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महामारी के इस भयावह दौर में केंद्रीय सत्ता और देश-विदेश का मीडिया
वाशिंगटन पोस्ट, वॉल स्ट्रीट जर्नल और न्यूयार्क टाइम्स जैसे बड़े अखबारों में भारत के कोरोना-संकट और शासकीय विफलता की खबरें नियमित आ रही हैं। लेकिन भारत के ज्यादातर भाषायी अखबार ऐसे दौर में भी या तो सरकार का बचाव करने में जुटे हैं या कुछ हल्की-फुल्की टिप्पणियां करके सिर्फ सरकारी मशीनरी द्वारा प्रसारित खबरें छाप रहे हैं।
उर्मिलेश
01 May 2021
महामारी के इस भयावह दौर में केंद्रीय सत्ता और देश-विदेश का मीडिया

भारत को छोड़कर पूरी दुनिया का मुख्यधारा मीडिया इस वक्त कोविड-19 के मौजूदा भारतीय महासंकट के लिए ‘वायरस’ से ज्यादा यहां की शासकीय व्यवस्था को जिम्मेदार मान रहा है। बेहाली-तबाही और मौतों का असल कारण भले ही कोरोना संक्रमण हो पर भारत के लोगों को बचाने में राष्ट्रीय सरकार की गैर-जवाबदेही और ‘आपराधिक लापरवाही’ ने देश के हालात को इतना खराब किया है। यह बातें वैश्विक मीडिया कह रहा है। शासन और उसकी विभिन्न एजेंसियों की तरफ से सिर्फ लापरवाही ही नहीं की गई, संक्रमण को और फैलाने वाले फैसले लेकर उन्हें लागू भी कराया गया। इन फैसलों को आम लोगों और यहां तक कि कुछ विपक्षी दलों के विरोध के बावजूद लागू कराया गया। इसमें कुछ प्रमुख फैसले थेः कई राज्यों में चुनाव के दौरान बड़े-बड़े रोड-शो, कोरोना दौर के प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ाने वाली भव्य रैलियां-सभाएं, फिर सत्ताधारी दल को फायदा पहुंचाने के लिए बंगाल की 292 सीटों के चुनाव को आठ चरणों(27 मार्च से 29 अप्रैल) में कराया जाना, इसके अलावा यूपी सहित कुछ राज्यों में पंचायती चुनाव या उप चुनाव कराया जाना और साथ में पर्वतीय राज्य-उत्तराखंड के हरिद्वार में बड़े पैमाने पर कुंभ मेले के आयोजन को हरी झंडी देना! 

इन सबके लिए देश की अनेक न्यूज वेबसाइटें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के अलावा भारत के निर्वाचन आयोग पर सवाल उठाती रही हैं। न्यूज पोर्टल्स और यू-ट्यूब चैनलों के भारतीय पत्रकार भी लगातार इस तथ्य को सामने लाते रहे हैं। इन्हीं तथ्यों की रोशनी में मद्रास हाईकोर्ट ने तो अपनी एक मौखिक टिप्पणी में यहां तक कह दिया कि आयोग के उच्चाधिकारियों के खिलाफ लोगों की हत्या का मामला क्यों न चले? मद्रास हाईकोर्ट की टिप्पणी के बाद देश के मुख्यधारा मीडिया ने निर्वाचन आयोग पर कुछ सवाल उठाये लेकिन सरकार पर कुछ बोलने या लिखने से परहेज किया। किसी नकारात्मक संदर्भ में वह प्रधानमंत्री मोदी का तो नाम तक नहीं लेता! स्वतंत्र भारत के इतिहास में मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं, जिनकी भारत के मुख्यधारा मीडिया में सिर्फ सकारात्मक या प्रशंसात्मक संदर्भों में ही चर्चा होती है। 

तमाम मीडिया-मैनेजमेंट के बावजूद इस भयावह सच को तो सामने आना ही था। भारतीय वेबसाइटों और कुछ लघु पत्र-पत्रिकाओं के अलावा दुनिया भर का मुख्यधारा मीडिया इन दिनों प्रधानमंत्री मोदी और उऩकी सरकार की विफलता, लापरवाही और यहां तक कि कोरोना के फैलाव में अहम भूमिका निभाने वाले कुछ विवादास्पद प्रशासनिक फैसलों पर जमकर प्रहार कर रहा है। न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, द टाइम्स, वॉल स्ट्रीट जर्नल, गार्डियन, टाइम मैगजीन, द ऑस्ट्रेलियन, स्ट्रैट्स टाइम्स (सिंगापुर) और ऐसे अनेक पत्रों ने भारत के हालात पर नियमित रिपोर्टिंग की है और विचार-लेख छाप रहे हैं। भारत सरकार इन अखबारों और पत्रिकाओं से बहुत नाराज भी हैं। दुनिया की मशहूर पत्रिका टाइम ने तो इस बार भारत के भयावह हालात पर बाकायदा अपनी आवरण कथा छापी है। इसके आवरण पर भारत के एक बड़े श्मशान का डरावना चित्र है, जिसमें चारों तरफ चिताएं ही चिंताएं जल रही हैं। इस आवरण कथा की मुख्य रिपोर्ट नैना बैजेकल ने लिखी है और विचार लेख राणा अयूब का है।

