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कोविड-19
नज़रिया
महामारी के दौर में भारतः राजनीति का धर्म और धर्म की राजनीति
सूचना प्रौद्योगिकी व जैव प्रौद्योगिकी जैसे आधुनिक विज्ञान का प्रयोग करते हुए भी भारत मध्ययुग में रह रहा है और प्राचीन युग में जाने को आतुर है।
अरुण कुमार त्रिपाठी
21 Apr 2021
रामनवमी पर हरिद्वार के घाट का दृश्य।
रामनवमी पर हरिद्वार के घाट का दृश्य। फोटो साभार: आजतक


पिछली सदी के सत्तर और अस्सी के दशक में जब शिक्षण संस्थाओं में धर्म बनाम विज्ञान की बहसें चलती थीं और प्रतियोगी परीक्षाओं में इस विषय पर निबंध लिखने वाले प्रश्न आते थे तब एक उम्मीद बनती थी कि एक दिन यह बहस और विमर्श हमें विवेकवान बनाएगा। लेकिन वैसा हो न सका। विज्ञान धर्म से जीत न सका और न ही धर्म और विज्ञान के संतुलित रिश्ते कायम हो सके। उल्टे धर्म फिर विज्ञान की छाती पर चढ़ बैठा और सूचना प्रौद्योगिकी व जैव प्रौद्योगिकी जैसे आधुनिक विज्ञान का प्रयोग करते हुए भी भारत मध्ययुग में रह रहा है और प्राचीन युग में जाने को आतुर है। यह स्थिति सबसे ज्यादा महामारी के दौर में बेचैन कर रही है और मानवता का एक बड़ा हिस्सा जो कि भारत में रहता है उसके पराजय की आहट देती है।

इस दौर की स्थिति को समझने के लिए कुछ छोटे छोटे उदाहरणों की मदद ली जा सकती है। अयोध्या जिले के एक युवक से यह पूछने पर कि हरिद्वार के कुंभ में लाखों की संख्या में साधुओं और गृहस्थों ने स्नान करके क्या कोरोना नहीं फैलाया, तो उसका कहना था कि नहीं वहां तो कहीं कोरोना नहीं फैला। बल्कि उससे समाज में पवित्रता आई है। इससे आगे बढ़कर वह कहने लगा कि पृथ्वी साधुओं की वजह से ही टिकी हुई है। वरना अब तक उलट पुलट हो जाती। यह बयान एक धर्मभीरु युवक का है जो किसी भी वैज्ञानिक जांच की सोच से मुक्त है। अगर आप उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के बयान से युवक के मानस की तुलना करेंगे तो पाएंगे की हमारी राजनीति इसी तरह की धार्मिक आस्था चाहती भी है। धार्मिक आस्था के उसी पहाड़ के आगे भारत की केंद्रीय सत्ता नतमस्तक होकर कुंभ को जल्दी समाप्त करने का अनुरोध करती है, न कि आदेश देकर उसे समाप्त करती है।

दूसरी घटना देहरादून की है जहां मेडिकल कालेजों के हास्टल यह कह कर खाली कराए गए कि कोरोना से संक्रमित साधुओं को वहां भरती किया जाना है। विद्यार्थियों से यह भी कहा गया कि वे अपना बिस्तर वगैरह छोड़कर जाएं। मेडिकल कालेज जैसा संस्थान आधुनिक विज्ञान का एक केंद्र है जो इस महामारी के समय सबसे ज्यादा उपयोगी है। इसीलिए उसके प्रति सत्ता के भीतर सम्मान और आदर होना चाहिए। अगर ऐसा कोई आदर न भी हो तो वहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों के भीतर अगर भारतीय संविधान की धारा 51 में दिए गए मौलिक कर्तव्य के तहत वैज्ञानिक चेतना का विकास हो रहा है तो उसे खंडित नहीं करना चाहिए। लेकिन मौजूदा सत्ता कुंभ रोकने की बजाय मेडिकल कालेज की स्वायत्तता पर प्रहार करना ज्यादा उचित समझती है।

