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भारत ने खेला रूसी कार्ड
पुतिन की दिल्ली यात्रा से कुछ हफ्ते पहले इस महीने के अंत में मास्को में रूसी-भारतीय "2+2" मंत्रिस्तरीय की पहली बैठक घटनापूर्ण या महत्वपूर्ण होने वाली है क्योंकि यह वाशिंगटन में मंत्रिस्तरीय यूएस-भारतीय "2+2" जैसे बैठक से भी मेल खाती है। 
एम. के. भद्रकुमार
06 Nov 2021
Translated by महेश कुमार
Moscow

इस बात की संभावना कम ही लग रही थी कि पाकिस्तानी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद यूसुफ तालिबान शासित अफ़गानिस्तान के हालात पर चर्चा करने के लिए नई दिल्ली में सुरक्षा ज़ारों की एक क्षेत्रीय बैठक का निमंत्रण अपने भारतीय समकक्ष अजीत डोभाल से स्वीकार करेंगे।

बहरहाल, यूसुफ ने जिस तरह से इस बारे में सार्वजनिक रूप से बात की है, वह हैरान करने वाली है। भारतीय निमंत्रण के बारे में पूछे जाने पर, यूसुफ ने आवेश में कहा, “मैं नहीं जाऊंगा। कोई भी हालात को बिगाड़ने वाला शांतिदूत की भूमिका नहीं निभा सकता है।”

उत्सुकता की बात यह है कि पाक एफओ (विदेश कार्यालय) ने भी पहले, लेकिन कूटनीतिक रूप से संदेह व्यक्त किया था, जब उनके प्रवक्ता ने कहा था कि भारतीय आमंत्रण को "पाकिस्तान-भारत संबंधों और क्षेत्रीय स्थिति के समग्र संदर्भ में देखा जाना चाहिए।" एफओ यानि विदेश कार्यालय के प्रवक्ता को भी दिल्ली की मंशा पर शक था।

उन्होंने कहा कि "अफ़गानिस्तान पर वार्ता के संबंध में, ऐसा लगता है कि भारत अफ़गानिस्तान के संदर्भ में कुछ प्रासंगिकता खोजने की कोशिश कर रहा है। जैसा कि आप जानते हैं, कई अन्य क्षेत्रीय तंत्र और प्रक्रियाएं मौजूद हैं, जिनमें पाकिस्तान द्वारा ही शुरू की गई एक प्रक्रिया भी शामिल है –जिसमें अफ़गानिस्तान के पड़ोसी देशों को शामिल कर, पहली बैठक सितंबर में इस्लामाबाद में और दूसरी मंत्रिस्तरीय बैठक तेहरान में आयोजित की गई थी।

वास्तव में, विदेश विभाग के प्रवक्ता सही हैं। भारत बड़ी तीव्रता के साथ क्षेत्रीय अलगाव का सामना कर रहा है और निश्चित रूप से नीति निर्माताओं को लगा कि यह एक वार्ता/सम्मेलन भारत को मौजूदा गतिरोध से बाहर निकलने में मदद करेगा। क्या यह कूटनीति नहीं है?

जैसे-जैसे चीजें सामने उभर कर आ रहीं हैं, उसमें उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान के दिल्ली सम्मेलन/वार्ता में भाग लेने की संभावना है। भारतीय राजदूत ने सार्वजनिक रूप से भारत की अपेक्षा को जताते हुए बताया कि रूसी सुरक्षा परिषद के प्रमुख निकोलाई पेत्रुशेव सम्मेलन/वार्ता में भाग लेंगे। मास्को, ताशकंद और दुशांबे की निमंत्रण की स्वीकृति भारत के साथ उनके मैत्रीपूर्ण संबंधों का प्रतीक है।