द ऑस्ट्रेलियन के कवेरज से तो मोदी सरकार इस कदर नाराज है कि ऑस्ट्रेलिया स्थित भारतीय उच्चायोग से अखबार को बाकायदा खंडन भेजा। इस आलेख को मूलतः द टाइम्स में छापा गया था, जिसे उसके एशिया संवाददाता फिलिप शेरवेल ने लिखा है। उच्चायुक्त की तरफ से जारी खंडन में उस आलेख को निराधार और पूर्वाग्रह ग्रस्त बताया गया है। इस आलेख में लेखक ने ठोस तथ्यों की रोशनी में माना है कि भारत में कोरोना की यह दूसरी भय़ावह लहर और उससे होने वाली अभूतपूर्व तबाही के पीछे केंद्र सरकार की घमंड-भरी मानसिकता, अंध-राष्ट्रवादी ज्वार और प्रशासनिक मशीनरी की आपराधिक अक्षमता सबसे अहम् कारण हैं। द गार्डियन में मशहूर भारतीय लेखिका अरुंधति रॉय ने अपने लंबे आलेख में जो भी लिखा है, उसका लब्बोलुबाब है कि ‘भारत में जो कुछ हो रहा है, वह सिर्फ सत्ता की विफलता नहीं है, उसकी तरफ से मनुष्यता के विरूद्ध किया जाने वाला अपराध है!’ वाशिंगटन पोस्ट, वॉल स्ट्रीट जर्नल और न्यूयार्क टाइम्स जैसे बड़े अखबारों में भी भारत के कोरोना-संकट और शासकीय विफलता की खबरें और लेख नियमित तौर पर आ रहे हैं। लेकिन भारत के ज्यादातर भाषायी अखबार ऐसे दौर में भी या तो सरकार का बचाव करने में जुटे हैं या फिर लाचारगी में इधर-उधर की कुछ हल्की-फुल्की टिप्पणियां करके सिर्फ सरकारी मशीनरी द्वारा प्रसारित खबरें छाप रहे हैं। सिर्फ अंग्रेजी के कुछेक अखबार थोड़ा-बहुत साहस दिखाते हुए कुछ अच्छे विचार-लेख छाप रहे हैं। लेकिन भारत में वैकल्पिक मीडिया कही जाने वाली अंग्रेजी की कई वेबसाइटें इन अखबारों से भी बहुत सारगर्भित और तथ्यपरक लेख छाप रही हैं। उऩके यहां कमी दिखती है तो सिर्फ अच्छी रिपोर्टिंग की। शायद, इसलिए कि उनके पास जरूरी संसाधन नहीं हैं।

सबसे निराशाजनक बल्कि शर्मनाक स्थिति भारत, खासकर उत्तर भारत स्थित कथित नेशनल न्यूज चैनलों की है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान इन कथित चैनलों के कवेरज, कंटेंट-फार्म और इनके एंकरों के मिजाज को देखते हुए इनके लिए टीवीपुरम् का संबोधन हमने उपयुक्त समझा है। अंग्रेजी-हिंदी में प्रसारण करने वाले कुछेक संस्थानों के कुछेक रिपोर्टरों की अपेक्षाकृत साहसिक रिपोर्टिंग के अलावा समूचा टीवीपुरम् सत्ता-भक्ति में लगा हुआ है। कैसी विडम्बना है, भारत का टीवीपुरम् मनुष्यता से मुंह मोड़कर सत्ता के साथ खड़ा है लेकिन दुनिया के कई बड़े न्यूज़ चैनलों ने कोरोना की दूसरी लहर से तबाह होते भारत के सच को बहुत ईमानदारी और मेहनत से दिखाना शुरू किया है. उन्होंने मनुष्यता के साथ खड़े होना तय किया है। 

