँ तक कि ताशकंद तालिबान को मुख्यधारा में लाने के लिए एक स्थल भी बन गया है!

प्रथम दृष्टया, यह ताजिकिस्तान ही है जो भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान के सबसे करीब का जान पड़ता है। लेकिन दिल्ली को निश्चित तौर पर राष्ट्रपति एमोमाली रहमोन के गुणा-भाग को भी समझने की जरूरत है, जिसमें 5 दिशायें हैं: जिसमें से पहला है, वे जनता की राय के साथ तालमेल बिठाते हैं, जिसके पास 1990 के दशक में हिसंक गृह युद्ध की यादें हैं और जो कट्टरपंथी इस्लाम के मानने वालों से घृणा करते हैं।

किसी भी अन्य पुराने ख्यालों वाले तानाशाह की तरह ही रहमोन की पहली चिंता उनकी घरेलू राजनीति की है। उभरती स्थिति रहमान के लिए उत्तराधिकारी के रूप में अपने बेटे रुस्तम की संभावनाओं को आगे बढ़ाने के लिए अनुकूल हैं। उन्होंने खुद को अधिकाधिक तौर पर अफगानिस्तान के ताजिक समुदाय के रक्षक के रूप में स्थापित करना शुरू कर दिया है, जो घरेलू गलियारे में भी काफी अच्छे से काम आता है।

रहमोन की सरकार ने हाल के दिनों में राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काना शुरू कर दिया है, जो लोगों को कोविड-19 के कारण होने वाले आर्थिक संकट से ध्यान भटकाने में मदद पहुंचा सकती है। हालाँकि, विडंबना यह भी है कि ताजिकिस्तान के लोग अफगानिस्तान में किसी भी प्रकार के संघर्ष में नहीं फंसना चाहते, जो कि एक बेहद गरीब देश और विफल राज्य बन चुका है, जिसे साम्राज्यों की कब्रगाह के तौर पर जाना जाता है!

दूसरा, रूस का मध्य एशिया में ‘सुरक्षा प्रदाता’ के तौर पर अच्छा रिकॉर्ड नहीं रहा है। इसका काम हथियारों की आपूर्ति करना और सैन्य अभ्यास करना रहा है, लेकिन जब कभी भी संकट की घड़ी आई है, तो इसने एक कोने में खड़े रहने को प्राथमिकता दी है। इस सबके बावजूद, रहमोन तालिबान के खिलाफ एक अंग पकड़ने में चले गए हैं। यह समझ से परे है कि उन्होंने इस बारे में पुतिन से सलाह मशविरा नहीं किया होगा। क्या वे लोग ‘अच्छी पुलिस, बुरी पुलिस’ की भूमिका अदा कर रहे हैं? इस प्रकार की नौटंकी मध्य एशियाई राजनीति के स्थानीय रूप से बीमारी की तरह व्याप्त है और रूस इस मामले में एक मंजा हुआ अभिनेता है।

तीसरा, निःसंदेह राजनीति में इस्लाम की भूमिका के प्रति रहमोन की शत्रुता सच्ची है। अभी हाल ही में उन्होंने 2015 में अपनी गठबंधन सरकार से इस्लामवादियों को तख्तापलट के प्रयास के आरोपों में बेदखल कर दिया था। ऐसे में तालिबान जैसे और भी अधिक कट्टरपंथी इस्लामी समूह के साथ सहभागिता में जाने के किसी भी चिन्ह को ताजिक घरेलू राजनीति में अपने खुद के लिए किसी झटका देने से कम जोखिम का काम नहीं होगा।

चौथा, ताजिकिस्तानी अर्थव्यवस्था का तकरीबन एक तिहाई हिस्सा नशीली दवाओं के व्यापार से आता है, जिसके अधिकांश हिस्से को भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा नियंत्रित किया जाता है। ताजिकिस्तान इस बात को सुनिश्चित करना चाहेगा कि यह लाभदायक वस्तु उत्तर (रूस और यूरोप) दिशा की तरफ जाती रहे। लेकिन तालिबान ने बार-बार इस बात को दोहराया है कि वह अफगानिस्तान में अफीम या अन्य नशीले पदार्थों के उत्पादन को जारी रखने की अनुमति नहीं देगा। दिलचस्प बात यह है कि ताजिक अधिकारियों ने काबुल में तालिबान से मुलाक़ात कर उन्हें आश्वस्त किया है कि दुशांबे विद्युत् आपूर्ति पर हुए द्विपक्षीय समझौते से पीछे नहीं हटेंगे। सीमा पार आने जाने का सिलसिला भी खुला रहने जा रहा है।

