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अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार और हमारे बुनियादी सरोकार
“मानवाधिकार वे चीज नहीं हैं जो लोगों के आनंद के लिए मेज पर रखी जाती हैं। ये ऐसी चीजें हैं जिनके लिए आप लड़ते हैं और फिर आप रक्षा करते हैं।“ –वंगारी माथई
राज वाल्मीकि
10 Dec 2021
human rights

संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2021 का मानव अधिकार विषय रखा गया है : समानता, असमानताओं को कम करना, मानवाधिकारों को आगे बढ़ाना।

इस वर्ष के मानवाधिकार दिवस की थीम 'समानता' और यूडीएचआर के अनुच्छेद 1 से संबंधित है– "सभी इंसान स्वतंत्र, सम्मान और अधिकारों में समान पैदा होते हैं।"

समानता और गैर-भेदभाव के सिद्धांत मानव अधिकारों के केंद्र में हैं। समानता को 2030 एजेंडा के साथ और संयुक्त राष्ट्र के दृष्टिकोण के साथ साझा किया गया है, जो कि किसी को पीछे नहीं छोड़ने पर साझा फ्रेमवर्क: सतत विकास के केंद्र में समानता और गैर-भेदभाव है। इसमें महिलाओं और लड़कियों, स्वदेशी लोगों, अफ्रीकी मूल के लोगों, एलजीबीटीआई लोगों, प्रवासियों और विकलांग लोगों सहित समाज में सबसे कमजोर लोगों को प्रभावित करने वाले भेदभाव के गहरे रूपों के समाधान को संबोधित करना और खोजना शामिल है।

जब हम अपने देश में लोगों को समानता के दृष्टिकोण से देखते हैं, तो पाते हैं कि संविधान में हर नागरिक को समानता का अधिकार है, पर यथार्थ जीवन इससे भिन्न है। यहां मानव अधिकार हनन के विभिन्न पहलू देखने को मिलते हैं। उदाहरण  के लिए देश के सभी नागरिकों को मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार है, पर यहां मानव मल ढोने की प्रथा अभी भी देश के कई राज्यों में अस्तित्व में है। इस अमानवीय प्रथा के चलते नागरिकों के गरिमा के साथ जीने के अधिकार का हनन होता है।

हमारे देश में सबके समान अधिकार न होने के पीछे कई कारण हैं। पहला तो सामाजिक पहलू ही है। यहां समाज की बुनियादी इकाई ही जाति है। और जाति उच्च-निम्न क्रम पर आधारित है। दूसरी समस्या अस्पृश्यता या छूआछूत (untouchability) रही है, जो मानव-मानव में भेद करती है।

संविधान में मौलिक अधिकार हैं। पर वास्तविक जीवन में असमानता है। इस बारे में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने संविधान लागू करते समय कहा था कि हम दोहरे जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। संवैधानिक रूप से हम समान होंगे। एक वोट एक मूल्य होगा। पर सामाजिक जीवन में हम असमानता एवं भेदभावपूर्ण जीवन जियेंगे। राजनैतिक लोकतंत्र के रूप में समान होंगे पर आर्थिक और सामजिक लोकतंत्र में असमान। यहां पूंजीपति वर्ग और वर्चस्वशाली वर्ग का प्रभुत्व होगा। और समाज दो वर्ग में बंट जाएगा– शोषक वर्ग और शोषित वर्ग। इसलिए आर्थिक और सामाजिक समानता होना बहुत जरूरी है। उन्होंने कहा था कि हम किसी भी दिशा में मुड़ें, हमें जाति का राक्षस रास्ता रोके खड़ा मिलेगा। उसे मारे बिना न तो आर्थिक विकास संभव है और न ही सामाजिक विकास और न ही मानसिक विकास।

प्रकृति इंसान और इंसान में भेद नहीं करती। वह सब को जीने का अवसर देती है। सबको हवा, पानी, भोजन और जीने की परिस्थितियां उपलब्ध कराती है। भले ही स्थान, विशेष की जलवायु के कारण कहीं गोरे लोग होते हैं, कहीं काले, तो कहीं सांवले। कहीं लम्बे, तो कहीं नाटे कद के। पर सबकी मानवीय बुनियादी जरूरतें एक सी होती हैं।