कई बड़े अंतरराष्ट्रीय न्यूज चैनल इन दिनों अपने एशियाई और मूल प्रसारण में भी भारत के कोरोना-संकट का व्यापक कवरेज कर रहे हैं। वे ठोस तथ्यों के साथ बता रहे हैं कि प्रचंड अज्ञानता, चुनावी-सफलताओं से उपजे दंभ और नीतिगत कमियों से किस तरह भारत के ‘सिस्टम’ ने पूरे समाज और देश को उसके हाल पर छोड़ दिया है! किस तरह महामारी की भयावहता को ‘सिस्टम’ ने और बढ़ाया है, ये तमाम विदेशी चैनल इसकी बहुत तथ्यपरक और वस्तुगत प्रस्तुति कर रहे हैं। उत्तर भारत के हिंदी भाषी क्षेत्रों से चलाये जाने वाले टीवीपुरम् से बिल्कुल अलग बीबीसी, सीएनएन, डी डब्ल्यू, फ्रांस-24, अल-जजीरा और सीएनए  जैसे अनेक न्यूज चैनलों के इंटरनेशनल ब्रॉडकास्ट प्लेटफॉर्म्स पर इन दिनों भारत के हालात की जिस तरह की रिपोर्टिंग दिख रही है, वह प्रोफेशनलिज्म का सर्वोत्तम उदाहरण है। अपने यहां के टीवीपुरम् के एक भी---जी हाँ एक भी चैनल पर वह सुसंगत ढंग से नहीं नजर आती। कई विदेशी चैनल भारत स्थित अपने संवाददाताओं के अलावा विदेश से आये संवाददाताओं के जरिये हालात की व्यापक रिपोर्टिंग करा रहे हैं। यहां के चैनलों और अखबारों की तरह वे एक नाकाम और नकारा सिस्टम चलाने वाले सत्ताधारी दल की 'नयी चुनावी-जीतों' की भविष्यवाणी करने वाले एक्जिट पोल पर घंटों का वक्त नही जाया कर रहे हैं। वे सभी भारत में दवा, अस्पताल बेड, ऑक्सीजन की भारी किल्लत से मरते लोगों और गैरजिम्मेदार सिस्टम की प्रचंड मूर्खता और क्रूरता के  चलते दम तोड़ती मनुष्यता के पक्ष में लिख रहे हैं और सच लिखकर भारत की सत्ता पर अब और गलत न करने का दबाव बना रहे हैं।

यही नहीं, वे पूरी दुनिया के हुक्मरानों पर भारत को मदद पहुंचाने का मानस भी बना रहे हैं। विदेशी अखबारों-चैनलों और भारतीय वेबसाइटों के कवरेज के चलते ही आज दुनिया भर से भारत को मदद मिलनी शुरू हुई है।  बीबीसी का मैं कभी अंध-प्रशंसक नहीं रहा, प्रशंसा के साथ उसकी आलोचना भी करता रहा हूं। लेकिन सिस्टम की अदूरदर्शिता और भटकी हुई प्राथमिकता ने जिस तरह करोड़ों की आबादी को कोविड-19 जैसे भयानक वायरस के आगे असहाय छोड़ दिया है, उसकी अपेक्षाकृत बेहतर रिपोर्टिंग के जरिये इस ब्रिटिश न्यूज़ चैनल ने असंख्य पीडित भारतीयों के पक्ष में बड़ा काम किया है और लगातार कर रहा है। उसके लंदन स्थित केंद्र से भारत की पीड़ा को सामने लाने वाली तरह जिस तरह की तथ्यात्मक खबरें और तस्वीरें प्रसारित हो रही हैं, वह क़ाबिले तारीफ़ है। उसके रिपोर्टर जान जोखिम में डालकर निर्भीक रिपोर्टिंग कर रहे हैं। इनमें ज्यादातर भारतीय ही हैं, लंदन के स्टूडियो में बैठे प्रसारक और एंकर भले विदेशी हों। इससे यह भी साफ होता है कि भारत के रिपोर्टर अपना काम अच्छे से, ईमानदारी से और प्रोफेशनल गुणवत्ता के साथ करने में सक्षम हैं। लेकिन उत्तर-भारतीय टीवीपुरम् में उन्हें न तो करने दिया जाता और न कराने में उनके संचालकों की रुचि है।

भारतीय वेबसाइटों, यू-ट्यूब चैनलों और विदेशी अखबारों व चैनलों की खबरों और आलेखों के दबाव से केंद्र की सरकार पर बहुत ज्यादा असर भले न पड़ा हो लेकिन दुनिया के तमाम देशों से सहायता-उपकरण, ऑक्सीजन गैस, आर्थिक सहायता, टीका और दवाएं आदि आने लगी हैं। जरूरत है, इनके उपयोग में सही समन्वय और वितरण की सुसंगत पद्धति विकसित करने की। राज्यों तक तभी यह सामग्री पहुंचेगी। यह जिम्मेदारी तो निश्चय ही हमारे केंद्रीय प्रशासन को ही संभालनी होगी। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार निजी हैं।) 

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