क्या सहयोग और साथीभाव को अब भारतीय समाज में इतनी हिकारत से देखा जाने लगा है कि विदेशों से आने वाली मदद से हमारा माथा शर्म से झुक जाता है। या मौजूदा भारत सरकार, भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और आई टी सेल के हजारों हजारों वैतनिक-अवैतनिक कर्मचारियों ने मजबूत भारत की जो कृत्रिम छवि गढ़ी थी उसके दरकने का एहसास होने लगता है? अपेक्षाकृत कम साधन सम्पन्न देशों से आने वाली इमदाद को लेकर हमारी प्रतिक्रियाएँ इतनी संकीर्ण क्यों हो रहीं हैं?
हिंदुस्तान को किसी दूसरे देश की मदद दरकार है या नहीं है? यह एक बेहद गंभीर सवाल है लेकिन इसे इस ढंग से पूछा जाना चाहिए कि क्या अपने देश में आयी किसी भी विपदा का सामना करने में हम सक्षम हैं या नहीं? किसी विपदा से जूझने के लिए क्या हमारे पास वो ज़रूरी संसाधन हैं या नहीं हैं? अगर विपदा इस किस्म की है कि उसका सामना करने के लिए ज़रूरी संसाधन हमारे पास हैं तब शायद हमें दूसरे देशों से उन संसाधनों की ज़रूरत न हो लेकिन फिर भी यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि दूसरे देशों को अगर लगता है कि सहज मानवीयता की आधार पर वो हमें मदद करना चाहते हैं तो क्या हम उनसे मदद न लेकर उनकी मानवीयता और साथीभाव का तिरस्कार तो नहीं कर रहे हैं?
ये सवाल बीते महीने भर से बहुत मौंजूं हो गया है। अलग अलग देशों के प्रति हमारी प्रतिक्रियाएँ बता रहीं हैं देश किस तरह से मनोविज्ञान के स्तर पर एक घटिया किस्म के संकीर्ण राष्ट्रवाद के दल दल में फंस चुका है। अगर कोरोना से निपटने के लिए ऑक्सीमीटर, या रेमिडिसिवीर, ऑक्सीज़न या अन्य जीवन रक्षक दवाएं अमेरिका या रूस या जापान और यहाँ तक की चीन से आती हैं तब हमारी प्रतिक्रियाएँ अलग होती हैं और जब वही जीवन रक्षक साधन बांग्लादेश या भूटान या श्रीलंका से आते हैं तब हमारी प्रतिक्रियाएँ बिलकुल भिन्न होती हैं।
दोनों ही परिस्थितियों में सरकार को यह एहसास कराया जा सकता है कि आपने तो बताया था कि देश हर तरह से बहुत साधन और शक्ति सम्पन्न हो चुका है फिर भी हमें बाहरी इमदाद की ज़रूरत क्यों पेश आ रही है? आप दोनों ही स्थितियों में सरकार को इस बात का उलाहना दे सकते हैं कि आपने तो बताया था कि हम ‘आत्म-निर्भर’ हो चुके हैं। क्या देश इसी तरह आत्म-निर्भर हुआ है कि उसके पास अपने नागरिकों के जीवन बचाने के लिए ज़रूरी संसाधन नहीं हैं। यहाँ हम चाहें तो प्राकृतिक आपदा और स्वास्थ्य-गत आपदा के बीच फर्क करके सरकार से जवाबदेही भी ले सकते हैं कि यह अचानक आयी हुई आपदा तो नहीं थी, गत एक वर्ष से आपको इसके बारे में पता था फिर भी आप ज़रूरी संसाधन नहीं जुटा सके?
