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भारत
राजनीति
भारतीय संविधान की मूल भावना को खंडित करता निजीकरण का एजेंडा
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण कई कारणों से किया गया था। मसलन, देश के कच्चे माल संसाधनों का नियंत्रण विदेशी पूंजी से छुड़ाकर, देश के हाथों में लाने के लिए, जैसे तेल क्षेत्र में। 
प्रभात पटनायक
04 Jan 2022
Constitution of India and Privatization
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : गूगल

देश का संविधान, देश की राजनीतिक व्यवस्था को संचालित करने वाले नियमों तथा प्रक्रियाओं का संकलन भर नहीं है। संविधान सबसे बढ़कर एक निश्चित सामाजिक दर्शन को अभिव्यक्त करता है, जिससे शासन के विभिन्न अवयवों का आचरण संचालित होना चाहिए और जो उन मूलभूत निष्ठाओं को सामने लाता है, जिनके गिर्द राष्ट्र का गठन हुआ है। यह बात पूर्व-औपनिवेशिक देशों के मामले में खास तौर पर सच है, जहां राष्ट्र का गठन ही एक उपनिवेश-विरोधी संघर्ष के फलस्वरूप हुआ है, जिस संघर्ष में एकता की ऐतिहासिक रूप से अभूतपूर्व अभिव्यक्ति में, जनता एकजुट हुई थी। ऐसे नवगठित राष्ट्र-राज्य के गठन में अंतर्निहित सामाजिक दर्शन, जनता के इस एकजुट होने के लिए अवधारणात्मक आधार मुहैया कराता है।

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने, हमारे संविधान के ‘बुनियादी ढांचे’ का सिद्घांत निर्धारित किया है। बहरहाल, इस ‘बुनियादी ढांचे’ में भी सबसे बुनियादी है वह सामाजिक दर्शन जो हमारे संविधान में अंतर्निहित है। इस सामाजिक दर्शन को बदलना, हमारे संविधान को ही बदलने से कम नहीं है और संविधान को बदलने के लिए, न सिर्फ उन कठोर प्रक्रियाओं को पूरा करने की जरूरत होती है, जोकि खुद संविधान में ही तय की गयी हैं, इसके साथ ही साथ इस पर वृहत्तर समाज में व्यापकतम बहस-मुबाहिसा होना भी जरूरी है, ताकि राष्ट्र-राज्य के गठन में अंतिर्निहित, जनता की एकता के अवधारणात्मक आधार को ही कमजोर होने से बचाया जा सके। लेकिन, जनता की एकता के इस अवधारणात्मक आधार की रक्षा करने की, ऐसी सरकार से तो अपेक्षा नहीं ही की जा सकती है, जिसे संसद में बहुमत हासिल है और जो इस बहुमत का ही सहारा लेकर, मनमाने बदलाव थोपने में लगी हुई है। निजीकरण तथा सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण के अपने एजेंडे के साथ मोदी सरकार, संविधान में ऐसा ही मौलिक बदलाव करने में लगी है। उसकी योजना यह है कि गैर-रणनीतिक क्षेत्रों में सार्वजनिक क्षेत्र का करीब-करीब बोरिया-बिस्तर ही बांध दिया जाए और रणनीतिक क्षेत्रों में उसकी मौजूदगी तो बनाए रखी जाए, लेकिन संकेतिक रूप में मौजूदगी ही।

