NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
भारत का एक राष्ट्रपति देश में तब्दील होना और 'संसदीय तानाशाही' का जन्म
इस 'संसदीय लोकतंत्र' के विचार ने भारत में चुनावी व्यवहार को समझने के तरीक़े को स्वाभाविक रूप से प्रभावित किया है।
अनुराग तिवारी
11 Nov 2021
Translated by महेश कुमार
parliament

संविधान सभा द्वारा 'संसदीय लोकतंत्र' के तरीके की व्यवस्था की उत्पत्ति के बारे में पता लगाते हुए, अनुराग तिवारी बताते हैं कि कैसे वर्तमान भारत में इसे एक प्रभावी 'संसदीय तानाशाही' में बदल दिया गया है।

हाल ही में, केरल उच्च न्यायालय ने काफी निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता की  कोविड टीकाकरण प्रमाणपत्र से प्रधानमंत्री की तस्वीर को हटाने की मांग उचित नहीं है और यह "खतरनाक प्रस्ताव" है। 

उच्च न्यायालय के इस अवलोकन से पता चलता है कि समकालीन समय में व्यक्तित्व की आभा या उसके असमान व्यक्तित्व को कैसे अपरिहार्य माना गया है। कुछ साल पहले एक समीक्षा याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट को भी राजनीति में व्यक्तित्व पंथ को ध्यान में रखते हुए अपने आदेश में संशोधन करना पड़ा था। ऐसा लगता है कि आज हमारी राजनीति में व्यक्तित्व पंथ के अनुपातहीन इस्तेमाल का पूर्वव्यापी न्यायिक रेशनलाइज़ेशन हो गया है।

इस लेख में, मैं यह तर्क दे रहा हूं कि यह हमारे संविधान और इसके निर्माताओं के मूलभूत सिद्धांतों के बिल्कुल विपरीत है और निश्चित रूप से एक खतरनाक प्रवृत्ति स्थापित करता है।

संसदीय प्रणाली

जब हमारे संविधान के निर्माता संविधान सभा में बहस कर रहे थे, तो उस समय के दौरान उन्हें सरकार के दो रूपों - संसदीय या राष्ट्रपति प्रणाली के बीच चयन करना पड़ा। उन्होंने पहली प्रणाली को चुना।

हालाँकि, केवल 'सरकार की संसदीय प्रणाली', जैसा कि इतिहास बताता है, ने भी कुछ अच्छा नहीं किया। सरकार की एक संसदीय प्रणाली ने ऐतिहासिक रूप से कुलीन प्रवृत्तियों को दिखाया था, जिसमें राजनेताओं के एक छोटे से अभिजात वर्ग के नेतृत्व वाली सरकार केवल संसद में बहुमत लाने के लिए जिम्मेदार थी, न कि पूरी संसद।

यहां तक कि डॉ बी.आर. अम्बेडकर ने 1945 में अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ के समक्ष अपने अध्यक्षीय भाषण के दौरान इस विसंगति की ओर इशारा किया था, जब उन्होंने कहा था कि "बहुमत शासन संसदीय सरकारों का मौलिक आधार है और यह सिद्धांत अपुष्ट और व्यवहार में अनुचित है"।

संसदीय लोकतंत्र

एक 'संसदीय लोकतंत्र' 'संसदीय सरकार' से एक कदम आगे है। यह न केवल संसद में बहुमत के लिए जिम्मेदार नहीं है, बल्कि इसका प्रतिनिधित्वकारी, खुला और पारदर्शी होना, सुलभ, जवाबदेह और प्रभावी होने का नैतिक दायित्व भी है। यह इस धारणा पर आधारित है कि राज सत्ता 'संसद' के साथ-साथ 'लोकतंत्र' दोनों के लिए उचित सम्मान दिखाएगा, और यह मानना होगा कि दोनों एक-दूसरे के लिए परस्पर समावेशी हैं।

