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सौम्य बातचीत अक्सर विभाजनकारी बहसों को कम करके आंकती है
जहाँ कोरोनावायरस के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था के मंदी में जाने का ख़तरा बन गया है वहीं भारतीय अर्थव्यवस्था पहले से ही धीमी पड़ चुकी है।
गौतम नवलखा
21 Mar 2020
कोरोनावायरस

वायरस के लिए न तो किसी देश की सीमा का कोई मतलब है, न ही उसे किसी राष्ट्र राज्यों की परवाह नहीं करनी पड़ती है और ना ही वह किसी नस्ल, धर्म, ग़रीब-अमीर, जाति या लिंग भेद में कोई भेद-भाव रखता है। इसने वैश्विक स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के सड़ांध मारते हालात पर पर एक बार फिर से चिंता करने पर मजबूर कर दिया है। दुनिया के क़रीब-क़रीब अधिकांश हिस्सों में इसे तत्काल दुरुस्त किये जाने की आवश्यकता है। यह हमारा ध्यान इस और भी आकृष्ट करने पर मजबूर कर रहा है कि एक ग़ैर-बराबरी वाली इस दुनिया में सिर्फ़ सामूहिक प्रयासों के द्वारा ही इस Covid-19 महामारी से सफलतापुर्वक निपटा जा सकता है। इसीलिए विडम्बना ये है कि एक ऐसे समय में जब ‘पुरानी व्यवस्था’ के पतन को बढ़ चढ़कर प्रोजेक्ट किया जा रहा हो और ‘नई व्यवस्था’ के उद्धव की घोषणा की जा रही हो, एक बार फिर से बहुपक्षीय मत एक बार फिर से प्रकट हो रहा है। इसका स्पष्ट प्रमाण अपनेआप में तब दिखाई देता है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सार्क देशों की सरकारों के शीर्ष नेतृत्व को “कोरोनावायरस से लड़ने के लिए संयुक्त रणनीति” पर विचार करने के लिए अपनी पहुँच बनाते दिखते हैं। जबकि इसी क्षेत्रीय निकाय को पिछले तीन सालों से अधिक समय से कूड़ेदान में फेंक दिया गया था।

याद करें सार्क देशों की 2016 में इस्लामाबाद में होने वाले शिखर सम्मेलन में भारत के शामिल होने से इनकार कर दिए जाने के बाद से यह कोमा में चला गया था। इसके बाद से भारत ने पाकिस्तान के साथ किसी भी प्रकार की बातचीत के रास्ते बंद करते हुए पाकिस्तान को “अलग-थलग” करने के अथक प्रयासों में अपनी ओर से कोई कमी नहीं छोड़ी। कई अन्य पहलकदमियों के साथ भारत बिम्सटेक (BIMSTEC) को आगे बढ़ाने पर ज़ोर देता रहा। हालाँकि जबसे भारत और पाकिस्तान शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के सदस्य बने तबसे पाकिस्तान के साथ क्षेत्रीय फोरम में किसी भी प्रकार की वार्ता से इनकार कर पाना संभव नहीं रह गया था। इसके अलावा कूटनीतिक रूप से भी पाकिस्तान को अलग-थलग नहीं किया जा सकता है, जैसा कि हाल के दिनों में अफ़ग़ानिस्तान में जारी घटनाक्रम से यह जाहिर होता है।

यह बात भी उतनी ही क़ाबिलेग़ौर है कि आईएसआईएस के एक बार फिर से पैर जमाने की संभावना बन रही है। जबकि काबुल में परस्पर विरोधी शासनों ने तालिबान से वार्ता में जाने की प्रक्रिया आरंभ कर दी है। हालात इस ओर इशारा करते हैं कि ऐसे में भारत और पाकिस्तान को मिलकर काम करने की ज़रूरत है। इसके साथ ही इन्हें अमेरिका, चीन और रूस के साथ के अपने सम्बन्धों का इस्तेमाल काबुल के दोनों पक्षों को तालिबान वार्ता से जुड़ने में प्रोत्साहन देने का होना चाहिए। निश्चित तौर पर इसे बेकार की कवायद समझकर परे नहीं हटा देना चाहिए, जहाँ पर पाकिस्तान की तकलीफ़ को भारत के लिए मज़े के रूप में देखा जाता है।