तीसरा उदाहरण एक गांधीवादी नेता का है जो कहते हैं कि भारत की जनता बहुत भोली है। इसे धर्म के नाम पर छला जा रहा है। लेकिन उन्हें उम्मीद है कि ठगी का यह सिलसिला लंबा नहीं चलेगा। संभव है महामारी के कारण ही जनता को समझ आए और धर्म और विज्ञान की पुरानी बहस को नए सिरे से उठाए। लेकिन भारतीय जनता के खून में चुनाव और राजनीति इतने गहरे प्रवेश कर चुकी है कि वह एक ओर पश्चिम बंगाल से लेकर केरल तक के विधानसभा चुनावों में कोरोना प्रोटोकाल का ध्यान रखे बिना हिस्सेदारी कर रही है तो दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में बुखार और संक्रमण के साथ बिना जांच कराए प्रचार और वोट देने के लिए टूटी पड़ रही है।

क्या यह स्थितियां वही हैं जिसके बारे में मशहूर शायर सर मोहम्मद इकबाल ने कहा था कि -----जम्हूरियत इक तर्जे हुकूमत है कि जिसमें बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते। यह बात धर्म के बारे में भी कही जा सकती है। और जब धर्म व राजनीति एक दूसरे से स्वार्थी तरीके से मिल जाते हैं तो भी वे सिर गिनने और सिर झुकाने का ही काम करते हैं न कि सिर उठाने और दिमाग पर जोर देने का काम करते हैं।

भारतीय संविधान सभा की बहसों में जब धार्मिक स्वतंत्रता का विषय आया तो बाबा साहेब आंबेडकर सहित राजकुमारी अमृत कौर, हंसा मेहता और अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर चाहते थे कि धार्मिक स्वतंत्रता इस प्रकार रखी जाए कि उससे कट्टरता न फैले और समाज सुधार में अड़चन न आए। उन लोगों की चिंता थी कि अगर हम धार्मिक स्वतंत्रता को पूर्ण कर देंगे तो असमानता पर आधारित समाज को बदल नहीं पाएंगे और लोकतंत्र अच्छी तरह से कायम नहीं हो पाएगा। संविधान में अनुच्छेद 15 में स्पष्ट कहा गया कि कानून किसी के साथ धर्म, जाति, लिंग, भाषा, जन्म के स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। हालांकि इसके कई अपवाद हैं लेकिन अपवाद नियम को कमजोर करने की बजाय मजबूत ही करते हैं। इसी नजरिए को आगे बढ़ाते हुए संविधान में अनुच्छेद 17 की व्यवस्था की गई जिसका मकसद देश में लंबे समय से चली आ रही छुआछूत की प्रथा को समाप्त करना था। लेकिन उसके बाद धर्म का अधिकार सामाजिक सुधार के कामों में अड़चन डालने लगा और जब बाबा साहेब आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया तो करपात्री जी से लेकर हिंदू धर्म के शंकराचार्य और स्वयं भारत के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद तक खड़े हो गए और डॉ. आंबेडकर को वह विधेयक वापस लेना पड़ा। इसी मुद्दे पर उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया। बाद में वह बिल चार हिस्सों में बांटकर और काफी नरम करके पेश किया गया और पास कराया गया।

संविधान के अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक जो धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है उसमें नागरिकों को चेतना की स्वतंत्रता के साथ अपने धर्म के पालन और उसके प्रचार की आजादी भी मिली है। लेकिन इसी के साथ यह ध्यान रखा गया है कि राज्य अपना सेक्यूलर चरित्र बनाकर रखे। वह न तो किसी पर धार्मिक आस्था के चलते अलग कर देने का दबाव बनाएगा और न ही सार्वजनिक शिक्षण संस्थाओ में धार्मिक शिक्षा देगा। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि राज्य को यह अधिकार दिया गया है कि वह लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के मद्देनजर ऐसी धार्मिक स्वतंत्रता पर पाबंदी लगी सकता है। राज्य इस आधार पर भी धार्मिक अधिकारों पर रोक लगा सकता है कि उसके तहत कोई अपराध हो रहा है जैसे कि शिशु की हत्या या नरबलि वगैरह। राज्य को यह भी अधिकार दिया गया है कि वह धार्मिक संस्थाओं (विशेषकर हिंदू) के चरित्र को सार्वजनिक बनाने और उन्हें सबके लिए खोले जाने का आदेश पारित करे।