और अंत में, रहमोन के हिसाब से तालिबान सरकार के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने से लाभ की स्थिति बनी रहने वाली है। अफगानिस्तान के खिलाफ एक मुख्य किरदार के रूप में देश की इस प्रकार की स्थिति ताजिकिस्तान के लिए पश्चिम से बेहद जरुरी आर्थिक मदद हासिल करने में मददगार साबित हो सकती है। वास्तव में वे अक्टूबर में राष्ट्रपति मैक्रॉन और यूरोपीय संघ परिषद के अध्यक्ष चार्ल्स मिशेल से मिले निमंत्रण को स्वीकार कर पेरिस और ब्रुसेल्स की यात्रा का समय निर्धारित करने में व्यस्त हैं। 

कुलमिलाकर कहें तो, अगर तालिबान सरकार ने जल्द से जल्द सत्ता पर अपनी पकड़ को मजबूत कर लिया और अन्य क्षेत्रीय राज्यों ने काबुल के साथ अपने सीधे संबंधों को विकसित करने का विकल्प चुना, तो रहमोन को अपनी दिशा को बदलने के लिए दबाव का सामना करना पड़ सकता है। ताजिक गुप्तचर एजेंसियों के तालिबान सहित अफगानिस्तान के अंदर गहरे तक तार जुड़े हुए हैं। अगर तालिबान पंजशीर को शांत करने में सफल रहा तो दुशांबे में नीतिगत बदलाव अवश्यंभावी है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि दुशांबे में चल रही ये घटनाएं उन सभी के लिए नींद से जागने का एक आह्वान हो जो कम से कम तालिबान विरोधी प्रतिरोध के बारे में सपने संजोये बैठे हैं। जब तक तालिबान बड़े पैमाने पर नासमझी नहीं करता है, जिसकी संभावना बेहद क्षीण लगती है, जैसा कि महिलाओं की शिक्षा और इसी तरह की अन्य व्यावहारिकता को देखते हुए देखने को मिल रहा है। ऐसे में हम एक ऐसे शासन को देखने जा रहे हैं जो यहाँ पर लंबे समय तक कायम रहने जा रहा है, और एक ऐसे स्तर का शासन प्रस्तुत करने जा रहा है जिसे सबसे अमीर और सबसे विकसित देशों के प्यादे मुहैय्या करा पाने में विफल साबित हुए।

यदि तालिबान मध्य एशिया और पश्चिम एशिया के कुलीन वर्गों या इस क्षेत्र में हर जगह के लिए लोकतंत्रीकरण के लिए आदर्श नमूना बन जाता है तो सबसे आखिरी हंसी इतिहास के नाम होगी। विशेषकर दक्षिण एशिया के लिए जहाँ पर मानवाधिकारों और न्याय से इंकार किया जाता है और राजकीय दमन जीवन का एक कड़वा सच है।

गुरूवार को दुशांबे में जमा हो रहे इन ‘विदेशी शैतानों’ को इस बात का अहसास नहीं है कि वे क्या करने जा रहे हैं। यहाँ पर एक छोटा सा फुटनोट अनुपातिक भावना को बहाल रखने में शायद मदद करे: दरअसल यह 1875 में एक आधिकारिक भारतीय सरकार की रिपोर्ट का अनुसरण कर रहा था जिसमें तकलामाकन रेगिस्तान के उन गुम हो चुके खंडहरों के खजानों का वर्णन किया गया था कि कैसे दुनिया के हर कोने से इसे खोद निकालने की होड़ लगी हुई थी। और, इनमें से हर कोई अनिवार्य रूप से अपनी खुद की समस्याओं और रोचक परिस्थियों में घिर गया था। 

एमके भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। आप उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत थे। व्यक्त किये गये विचार निजी हैं।

साभार: इंडियन पंचलाइन 

India
TALIBAN
Afghanistan
International affairs

Related Stories

भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल

भारत में तंबाकू से जुड़ी बीमारियों से हर साल 1.3 मिलियन लोगों की मौत

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आईपीईएफ़ पर दूसरे देशों को साथ लाना कठिन कार्य होगा

UN में भारत: देश में 30 करोड़ लोग आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर, सरकार उनके अधिकारों की रक्षा को प्रतिबद्ध

वर्ष 2030 तक हार्ट अटैक से सबसे ज़्यादा मौत भारत में होगी

लू का कहर: विशेषज्ञों ने कहा झुलसाती गर्मी से निबटने की योजनाओं पर अमल करे सरकार

वित्त मंत्री जी आप बिल्कुल गलत हैं! महंगाई की मार ग़रीबों पर पड़ती है, अमीरों पर नहीं

रूस की नए बाज़ारों की तलाश, भारत और चीन को दे सकती  है सबसे अधिक लाभ

प्रेस फ्रीडम सूचकांक में भारत 150वे स्थान पर क्यों पहुंचा

‘जलवायु परिवर्तन’ के चलते दुनियाभर में बढ़ रही प्रचंड गर्मी, भारत में भी बढ़ेगा तापमान


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License