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भारत
राजनीति
भारत के सफलतापूर्वक हाइपरसोनिक व्हीकल टेस्ट के मायने
हाइपरसोनिक मिसाइलों के प्रसार का खतरा वास्तविक नजर आ रहा है। क्या यह एक नए सिरे से सम्भवतः परमाणु हथियारों के प्रति एक नई दौड़ तो साबित नहीं होने जा रही है?
डी रघुनंदन
11 Sep 2020
भारत के सफलतापूर्वक हाइपरसोनिक व्हीकल टेस्ट के मायने

सात सितंबर, 2020 को रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) ने अपने पूरी तरह से स्वदेशी हाइपरसोनिक टेक्नोलॉजी डिमॉन्स्ट्रेटर व्हीकल (एचएसटीडीवी-HSTDV) के सफलतापूर्वक परीक्षण को संपन्न किया है, जिस पर पिछले एक दशक से अधिक समय से परीक्षण कार्य चल रहा था।

एचएसडीटीवी को सुबह 11:03 बजे ओडिशा के बालासोर के निकट व्हीलर द्वीप पर एपीजे अब्दुल कलाम परीक्षण रेंज से अग्नि मिसाइल बूस्टर रॉकेट से लॉन्च किया गया था। जब रॉकेट 30 किलोमीटर (करीब 100,000 फीट) की ऊंचाई पर पहुंच गया था, तब एचएसडीटीवी इससे अलग हो गया था और इसके हवा लेने की सुविधा खुल चुकी थी, जिसके बाद इसने स्वाचालित तरीके से एयर-ब्रीथिंग वाले स्क्रैमजेट (या सुपरसोनिक रैमजेट, जैसा कि बाद में इंजन ने समझाया) की फायरिंग शुरू कर दी थी। ज्वलन की प्रक्रिया 20 सेकंड से अधिक समय तक चली, जिसमें वाहन ने क्रूज वेग को प्राप्त करने में मच 6 (इस ऊँचाई पर लगभग 6,600 किमी प्रति घंटे या 2 किमी/सेकंड तक का समय लिया), जोकि परीक्षण की सफलता के लिए मुख्य मानदंड के तौर पर था।

डीआरडीओ ने इस बारे में कहा था कि "व्हीकल सभी पूर्व-निर्धारित मापदंडों पर सफलतापूर्वक खरा उतरा है, जिसमें 2500 डिग्री सेल्सियस से अधिक के दाहक तापमान के साथ-साथ हवा की गति को संभालने की क्षमता भी शामिल है।"

डीआरडीओ के प्रवक्ताओं के अनुसार, एचएसडीटीवी ने कई अन्य टेक्नोलॉजी एवं मापदंडों जैसे कि हाइपरसोनिक वेग से वाहन को अलग करने का काम, फ्यूल इंजेक्शन, ज्वलन हेतु स्वाचालित-उपक्रम की प्रक्रिया, हाइपरसोनिक संचालन के लिए वायुगतिकी, हाइपरसोनिक एयरफ्लो गति पर निरंतर दहन की प्रक्रिया, बेहद उच्च तापमान पर विशिष्ट वस्तुओं की गर्मी और ढांचे के प्रदर्शन जैसे मामलों में भी तकरीबन सटीक प्रदर्शन किया है।

इसके साथ ही भारत भी अब अमेरिका, रूस और चीन जैसे हाइपरसोनिक वाहनों के मामले में सिद्धहस्त देशों के चुनिंदा समूह का सदस्य हो चुका है, वहीं दूसरी ओर जापान, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और यूके जैसे अन्य मुट्ठी भर देश भी इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण क्षमता रखते हैं। इसके साथ ही डीआरडीओ अब विभिन्न अनुप्रयोगों के लिए तैनात किये जा सकने वाले हाइपरसोनिक वाहनों के विकास की दिशा में कदम उठाएगा, जिसके आज से तकरीबन पांच साल बाद फल देने की उम्मीद कर सकते हैं।

स्क्रैमजेट इंजन

ईंधन खर्च के मामले में सक्षम स्क्रैमजेट इंजन द्वारा संचालित हाइपरसोनिक हवाई वाहन, उच्च पार-वायुमंडलीय ऊंचाई पर ध्वनि (मच 6) की गति से करीब छह गुना तेज रफ्तार से यात्रा करते हैं, और फिर उसी वेग से उतर भी सकते हैं, जोकि पारंपरिक बैलिस्टिक वाहन के विपरीत आमतौर पर वायुगतिकीय उच्च गति वाली पैंतरेबाज़ी क्षमता लिए हुए है।