जो चीज भारत को अलग-थलग करती है, वह अमेरिका के साथ उसका अर्ध-गठबंधन है, जिसका अफ़गानिस्तान पर तेजी से प्रभाव पड़ा है। क्षेत्र में अमेरिका की मंशा पर गहरा अविश्वास है और अफ़गानिस्तान के संबंध में विदेश मंत्री स्तर पर अमेरिका के साथ भारत का घनिष्ठ संबंध अब पूरी तरह से सार्वजनिक हो गया है।

हालाँकि, रूस कई गेंदों को हवा में उछाल रहा है। भारत, रूसी हथियार विक्रेताओं के लिए एक असाधारण ग्राहक है। राष्ट्रपति पुतिन वार्षिक रूसी-भारतीय शिखर सम्मेलन के लिए दिसंबर में भारत का दौरा कर सकते हैं, जो दौरा परंपरागत रूप से कुछ बड़े हथियारों के सौदों को अंतिम रूप देने का गवाह बन सकता है।

लेकिन यह व्यापारिक संबंध के अलावा कुछ भी है। अमेरिका-भारत-रूस त्रिकोण भी चलन में है। बेल्टवे का माहौल आजकल भारत के प्रति इतना अनुकूल है कि अमेरिकी सांसदों ने रूस से दिल्ली की रक्षा खरीद को सुलभ बनाने के लिए सीएएटीएसए (काउंटरिंग अमेरिकाज एडवर्सरीज थ्रू सैंक्शन्स एक्ट) से छूट देने के लिए ठोस कदम उठाया है, जैसे कि एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली की खरीद के मामले में किया गया है। 

तर्क सही है, अगर भारत, अमेरिका का अर्ध-सहयोगी है, चीन के मुकाबले अपनी सैन्य क्षमता को बढ़ा रहा है, तो यह ठीक काम कर रहा है, और कौन जानता है, कि इससे रूसी-चीनी समीकरणों में कुछ घर्षण या टकराव भी भी बढ़ सकता है। आखिरकार रूस, चीन के सामने खड़े होने की भारत की क्षमता को बढ़ा रहा है।

दिलचस्प बात यह है कि रूसी पक्ष पहले से ही अपनी नई विकसित एस-500 मिसाइल रक्षा प्रणाली में भारतीय रुचि को बढ़ा रहा है, जिसमें आईसीबीएम (इंटरकांटिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल) और हाइपरसोनिक मिसाइलों को रोकने की क्षमता है। (लेकिन रूस, चीन को भी उसी उन्नत प्रणाली को बेचने के लिए तैयार है!)

निश्चित रूप से, रिश्ते के मूल में इस तरह के मजबूत रक्षा सौदे से रूस से एक फायदा है क्योंकि अमेरिका के विपरीत, वह भारत को हाइपरसोनिक मिसाइलों, परमाणु पनडुब्बियों या एस-500 की अत्याधुनिक सैन्य प्रौद्योगिकी हस्तांतरित करने के लिए तैयार है। (जिसका मुकाबला अमेरिका नहीं कर सकता है।)

यह कहना काफी होगा कि पुतिन की दिल्ली यात्रा से कुछ हफ्ते पहले इस महीने के अंत में मास्को में रूसी-भारतीय "2+2" मंत्रिस्तरीय की पहली बैठक घटनापूर्ण या महत्वपूर्ण होने वाली है क्योंकि यह वाशिंगटन में मंत्रिस्तरीय यूएस-भारतीय "2+2" जैसे बैठक से भी मेल खाती है। 

इस तरह की जटिल पृष्ठभूमि में, अफ़गानिस्तान में रूसी-भारतीय सहयोग के आगे बढ़ने से  पड़ोसी देशों के मंत्रिस्तरीय मंच से भारत के बहिष्कार को कम करता है जो हाल की अवधि में इस्लामाबाद और तेहरान में क्रमश मिले थे। मूल रूप से, अफ़गान स्थिति के संबंध में भारत और रूस के बीच हितों का कोई टकराव नहीं है।

