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भारत
राजनीति
वित्तीय केंद्रीकरण से बढ़ता राजनीतिक केंद्रीकरण
करों की रकम के बँटवारे में केंद्र के हिस्से के बढ़ते जाने और राज्यों की वित्तीय स्थिति बदतर होने के साथ ही बाढ़, सूखे, आदि आकस्मिक मदों में आबंटन में भी केंद्र ने राजनीतिक दृष्टि से भेदभाव शुरू कर दिया है।
मुकेश असीम
10 Feb 2020
modi and nirmala
फोटो साभार : swarajyamag

भारतीय संविधान में फेडरल ढाँचे की बात कही गई है पर यह मूलतः एक अर्धकेंद्रीय ढाँचा है जिसमें केंद्र के पास राज्यों पर नियंत्रण के लिए विविध उपाय रहे हैं। किंतु 1980 के दशक से केंद्र में रही गठबंधन सरकारों और राज्यों में सशक्त क्षेत्रीय दलों के दौर में ऐसा भ्रम पैदा हुआ था जैसे राज्यों की स्थिति सशक्त हुई हो। लेकिन पहले वाजपेयी नेतृत्व वाली एनडीए और बाद में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने नागरिकता कानून से एनआईए तक ऐसे कई कानूनी परिवर्तन किये जिनका पूरा प्रभाव 2014 के बाद केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सशक्त मोदी सरकार के बाद सामने आया है। पर यहाँ अभी हम केंद्र-राज्यों के वित्तीय संबंधों के क्षेत्र में हुए उन दो अहम परिवर्तनों की चर्चा करेंगे जिनकी वजह से केंद्र सरकार की स्थिति बहुत मजबूत हो गई है और राज्यों की उस पर बढ़ती वित्तीय निर्भरता मोदी सरकार के राजनीतिक वर्चस्व को भी बढ़ा रही है।

इसमें पहला महत्वपूर्ण परिवर्तन था देश के पैमाने पर समान उत्पाद एवं सेवा कर अर्थात जीएसटी कानून के लिये किया गया संविधान संशोधन। जीएसटी लागू करने के लिये सभी दलों एवं राज्य सरकारों ने मिलकर राज्यों व नगरपालिकाओं जैसे स्थानीय निकायों द्वारा अधिकांश सेवाओं और उत्पादों पर अप्रत्यक्ष कर लगाने के अपने संवैधानिक अधिकार को त्याग कर यह शक्ति केंद्र सरकार के हाथों में सौंप दी। अब पेट्रोलियम पदार्थों तथा शराब पर लगने वाले वैट/सेल्स टैक्स, एक्साइज, आदि तथा भूमि व मकान जैसी स्थाई संपत्ति के ट्रांसफर पर लगने वाली स्टैम्प ड्यूटी जैसी कुछ थोड़ी सी चीजों को छोड़कर राज्य सरकारें कोई टैक्स नहीं लगा सकतीं। इसी तरह नगरपालिकायें भी चुंगी जैसे कर नहीं लगा सकतीं। इसका असर समझने के लिये मुंबई महानगरपालिका का उदाहरण ले सकते हैं जिसके लिये चुंगी आय का सबसे बड़ा साधन था जिससे उसे लगभग 9-10 हजार करोड़ रुपये सालाना की आय होती थी।

टैक्स लगाने का अधिकार केंद्र को सौंप देने के बदले राज्यों को समान दर वाले जीएसटी की उस राज्य में हुई वसूली के अतिरिक्त केंद्र ने राज्यों को इससे होने वाले नुकसान के लिये मुआवजा देने का भी करार किया था। किंतु यह मुआवजा मात्र 5 साल अर्थात 2022 तक ही दिया जाना है। पर अभी से कई राज्य महसूस करने लगे हैं कि वे अपनी वित्तीय जरूरत और अपनी अर्थव्यवस्था की स्थिति के अनुसार अपनी वित्तीय आय को नियंत्रित करने के लिये कर दरों को न तो बढ़ा सकते हैं न अपने राज्य के विकास के लिए कोई रियायत ही दे सकते हैं।

अतः वे केंद्र के 33% वोट वाली जीएसटी काउंसिल के फैसलों पर पूरी तरह निर्भर हैं। जब तक केंद्र द्वारा निर्धारित समय पर मुआवजा मिल रहा था तब तक तो विशेष दिक्कत नहीं हुई किंतु जब 2019 में टैक्स वसूली में गिरावट से केंद्र की वित्तीय स्थिति तंग हुई तो उसने मुआवजे के भुगतान में न सिर्फ देरी करनी शुरू की बल्कि राज्यों के साथ राजनीतिक संबंधों के आधार पर भेदभाव की शिकायतें भी आने लगीं कि जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं उनके हिस्से के भुगतान में देरी की जा रही है। अब राज्य सरकारों को चिंता होने लगी है कि 2022 में मुआवजा बंद हो जाने पर क्या होगा?