यदि देखें तो हाइपरसोनिक हवाई वाहनों में कई प्रकार की उपयुक्तता हैं जैसे कि दोबारा इस्तेमाल के लायक अंतरिक्ष प्रक्षेपण वाहन, कम लागत वाले उपग्रह प्रक्षेपण और निश्चित तौर पर इसमें नई पीढ़ी की मिसाइलें शामिल हैं। हाइपरसोनिक वाहनों में अनेकों नई टेक्नोलॉजी एवं सामग्री इत्यादि के इस्तेमाल की भी गुंजाईश है, जो विविध उद्योगों के लिए संभावनाओं के द्वार को खोलने का काम करती है। आइये अब इन पहलुओं की संक्षिप्त जांच कर लेते हैं।

अनेकों प्राथमिक प्रयासों के उपरान्त द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से विभिन्न देशों में वायु-श्वास इंजन या रैमजेट को विकसित करने के गंभीर प्रयास शुरू हो चुके थे,  जिसकी चलते जेट इंजन और रॉकेट ने अपनी उपस्थिति दर्ज की थी। रैमजेट इंजन उड़ती हुई टोंटी के समान होते हैं जो अपने आगे के आवेग का इस्तेमाल इनलेट हवा को कम्प्रेस करने में करती है। बाद में कुछ ईंधन का इस्तेमाल कर जलने लगती है, जिसमें आमतौर पर हाइड्रोजन का उपयोग होता है और फिर जोर लगाने के बाद उच्च वेग के साथ समाप्त हो जाता है। आम जेट इंजनों के विपरीत इसमें किसी प्रकार के घूमने वाले कंप्रेशर या टर्बाइन के अलावा कई अन्य घूमने वाली चीजें नहीं होती हैं। इस वजह से अच्छी खासी मात्रा में इंधन की बचत के साथ वजन में भी हल्का होने के साथ इसके विनिर्माण में कम जटिलता एवं रखरखाव की आवश्यकता भी काफी कम पड़ती है। हालाँकि रैमजेट्स को अपना कामकाज शुरू करने के लिए पर्याप्त अग्रिम वेग की आवश्यकता होती है, इसलिए इस प्रकार के इंजनों को अपने आप से नहीं शुरू किया जा सकता। इन्हें किसी अन्य वाहन, जैसे कि रॉकेट से तब तक लॉन्च करने की आवश्यकता बनी रहती है, जब तक कि यह पर्याप्त वेग प्राप्त न कर ले।

रैमजेट्स आमतौर पर मच 3 के आसपास बेहद कुशलतापूर्वक काम कर लेते हैं, लेकिन ये मच 5 या 6 तक जा सकते हैं। रैमजेट इंजन में, सुपरसोनिक गति पर इनलेट हवा को संपीड़ित (कम्प्रेस) किया जाता है और अतिरिक्त ईंधन के साथ जलने से पहले इसे उप-सोनिक स्तर तक इसकी गति को कम कर दिया जाता है, और फिर तेजी से इसकी गति को बढ़ाया जाता है जोकि सुपरसोनिक गति वाला जोर उत्पन्न करने के बाद खत्म होता है।

हालाँकि हाइपरसोनिक वाहनों में इस्तेमाल किया जाने वाला स्क्रैमजेट इंजन एक विशेष किस्म का रैमजेट इंजन होता है, जिसमें हाइपरसोनिक वेग पर इनलेट हवा को सबसोनिक रफ्तार तक धीमा नहीं किया जाता है, बल्कि यह सुपरसोनिक गति से दाहकता के दौरान इंजन के माध्यम से सभी तरह से गुजरता है। इसलिए इसे सुपरसोनिक दहन रैमजेट या स्क्रैमजेट के नाम से पुकारा जाता है। यह बेहद उच्च गति पर बेहतर उपयोगिता प्रदान करता है।