अब जबकि मॉस्को ने मध्य एशिया के किसी भी देश में किसी भी रूप में किसी भी अमेरिकी सैन्य उपस्थिति को सफलतापूर्वक रोक दिया है, इसलिए यह अब तालिबान सरकार के साथ अपने प्रभाव का लाभ उठाने की मजबूत स्थिति में है।

दूसरी तरफ, अगर तालिबान सरकार गिर जाती है या अफ़गानिस्तान गृहयुद्ध और अराजक परिस्थितियों में फिसल जाता है, तो तब भी रूस एक गंभीर खिलाड़ी होगा, क्योंकि हाइब्रिड युद्ध छेड़ने में इसकी जांची क्षमताओं का जवाब नहीं है। 

कोई गलती न हो, इसलिए इस बात को समझ लेना भी जरूरी है कि मास्को ताजिकिस्तान के राजनीतिक अभिजात वर्ग का भी सलाहकार है। इसलिए, भारतीय दृष्टिकोण से, अफ़गान समस्या पर दिल्ली की सबसे अधिक परिणामी भागीदारी केवल रूस के साथ होगी। दूसरे शब्दों में कहें तो डोभाल के क्षेत्रीय सम्मेलन आयोजित करने की पहल पर पैतुशेव के इसमें भाग लेने से गहरा प्रभाव पड़ेगा।

यकीनन, यूसुफ की आशंकाओं में कुछ सही बात हो सकती है। भारत में प्रभावशाली तबकों में तालिबान के बारे में अजीबोगरीब धारणाएं हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, भारत में सबसे अधिक आबादी वाले राज्य (लगभग पाकिस्तान की आबादी के समान) ने कल ही तालिबान के ठिकानों पर बालाकोट-शैली के भारतीय हवाई हमले की कल्पना की थी! यह सच है कि तालिबान के बारे में भारतीय अभिजात वर्ग का नजरिया आंशिक रूप से अज्ञानता के कारण ऐसा है, जबकि आंशिक रूप से राजनीतिक से प्रेरित है।

बहरहाल, पाकिस्तान को भारत का निमंत्रण स्वीकार करना चाहिए था, भले ही उसका यह विश्वास अच्छी तरह से स्थापित हो कि दिल्ली अफ़गानिस्तान में माहौल "बिगाड़ने" के रूप में काम कर रही है। पाकिस्तान को व्यावहारिकता की भावना विकसित करनी चाहिए जो भावना किसी भी महान खेल में किसी भी गंभीर खिलाड़ी के पास होती है।

आज ही, रूसी पक्ष ने खुलासा किया है कि सीआईए प्रमुख विलियम बर्न्स हाल ही में पेत्रुशेव से मिलने गुप्त रूप से मास्को गए थे। और यह ऐसे समय में हुआ है जब काले सागर में तूफानी बादल जमा हो रहे हैं और सार्वजनिक रिपोर्टें प्रचलन में हैं, जिसमें यूक्रेन के पास रूस के दक्षिण-पश्चिम में सैन्य ट्रेनों और ट्रक के काफिले को टैंक और मिसाइलों को निगरानी करते हुए दिखाया गया है।

डोभाल की पहल की भयानक सुंदरता यह है कि यह एक पूर्व-निर्धारित गंतव्य की ओर इशारा करते हुए एक निर्धारित कंपास के बजाय एक नई यात्रा की तरफ इशारा करती है। जो इसे निर्बाध संभावनाओं की यात्रा बनाती है। इस बैठक से पाकिस्तान के पास खोने के लिए कुछ नहीं था, शायद उसके पास कुछ पाने के लिए ही होता। शायद, युसूफ खुदइस्लामाबाद में भी ऐसी ही वार्ता का प्रस्ताव रख सकते थे। विश्वास करें कि डोभाल भी उनका निमंत्रण स्वीकार कर लेते। 

एम.के. भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वे उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रहे हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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