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कोविड-19
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दुनिया में सबसे ज़्यादा टीका उत्पादन क्षमता, फिर भी भारत अपनी जनता को टीका देने में नाकाम क्यों है?
पूछा जा सकता है कि वह क्या है जो भारत को, जो हुआ है उससे अलग तरीके से करना चाहिए था? यही बता रहे हैं प्रबीर पुरकायस्थ-
प्रबीर पुरकायस्थ
24 May 2021
Translated by राजेंद्र शर्मा
दुनिया में सबसे ज़्यादा टीका उत्पादन क्षमता, फिर भी भारत अपनी जनता को टीका देने में नाकाम क्यों है?

आत्मनिर्भरता की हमारी पहली परिकल्पना, हमारे देश की आज़ादी की लड़ाई में से निकली थी। इस आत्मनिर्भरता का अर्थ था, अपनी अर्थव्यवस्था पर औपनिवेशिक नियंत्रण के खिलाफ हमारी जनता, संस्थाओं और उद्योगों की देसी क्षमताओं का विकास करना। लेकिन, इस दूसरी आत्मनिर्भरता--मोदी के आत्मनिर्भर भारत के नारे--का मतलब सिर्फ स्थानीय विनिर्माण है। आत्मनिर्भरता के अन्य तत्वों की नामौजूदगी में, यह परिकल्पना कोविड-19 के टीके तक नहीं दे पायी है, जिसकी देश को इतनी ज्यादा जरूरत है।

जहां पहले वाली आत्मनिर्भरता ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों--बड़ी दवा कंपनियों--की इजारेदारी को तोड़ा था और इस देश को वह जेनरिक दवा उद्योग दिया था, जिसके बल पर भारत गरीबों का वैश्विक दवाखाना कहलाता है। 1970 के पेटेंट कानून के बल पर, सीआईएसआर की प्रयोगशालाओं ने दवाओं की रिवर्स इंजीनियरिंग की थी। इसी तरह भारत में सार्वजनिक क्षेत्र ने तथा अन्य देसी विनिर्माताओं ने, दुनिया भर की सबसे बड़ी जेनरिक दवा तथा टीका विनिर्माण क्षमता खड़ी की थी।

लेकिन, आत्मनिर्भरता के मोदी के मॉडल ने इस सब को खुर्द-बुर्द कर दिया है। भारत के कोविड-19 संकट को देखते हुए, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के लिए, जो कि दुनिया का सबसे बड़ा टीका निर्माता है, विश्व स्वास्थ्य संगठन के कोवैक्स प्लेटफार्म के लिए, साल के आखिर से पहले टीकों की अपनी आपूर्ति फिर से शुरू करना शायद ही संभव हो पाएगा। यूनिसेफ के अनुसार, सीरम इंस्टीट्यूट अपनी आपूर्ति की वचनबद्धताओं से, जून तक ही 18 करोड़ खुराक से पिछड़ जाएगा और इसके बाद दिसंबर तक, 20 करोड़ खुराक से और पिछड़ जाएगा। यह उन सभी देशों के लिए महाविपदा है, जो अपने टीकों के लिए कोवैक्स प्लेटफार्म के भरोसे बैठे थे। इस तरह, भारत के टीका उत्पादन को नयी ताकत देने के बजाए, मोदी की आत्मनिर्भरता ने तो सारी दुनिया को इसका ही इशारा देने का काम किया है कि भारत, वैश्विक मैन्यूफैक्चरिंग का ठिया बनाने के लिए अच्छी जगह नहीं है।

जी-हुजूरों की बात छोड़ दें तो, सभी वैज्ञानिक रायें दूसरी लहर के इशारे कर रही थीं। यह तो सभी को नजर आ रहा होगा कि टीका उत्पादन क्षमताओं को तेजी से बढ़ाने की जरूरत है। लेकिन, ऐसा करने के बजाय मोदी सरकार ने तो कोविड-19 पर जीत का ही एलान कर दिया और राज्य विधानसभा चुनावों में विपक्ष को हराने की जंग में पूरी तरह से डूब गयी।