यहाँ पर यह भी ध्यान देने योग्य पहलू है कि अपनी तमाम इस्लामी विचारधारा के बावजूद तालिबान एक राष्ट्रवादी शक्ति है। आप चाहे उसे पसंद करें या नापसंद, वे सबसे पहले अफ़ग़ान है, फिर कुछ और। जिसे अफ़ग़ानिस्तान में शामिल सभी प्रमुख शक्तियाँ अपना समर्थन दे रही हैं। ये सब मिलकर तालिबान पर दबाव डाल सकते हैं कि वो सभी अफगान पक्ष की चिंताओं का वाजिब हल खोजने की कोशिश करे और युद्ध से बुरी तरह बिखरे पड़े इस देश के पुनर्निर्माण के गुरुतर कार्य की ज़िम्मेदारी को संबोधित करे। यदि अस्थिरता बनी रहती है तो यह न सिर्फ युद्ध को और लंबा खींचेगी बल्कि यह कदम आईएसआईएस को मज़बूत करेगा, जो दक्षिण और मध्य एशिया में भी इसके प्रभाव को बढ़ाने वाला सिद्ध हो सकता है।

इसके साथ ही जहाँ कोरोनावायरस के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था के मंदी में जाने का ख़तरा बन गया है वहीं भारतीय अर्थव्यवस्था पहले से ही धीमी पड़ चुकी है। ऐसे में इन चुनौतियों का सामना सिर्फ़ भारत के विख्यात लचीलेपन से कर पाना संभव नहीं, बल्कि इसके लिए बहु-पक्षीय सहयोग में जाना होगा। निश्चित तौर पर ऐसे दौर में क्षेत्रीय शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, ख़ासतौर पर भारत के पड़ोस में।

कोरोनावायरस को आज वैश्विक मूल्य श्रृंखला में बदलाव की गति के लिए एक ट्रिगर के रूप में देखा जा रहा है। इसकी एक वजह चीन के अपने उत्पादन के मुख्य केंद्र हुबेई प्रांत के पूरी तरह से ठप किये जाने से उत्पन्न हुई है। आज के दिन चीन का योगदान विश्व व्यापार में शीर्ष पर है। पूरी दुनिया के कुल उत्पादन का 23% हिस्सा चीन से आता है, जबकि अमेरिका का योगदान अब इसकी तुलना में 19% का ही रह गया है। आज के दिन चीन उठ खड़ा हो रहा है और इसका विशालकाय विनिर्माण क्षेत्र एक बार फिर से उठ खड़ा हो रहा है, वहीं दुनिया इस महामारी से जूझ रही है। इस बात की पूरी संभावना है कि चीन विश्व व्यापार में छा जाए। इसके पीछे की वजह ये है कि यह चीन है जिसका आज के दिन बहुपक्षीय विकास और निवेश का रिकॉर्ड दूसरों की तुलना में बेहतर है। इसके साथ ही उसने बहुपक्षीय यातायात, दूरसंचार, निवेश और व्यापार के क्षेत्र में भी काफी कुछ झोंक रखा है। बेशक अकेले विश्व अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित कर पाना इसके वश में नहीं, लेकिन चीन अपनी अग्रणी भूमिका को तो निभा ही सकता है।

इसके विपरीत सयुंक्त राज्य अमेरिका है वह एकमात्र देश है जो इस वैश्विक प्रयासों का नेतृत्व कर सकने में सक्षम है, लेकिन उसके अपने यहाँ सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली काफी खस्ताहाल स्थिति में है। यह ऐसा देश है जहाँ लड़ाई सार्वजनिक और निजी स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को लेकर अपने चरम पर है, और जिसका भविष्य अभी भी अनिश्चय में बना हुआ है। संयुक्त राज्य प्रशासन की रूचि भी अभी अंदरूनी मसलों को हल करने पर बनी हुई है जो उसे उसे एक अनिक्छुक नेतृत्व के रूप में दर्शाती है।