कल्याणकारी राज्य का औजार: सार्वजनिक क्षेत्र 

भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण कई कारणों से किया गया था। मसलन, देश के कच्चे माल संसाधनों का नियंत्रण विदेशी पूंजी से छुड़ाकर, देश के हाथों में लाने के लिए, जैसे तेल क्षेत्र में। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को आगे बढ़ाने के लिए, ताकि विदेशी पूंजी पर निर्भरता से तथा इसलिए विदेशी पूंजी की आधीनता से बचा जा सके, जैसे हैवी इलैक्ट्रिकल्स। आवश्यक सेवाएं जनता को कम दाम पर या मुफ्त मुहैया कराने के लिए, जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली आदि। ऐसे साधन मुहैया कराना, जिनके जरिए ऐसे खास-खास क्षेत्रों में सार्वजनिक संसाधनों का निवेश किया जा सके,  जिनमें निजी संसाधन या तो लग ही नहीं रहे थे या पर्याप्त मात्रा में नहीं लगने वाले थे, जैसे कि बुनियादी ढांचा। किसानी खेती को मदद देने के लिए उचित दामों पर उसकी पैदावार की खरीदी के लिए, जैसे भारतीय खाद्य निगम। लघु उत्पादन क्षेत्र को, जिसे अन्यथा ऋण नहीं मिले थे, ऋण मुहैया कराने के लिए, जैसे कि सार्वजनिक क्षेत्र बैंक। सार्वजनिक क्षेत्र के निर्माण के ये सभी कारण, आर्थिक निरुपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के हिस्से थे और संविधान में सूत्रबद्घ किए गए, शासन की नीति के निर्देशक सिद्घांतों के जरिए सूत्रबद्घ की गयी भविष्य कल्पना के अनुरूप थे। वास्तव में, जैसाकि सार्वजनिक क्षेत्र तथा सार्वजनिक सेवाओं पर पीपुल्स कमीशन की रिपोर्ट में जोर देकर कहा गया है, उक्त भविष्य कल्पना के अनुरूप, कल्याणकारी राज्य को स्थापित करने के एक आवश्यक औजार के तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण किया गया था।

सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण का अनिवार्य रूप से अर्थ है, इन परिसंपत्तियों का चंद बड़े इजारेदार घरानों या अंतरराष्ट्रीय बड़ी पूंजी के हाथों बेचा जाना, क्योंकि और किसी में इसका बूता ही नहीं है कि इन परिसंपत्तियों की खरीद के लिए आवश्यक संसाधन जुटा सके। और इसका अर्थ है, राज्य द्वारा अपने दायित्व से हाथ खींचा जाना और एक ऐसी प्रक्रिया का उन्मुक्त किया जाना, जिसमें एक ओर तो अर्थव्यवस्था का पुनरुपनिवेशीकरण होता है, क्योंकि इस तरह आजादी के 75 साल बाद अर्थव्यवस्था के नियंत्रणकारी मुकामों (कमांडिंग हाइट्स) को विकसित दुनिया की पूंजी के हवाले किया जाता है और दूसरी ओर, संविधान में सूत्रबद्घ किए गए, शासन के लिए नीति निर्देशक सिद्घांतों से पलटा जा रहा होगा। संक्षेप में इसका अर्थ है, यदि हम इसे एक सामाजिक दर्शन कह सकते हों तो ऐसे सामाजिक दर्शन को आगे बढ़ाना, जो हमारे संविधान के सामाजिक दर्शन से ठीक उल्टा है। यह तो ऐसा सामाजिक दर्शन है जिसमें विकसित दुनिया के स्वार्थों की आधीनता और कल्याणकारी राज्य के लिए प्रतिबद्घता के परित्याग, का ही योग हो रहा है।

निजीकरण यानी संविधान के सामाजिक दर्शन का त्याग

इसके अलावा, चूंकि इन परिसंपत्तियों को अपरिहार्य रूप से उनके वास्तविक मूल्य से कम पर बेचा जाता है, इनके बेचे जाने में पूँजी के आदिम संचय की प्रक्रिया भी चल रही होती है। इस तरह की बिक्री के जरिए, मिसाल के तौर पर इन परिसंपत्तियों को खरीदने वाली विकसित दुनिया की कंपनियों की 100 रु. की परिसंपत्तियां जुड़ रही होती हैं, तो बदले में देश को इससे कहीं कम, संभवत: 50 रु. ही मिल रहे होंगे। यह देश में संपदा असमानता को और बढ़ाने का काम करता है और चूंकि संपदा की असमानता, आय की असमानता को पोषण करती है, यह आय असमानता को भी बढ़ाता है। यह सब साफ तौर पर हमारे संविधान के निर्देशक सिद्घांतों के खिलाफ जाता है, जिनमें आर्थिक असमानता को कम करने को, देश के शासन का लक्ष्य तय किया गया है। इसलिए, संविधान के खिलाफ मोदी सरकार का गुनाह सिर्फ करणीय, न करने का ही नहीं है बल्कि बड़ी ही नंगई से वह करने का भी है जो अकरणीय है।