पूछा जा सकता है कि वह क्या है जो भारत को, जो हुआ है उससे अलग तरीके से करना चाहिए था? कोविड के संक्रमणों की संख्या में कमी के पांच महीनों का इस्तेमाल उसे अस्पतालों, ऑक्सीजन व अन्य चिकित्सकीय सहायता व्यवस्थाओं को खड़ा करने में और टीका उत्पादन को तेज करने में करना चाहिए था। हमारे देश में करीब 50 कंपनियां हैं, जो टीके बना सकती हैं। योजनाबद्ध काम और सरकार की मदद के सहारे भारत अपने टीका उत्पादन को इतना बढ़ा सकता था कि वह न सिर्फ अपने देश की जनता की टीके की जरूरत को पूरा कर पाता बल्कि अन्य देशों के लिए भी कोविड-19 के टीके का एक मुख्य आपूर्तिकर्ता बन सकता था।

आइए, हम टीका उत्पादन की उन दो प्रौद्योगिकियों से शुरू करते हैं, जो पहले ही प्रमाणित हो चुकी हैं और जिनसे टीके बनाने के लिए हमारे देश में पर्याप्त घरेलू क्षमता मौजूद है। निष्क्रियकृत वायरस की प्रौद्योगिकी ( inactivated virus vaccines), सौ साल से ज्यादा से मानवता के पास है। यह प्रौद्योगिकी अब भी काम करती है। आईसीएमआर-भारत बायोटैक का कोवैक्सीन, सिनोवैक का कोरोनावैक, सिनोफार्म का बीबीआईबपी-कोर वी, ऐसे निष्क्रियकृत वायरस टीके के ही उदाहरण हैं। दूसरी टेक्नोलॉजी, एक हानिरहित वायरस को--आम तौर पर एडिनोवायरस (adenovirus)--का साधन के रूप में उपयोग करती है और उसके साथ कोविड-19 पैदा करने वाले सार्स-कोव-2 वायरस का एक छोटा सा अंश जोड़कर, इस वायरस के विरुद्ध टीका बनाती है। एडेनोवायरस वैक्टर पर आधारित कोविड-19 के ऐसे टीकों के मुख्य उदाहरण हैं--ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका का टीका जो भारत में सीरम इंस्टीट्यूट द्वारा कोविशील्ड के नाम से बनाया जा रहा है, गामालेया इंस्टीट्यूट का टीका स्पूतनिक-वी और कैनसाइनो का टीका कोनविडिशिया।

यहां हम एमआरएनए प्रौद्योगिकी या अन्य डीएनए या सब-यूनिट प्रोटीन प्रौद्योगिकियों के ब्योरे में नहीं जाएंगे। ये अपेक्षाकृत नयी प्रौद्योगिकियां हैं और इसलिए, उनके मामले में अनिश्चितता भी कहीं ज्यादा है। इनके मुकाबले, निष्क्रियकृत वायरस पर आधारित टीकों या एडेनोवायरस वैक्टर पर आधारित टीकों का उत्पादन बढ़ाना कहीं आसान है। ये प्रौद्योगिकियां जानी-पहचानी हैं और हमारे देश में इनसे टीके बनाने की काफी उत्पादन क्षमता पहले ही मौजूद है।

निष्क्रियकृत वायरस प्रौद्योगिकी से टीके बनाने की शुरूआत भारत में मुंबई स्थित हॉफकीन इंस्टीट्यूट से हुई थी और हमारे देश में इसका इतिहास करीब 100 साल पुराना है। 1893 में वाल्डेमर हॉफकीन, जो लुई पास्तर के शिष्य थे, भारत आए थे और उन्होंने ही मुंबई में हॉफकीन इंस्टीट्यूट की स्थापना की थी। 1932 में साहिब सिंह सेखों, इस इंस्टीट्यूट के पहले भारतीय निदेशक बने थे। उन्होंने इस संस्था को एक एडवांस्ड बॉयोटैक्नोलॉजी केंद्र के रूप में और टीका उत्पादन के केंद्र के रूप में भी विकसित किया था। हॉफकीन बायो फर्मास्यूस्टिकल कार्पोरेशन, जो महाराष्ट्र सरकार का उद्यम है, इसी इंस्टीट्यूट से विकसित हुआ है और दुनिया भर में टीके के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ताओं में उसकी गिनती होती है। वास्तव में सीरम इंस्टीट्यूट ने टीका उत्पादन के इसी आधार का इस्तेमाल कर खुद को आगे बढ़ाया है। उसने हॉफकीन इंस्टीट्यूट के कार्मिकों को चुराया है और उनमें से तीन तो सीरम इंस्टीट्यूट के बोर्ड तक भी पहुंचे हैं।