दूसरा अहम घटनाक्रम वित्त आयोग द्वारा इनकम व कॉर्पोरेट टैक्स जैसे केंद्रीय करों में केंद्र व राज्यों के बीच बँटवारे से संबंधित है। संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत हर 5 साल के लिये सरकार द्वारा नियुक्त वित्त आयोग केंद्र व राज्यों सरकारों से सलाह कर इन करों की रकम के बँटवारे के फॉर्मूले की सिफ़ारिश करता है जिसे अमूमन केंद्र सरकार मानती आई है। 2014 के पिछले वित्त आयोग ने इन करों में राज्यों का हिस्सा 42% तय किया था जिसे केंद्र सरकार ने मान लिया था।

किंतु व्यवहार में पाया गया कि केंद्र सरकार ने हर वर्ष इन टैक्सों के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क आदि के नाम पर लेवी, सेस, सरचार्ज, आदि लगाने शुरू कर दिये और टैक्स वसूली की रकम का उत्तरोत्तर बढ़ता हिस्सा इनके जरिये उगाहने लगी। किंतु कानून के अनुसार यह टैक्स नहीं हैं अतः इनमें आई रकम राज्यों के साथ नहीं बांटी जाती। पिछले साल पाया गया कि केंद्र सरकार द्वारा वसूले गए कुल राजस्व में तय 42% के बजाय राज्यों को मात्र 35% भाग ही मिला। इस वर्ष यह भाग और भी गिरकर 32% ही रह गया। इस तरह केंद्र सरकार ने तय फॉर्मूले को चोर दरवाजे से बेअसर कर दिया।

पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने वाजपेयी सरकार में वित्त सचिव रहे एनके सिंह की अध्यक्षता में 15वें वित्त आयोग की नियुक्ति की थी जिसे वित्तीय वर्ष 2020-21 से अगले 5 वर्ष के लिये करों के बँटवारे का फॉर्मूला सुझाना था। पहले तो केंद्र सरकार द्वारा इसके विचार के लिये तय शर्तों से ही कई राज्य आशंकित हो गये क्योंकि इसमें 1991 के बजाय 2011 की जनसंख्या को आधार माना गया था जिससे कम जनसंख्या वृद्धि वाले राज्यों का हिस्सा कम होने का खतरा था। अतः इस आयोग की सिफ़ारिशों पर पहले से ही सबकी निगाह थी। किंतु इस आयोग ने अभी मात्र आगामी एक वित्तीय वर्ष के लिये ही एक अंतरिम रिपोर्ट दी है।

हालांकि कहा गया है कि इस वर्ष के लिये राज्यों का कुल हिस्सा पहले जितना ही रखा गया है, मात्र राज्य न रहने के कारण जम्मू कश्मीर का हिस्सा एडजस्ट करने के लिये 42% से 41% कर दिया गया है पर जम्मू कश्मीर का हिस्सा पहले सिर्फ 0.8% ही था। अतः राज्यों का कुल हिस्सा 0.2% घट गया है। साथ ही राज्यों के मध्य बँटवारे की गणना में परिवर्तन के कारण केरल, कर्नाटक, पंजाब जैसे सीमित जनसंख्या वृद्धि वाले राज्यों को नुकसान हुआ है और बिहार जैसे अधिक आबादी वृद्धि दर वाले राज्यों को लाभ हुआ है जबकि बीजेपी सरकार जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण की बात का बहुत ढ़ोल पीटती आई है। सिर्फ कर्नाटक का ही उदाहरण लें तो उसे इस सूत्र व सेस, लेवी आदि के कारण पहले से घटते हिस्से की वजह से पिछले वित्तीय वर्ष के मुक़ाबले अगले वर्ष 8 हजार करोड़ रुपये कम मिलेंगे।

करों की रकम के बँटवारे में केंद्र के हिस्से के बढ़ते जाने और राज्यों की वित्तीय स्थिति बदतर होने के साथ ही बाढ़, सूखे, आदि आकस्मिक मदों में आबंटन में भी केंद्र ने राजनीतिक दृष्टि से भेदभाव शुरू कर दिया है। केरल में 2018 की भयंकर बाढ़ के बाद केंद्र सरकार ने उसे कोई मदद करने से स्पष्ट इंकार के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय मदद लेने की अनुमति देने से भी इंकार कर दिया जबकि बीजेपी शासित राज्यों को उससे कहीं कम आपदाओं में बड़ी रकम आबंटित की गई। किंतु यहाँ केरल सरकार की भी इस बात के लिए आलोचना करनी होगी कि उसने इस पक्षपातपूर्ण निर्णय को अन्य विपक्षी दलों और राज्य सरकारों के साथ मिलकर राजनीतिक विरोध का मुद्दा बनाने के बजाय लंदन स्टॉक एक्स्चेंज में 6 हजार करोड़ रुपये के मसाला बॉन्ड जारी कर कर्ज ले लिया। इन बॉन्ड पर उसे ब्याज चुकाना होगा और अंतत राज्य की वित्तीय स्थिति और भी बदतर होगी।