लेकिन धर्म के भीतर राज्य की ओर से लोक व्यवस्था, नैतिकता, स्वास्थ्य या समाज सुधार के लिए किया जाने वाला हस्तक्षेप सदैव समस्याग्रस्त रहा है। चाहे अल्पसंख्यक समुदाय के लिए शाहबानो जैसे मुकदमों पर दिए गए फैसलों के माध्यम से किया गया हस्तक्षेप हो या फिर बहुसंख्यक हिंदू समाज की सती प्रथा, जली कट्टू या सबरीमला मंदिर में लड़कियों के प्रवेश का मामला हो। इनमें लंबे विवाद चले हैं और कई बार सरकारों को पीछे हटना पड़ा है। बल्कि घुटने टेकने पड़े हैं। कई बार कुछ कानून बने भी हैं। इसका मतलब यह नहीं भारतीय समाज में सुधार के प्रयास नहीं हुए और गैर बराबरी व अन्याय पर आधारित सामाजिक प्रथाओं को चुनौती नहीं दी गई। वैसा होता रहा है और यह काम सिर्फ उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में ही नहीं हुआ बल्कि उससे पहले और बाद में भी चलता रहा है। आगे भी चलता रहेगा। दक्षिण भारत में तो जस्टिस पार्टी, द्रमुक और दूसरे कई दलों का गठन ही समाज सुधार के एजेंडे को लेकर हुआ। सोशलिस्ट पार्टी आफ इंडिया, बहुजन समाज पार्टी और अर्जक संघ का भी उद्देश्य समाज सुधार ही था। हमीद दलवी और असगर अली इंजीनियर जैसे अल्पसंख्यक समाज के नेता भी समाज को बदलने और सुधारने के उद्देश्य से ही काम करते रहते थे। लेकिन भारतीय समाज के बारे में जो बात डॉ. लोहिया अपने हिंदू बनाम हिंदू के लंबे व्याख्यान में कहते हैं वह यहां प्रासंगिक हो जाती है। उनका मानना है कि इस समाज में कट्टरता और उदारता का संघर्ष पिछले पांच हजार सालों से चल रहा है लेकिन वह यूरोपीय देशों की तरह निर्णायक रूप नहीं ले पाया।

लेकिन आज महामारी के कारण हमारी धार्मिक स्वतंत्रता, जीवन और निजी स्वतंत्रता के अधिकार से टकरा रही है। धार्मिक स्वतंत्रता हमारे जीवन को खतरे में डाल रही है और उसकी रक्षा के लिए राज्य खड़ा होता नहीं दिख रहा है। जो काम कोरोना की पहली लहर में तब्लीगी जमात के लोगों ने समझ के अभाव और धार्मिक आस्था के चलते किया वही काम लाखों गुना बड़े स्तर पर हिंदू धर्म के अनुयायियों ने कुंभ आयोजित करके गाजे बाजे के साथ राज्य के सहयोग और समर्थन से किया और वही काम चुनावबाज पार्टियों ने बड़ी बड़ी रैलियां करके किया।

सवाल यह है कि यह समाज धार्मिक अंधविश्वासों और परंपराओं से मुक्त होकर आधुनिक क्यों नहीं हो पाया?  यह सवाल हमारी ऐतिहासिक बहसों में बार बार उठता है। इस सवाल का एक जवाब तो डॉ. भीमराव आंबेडकर यह कहते हुए देते हैं कि वे (अंग्रेज) देर से आए और जल्दी चले गए। इस नजरिए का यही मानना है कि अगर अंग्रेज भारत में पहले आए होते और लंबे समय तक रहते तो यहां की जाति व्यवस्था और धर्म, लिंग आधारित गैर बराबरी टूटती। धार्मिक ग्रंथों पर आधारित समाज आधुनिक मूल्यों पर निर्मित होता। एक सामाजिक क्रांति होती और यह समाज ज्यादा आधुनिक बनता। इसी बात को वे लोग भी थोड़ा अलग ढंग से प्रस्तुत करते हैं जो 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के विरोधी थे। महात्मा ज्योतिराव फुले और एम हबीब, सुरेंद्र नाथ सेन समेत ऐसे कई समाज सुधारक और इतिहासकार हैं जो मानते हैं कि अगर सत्तावन की क्रांति सफल हो जाती तो भारत इतना भी आधुनिक नहीं हो पाता जितना आज है।