भारतीय टीका विनिर्माण की त्रासदी यही है कि इसे खड़ा तो सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं की तैयार की गयी जमीन पर किया गया है, लेकिन एक बार जब निजी क्षेत्र मैदान में आ गया, सार्वजनिक क्षेत्र का व्यवस्थित तरीके से गला ही घोंट दिया गया। इसी का नतीजा है कि हालांकि इस समय भी भारत में सात सार्वजनिक टीका उत्पादन इकाइयां मौजूद हैं, फिर भी सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के लिए भी टीके की खरीद करीब-करीब पूरी तरह से निजी क्षेत्र के ही हाथों में है।

टीका उत्पादन के अपने पुराने आधार के चलते ही, भारत में टीका उत्पादन का एक विशाल आधार मौजूद है। मौजूदा कोविड-19 महामारी के आने से पहले, दुनिया के कुल टीका उत्पादन का 60 फीसद भारत में ही हो रहा था। सेंट्रल ड्रग्स स्टेंडर्ड कंट्रोल आर्गनाइजेशन (सीडीएससीओ) के अनुसार, भारत में 21 टीका विनिर्माता हैं और उसकी कुल लाइसेंसी उत्पादन क्षमता, करीब 8 अरब खुराक सालाना की है।

निष्क्रयकृत वायरस के टीकों के अलावा भी भारत में एक मजबूत बायोलॉजिक आधार मौजूद है, जिसका उपयोग टीके के उत्पादन के लिए भी किया जा सकता है। देश में 30 से ज्यादा ऐसी कंपनियां हैं जिनके पास एडेनोवायरस-आधारित टीकों, जैसे ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका के टीके या गमालेया के स्पूतनिक-वी टीके के उत्पादन के लिए आवश्यक तकनीकी ज्ञान तथा क्षमता मौजूद है। ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका ने अपने टीके के उत्पादन के लिए सीरम इंस्टीट्यूट के साथ समझौता किया है, उसी तरह पांच भारतीय बॉयोलॉजिक कंपनियों ने स्पूतनिक-वी टीके की 85 करोड़ खुराक बनाने के लिए गमालेया के साथ समझौता किया है। इसी प्रकार, बायोलॉजिक-ई ने जॉन्सन एंड जॉन्सन के साथ, उसके एक खुराक वाले टीके की 40 करोड़ खुराकें बनाने के लिए समझौता किया है। अमरीका में इस एक खुराक वाले टीके को मंजूरी मिल भी चुकी है। इसके अलावा सीरम इंस्टीट्यूट ने अमरीकी कंपनी नोवावैक्स के साथ, उसके टीके की 100 करोड़ खुराकें बनाने के लिए भी समझौता किया है, हालांकि इस टीके के ट्रायल पूरे होने तथा मंजूरी मिलने में, अभी कुछ महीने और लगेंगे।

अपनी इन लंबी-चौड़ी क्षमताओं के बाद भी भारत हर महीने टीके की 6-7 करोड़ खुराकों का ही उत्पादन क्यों कर रहा है? मोदी सरकार की सबसे बड़ी गलती उसका यह मान बैठना था कि उसने महामारी को हरा दिया है और इसलिए लोगों का टीकाकरण करने के लिए उसके पास  टाइम ही टाइम है। वह तो यह मानकर चल रही थी कि सीरम इंस्टीट्यूट का टीके की प्रतिमाह 7 से 10 करोड़ तक और भारत बायोटैक का प्रतिमाह और सवा करोड़ खुराकें बनाना ही काफी से भी ज्यादा है। इतने में टीके की भारत की अपनी जरूरतें भी पूरी हो जाएंगी और उसके निर्यात के वादे भी पूरे हो जाएंगे। उत्पादन क्षमता के ये आंकड़े तो सरकार ने विज्ञान व प्रौद्योगिकी संबंधी संसदीय स्थायी समिति के सामने पेश किए थे (कमेटी की 8 मार्च 2021 की रिपोर्ट)। वास्तव में इन कंपनियों द्वारा मुहैया कराए जा रहे टीके इससे भी काफी कम हैं और वास्तविक आंकड़ा करीब 6 करोड़ खुराक महीना का ही बैठता है।