किसी भी संसदीय लोकतंत्र के भीतर, राज सत्ता विचारशील लोकतंत्र पर जोर देती है, साथ ही नियंत्रण और संतुलन सुनिश्चित करने के लिए स्वतंत्र संस्थानों को बढ़ावा देती है, सामाजिक और राजनीतिक रूप से समावेशी होती है और बड़े राष्ट्रीय और नागरिकों के अपने से जुड़ाव के लिए आवश्यक स्थान बनाती है। यह सब संसद और उसके सदस्यों के माध्यम से किया जाता है, जो सिर्फ एक प्रतीकात्मक स्थिति से कहीं अधिक हैं।

दिलचस्प बात यह है कि भारतीय संविधान सभा ने सैद्धांतिक रूप से सरकार के केवल संसदीय स्वरूप के बजाय 'संसदीय लोकतंत्र' को चुना था। मोटे तौर पर कहें तो इस फैसले के पीछे कम से कम दो कारण थे। पहला ऐतिहासिक और प्रासंगिक था और दूसरा घरेलू था।

ऐतिहासिक कारण 

सरकार का एक ही किस्म संसदीय स्वरूप हास्यास्पद साबित होगा। हालाँकि, इसमें मात्र लोकतंत्रीकरण से भी मदद नहीं मिलती है। ऐसा इसलिए क्योंकि अब तक, यह बताने के लिए पर्याप्त सबूत मौजूद हैं कि लोकतंत्रीकरण ने संसदीय प्रणाली को बर्बाद कर दिया है तब, जब शासन-विरोधी ताकतों ने सत्ता हासिल कर ली है। 

बेल्जियम और फ्रांस जैसे स्थापित शासनों में, इन देशों में दक्षिणपंथी अतिवाद या धूर दक्षिणपंथी ताकतों के उदय के बाद संसदीय प्रणाली पतन के कगार पर आ गई थी। 1945 के बाद, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, जब दुनिया ने तानाशाही और सत्तावादी शासन के विनाशकारी प्रभावों को देखा था, तो संसदीय लोकतंत्र की अचानक लहर सी शुरू हो गई थी, और सरकारों को शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के तहत "संसदीय सरकार" और "लोकतंत्र" को एक साथ मिलाने की तत्काल जरूरत महसूस हुई थी। भारत भी इस प्रवृत्ति का कोई अपवाद नहीं था।

इसके अलावा, भारत का संसदीय लोकतंत्र का चुनाव और जिस रूप में यह आज मौजूद है, वह भी प्रासंगिक था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिकांश सदस्य, स्वतंत्रता के बाद और उससे भी बहुत पहले, अंग्रेजी वेस्टमिंस्टर-शैली के संसदीय लोकतंत्र को भारत के लिए सबसे उपयुक्त मानते थे।

घरेलू कारण 

दूसरा विशुद्ध रूप से घरेलू कारण था। भारत जैसे अत्यंत विविध, बहुलवादी और विविधतापूर्ण देश में एक बहुदलीय प्रणाली के अस्तित्व ने निर्माताओं को सरकार के अधिक समावेशी स्वरूप, विविध प्रतिनिधित्व और विधायिका के बेहतर समन्वय के सिद्धान्त के साथ खड़ा होना पड़ा।  उन्होंने सोचा, इसे केवल एक संसदीय लोकतंत्र में सुनिश्चित किया जा सकता है जिसमें कार्यपालिका विधायिका द्वारा चुनी जाएगी और विधायिका का हिस्सा होगी, अपने कार्यालय की पूरी अवधि के दौरान वह विधायिका के प्रति जवाबदेह रहेगी और इसके परिणामस्वरूप, जैसा कि डॉ अम्बेडकर के कहा था, "इसका एक जिम्मेदार कार्यकारी होगा"।