स्क्रैमजेट द्वारा संचालित वाहन से उम्मीद की जाती है कि वे मच 6 से मच 15 तक की गति पर संचालन कर सकते हैं, हालांकि नासा एक्स-43ए द्वारा अभी तक उड़ान में उच्चतम दर्ज की गई गति मच 9.6 के आसपास तक की ही रही है। हाल ही में रूसी अवांगार्ड में किये गए परीक्षण और उसके बाद के मॉडल 3एम-32 ज़िरकोन हाइपरसोनिक मिसाइलों ने मच 9 की रफ्तार दर्ज करने में सफलता हासिल की है। इस रफ्तार के बारे में ऐसा माना जाता है कि मिसाइल के चारों ओर एक प्लाज़्मा क्लाउड निर्मित हो जाता है, जो रेडियो तरंगों को अवशोषित कर सकता है और वाहन को राडार की पकड़ से अदृश्य बना देता है।

डीआरडीओ हाइपरसोनिक वाहन

डीआरडीओ द्वारा एचएसडीवीडी को स्वदेशी तकनीक से डिजाइन किया गया है, लेकिन विकास के शुरूआती चरण में कुछ बाहरी मदद भी ली गई थी। कुछ शुरुआती पवन सुरंगों के परीक्षण का काम इज़राइल और उसके बाद ब्रिटेन के क्रैनफील्ड विश्वविद्यालय में संपन्न हुआ था, जिनकी वैमानिकी में विशेषज्ञता है। इसके बाद से डीआरडीओ ने हैदराबाद के अपने मिसाइल परिसर में ही अपनी स्वयं की हाइपरसोनिक पवन सुरंग निर्मित की हैं। ऐसा माना जाता है कि हाइपरसोनिक वाहन प्रौद्योगिकियों के मामले में विश्व गुरु के तौर पर मशहूर रूस से भी कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में मदद ली गई है।

भारत में स्क्रैमजेट इंजन और हाइपरसोनिक वाहनों को विकसित करने के लिए सबसे पहला प्रयास इसरो द्वारा किया गया था, जिसके एडवांस्ड टेक्नोलॉजी व्हीकल (एटीवी) को 2016 में इसरो के उन्नत साउंडिंग रॉकेट की मदद से लॉन्च किया गया था। इस दौरान 20,000 किमी की ऊंचाई पर मच 6 के आसपास की रफ्तार 5 सेकंड के लिए हासिल की गई थी। इसके बाद के डीआरडीओ द्वारा संचालित परीक्षण जिनमें 2019 में किया गया परीक्षण भी शामिल है, से वांछित सफलता हासिल नहीं हो सकी थी।

डीआरडीओ के एचएसटीडीवी में शीर्ष की सतह पर, पंखों और पूंछ पर विशेष टाइटेनियम मिश्र धातुओं का उपयोग किया जाता है, जबकि इसका निचला भाग एल्यूमीनियम मिश्र धातु से बना है। दो-दीवारों वाले इंजन की आंतरिक सतह को निओबियम मिश्र धातु से बना हुआ माना जाता है, जबकि बाहरी सतह के लिए "निमोनिक-" नुमा निकल-क्रोम-टाइटेनियम-एल्यूमीनियम मिश्र धातु का उपयोग किया जाता है। अमेरिका और अन्य देशों द्वारा प्रौद्योगिकी देने से इंकार का अर्थ था कि डीआरडीओ को इस ख़ास मकसद वाली सामग्रियों को इन-हाउस विकसित करने में काफी अधिक समय खर्च करना पड़ा था, जिसे एक महत्वपूर्ण सफलता कह सकते हैं।

यह हाइपरसोनिक वाहनों की दक्षता और तेज रफ्तार ही है, जो इन्हें इतना ख़ास बनाती हैं, जिसकी हर तरफ माँग है। जहाँ पारंपरिक रॉकेट आमतौर पर अपने प्रोपेलेंट के बेहद वजनी होने के कारण अपने कुल वजन का सिर्फ 2-4% भार ही लेकर उड़ सकते हैं, जिसमें से 70% तो सिर्फ ऑक्सीडाइज़र ही होता है। ऐसे में हवा-से साँस लेने वाले इंजन की मदद से इस भारी मात्रा में ऑक्सीडाइजर को ले जाने की जरूरत खत्म हो जाती है, क्योंकि यह मौजूद हवा से ही ऑक्सीजन खींचने की क्षमता रखता है।