विडंबना यह है कि हमारे संविधान में अंतर्निहित सामाजिक दर्शन के इस तरह त्यागे जाने पर कोई सार्वजनिक बहस होना तो दूर, सरकार ने तो कभी यह बताने की जरूरत भी नहीं समझी है कि इसका त्याग क्यों किया जा रहा है। यह कभी स्पष्ट नहीं किया गया है कि सार्वजनिक क्षेत्र का, वह जिस रूप में है उस रूप में, निजीकरण करने की जरूरत ही क्या है? मोदी द्वारा इस निजीकरण की हिमायत में बस इतना दावा किया जाता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में सिर्फ हाशियाई मौजूदगी होनी चाहिए। लीविस कैरोल के अर्थहीन गीत, ‘‘द हंटिंग ऑफ द स्नार्क’’ की उन पंक्तियों की तरह, जिनमें एक पात्र कहता है कि, ‘मैं जो तीन बार कहूं, वही सही’, मोदी तीन बार जो कह दें, हम से उसे ही सही मान लेने की अपेक्षा है और उसके बाद किसी वाद-विवाद या बहस की कोई जरूरत नहीं है। यह हमारे संविधान के प्रति हिकारत के प्रदर्शन का ही मामला है और इसे मंजूर नहीं किया जा सकता है तथा हर कीमत पर इसका प्रतिरोध करना होगा।

निजीकरण से साधन जुटाना राजकाषीय घाटे से भिन्न नहीं

अपेक्षाकृत निचले स्तर के अधिकारीगण, ज्यादा दबाव डाले जाने पर मोदी सरकार की निजीकरण की विकराल योजनाओं के पक्ष में तो कोई दलील नहीं देते हैं, बस साधारण रूप से निजीकरण का यह फायदा बताते हैं कि इससे सरकार के बजट के लिए संसाधन मिलते हैं। लेकिन, यह दलील तार्किक रूप से ही पूरी तरह से गलत है। सच्चाई यह है कि संसाधन जुटाने के उपाय के रूप में निजीकरण, अपने वृहदार्थिक परिणामों के लिहाज से राजकोषीय घाटे के उपाय से रत्तीभर भिन्न नहीं है, निजीकरण के दूसरे घातक परिणाम ऊपर से हैं।

यहां हमारे लिए परिसंपत्ति के रूप के तौर पर ‘‘स्टॉक्स’’ और ‘‘फ्लोज़’’ (प्रवाहों) में अंतर करना जरूरी है। राजकोषीय घाटा, सरकार की आय से फालतू सरकारी खर्चे का सूचक है और एक प्रवाही अवधारणा है क्योंकि सरकार का खर्चा और सरकार की आय, दोनों प्रवाही होते हैं। इससे अर्थव्यवस्था में सकल मांग के स्तर में इजाफा होता है और चूंकि इस तरह के इजाफे से या तो उत्पाद व रोजगार के स्तर बढ़ते हैं या फिर, अगर उत्पाद में बढ़ोतरी संभव नहीं होती है तो मेहनतकश जनता की रुपया आय के अनुपात में, कीमतों का स्तर बढ़ता है। इससे, दोनों ही सूरतों में निजी बचतें बढ़ती हैं और इससे सरकार, बचतों में से इस बढ़ोतरी में से ऋण के रूप में संसाधन जुटाने में समर्थ होती है। सरकार द्वारा ऋण के रूप में ली जाने वाली ये बचतें, उसने निजी हाथों में जो पकड़ाया होता है, ठीक उतनी ही होती हैं (समझने की आसानी के लिए हम संबंधित अर्थव्यवस्था को एक बंद या बाहर से कटी हुई अर्थव्यवस्था मानकर चल रहे हैं)। इस तरह, निजी बचतकर्ताओं के अपने उपभोग में से कोई बचत किए बिना ही, उनकी निजी बचतें बढ़ जाती हैं। और चूंकि सभी बचतें, संपदा में बढ़ोतरी की सूचक होती हैं, राजकोषीय घाटा मुफ्त में ही संपदा असमानता बढ़ा देता है।