लेकिन हम उसी संकीर्ण और अहंकारी राष्ट्रवाद की पदावली में सोचने लगे हैं। हमें बहुत तकलीफ नहीं होती जब यह इमदाद अमेरिका या जापान या रूस और यहाँ तक कि चीन भेजता है जो देश की सरहदों पर आपका दुश्मन है, लेकिन हमें बहुत तकलीफ होती है जब अपनी क्षमताओं भर बांग्लादेश या भूटान या श्रीलंका हमें कुछ मदद करना चाहते हैं? क्या केवल इसलिए क्योंकि हमारे ये पड़ोसी देश आर्थिक रूप से हिंदुस्तान से पीछे हैं? क्या हम दो देशों की आर्थिक हैसियत से उसकी स्वायत्ता और संप्रभुता को आँकते हैं? पाकिस्तान या केन्या से आयी हुई मदद हमारे अहंकार को नागवार गुजरती है।
जब से केन्या द्वारा भेजी गयी इमदाद की खबर मंज़रे आम हुई है तब से देश के तमाम प्रगतिशील और विवेकवान कहे जाने वाले लोगों ने भी बेहद सस्ते कटाक्ष करने की होड़ लगा ली है। केन्या एक छोटा और आर्थिक संसाधनों के पैमाने पर गरीब अफ्रीकी देश है। उसने भारत के लोगों के लिए इस विपदा में 12 टन खाद्यान भेजा है। हमें केन्या के नागरिकों और वहाँ की सरकार के प्रति आभारी होना चाहिए कि उन्हें ऐसा लगा कि भारत के लोगों को इसकी ज़रूरत होगी या नहीं भी होगी लेकिन संकट काल है हो सकता है उनकी यह मदद भारत के नागरिकों की दुख-तकलीफ को कुछ कम करे और उनके पास जो है वो भेजना चाहिए। लेकिन इससे हमारे नाज़ुक और संकीर्ण राष्ट्रवादी अहंकार को गंभीर चोट पहुँच गयी। केन्या तक ने हमें मदद भेज दी? इस वाकये में हमने एक उदार राष्ट्र की संप्रभुता और उसके अस्तित्व का अपमान किया है।
राष्ट्रवाद और वो भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा गढ़ा गया राष्ट्रवाद और है ही क्या? इसमें अन्य के लिए कोई स्थान नहीं है। गोरी चमड़ी और वैश्विक स्तर पर दबदबा रखने वाले देशों के सामने ‘अर्दली’ बन जाने और किसी भी पैमाने पर अपने से छोटे के प्रति हिकारत रखने के संस्कार इस राष्ट्रवाद की चारित्रिक विशेषताएँ हैं। हिंदुस्तान के लोग इस वक़्त यही कर रहे हैं।
दिलचस्प है कि 2014 के बाद जो लोग इस उग्र, अहंकारी और संकीर्ण राष्ट्रवाद का निरंतर विरोध करते आ रहे थे वो भी उसी ज़मीन पर उसी भाषा में सोच और बोल रहे हैं। चाहे अनचाहे यह उसी राष्ट्रवाद की जीत है जिसने हिंदुस्तान की उस उदार और समावेशी परंपरा को तहस-नहस करके दुनिया के सामने मज़ाक और अफसोस का पात्र बना दिया।
मदद देने के मामले में भी दंभ का भाव हिंदुस्तान 2014 के बाद से प्रकट करते आया है। 2015 में नेपाल में आए भूकंप के दौरान हिंदुस्तान से भेजी गयी इमदाद की वो तस्वीरें हमें याद रखना चाहिए जिससे नेपाल के नागरिकों की भावनाएं इतनी आहात हुईं थीं कि नेपाल सरकार को यह कहना पड़ा था कि हमें और मदद नहीं चाहिए। राहत सामाग्री के पैकेट्स पर नरेंद्र मोदी की तस्वीरें, भारतीय मीडिया द्वारा राहत कार्य का सीधा प्रसारण और नेपाल के नागरिकों से नरेंद्र मोदी के प्रति आभार प्रकट करवाने की उत्कट और संकीर्ण चेष्टाओं ने नेपाल की जनता के स्वाभिमान को चोट पहुंचाई।
हमें शुक्रगुजार होना चाहिए कि जिन देशों ने अब तक कोरोना की इस दूसरी लहर में भारत के लोगों के लिए मदद भेजी, उन देशों की मीडिया ने यहाँ डेरा नहीं डाला और नागरिक स्वाभिमान की तिजारत अपने देश के नेता की इमेज चमकाने के लिए नहीं की। इन देशों ने चुपचाप हमें मदद भेज दी। एक ही धरती के बाशिंदे होने के नाते। यह एक उदार मानवीय काम है। हमें इसकी इज्ज़त करना चाहिए।
मदद देने और लेने के मामले में हम भाजपा और उसकी संकीर्ण राष्ट्रवादी सोच का शिकार किस तरह हुए हैं इसकी एक बानगी हमें आम आदमी पार्टी द्वारा जारी किए गए एक ट्वीट से मिलती है। इसमें भले ही नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार को दूसरे देशों में वैक्सीन भेजने की आलोचना की गयी हो लेकिन जानबूझकर केवल मुस्लिम बाहुल्य देशों का ज़िक्र करके आम आदमी पार्टी आखिरकार क्या बतलाना चाहती थी? बाद में जब इस ट्वीट पर तीखी आलोचनाएँ आयीं तो उसमें उन देशों के नाम भी जोड़े गए जो मुस्लिम बाहुल्य नहीं हैं। पाकिस्तान तक को वैक्सीन भेजी गयी? यह अंतत: उसी लिजलिजे और भद्दे राष्ट्रवाद की कोख से निकला तंज़ है जिससे इस देश की प्राचीन करुणा और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की छवि को गंभीर क्षति पहुँचती है। क्या पाकिस्तान या बांग्लादेश या फिलिस्तीन से हम ज़रूरत पड़ने पर मदद का रिश्ता नहीं रखेंगे क्योंकि ये मुसलमानों के देश हैं? ऐसा सोचते और कहते समय क्या हम मान चुके होते हैं कि हम एक मुकम्मल हिन्दू राष्ट्र बन चुके हैं। और ऐसे हिन्दू राष्ट्र बन चुके हैं जिसके लिए मानवता से ऊपर धर्म होगा?