दूसरा दृष्टिकोण उन लोगों का है जो गुलामी को ही सारी सामाजिक बुराइयों की जड़ मानते हैं और मानते हैं कि उसी नाते भारतीय सामाजिक और धार्मिक संस्थाएं सड़ गई हैं। महात्मा गांधी से लेकर सुदीप्तो कविराज, आशीष नंदी जैसे दूसरे समुदायवादी विचारक मानते हैं कि अगर भारतीय समाज अंग्रेजों का गुलाम न हुआ होता तो अपनी गति से उसका उद्योगीकरण और आधुनिकीकरण होता। तब शायद आधुनिक मूल्यों के प्रति ऐसी तीव्र प्रतिक्रिया न होती। इसी तीव्र प्रतिक्रिया के कारण ही लोकमान्य तिलक जैसे आजादी के समर्थक और कर्मठ योद्धा भी बाल विवाह जैसी तमाम सामाजिक बुराइयों के समर्थक और विधवा विवाह जैसे जरूरी काम के विरोधी बने रहे।

लेकिन यहां हमें आधुनिक भारतीय इतिहास को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले गांधी और आंबेडकर जैसे दो महापुरुषों के विचारों में झांकना होगा जिनके कारण भारत में वैज्ञानिक मूल्यों का आगमन अवरुद्ध होना या प्रशस्त होना दिखता है। इसी पर भारत में समाज सुधार का कार्यक्रम भी निर्भर करता है। यहां डॉ. भीमराव आंबेडकर का दक्कन सभा के आयोजन पर 1943 में दिए गए `रानाडे, गांधी और जिन्ना’ वाला व्याख्यान बहुत प्रासंगिक है। वे रानाडे को इसलिए महान व्यक्ति मानते हैं कि उनके आधुनिकता के मूल्य थे और समाज सुधार में यकीन करते थे। जबकि गांधी और जिन्ना देश की जटिल सांप्रदायिक समस्या का हल निकालने की बजाय एक दूसरे से यह आग्रह करने में लगे हैं कि एक अपने को हिंदुओं का नेता मान ले तो दूसरा मुसलमानों का। उनका मानना था कि इन दोनों के हाथों में राजनीति बड़े तामझाम का दिखावा बनकर रह गई है। उसके विपरीत रानाडे सही अर्थों में आधुनिक मूल्यों के वाहक थे। लेकिन कांग्रेस को उदार बनाने का उनका प्रयास सफल नहीं हो सका।

गांधी और आंबेडकर जैसे भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव छोड़ने वाले दोनों महापुरुषों में टकराव और मतभिन्नता के बावजूद कई जगह साम्य दिखता है। दिक्कत उनके साथ है जो उनके लेखन, भाषणों और निर्णयों का महज शाब्दिक या बाहरी अर्थ लेते हैं। गांधी जो कि एक धार्मिक व्यक्ति थे वे बदलते बदलते पूरी तरह राजनीतिक हो गए। बाद में उनका ईश्वर भी किसी धार्मिक परंपरा का ईश्वर न रहकर सत्य का रूप प्राप्त कर गया। जबकि आंबेडकर राजनीतिक और अकादमिक होने के कारण निरंतर आधुनिक मूल्यों पर आधारित राज्य की स्थापना करने में लगे रहे। बाद में वे एक प्राचीन भारतीय धर्म (बौद्ध) की शरण में गए और उन्होंने संविधान के तमाम मूल्यों को वहां से प्राप्त हुआ बताया। इसके विपरीत गांधी अगर अपनी अहिंसा को एक ओर गीता से निकला हुआ मूल्य बताते हैं तो दूसरी ओर बाइबिल से भी प्रेरणा लेते हैं।

आज अगर भारत को तब्लीग और कुंभ, विधानसभा और पंचायत चुनाव में दिखने वाली धर्म और राजनीति की अराजक स्वतंत्रता से निकालकर उसमें वैज्ञानिक चेतना का संचार करना है और आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य और समाज का गठन करना है तो सोचना होगा कि कैसे हम इस दलदल से निकले। प्रधानमंत्री मोदी ने युवाओं से आह्वान किया है कि वे बड़ों को संयमित करने के लिए आगे आएं। उन्होंने एक ओर रामनवमी पर राम की मर्यादा याद दिलाई है और दूसरी ओर रमजान का संयम और धैर्य। अच्छा होता कि वे युवाओं से धार्मिक पाखंड और स्वार्थी, क्रूर और अनुशासनहीन राजनीति के विरुद्ध संविधान में दी गई लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक चेतना को हासिल करने का आह्वान करते।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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