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महामारी से ज़्यादा घातक ‘इंफ़ोडेमिक’ है
हमारी सच से परे (पोस्ट-ट्रुथ) की दुनिया नकली समाचारों से भरी हुई है जो लोगों को महामारी और ‘सामाजिक दूरी’ के मामले में लापरवाही बरतने और उसे ग़लत तरीक़े से लेने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है, जिसके तहत यह माना जा सकता है कि अब बुरा वक़्त ख़त्म हुआ।
आँचल भथेजा
31 Mar 2020
Translated by महेश कुमार
coronavirus
Image courtesy: science news for students

अब्राहम लिंकन ने संभवत: 21वीं सदी में सच से परे के ऐसे युग (पोस्ट ट्रुथ) का पूर्वानुमान लगाया था, जो भविष्य में कोरोना युग का पर्याय बन जाएगा। उन्होंने कहा था कि अगर, "लोगों को तथ्य को जानने देंगे तो देश सुरक्षित रहेगा।" आज, जब लाखों लोग कोविड-19 के तेज़ी से बढ़ते संक्रामण और आक्रमण से लड़ रहे हैं और कई हजार लोग इस माहामारी के चलते दम भी तोड़ चुके है, ऐसे में जनता की सबसे बड़ी ज़रूरत सही तथ्यों को जानना है। इसके लिए, प्री-केबल टीवी और प्री-नेटफ्लिक्स युग में रामायण टीवी धारावाहिक कोई स्थिर चारा नहीं हो सकता था और ऐसे में नागरिकों को अपनी सुरक्षा खुद सुनिश्चित करनी होती थी। इसके बजाय, आज गलत सूचनाओं की एक जबरदस्त मात्रा बहुत आसानी से सुलभ है, लेकिन उसे सत्यापित करने के लिए शायद ही कोई साधन मौजूद है।

फ़ेक न्यूज को फैलाने के लिए आपको सिर्फ़ व्हाट्सएप में दाएं कोने में दिए फॉरवर्ड बटन को क्लिक करने की जरूरत है, जिसके माध्यम से कोई भी उपयोगकर्ता लगभग 1,300 लोगों को संदेश भेज सकता है। जबकि फ़ेसबुक पर, केवल एक क्लिक से पोस्ट को कई लोगों तक पहुंचाया जा सकता है। ऐसा करने के लिए यह अधिकतर एक मिलीसेकंड का समय ले सकता है। हालाँकि, अल्ट्न्यूज़ के अनुसार, जो एक प्रसिद्ध तथ्य की जांच करने वाली वेबसाइट है, कहती है कि फर्जी सूचनाओं को हटाने की प्रक्रिया विस्तृत है और इसके लिए जटिल कार्यों की जरूरत होती है, जैसे कि छवि खोज उपकरण का इस्तेमाल करना, व्यापक ऑनलाइन शोध करना, स्थानीय अधिकारियों से संपर्क करना, उन्हे प्राथमिक आंकड़ों का हवाला देकर जांच को पुखता करना इत्यादि शामिल है। यह फॉरवर्ड बटन पर क्लिक करने की तुलना में बहुत अधिक समय लेता है।

सुकना भेजने वाले व्यक्ति की प्रमुखता के कारण नकली ख़बर जंगली आग की तरह से फैलती है, जहां एक खास व्यक्ति एक खास जानकारी साझा करता है क्योंकि उसे किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा समर्थन किया जा रहा होता है जिसे वे बहुत सम्मान देते हैं या जिसके वे अनुयाई हैं; 'चयनात्मक खपत', की खबर जिसे लोग अधूरी जानकारी के बावजूद 'नेटवर्क प्रभाव', की वजह से मान लेते हैं कि यह पूर्ण जानकारी है; जहां समाचार का एक टुकड़ा एक टिपिंग बिंदु यानि अपने चरम पर पहुंचने के बाद वायरल हो जाता है; और ‘पोस्ट-ट्रुथ इफ़ेक्ट’, के माध्यम से लोग यह मानने लगते हैं कि वे जो देख या सुन रहे हैं वह उनकी राजनीतिक विचारधारा और समाजीकरण से मेल खाता है।

सोशल मीडिया के इनबॉक्स, फेसबुक संदेश की दीवारें, व्हाट्सएप चैट, ट्विटर पेज और कई अन्य लोकप्रिय और कम प्रसिद्ध साइटें और ऐप नॉवल कोरोनावायरस और उसकी उत्पत्ति, इलाज और रोकथाम के बारे में जानकारी से भरे हुए हैं। कुछ लोग सच्चाई या तर्क से बहुत परे होते हैं, और इसलिए उनमें आर्थिक और सामाजिक स्वास्थ्य को बिगाड़ने की अकल्पनीय नुकसान की क्षमता होती हैं।

22 मार्च को शाम 5 बजे ताली, थाली, शंख, बर्तन और घंटियां बजाकर जनता द्वारा बधाई देने का एक संदेश दिया गया था, जिस दिन जनता कर्फ्यू की घोषणा की गई थी। और कहा गया कि "नासा एसपी13 वेव डिटेक्टर" ने खोज की कि, हालांकि जिसकी जाहिर तौर पर कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं है, कि ताली और घंटियों से उत्पन्न ध्वनि "कॉस्मिक" ध्वनि तरंगों का कारण बनी, जिसने भारत में वायरस को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। 