डॉ. अम्बेडकर ने इस समझ को यह बताते हुए उचित ठहराया था कि विधायिका/संसद को "संसद के अंदर बैठे एक कार्यकारी से सीधे मार्गदर्शन और पहल की जरूरत थी"। यह परस्पर निर्भरता और सहयोग की अपरिहार्य जरूरत और सरकार में विविध प्रतिनिधित्व, अधिक जवाबदेही और बेहतर समन्वय को सुनिश्चित करेगी।

संविधान सभा के सदस्य यह भी नहीं चाहते थे कि किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह में किसी भी प्रकार की सरकारी शक्ति केंद्रित हो (केंद्र-राज्य संबंधों के मामलों को छोड़कर, जहां उन्होंने एक अधिक शक्तिशाली केंद्र को प्राथमिकता दी थी), जैसा कि निश्चित रूप राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार या केवल संसदीय प्रणाली के मामले में होता। अत्यधिक केंद्रीकृत ब्रिटिश राज के शासनकाल के दौरान भारतीय अनुभव को देखते हुए इसे एक स्पष्ट विचार माना गया था। 

एक धीमी गिरावट?

स्वतंत्रता के बाद के हमारे इतिहास के अधिकांश समय तक, भारत एक संसदीय लोकतंत्र था और हमें उस पर गर्व था। कई मौकों पर इसकी असफलताएं भी सामने आई, लेकिन यह अभी भी संसदीय लोकतंत्र के सबसे सच्चे रूप में उभरने में कामयाब रहा, जो विश्व राजनीति और आधुनिक इतिहास में अद्वितीय है। हालाँकि, वह परंपरा अब लगातार घटती जा रही है।

यह गिरावट दो भागों में है। सबसे पहला राजनेताओं का अपने को अनुपातहीन व्यक्ति के रूप में पेश करना (जो अब पहले से कहीं अधिक हो गया है) और दूसरा, राष्ट्र के संस्थानों के प्रति घटती श्रद्धा से ऐसा हुआ है। 

जीवन से बड़ी तस्वीर पेश करने वाले राजनेता

यह मेरा तर्क नहीं है कि भारत ने कभी जन-नेताओं का जन्म नहीं देखा है या कभी भी राजनीतिक दिग्गज नहीं हुए हैं जिन्होंने अपनी लोकप्रिय स्वीकृति और विश्वसनीयता के आधार पर चुनाव जीता है। मेरा तर्क उस पैमाने और आकार के बारे में है जिस पर मुद्दों के बजाय व्यक्तित्व हमारे राजनीतिक प्रवचन पर हावी हो गए हैं, कुछ ऐसा जो भारत के राजनीतिक इतिहास में पूरी तरह से अभूतपूर्व है।

इंदिरा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, एल.बी. शास्त्री, मोरारजी देसाई और ए.बी. वाजपेयी अपने आप में बेहद लोकप्रिय नेता थे। हालाँकि, उनका व्यक्तित्व ही उनके चुनाव जीतने का एकमात्र कारण नहीं था। उन्होंने जन-आंदोलनों, वैचारिक निष्ठाओं और जिस राजनीतिक दल से वे जुड़े थे, उसकी विश्वसनीयता के कारण भी चुनाव जीते थे। इसका मतलब था कि वे कुछ हद तक अपने राजनीतिक दलों पर निर्भर थे, जितना कि उनकी पार्टियां उन पर निर्भर थीं। इसने उन्हें बेलगाम शक्ति का प्रयोग करने और निरंकुश रूप से कार्य करने से रोका था।

यदि और जब कभी भी उन्होंने ऐसा करने का प्रयास किया (और कुछ अवसरों पर वे सफल भी हुए थे), तो उन्हें व्यापक आलोचना का सामना करना पड़ा और यहां तक कि बाद में चुनावी शक्ति का नुकसान हुआ (सबसे खास, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आपातकाल के बाद लोकसभा चुनाव हार गई थी)। 