मोटा-मोटा अनुमान लगाने पर भी साफ हो जाता कि इस रफ्तार से तो भारत को, अपनी टीके के लिए लक्षित आबादी का टीकाकरण करने के लिए, पूरा टीका बनाने में करीब ढाई साल लग जाएंगे। और वह भी तब जबकि टीके के निर्यात को हिसाब में नहीं लिया जाए। इस रफ्तार से तो भारत को न सिर्फ कोविड की तीसरी और ऐन मुमकिन है कि चौथी लहरों को ही नहीं झेलना पड़ सकता है बल्कि इसके साथ ही साथ उसे विश्व टीका बाजार से पूरी तरह से बाहर भी निकल जाना पड़ेगा।

तो सवाल यह है कि अगर भारत अपनी टीका उत्पादन की क्षमता में तेजी से बढ़ोतरी करना चाहता था, तो उसने जो कुछ किया उससे अलग क्या करना चाहिए था? मिसाल के तौर पर यह देख लें कि अमरीका और चीन ने क्या किया है? जहां अमरीका ने एमआरएनए टीकों का रास्ता पकड़ा है, चीन ने इससे अलग रास्ता पकड़ा है। इस महामारी से पहले तक चीन की टीका उत्पादन क्षमता भारत के मुकाबले काफी कम थी। बहरहाल, इस महामारी के दौर में चीन ने अपनी राजकीय संस्थाओं से दो निष्क्रियकृत वायरस टीकों--सिनोफार्म तथा सिनोवाक-- और केनसिनो से एक एडेनोवायरस आधारित टीके का विकास किया। बहरहाल, टीकों के उत्पादन को तेजी से बढ़ाने के लिए चीन ने मुख्यत: निष्क्रियकृत वायरस के रास्ते का सहारा लिया। उसने अपनी पहले से मौजूद टीका उत्पादन सुविधाओं का विस्तार किया और नयी टीका निर्माण सुविधाएं भी खड़ी कीं और ऐसी इकाइयों की बड़ी संख्या को इन दोनों टीकों के उत्पादन के लिए लाइसेंस दे दिए। उसने दुनिया के दूसरे देशों के भी टीका उत्पादकों को, सिनोफार्म तथा सिनोवैक के उत्पादन के लिए लाइसेंस दिए हैं।

लेकिन, मोदी सरकार ने यह मान लेना पसंद किया कि उसने महामारी को हरा ही दिया था। इसलिए, टीकाकरण की धीमी रफ्तार से भी कोई समस्या नहीं होनी चाहिए थी। इसके अलावा इसका कोई कारण ही नहीं बनता था कि सरकार वे स्वत: स्पष्ट  कदम नहीं उठाती, जो ऐसे सभी देशों ने उठाए थे जिनके पास अपनी टीका उत्पादन क्षमताएं हैं:

अ) टीकों की खरीद के लिए अग्रिम आर्डर दिए जाते;

ब) टीका उत्पादकों को बैंक ऋण दिलाया जाता ताकि वे अपनी उत्पादन क्षमता का विस्तार कर सकें;

स) पहले से मौजूद सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयों में सरकारी खजाने से पैसा लगाया जाता;

द) देसी कोवैक्सीन के उत्पादन के नो-हाउ को अन्य टीका उत्पादकों के साथ साझा किया जाता। यह सब करने के बजाए, इस सरकार ने जनवरी के शुरू में सीरम इंस्टीट्यूट को सिर्फ 1 करोड़ 10 लाख टीकों का आर्डर दिया था। इसके बाद मार्च के आखिर में, जब दूसरी लहर उठनी शुरू हो गयी और संक्रमणों की संख्या तेजी से बढऩे लगी, तभी 12 करोड़ खुराकों का और आर्डर दिया गया।

तीखी सार्वजनिक आलोचनाओं के बाद ही सरकार को सीरम इंस्टीट्यूट तथा भारत बायोटैक को अग्रिम आर्डर देना मंजूर हुआ। अब कहीं जाकर ही उन्हें अपनी उत्पादन क्षमताओं का विस्तार करने के लिए कुछ पैसा मुहैया कराया गया।