इसलिये हर किसी को सार्क में इस जम चुके रिश्तों में फिर से नई जान डालने वाले पल का स्वागत करना चाहिए। भारत की हैसियत दुनिया में तभी बढ़ सकती है यदि दक्षिण एशियाई क्षेत्र में क्षेत्रीय सहयोग और सह अस्तित्व के अहसास को विकसित किया जाए। पड़ोसी अच्छा हो या बुरा आप चाहें भी तो उन्हें अपने से दूर नहीं कर सकते। ऐसे असंख्य रास्ते हैं जिनमें भारत का भाग्य इस क्षेत्र के लोगों की खुशहाली और कल्याण से गुंथा हुआ है। इसके अलावा लोगों के बीच ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्ते हैं जिन्हें प्रोत्साहन और पोषण की जरुरत है। इसलिये जरूरत इस बात की है कि ऐसे किसी अदूरदर्शी और घमंड में चूर किसी अमेरिकी सैन्य गठबंधन में जाने, ताकि चीन को रोका जा सके के बजाय भारत को क्षेत्रीय सहयोग में निवेश करने की आवश्यकता है जो भारत के लिए चीन के समकक्ष बेहतर गारंटी मुहैया कराता है।

हालाँकि भारत के लिए एक मुख्य ख़ामी इसके विभाजित घरेलू राजनीतिक परिदृश्य में नजर आती है। विशेष तौर पर राज्य संस्थानों के सरकार समर्थित वैचारिक बदलाव के साथ-साथ वे नीतियाँ जिम्मेदार हैं जो विभाजन, मतभेद और वैमनस्य को जन्म देती हैं, के चलते हैं। 1950 के समावेशी संविधान को कुचलकर, जिसे “पुराने शासन” से सम्बन्धित कहा जाता है। वहीं दूसरी ओर “नया शासन” एकजुटता की अवधारणा को ही दरकिनार करने और बहिष्कृत करने को  बढ़ावा देता हो, और भारत को हिन्दुत्ववादियों के बहुलतावाद की ओर प्रेरित करता है। भीड़ द्वारा लिंचिंग और दूसरों पर निगरानी का जश्न मनाने से जिसकी पहचान हो और किसी व्यक्ति के राजनैतिक झुकाव, सामाजिक हैसियत के आधार पर कानून का लागू किया जाना ही इस “नई शासन” की पहचान बन चुकी है।

इस प्रकार जम्मू कश्मीर के विशेष राज्य के दर्जे के ख़ात्मे के साथ इसे करीब-करीब नई दिल्ली के एक उपनिवेश के स्तर तक गिरा देने से लेकर सीएए-एनपीआर-एनआरसी की तिकड़ी जो नागरिकता के प्रश्न को धर्म के साथ जोड़कर रखता है, हमारे सामने है। एक ऐसा शासन जो भेदभाव को संस्थाबद्ध करता हो, और कानून और संविधान का खुला मखौल उड़ाते हुए प्रदर्शनकारी नागरिक को निशाना बनाकर हमले और दमन का शिकार बनाता हो, इस क्षण को परिभाषित करने के लिए काफ़ी हैं।

वास्तव में यदि देखें तो हमारे दौर की यह उल्लेखनीय टिप्पणी होगी कि वे लोग जिन्हें शासकों द्वारा अपमानित और उत्पीड़ित किया जा रहा है, वे ही इस ‘पुराने’ लेकिन सार्वभौमिक और एकजुट करने वाले विचारों जैसे कि समावेशी नागरिकता, लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष संविधान और ‘आज़ादी’, जो कि 1950 के संविधान का मूलाधार रहा है को बचाने की लड़ाई में सबसे आगे खड़े नजर आते हैं। “नए” मध्युगीन व्यवस्था को कायम होने में समय है और उसके लिए इस तरह के ख़यालात ही अभिशाप बने हुए हैं। याद कीजिये उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने क्या कहा था अपने भाषण में: उनका दावा था कि “आज़ादी” के नारे लगाना एक देशद्रोही कृत्य है। यह हमें एक ऐसे दौर में देखने को मिल रहा है जब न्यायपालिका और कार्यपालिका खुलेआम इसकी वकालत करने में में जुटी हुई है।