हालांकि, आज इसके विपरीत हो रहा है। 'मोदी', 'ममता', 'केजरीवाल' और 'योगी' प्रभाव, और दूसरों द्वारा उसी का बढ़ता अनुकरण, यह साबित करता है कि राजनीतिक दल आज अपने चुनावी लाभ के लिए व्यक्तित्वों पर निर्भर हैं, इसके विपरीत अब कुछ और सच नहीं है। 

'राजनीति की मध्यस्थता' ने राजनेताओं की पार्टी की वफादारी को दरकिनार करते हुए और मीडिया के विभिन्न रूपों के माध्यम से सीधे मतदाताओं से अपील करने की क्षमता में वृद्धि की है। इसने निश्चित रूप से लोकलुभावन राजनेताओं की एक नई नस्ल पैदा कर दी है जो मतदाताओं तक पहुंचने के लिए चतुर और नवीन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं।

इसने 'संसदीय लोकतंत्र' के विचार और भारत में चुनावी व्यवहार को समझने के तरीके को स्वाभाविक रूप से प्रभावित किया है।

आज एक ही व्यक्ति को पेश कर चुनाव जीते और हारे जाते हैं, जिसे हर अच्छी चीज के प्रतीक के रूप में माना जाता है जो पहले था और रहेगा। निर्वाचन क्षेत्र के स्तर के  नेताओं को ज्यादातर दरकिनार कर दिया जाता है और अक्सर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। आज के निर्वाचित प्रतिनिधि, अतीत के चुने प्रतिनिधियों के मुक़ाबले अप्रासंगिक हो गए हैं क्योंकि वे एक केंद्रीय व्यक्ति पर निर्भर होते हैं, आमतौर पर वे अपने  राजनीतिक अस्तित्व के लिए उस एक ही व्यक्तित्व पर निर्भर हो जाते हैं। वे चुने जाते हैं और बाद में किसी एक व्यक्ति की खुशी के लिए पद छोड़ देते हैं। उनके पास इतनी शक्ति भी नहीं है कि वे सवाल उठा सकें या सार्वजनिक या संसद में अपना विरोध दर्ज करा सकें। इसलिए इसने चुनावों को केवल औपचारिकता तक सीमित कर दिया है।

राष्ट्र के संस्थानों के प्रति घटता सम्मान 

एक संस्था के रूप में संसद की भूमिका भी समझौतापरस्त है। एक ओर जहां यह माना जाता है कि राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर पहले चर्चा की जाती है और बाद में उन पर कानून बनाया जाता है, यह तेजी से एक ऐसा स्थान बन गया है जहां बिना किसी पूर्व परामर्श या किसी भी प्रकार की विधायी जांच के कानूनों को पारित कर दिया जाता है और कभी-कभी, यहां तक कि कभी-कभी क़ानूनों को अध्यादेश के रास्ते लागू कर दिया जाता है। संसदीय समितियों जैसे विचार-विमर्श करने वाले मंचों की भूमिका और प्रश्नकाल और गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयक के प्रावधान जैसे तंत्र धीरे-धीरे कम हो रहे हैं।

प्रधानमंत्री वस्तुतः अब संसद के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। वे शायद ही कभी बहस में भाग लेते हैं (जब भी बहस होती हैं)। वे इसके बजाय संसद के बाहर के लोगों से, चुनावी रैलियों और आधिकारिक कार्यों में, संवाद के बजाय एकतरफा संचार के रूप में सीधे बोलने में विश्वास करते हैं। यह सुनिश्चित करता है कि वह शून्य जवाबदेही के बावजूद और लोकलुभावनवाद तथा कोरी बयानबाजी का इस्तेमाल करते हुए चुनाव बाद चुनाव जीतते रहते हैं।