इस तरह के भ्रामक संदेश को सोशल मीडिया चैनलों के माध्यम से जनता के बीच बड़ी तादाद में बहुत ही गलत विश्वास पैदा करने के लिए फैलाया जाता है और जो अन्य निरर्थक सूचनाओं के एक महासागर का हिस्सा होते है। इस तरह के दावे लोगों को महामारी और ’सामाजिक दूरी रखने’ के मानदंडों को गंभीरता से न लेने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं, वे इस बात को अनदेखा कर सकते हैं कि स्थिति कितनी गंभीर है और वे मान लेते है, कि सबसे बुरा वक़्त खत्म हो गया है। इसलिए इसमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए कि, ऐसे संदेश फैलने के बाद, सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा पैदा हो जाता है और लोग “जश्न” के मूड में सड़कों पर इकट्ठा हो जाते हैं।

इस कथानक के दूसरी तरफ़ बहुत ही गुल खिलाने वाले दावे हैं जिसके माध्यम से वे इस वायरस की मौत की घोषणा करते हैं, जिसमें घरेलू उपचारों ( जैसे, गाय के गोबर से नींबू पानी तक) की प्रभावशीलता के बारे में कहा गया और जांच की सटीकता के लिए इन साधनों का इस्तेमाल (DIY) करने को कहा गया ताकि पता लगाया जा सके कि संक्रमण है या नहीं। इन सभी संगीन दावों का उन लोगों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर बड़ा असर पड़ता है जो इन विचारों के शिकार होते हैं।

तीसरे वर्ग में प्रचार संबंधी संदेश आते हैं जो दावा करते हैं कि हिंदू एक "गौरवपूर्ण समुदाय" हैं जो कभी भी किसी भी तरह की महामारी का स्रोत नहीं रहे हैं। ये संदेश कुछ समुदायों या संस्कृतियों के खाने की आदतों की निंदा करते हैं और मांग करते हैं कि उन्हें 'प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए'। इनमें ऐसे संदेश शामिल हैं जो एकमुश्त कट्टरता को प्रदर्शित करते हैं: उदाहरण के लिए, एक कन्नड़ टीवी चैनल ने झूठा दावा किया कि भटकल में चार मुस्लिम युवाओं ने धार्मिक कारणों के चलते कोविड़-19 परीक्षण से इनकार कर दिया था। इसे यह साबित करने के लिए किया गया था कि वे युवा ग़ैर ज़िम्मेदार थे और इस्लाम वैज्ञानिक जांच को प्रोत्साहित नहीं करता है, इसलिए यह धारणा बनाई जाती है कि उनका धर्म सार्वजनिक हित के खिलाफ है।

नकली समाचारों के बारे में सच्चाई यह है कि यह मौजूदा सामाजिक मतभेदों, रूढ़ियों और भय के साय में काम करता है; जबकि यह खुद आशंकाओं और भय के निर्माण को भी बढ़ावा देता है। यही कारण है कि इस तरह की खबरें, इन खराब समयों में भी सांप्रदायिकता को उभारने का काम करती है। यह राष्ट्र के सामाजिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और सभी को, ख़ासकर सार्वजनिक अधिकारियों या प्रशासन को इसकी काट करने की ज़रूरत है।

आख़िरकार, नकली समाचार की महामारी का आर्थिक स्वास्थ्य पर प्रभाव सबसे अधिक दिखाई देता है और अधिक आसानी से मात्रात्मक रूप से बढ़ सकता है। यह दावा किया गया कि आइसक्रीम और ठंडे खाद्य पदार्थों के कारण कोविड़-19 पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।  अफ़वाह यह भी है कि चिकन (और पालतू जानवरों) के माध्यम से भी वाइरस फैल सकता है, इससे मांस की मांग में 60 प्रतिशत की गिरावट आई है और उद्योग को बड़ी चोट लगी है। राशन, दवाइयां और नकदी जमा करने की चेतावनी के कारण देश भर में खरीदारी की दहशत सी फैल गई है। इससे भोजन और अन्य चीजों की कमी हो गई है। 

एक नकली समाचार की महामारी फैलने से हमारा सामाजिक और आर्थिक स्वास्थ्य मृत अवस्था में जा सकता है, जहाँ से इसका वापस आना असंभाव होगा यहाँ तक कि चल रहे प्रकोप के नियंत्रण में आने के बाद भी इसकी पुन: वापसी नहीं होगी। हालाँकि सोशल नेटवर्किंग साइटें नकली सामग्री को हटाने और सही जानकारी देने के लिए कदम उठा रही हैं, लेकिन तथ्य यह है कि जिस गति से नकली समाचार प्रसारित होते हैं, वे सच की तुलना में बहुत अधिक है।

देश को अपने सभी संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए नकली समाचारों को रोकने की जरूरत है। इसे रेडियो, टीवी, पीआईबी आदि के माध्यम से सही जानकारी फैलानी चाहिए। तथ्य-जांच वाली  वेबसाइटों को हम सभी की तरफ से अधिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, और उन्हे सार्वजनिक और निजी धन मुहैया कराया जाना चाहिए क्योंकि वे महत्वपूर्ण काम करते हैं। यह सही वक़्त है जब सरकार को अपने इन्फोर्मेशन टेक्नोलोजी इंटरमेडीरियज़ गाइडलाइन (संशोधन) नियम, 2018 पर फिर से विचार करना चाहिए और हानिकारक सामग्री को पहचानने और उसे तुरंत हटाने और नकली समाचारों को फैलने से रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए।

फिर भी, नागरिकों के हाथ में सबसे शक्तिशाली उपकरण स्वयं सावधानी बरतना और खुद को शिक्षित करना है, क्योंकि नकली समाचार महामारी के घातक परिणाम हो सकते हैं, यानी स्वास्थ्य महामारी की तुलना में कहीं अधिक घातक।

लेखिका नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU), बैंगलोर में पढ़ती हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

Infodemic: Even More Deadly than Pandemic

Coronavirus Pandemic
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