भारत के केन्द्रीय विदेश मंत्री ने दो दिवसीय वार्ता “राष्ट्रवाद के उदय और वैश्वीकरण के ख़ात्मे” जिसे 2 मार्च को सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च द्वारा आयोजित किया गया था में बोलते हुए कई पहलुओं को रखा था। आपका कहना था कि बहुपक्षवाद कमजोर पड़ता जा रहा है, और उसका स्थान बहुपार्श्व ले रहा है जहाँ “राष्ट्रों के मिलजुलकर काम करने का एक मानक का सम्मेलन हो रहा है।” उन्होंने इशारा किया कि इस विवादास्पद दौर में बहस-मुबाहिसे अक्सर “ध्रुवीकृत” होते रहे हैं, और “परिदृश्य कहीं अधिक धुंधला नज़र आ रहा है।” आगे जोड़ते हुए आप कहते हैं “हितों की मुखरता ही चुनौतियों से घिरी हैं।” और फिर कहते हैं “सिर्फ़ देशों के बीच ही प्रतिद्वंदिता नहीं रह गई, बल्कि अक्सर यह आपस में ही नज़र आ रही है, जो पुराने और नई व्यवस्था के बीच के तनाव को रेखांकित करता है। जब विचारधाराएं, पहचान और इतिहास का व्यापार, राजनीति और रणनीति के साथ घालमेल हो जाता है तो यह एक शक्तिशाली काकटेल बन जाता है। लेकिन समय की माँग है कि सौहार्यपूर्ण बातचीत जारी रहे।”

चलिए इसे इसके सन्दर्भों में रखकर देखते हैं। “ध्रुवीकृत” बहस के लिए उनका संदर्भ कश्मीर के तालाबंदी के बाद से भारत के आग बुझाने वाले कूटनीतिक प्रयासों को लेकर था, जो 30 वर्षों साल से चले आ रहे आंतरिक युद्ध से उपजे भयानक त्रासदी और दर्द के शीर्ष पर लिया गया फैसला था। इसके साथ ही नए सीएए को लागू करने के साथ जो धर्म के आधार पर नागरिकता दिए जाने की वकालत करता है, और बीजेपी शासित उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में जिस तरह से व्यापक विरोध प्रदर्शनों का क्रूर दमन किया गया है, इन सबके चलते भारत को दुनिया भर में काफी अपयश झेलना पड़ा है। उत्तरी अमेरिका, यूरोपीय संघ के देशों के साथ-साथ इस्लामी देशों के संगठन के सदस्यों की ओर से सार्वजनिक तौर पर आलोचनाओं के साथ जिस तरह से वर्तमान घटनाक्रम पर अपनी चिंताओं को व्यक्त किया है, उसमें इनकी आवाज़ सूनी गई है। हालाँकि Covid-19 के मद्देनज़र इस आलोचना के स्वरों को अनसुना करने में मदद मिल सकती है लेकिन भारत किस दिशा की ओर बढ़ रहा है इसे लेकर आशंका तो बनी रहने वाली है, जब तक कि ये नीतियाँ बदली नहीं जातीं।

किसी भी सूरत में यदि भारत जैसे देश में जो 130 करोड़ लोगों का देश है, के भीतर कुछ भी घटित होता है उसका दुनिया भर के लिए काफ़ी महत्व है। विशेष तौर पर यह अपने महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक समुदाय के साथ कैसा व्यवहार करता है, यह काफ़ी मायने रखता है। और अगर यह अपने भीतर संघर्ष को तीक्ष्ण करता है तो इसमें कोई दो राय नहीं कि इसका असर इस पूरे क्षेत्र के विकास कार्यों पर अवश्य पड़ेगा। भारत के दो मित्र पड़ोसी देश, बांग्लादेश और मालदीव ने सीएए-एनपीआर-एनआरसी पर अपनी चिंताएं व्यक्त की हैं। इसमें आम तौर पर मुसलमानों और खास तौर पर बांग्लादेशियों को आधिकारिक तौर पर खलनायक के तौर पर निशाने पर लिया गया है और प्रचारित किया गया है। इसलिये जब विदेश मंत्रालय “हितों के बढ़ावा दिए जाने” की बात करता है तो उसका मतलब स्पष्ट तौर पर इसमें अपनी सरकार के विशिष्ट और विभाजनकारी राजनीतिक अभियान के औचित्य को वैध ठहराने की कोशिश दिखती है। यह इसे कुछ इस प्रकार से बचाव की मुद्रा अख्तियार करना है जैसे यह भारत के सार्वभौमिक अधिकारों के बचाव की बात कर रहा हो, हालाँकि देश इस मुद्दे पर विभाजित है।

शासकों के लिए यह स्वीकार कर पाना इतना मुश्किल क्यों है कि इस “विभाजनकारी बहस” के मूल में वे खुद हैं जिन्होंने इस “सौम्य बातचीत” किये जा सकने की लगभग सभी संभावनाओं को असंभव बना दिया है। “सौम्य बातचीत” हो सकने के लिए यह भी आवश्यक है कि सुने जाने के लिए ज़रूरी खुलेपन के साथ सीखने की चाहत का होना अति आवश्यक है।