यदि प्रक्षेपण यान को दोबारा इस्तेमाल के लायक बनाया जा सके तो यह उपग्रह के प्रक्षेपण में लगने वाली लागत जैसे खर्चों में और कमी ला सकने में सक्षम रहेगा। इसके अतिरिक्त यदि वाहन पूरी तरह से वायुगतिकीय तौर पर निर्मित हो और इसे तीव्र गति पर संचालित किया जा सके तो क्रूज मिसाइल के तौर पर इसकी कीमत कई गुना बढ़ जाती है।

वर्तमान में भार वाले पहलू का अर्थ है कि दोबारा इस्तेमाल में लाने लायक हाइपरसोनिक लॉन्च वाहनों को तैयार करने में अभी और वक्त लगने वाला है, और इंजन को खासकर ताकत के मामले में बढ़ाने की आवश्यकता होगी। हालाँकि हाइपरसोनिक क्रूज मिसाइल के क्षेत्र में प्रगति जल्द हो सकती है। उदाहरण के तौर पर अमेरिकी रक्षा विभाग को उम्मीद है कि 2020 के दशक के दौरान उसके पास क्रियाशील हाइपरसोनिक मिसाइल, 2030 तक हाइपरसोनिक ड्रोन और 2040 के दशक तक रिकवर हो सकने लायक हाइपरसोनिक ड्रोन तैयार हो जायेंगे।

भारत में भी एचएसटीडीवी का पहला परीक्षण हाइपरसोनिक क्रूज मिसाइलों को लेकर ही किये जाने की संभावना है, जो निश्चित तौर पर रक्षा अनुसंधान संगठन डीआरडीओ द्वारा डिज़ाइन की गई है। जहाँ तक इसरो की भूमिका का प्रश्न है तो वह दोबारा इस्तेमाल योग्य लांचरों को विकसित करने के काम में लगा हुआ है, लेकिन इसे हासिल करने में अभी और वक्त लग सकता है।

हाइपरसोनिक मिसाइलें 

ऐसा माना जाता है कि हाइपरसोनिक मिसाइलों के विकास के क्षेत्र में रूस और चीन नेतृत्वकारी स्थिति में हैं, जबकि अमेरिका इन दोनों के बेहद करीब है और तेजी से उनके बराबर पहुँचने वाला है। इस समय मोटे तौर पर दो प्रकार की हाइपरसोनिक मिसाइल प्रणालियों पर काम चल रहा है, जैसे कि हाइपरसोनिक क्रूज मिसाइलें जो लगभग 100,000 फीट से अपनी उड़ान प्रक्षेपवक्र के तौर पर लगातार काम करती हैं। इसके अलावा हाइपरसोनिक बूस्ट-ग्लाइड हथियार जो एचएसडीटीवी की तुलना में अधिक ऊंचाई तक जाते हैं, और फिर बिना स्क्रैमजेट पॉवर के नीचे की ओर ग्लाइड करते हुए बजाय आवश्यक वेग देने के अतिरिक्त ऊंचाई और गुरुत्वाकर्षण को उपयोग में लाता है।

एक तीसरा संस्करण कथित तौर पर वेवराइडर टेक्नोलॉजी का भी है जो वाहन के खुद के हाइपरसोनिक झटके की लहर का उपयोग खुद को लिफ्ट करने में लेता है। अमेरिका में इसके पहले के कई नमूनों का परीक्षण किया जा चुका है। ऐसा विश्वास है कि चीन ने 2018 में इस तरह के वाहन का परीक्षण किया है और DF-17/DF-ZF जैसे बूस्ट/ग्लाइड मॉडल को बढ़ावा देने के साथ-साथ इसने क्सिंगकोंग-2 (स्टार्री स्काई 2) स्क्रैमजेट संचालित हाइपरसोनिक मिसाइल (अमेरिकी शब्दावली में WU-14 संस्करण) को आक्रामक तौर पर जारी रखा है। बैलिस्टिक मिसाइलों के विपरीत ये सभी वैकल्पिक मॉडल पैंतरेबाज़ी में सक्षम हैं जो एक पूर्वानुमानित अनुवृत का ही प्रक्षेपवक्र करती है।