टीकों के उत्पादन का तेजी से विस्तार करने पर मोदी सरकार को कितना खर्चा करना पड़ा होता? 3000 करोड़ रुपये के निवेश से भारत, टीके की 100 करोड़ खुराकों की अतिरिक्त उत्पादन क्षमता का निर्माण कर सकता था और 6,000 करोड़ रुपये के निवेश से, 200 करोड़ खुराकों की अतिरिक्त क्षमता का। 9,000 करोड़ रुपये के निवेश से 300 करोड़ टीकों की अतिरिक्त उत्पादन क्षमता का निर्माण किया जा सकता था। उस स्थिति में हम कुल बारह महीने में अपनी पूरी लक्षित आबादी का टीकाकरण भी कर लेते और इसके बावजूद एक प्रमुख विश्व टीका आपूर्तिकर्ता भी बने रह सकते थे। इसके बजाय, आज हमारे देश को एक ऐसे विश्व आपूर्तिकर्ता के रूप में देखा जा रहा है जो आपूर्ति का वादा करता है, सौदे का पैसा ले लेता है और उसके बाद अपना वादा पूरा करने से मुकर जाता है। यही है जो हमने ऐसे 92 देशों के साथ किया है, जिन्हें विश्व स्वास्थ्य संगठन के कोवैक्स प्रोग्राम के तहत टीका देने का हमने ठेका लिया था।

लेकिन, क्या हमारे देश में वह सब करने के लिए पर्याप्त टीका उत्पादक हैं? वैश्विक टीका निर्माताओं के साथ गठबंधन कर के काम कर रही भारतीय कंपनियों की सूची पर नजर डालने से ही हमारी घरेलू टीका उत्पादन क्षमता का अंदाजा लग जाता है। इनमें से करीब-करीब सारे के साथ समझौते, कहीं ज्यादा जटिल एडेनोवायरस आधारिक टीकों के उत्पादन के लिए हैं। इसके अलावा हमारे देश में ऐसी अनेक कंपनियां भी मौजूद हैं जो आसानी से आईसीएमआर-एनआइवी द्वारा विकसित, निष्क्रियकृत वायरस आधारित टीकों का निर्माण कर सकती हैं। इसके लिए जरूरत थी तो सिर्फ थोड़ी सी योजना बनाने की और आवश्यक वित्तीय  सहयता दिए जाने की।

इस सिलसिले में जरा मोटा-मोटा हिसाब समझ लें। 2 रफाल विमानों की कीमत में, टीके की करीब 100 करोड़ खुराकें आ सकती थीं। 4 रफाल विमानों की कीमत में, टीके की 200 करोड़ खुराकें आ सकती थीं। सेंट्रल विस्टा परियोजना को दो साल के लिए टालने भर से, 10,000 करोड़ या उससे ज्यादा बच सकते थे और इतना पैसा खर्च कर के 300 करोड़ टीका खुराकों की उत्पादन क्षमता खड़ी की जा सकती थी।

वैसे टीकों के उत्पादन में आवश्यक बढ़ोतरी करने के लिए रफाल की खरीद या सेंट्रल विस्टा परियोजना को टालने तक की जरूरत कहां थी? इसी साल के बजट में वित्त मंत्री ने कोविड-19 के टीकों के लिए 35,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। इसमें से एक तिहाई से भी कम खर्चे में, हमारी जनता के लिए पर्याप्त टीके भी मिल जाते और भारत के दुनिया का दवाखाना होने के दावे की भी रक्षा हो जाती। लेकिन, ऐसा होने के बजाए हम अपनी जनता की जरूरत पूरी करने में ही विफल नहीं रहे हैं बल्कि 92 अन्य देशों को टीकों से वंचित रखने के लिए अब खुद को कटघरे में भी खड़ा पा रहे हैं। मोदी के आत्मनिर्भर भारत का यही कुफल है--घरेलू क्षमताओं को कुचला गया है और संकट की घड़ी में जनता का साथ छोड़ दिया गया है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

India: World’s Biggest Producer Fails to Vaccinate its People

COVID-19
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Covid Vaccine
Corona Crisis
India Vaccine Crisis

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