इसके अतिरिक्त 15वें वित्त आयोग ने अब करों की कुल रकम को केंद्र व राज्यों के बीच दो हिस्सों बाँटने की जगह केंद्र, रक्षा व राज्यों के तीन हिस्सों में बाँटने का विचार प्रस्तुत किया है जबकि अब तक रक्षा व्यय केंद्र के हिस्से में शामिल होता था। इससे राज्यों का हिस्सा और भी कम होने की आशंका पैदा हो गई है। यहाँ हमें मोदी सरकार द्वारा किए जा रहे इस वित्तीय केंद्रीकरण के तीन प्रमुख निहितार्थों को समझना होगा।

प्रथम- 1 फरवरी को प्रस्तुत बजट से पहले ही स्पष्ट है कि केंद्र सरकार की वित्तीय स्थिति तंग है और वह न सिर्फ विकास कार्यों पर पूँजीगत खर्च नहीं कर पा रही है बल्कि उसे शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी सामाजिक सेवाओं पर भी खर्च घटाना पड़ रहा है। लेकिन पूँजीगत खर्च में राज्यों का हिस्सा केंद्र से भी अधिक है। अब राज्यों को मिलने वाली रकम में इतनी भारी कटौती से वे भी पूँजीगत खर्च कम करने को विवश होंगे जिससे अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा किया गया पूँजी निवेश अत्यंत कम हो जायेगा जो अर्थव्यवस्था के लिए बेहद चिंताजनक खबर है।

दूसरे, सरकारी क्षेत्र में होने वाले इस वित्तीय केंद्रीकरण को भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था में बढ़ते केंद्रीकरण के साथ जोड़कर देखना होगा। अर्थव्यवस्था में गहराते आर्थिक संकट के साथ ही गलाकाट होड भी तेज हो रही है जिसमें छोटे क्षेत्रीय पूँजीपति बड़े इजारेदार पूँजीपतियों के सामने टिक नहीं पा रहे हैं। छोटे-मध्यम पूँजीपति जहाँ बड़े पैमाने पर दिवालिया हो रहे हैं वहीं अंबानी, अदानी, टाटा, जैसे बड़े पूँजीपतियों की पूँजी और मुनाफे बढ़ रहे हैं।

ये बड़े इजारेदार पूँजीपति अर्थव्यवस्था के साथ ही राजनीतिक केंद्रीकरण को भी बढ़ावा दे रहे हैं ताकि पूरा देश इनके लिए एक पूर्णतः एकीकृत बाजार बन जाये और अलग राज्यों-क्षेत्रों के लिये इन्हें उनकी सरकारों के अनुसार अलग योजना नहीं बनानी पड़े। जीएसटी जैसे एक देश एक कानून के समर्थन में बड़े मीडिया प्रचार का कारण यही था। तब इसे ऐसे प्रस्तुत किया गया था जैसे जीएसटी लागू न होने से बहुत बड़ी विपत्ति आने वाली है जबकि वास्तविक नतीजा इसका ठीक उलट हुआ। इन्हीं इजारेदार पूँजीपतियों के नियंत्रण वाला मीडिया ही एक मजबूत सरकार और मजबूत नेता वाले फासिस्ट विचार के लिए वैचारिक प्रचार भी चलाता है।

तीसरे, वित्तीय संसाधनों के लिए केंद्र पर निर्भर राज्य सरकारों के लिए केंद्र के राजनीतिक फैसलों का विरोध करना भी मुश्किल होता जायेगा। अगर कुछ राज्यों के चुनावों में बीजेपी की हार से विपक्षी दलों की सरकारें भी बन जायें तो भी उनके द्वारा बीजेपी के राजनीतिक एजेंडे का प्रतिरोध करने की उम्मीद इसीलिए पूरी होना मुश्किल है। उदाहरण के तौर पर धारा 370 या नागरिकता कानून पर क्षेत्रीय दलों के लिए बीजेपी का समर्थन करना विवशता है क्योंकि वे अपनी राज्य सरकारों हेतु संसाधन पाने के लिए उसे नाराज करने का खतरा मोल लेने से अधिकाधिक कतराएंगी।

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