ब्रह्मोस एयरोस्पेस, डीआरडीओ और रूस के एनपीओ मशिनोस्ट्रोयेनिया के बीच इंडो-रशियन संयुक्त उपक्रम के तौर पर ब्रह्मोस एयरोस्पेस है, जिसके द्वारा ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइलों के निर्माण और विकास का काम किया गया है। ये मिसाइल मच 3 या ऊँचे स्तर तक पहुंच चुके हैं, और ब्रह्मोस-2 नामक एक अन्य हाइपरसोनिक क्रूज मिसाइल पर भी काम चल रहा है। इस मिसाइल के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी ज्ञात है, जिसका परीक्षण अगले साल या उसके बाद किये जाने की उम्मीद है, सिवाय इसके कि इसमें 450 किमी की रेंज होगी और इसमें मच 7 की रफ्तार की संभावना है। इससे पूर्व  अधिकतम सीमा 290 किमी पर अनुमानित की गई थी, जोकि मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम (एमटीसीआर) मानकों के अनुरूप है, और जो मिसाइलों से संबंधित प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को गैर-हस्ताक्षरकर्ता देशों के लिए 300 किमी से अधिक की दूरी को प्रतिबंधित करता है। अब चूंकि भारत भी एक हस्ताक्षरकर्ता है, इसलिए इस सीमा को बढ़ाया जा रहा है। इस बीच रूसी नौसैनिक विध्वंसक के ब्रह्मोस-द्वितीय से लैस होने की संभावना है।

सभी हाइपरसोनिक मिसाइल प्रणालियों के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि कम से कम अभी के लिए, वे किसी भी प्रभावी अंतरराष्ट्रीय नियामक शासन या संधि द्वारा शासित नहीं हैं।

2019 में अमेरिका ने खुद को इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फोर्सेस (आईएनएफ) संधि से पीछे हटा लिया था, जिसने 500-5,500 किमी की सीमा तक के परमाणु मिसाइलों पर प्रतिबंध लगा रखा था। इससे पहले इसने एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल संधि का परित्याग कर दिया था और स्ट्रेटेजिक आर्म्स रिडक्शन ट्रीटी-II (स्टार्ट-II) की पुष्टि पर अपनी अनिच्छा व्यक्त की थी। इसके साथ ही अमेरिका ने लिथुआनिया, लातविया, एस्टोनिया और रोमानिया में एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल शील्ड बैटरी और मध्यम दूरी की टॉमहॉक क्रूज मिसाइल की तैनाती कर दी है।

रूस को लगता है कि ये मॉस्को पर पहले-पहल निर्णायक हमले के खतरे की घण्टी के तौर पर हैं जो जवाबी हमले को रोकने में कारगर हैं, और इस प्रकार यह एबीएम संधि के औचित्य को ही कमतर करने वाला कृत्य है। इस बारे में रूस हमेशा अमेरिका की मोर्चेबंदी पर आपत्ति जताता रहा है। इस बीच रूस ने भी नई पीढ़ी की मिसाइलों को विकसित कर अपनी प्रतिक्रिया दे दी है, जिसमें उन्नत हाइपरसोनिक मिसाइलों की तैनाती शामिल हैं।

हाइपरसोनिक युद्धाभ्यास मिसाइल का लाभ यह है कि इस प्रकार के मिसाइल पर नज़र बनाये रखना और इसलिए इनका एंटी-मिसाइल हथियारों से मुकाबला करना बेहद कठिन है। इसके लिए लंबी दूरी वाली रडार, अंतरिक्ष-आधारित सेंसर और अत्यधिक परिष्कृत ट्रैकिंग और अग्नि नियंत्रण की आवश्यकता होती है।

डीआरडीओ की मिसाइल के एचएसटीडीवी की तर्ज पर हाइपरसोनिक क्रूज मिसाइल होने की संभावना है।

हालांकि हाइपरसोनिक मिसाइल क्षमता से लैस सभी देशों ने अभी तक अपने बारे में यही घोषणा की है कि वे इसे परमाणु हथियारों से लैस नहीं करेंगे, लेकिन इसकी संभावना तो हमेशा बनी रहने वाली है। इसलिए हाइपरसोनिक मिसाइलों के प्रसार का खतरा काफी हद तक वास्तविक है। जो हम देख पा रहे हैं वह एक नए सिरे से और संभवतः परमाणु हथियारों की दौड़ ही है।

कुलमिलाकर आने वाले दिन मुश्किलों भरे हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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