निजीकरण के पक्ष में सारी दलीलें झूठी हैं

अगर सरकार, राजकोषीय घाटे का सहारा लेने के बजाए, अतिरिक्त खर्चे की भरपाई करने के लिए सार्वजनिक परिसंपत्तियां बेचने का सहारा लेती है, तो इस समूची प्रक्रिया में रत्तीभर फर्क नहीं पड़ेगा। इतना ही फर्क पड़ेगा कि बजाय इसके कि राजकोषीय घाटे की भरपाई के लिए सरकार द्वारा बैंकों से कर्जा लिया जाए (जिसके अंत में आगे चलकर जमाओं रूप में बैंकों में इतनी राशि लौट भी आती है), सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियां खरीदने के लिए, पूंजीपति ही बैंकों से ऋण लेते हैं और यह पैसा सरकार को सोंप देते हैं, जिससे वह खर्च कर सकती है। अपने वृहदार्थिक परिणामों के लिहाज से, सरकार के लिए वित्त जुटाने के इस बाद वाले, अप्रत्यक्ष तरीके से बैंकों से सरकार के खर्चे के लिए वित्त जुटाने के तरीके और सरकार के बैंकों से सीधे वित्त जुटाने के तरीके में, कोई अंतर नहीं है। इससे भी सकल मांग में उतना ही इजाफा होता है और संपदा असमानता में उतनी ही बढ़ोतरी होती है। राजकोषीय घाटे का सहारा लिया जाता है तो निजी क्षेत्र के हाथों में, प्रत्यक्ष रूप से या बैंकों के जरिए परोक्ष तरीके से, सरकारी बांडों के रूप में सरकार पर, कागजी दावेदारी आ जाती है, जबकि निजीकरण का सहारा लिए जाने की सूरत में निजी क्षेत्र के हाथों में सार्वजनिक क्षेत्र कंपनियों की हिस्सा पूंजी और इसलिए उन पर नियंत्रण आ जाता है। इस तरह, जहां वृहदार्थिक परिणाम दोनों ही सूरतों में एक जैसे होते हैं, वहीं निजीकरण से निजी कंपनियों को इसका मौका मिलता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का संचालन अपने हाथों में ले लें और उनका संचालन, सार्वजनिक लाभ के बजाए, अपने मुनाफों के लिए करें।

कभी-कभी यह दलील भी दी जाती है कि जहां राजकोषीय घाटे से सरकार पर कर्ज चढ़ता है, निजीकरण से सरकार पर कोई कर्जा नहीं चढ़ रहा होता है और इसलिए, सरकार पर ब्याज संबंधी भुगतान की कोई जिम्मेदारी नहीं आ रही होती है। लेकिन, इस तरह की दलील देने वाले यह भूल जाते हैं कि निजीकरण के जरिए, संबंधित सार्वजनिक परिसंपत्तियों के कमाई के प्रवाह, निजी हाथों में दिए जा रहे होते हैं, जबकि ऐसा न होने पर ये प्रवाह सरकार के खजाने में जा रहे होते। इस तरह सरकार कमाई के जिन प्रवाहों का परित्याग कर रही होगी, ऋणों के लिए ब्याज का भुगतान करने जैसा ही मामला है और इस तरह दोनों ही स्थितियों में सरकार के आय प्रवाह में से तो हिस्सा कट ही रहा होगा। आय प्रवाह की यह हानि तो उसी सूरत में बच सकती है, जब सरकार आय या संपदा पर कर लगाने के जरिए संसाधन जुटाए। निजीकरण से संसाधन जुटाने की सूरत में आय के प्रवाह की हानि से नहीं बचा सकता है।

इस तरह, एक औंधी आर्थिक तर्क शृंखला के आधार पर, मोदी सरकार हमारे संविधान में अंतर्निहित बुनियादी सामाजिक दर्शन का ही त्याग कर रही है और सार्वजनिक क्षेत्र को अपने मुट्ठीभर चहेते दरबारी पूंजीपतियों के हवाले कर रही है। मोदी सरकार आए दिन इसकी शेखी मारती है कि उसके ऊपर भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं है। लेकिन, सार्वजनिक उद्यमों का प्रस्तावित निजीकरण तो, स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा भ्रष्टाचारी घोटाला है।

ये भी पढ़ें: खेती- किसानी में व्यापारियों के पक्ष में लिए जा रहे निर्णय 

Indian constitution
privatization
Public Sector
Constitution of India and Privatization
foreign capital
Economic inequality
Modi government

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