“सौम्य बातचीत” की वकालत करने वाले लोगों को चाहिए कि सरकार देखे कि किन माध्यमों से उन्होंने भारत को ध्रुवीकृत कर रखा है, जहाँ पर देश की सारी उर्जा इन विभाजनकारी मुद्दों को लेकर नष्ट हो रही है, नागरिकों को हलकान किये है, जिसे अब एक महामारी वाले वायरस से जूझना पड़ रहा है और साथ में ये सारे विवादों से उसे गुजरना पड़ रहा है। इस आपाधापी में सीएए-एनपीआर-एनआरसी को आगे बढ़ाना कहाँ तक समझदारी की निशानी है? इन्हें बदनाम करने के बजाय बीजेपी सरकार क्यों इन प्रदर्शनकारी नागरिकों तक पहुँचने से कतरा रही है? एक ऐसे समय में जब सारी दुनिया इस वायरस की महामारी का सामना कर रही है और वैश्विक आर्थिक मंदी के आसन्न संकट को देख पा रही है?

और अंत में एक अशांत दुनिया में जिसे विदेश मंत्री दावा करते है कि “पुराने व्यवस्था” से “नए उभर रहे” में स्थानांतरित हो रही है, यह संक्रमण की अवधि लंबी हो सकती है और इसका परिणाम भी अनिश्चितता के घेरे में है। राजनीति एक प्रक्रिया है। हालाँकि ऐसा देखने में लग सकता है कि मानो दुनिया वैश्वीकरण से हटकर राष्ट्रवाद की ओर मुड़ चुकी है। इसमें कुछ भी सच नहीं सिवाय इस तथ्य के कि पूंजीवादी वैश्वीकरण की जो रफ़्तार हुआ करती थी, वह पहले से धीमी पड़ चुकी है। लेकिन चीजें उल्टे क्रम में जा रही हैं, ऐसा कुछ भी नहीं है। इसके विपरीत राष्ट्रवाद का उदय वास्तविक अर्थों में मुहँजबानी और कर्णभेदी चीखपुकार वाला कहीं अधिक है, न कि वैश्विक वैल्यू चैन या बहुपक्षवाद के किसी वास्तविक बिखराव की कोई जगह बनी है। भारत की एफ़डीआई और अंतर-मध्यस्थता पर जो निर्भरता है उसके साथ आयातित सैन्य साज़ोसामान पर जो निर्भरता है वह भी उसे अपनी सोच के पुनर्निर्धारण के लिए बाध्य करती है।

इसके अलावा शासक वर्ग जिस प्रकार से अपने बनाए ईको चैम्बर्स में है, वे उन्हें साहसिक पहल लेने के अनुकूल नहीं बनाते। यहाँ तक कि अति मंद-बुद्धि सरकार तक को पता होता है कि जिस “चहेते गोल घेरे” के भीतर वो है वहाँ से किसी नई प्रगतिशील विचारों का उदय नहीं होने जा रहा। उसे यदि इससे बाहर निकलना है तो यह जीवंत सांस्कृतिक और राजनीतिक बहसों, और ‘सौम्य’ लेकिन सुगठित बातचीत से ही कोई रास्ता निकलना संभव है।

काफ़ी कुछ है जो संभव हो सकता है, यदि नरेंद्र मोदी नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार हिम्मत दिखाए कि गतिरोध को भंग करने के लिए धर्मांधता से ग्रसित नागरिकता की धारणा में संशोधन करे, जम्मू कश्मीर में लगाए गए सभी बाधाओं को हटाए और न्यूनतम स्तर पर तमाम बंदी बनाए गए लोगो को रिहा करे। जिससे कि इससे जो उर्जा प्रवाहित होगी उसे बेहतर रचनाशील और रचनात्मक उद्यमों में लगाया जा सकता है। संकट की घड़ी कई बार अवसर भी निर्मित करती है- ताकि रास्ता बदला जा सके, जख्मों को भरा जा सके और आगे बढ़ने के लिए चुनौतियों से मुकाबला किया जाए।

या महामारी समाप्त हो जाने के बाद कहीं एक बार फिर से भारत उसी तंगदिल दलदल में धंसने के लिए अभिशप्त है?

लेखक एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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