मदद और मददगारों को लेकर भारत सरकार और भाजपा शासित तमाम राज्य सरकारें पहले से ही इतने खिलाफ हुई जा रही हैं कि मदद करने वाला पहले सौ बार यह सोचता है कि किसी की मदद तो कर देंगे लेकिन बाद में पुलिस का और कानून का सामना करना पड़ेगा। फिर भी लोग मदद करने आगे बढ़ रहे हैं कि अभी भी उनके दिल दिमाग से यह सहज और नैसर्गिक भाव नष्ट नहीं हुआ है कि प्रथमतया, अंतत: और अनिवार्यतया वो इंसान हैं और एक इंसान को दूसरे इंसान की मदद करना चाहिए। सरकारों की मददगारों को परेशान करने की कार्यवाहियों ने कई लोगों को मदद करने से रोका भी होगा। इसका लेखा-जोखा हालांकि मुश्किल है लेकिन जिस तरह से दिल्ली पुलिस या उत्तर प्रदेश पुलिस ने मददगारों की शिनाख्त करके उनकी तौहीन करने की हद तक कार्यवाहियाँ कीं हैं, उनसे ज़रूर एक बड़ी संख्या ऐसे नागरिकों की होगी जो चाहते थे मदद करना लेकिन उन्होंने मदद न करने में अपनी भलाई समझी होगी।
हमें यह भी सोचना चाहिए कि क्या यह हमारे दिमाग में भरी गयी उस कुत्सित ‘आत्म-निर्भरता’ का असर है जिसने हमसे मदद करने और मदद लेने की सहज मानवीय प्रवित्तियों से हमें महरूम कर दिया है। हम ऐसे भारतीय तो नहीं होते जा रहे हैं जो अपनी तमाम सहज क्षमताओं से रिक्त होते जा रहे हैं क्योंकि हमें बताया जा रहा है कि हम आत्म-निर्भर हो रहे हैं या हो चुके हैं।
आत्म-निर्भरता या स्वालंबन सद्गुण हैं लेकिन क्या यह अमनावीय भी हैं? महात्मा गांधी स्वालंबन के सबसे बड़े पैरोकार थे। वो हिंदुस्तान के हर गाँव को स्वावलंबी देखना चाहते थे लेकिन उसमें पड़ोस के गाँव की मदद करने का नकार नहीं था या पड़ोसी गाँव से मदद हासिल करने का भी कहीं नकार नहीं था। वो यह मानते थे कि हर गाँव एक दूसरे से उन वस्तुओं का आदान-प्रदान करेगा जो वो नहीं उगाता या एक गाँव में होता है लेकिन दूसरे में नहीं होता? यह आदान-प्रदान हमें एक समाज के रूप में रचता है। हम एक दूसरे को रचते-गढ़ते हैं। गांधी का ग्राम-स्वराज इतना एकांगी, अहंकारी और संकीर्ण नहीं था कि उसमें ‘अन्य’ के प्रति लेश मात्र भी हिकारत या कमतरी का एहसास हो।
विदेशी इमदाद के इर्द गिर्द चल रहे इस विमर्श से इतना तो समझ में आ रहा है कि एक मानव समाज के तौर पर और एक नागरिक समाज के तौर पर हम एकांगी, संकीर्ण, अहंकारी और घटिया किस्म के राष्ट्रवाद और एक खोखले, स्वार्थी और निकृष्ट ढंग की आत्म-निर्भरता से ग्रस्त भी हुए हैं और गंभीर रूप से उसके शिकार भी हुए हैं।
(लेखक बीते 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। समसामयिक मुद्दों पर लिखते हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)