संसदीय तानाशाही

भारत के लोकतांत्रिक पारिस्थितिकी तंत्र में संसद के साथ-साथ उसके सदस्यों का गिरता कद और महत्व राजनीतिक विमर्श के केंद्रीकरण का एक स्पष्ट परिणाम है जहां पहचान के मुद्दे अधिक मायने रखते हैं। जब नागरिक, अपने जनादेश के माध्यम से, इस परंपरा को सुदृढ़ करते हैं, तो यह नेताओं और राजनीतिक दलों को ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

हालाँकि, यह एक नए प्रकार के राष्ट्र को जन्म देता है - एक जो संसदीय तानाशाही के रूप में चलता है। इसके बारे में सोचो। संसद, कम से कम कागज पर, कानून बनाना, कानून पारित करना और सत्र आयोजित करना जारी रखती है, और फिर भी, जैसा कि हमने देखा है, ऐसा नहीं हो रहा है।

जब आप इसका राजनीतिक पर्दा उठाते हैं, तो आप महसूस करते हैं कि यह तेजी से एक व्यक्ति के नियंत्रण में है जिसने अपनी पार्टी को संसद में बहुमत हासिल करने में मदद की थी। वह आज इस बहुमत को नियंत्रित करता है। यह बहुमत कानून और नीतिगत निर्णयों के रूप में उनके फरमान को वैधता प्रदान करता है। वस्तु एवं सेवा कर, नोटबंदी, संविधान के अनुच्छेद 370 को प्रभावी रूप से निरस्त करना, तीन तलाक का अपराधीकरण, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, और विवादित कृषि कानून जैसे संवेदनशील, आलोचनात्मक और ढुलमुल फैसले ऐसे ही कुछ मामले हैं।

इसलिए, जबकि संसदीय लोकतंत्र से चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से "लोगों की इच्छा" को प्रतिबिंबित करने की अपेक्षा की जाती है, यह आज उन्हीं प्रतिनिधियों के माध्यम से "प्रधानमंत्री की इच्छा" को प्रतिबिंबित कर रहा है।

यह बिना किसी दो राय के स्पष्ट है कि आज हमारी राजनीति अत्यधिक राष्ट्रपति प्रणाली जैसी हो गई है, लेकिन एक 'कार्यशील संसद' के माध्यम यह हो रहा है। अब तक यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यह संसदीय लोकतंत्र के लिए बड़ा संकट है और उन लोगों के प्रति तौहीन का सबब  है, जिन्होंने 75 साल पहले सोचा था कि यह प्रणाली हमारे लिए अच्छा काम करेगी।

(अनुराग तिवारी ग्लोबल गवर्नेंस इनिशिएटिव (जीजीआई) में 'इम्पैक्ट फ़ेलो' हैं और दामोदरम संजीवय्या नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, विशाखापत्तनम में स्नातक कानून के अंतिम वर्ष के छात्र हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

India’s Descent to a Presidential State and the Birth of ‘Parliamentary Dictatorship’

India
Miscellaneous
opinion
Parliamentary Democracy
democracy
Indian constitution

Related Stories

भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल

भारत में तंबाकू से जुड़ी बीमारियों से हर साल 1.3 मिलियन लोगों की मौत

भारत में संसदीय लोकतंत्र का लगातार पतन

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आईपीईएफ़ पर दूसरे देशों को साथ लाना कठिन कार्य होगा

जन-संगठनों और नागरिक समाज का उभरता प्रतिरोध लोकतन्त्र के लिये शुभ है

UN में भारत: देश में 30 करोड़ लोग आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर, सरकार उनके अधिकारों की रक्षा को प्रतिबद्ध

वर्ष 2030 तक हार्ट अटैक से सबसे ज़्यादा मौत भारत में होगी

लू का कहर: विशेषज्ञों ने कहा झुलसाती गर्मी से निबटने की योजनाओं पर अमल करे सरकार

वित्त मंत्री जी आप बिल्कुल गलत हैं! महंगाई की मार ग़रीबों पर पड़ती है, अमीरों पर नहीं

Press Freedom Index में 150वें नंबर पर भारत,अब तक का सबसे निचला स्तर


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License