यह इन्सान की ही प्रवृति होती है कि वह रंग, धर्म, क्षेत्र, भाषा, नस्ल, सम्प्रदाय, जाति, शक्ति  के आधार पर स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को हीन समझता है। शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर को, अमीर गरीब को कमतर समझता है। वह उस पर अपना आधिपत्य चाहता है। उसे अपना गुलाम बनाना चाहता है। उससे अपनी सेवा करवाना चाहता है। वह दूसरों के आत्मसम्मान को कुचल कर अपने अहम् भाव को तुष्ट करता है। इतिहास इस तरह की घटनाओं से भरा पड़ा है। राजाओं के युग में एक राजा दूसरे राजा को युद्ध में हराकर उसे अपना बन्दी बना लेता था और उसके राज्य पर कब्जा कर लेता था। दूसरों पर हुकूमत करना ही उसका उद्देश्य होता था। कमोवेश आज भी यही प्रवृति लागू है। आज पूंजीपति गरीबों पर, दबंग कमजोरों पर और कथित उच्च जाति के लोग दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यको और हाशिए के लोगों पर हावी होकर उन्हें अपने अधीन कर उन पर अपना वर्चस्व दिखा रहे हैं। 

समान मानव अधिकारों की लड़ाई में अंबेडकर, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग, नेलसन मण्डेला, जैसे लेागों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हमारे देश में तो दलितों एवं आदिवासियों का संवैधानिक भाषा में कहें तो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का समान मानव अधिकारों के लिए अभी भी संघर्ष चल रहा है। आज के समय में दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श एवं स्त्री विमर्श मुख्य मुद्दे बने हुए हैं।

गौरतलब है कि मानवाधिकार दिवस की शुरूआत संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1948 में की और 1950 में महासभा ने सभी देशों को इसकी शुरूआत के लिए आमंत्रित किया। इसमें 10 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय दिवस घोषित किया गया, लेकिन दुखद है कि हमारे देश में मानवाधिकार कानून को अमल में लाने के लिए एक लम्बा समय लगा। जिसे भारत में 26 सितम्बर 1993 को लागू किया गया।

मानव अधिकारों के सन्दर्भ में जाने-माने दलित लेखक जय प्रकाश कर्दम कहते हैं–“सभी नागरिकों को सम्मानपूर्वक जीने का हक़ है। भारत के प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता, समानता और न्याय चाहिए। लेकिन दलित वर्गों को, स्त्रियों को आदिवासियों को और भी बहुत सारे समुदाय हैं जो आज भी समानता के, स्वतंत्रता के और न्याय के अधिकार से वंचित हैं, जो कि उनकी मूलभूत आवश्यकता है। और ये जो मानव अधिकार हैं जिन्हें हमारे संविधान में फंडामेंटल राइट्स के रूप में दिए गए हैं मौलिक अधिकार। वस्तुतः ये मानव अधिकार ही हैं। आज मानव अधिकारों को लेकर पूरी दुनिया में जागृति है कि जिन लोगों को जिन समाजों को, जिन समूहों को, जिन व्यक्तियों को जो मानवाधिकारों से वंचित हैं उन्हें मानव अधिकार मिलने चाहिए ताकि वे भी सब की तरह सम्मानपूरक स्वाभिमान पूर्वक जी सकें। जब तक कोई भी व्यक्ति अपने मानव अधिकारों से वंचित रहेगा तब तक हम न तो सभ्य समाज बन सकते हैं और न प्रगतिशील समाज और राष्ट्र बन सकते। दलितों को, स्त्रियों को, आदिवासियों को मानव अधिकार प्रदान करना ये केवल उनकी आवश्यकता नहीं है बल्कि ये हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता भी है। और ये एक वैश्विक समुदाय के रूप में खुद को प्रस्तुत करने की भी हमारी मूलभूत आवश्यकता है। एक राष्ट्र के रूप में एक समाज के रूप में तो यदि हम चाहते हैं कि एक सम्मानजनक राष्ट्र के रूप में एक सम्मानजनक नागरिक के रूप में हम सब जाने जाएं, समझे जाएं,  तो जरूरी है कि हमारे जो नागरिक मानव अधिकारों से वंचित हैं उनको उनके मानव अधिकार दिए जाएं।“

राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान (NCDHR) की महासचिव बीना पालिकल कहती हैं –“अगर हम बाबा साहेब के जमाने से अब की बात करें तो मानवाधिकारों से वंचित समूहों की स्थिति में थोड़ा बदलाव तो आया है पर अभी भी वंचित समूहों को, हाशिए के लोगों को उनके पूरे मानव अधिकार नहीं मिले हैं। दूसरे शब्दों में कहें कि हमारे जो दलित और आदिवासी समाज के कुछ लोग जो जागरूक हुए हैं उन्हने मानव अधिकारों की जानकारी तो है पर उनकी अभी तक उन तक पहुँच नहीं है। उनकी न्याय तक पहुँच नहीं है। क्योंकि जो दबंग जाति के लोग हैं, उनके पास अधिकार प्रदान करने की शक्ति है, पर वंचितों को अधिकार देने में उनकी रूचि नहीं है। उनकी राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं है। सरकार की जो योजनाएं हैं वो लोगों तक नहीं पहुँच पातीं। न्यायतंत्र तक वंचितों की पहुँच नहीं है। हमारे पास राजनैतिक शक्ति नहीं है। यहाँ तक तक कि हम अपनी सौ-दोसौ रुपये की मजदूरी भी मांगते हैं तो हमारा हाथ काट दिया जाता है। ऐसे में जरूरी है कि हम संगठित होकर अपनी आवाज बुलंद करें अपने पर होने वाले अत्याचारों और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाएं। साथ ही महिलाएं जिन अधिकारों से वंचित हैं उनकी लड़ाई में पुरुष भी उनका साथ दें। तभी  सब लोग मानव अधिकार प्राप्त कर सकेंगे।“

अनहद प्रमुख और सामाजिक कार्यकर्त्ता शबनम हाशमी कहती हैं –“ हमारे संविधान ने तो देश के हर नागरिक को समान मानव अधिकार दिए हैं, चाहे वे स्त्री हों, पुरुष हों, या किसी भी जाति, धर्म के हों,  क्षेत्र के हों या किसी भी रंग और नस्ल के हों। पर जमीनी स्तर पर हमें वो पूरे अधिकार नहीं मिल पाए। पिछले सात साल में हाशिए के लोगों पर अत्याचार बढ़े हैं, खासतौर से दलित महिलाओं पर अत्याचार और बलात्कार बढ़ें  हैं। मुस्लिम और ईसाईओं पर अत्याचार बढ़े हैं। आदिवासियों  से  जंगल और जमीन छीनी जा रही हैं। अब तो संसद में लोग संविधान के पिरेंबल को बदलने की मांग करने लगे हैं। उसमे में से ‘समानता’ और ‘समाजवाद’ शब्द को हटाने की मांग करने लगे हैं। ये उनकी मानसिकता दो दर्शाता है। फासीवादी ताकतों का वर्चस्व बढ़ रहा है। पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं। मानव अधिकार संरक्षकों  पर हमले हो रहे हैं। पूरे देश में अराजकता फैली हुई है। इसके लिए हमें संगठित होकर, निडरता से बेबाकी से आवाज उठानी पड़ेगी। ये बहुत जरूरी है।...”  

हमारे देश की विडम्बना यह है कि यहां  समानता दिखलाने वाले कानून तो बन जाते हैं और कहा भी जाता है कि क़ानून सब के लिए बराबर होते हैं। पर उन पर अमल नहीं होता। आज भी देश का एक बड़ा वर्ग अपने इंसान होने की लड़ाई लड़ रहा है। हर इंसान को सम्मान के साथ जीने, इज्जत की आजीविका अपनाने का हक होना ही चाहिए। संक्षेप में कहें तो स्वतन्त्रता, समानता, न्याय एवं बंधुता ही जीवन के बुनियादी सरोकार हैं और हमारे मानव अधिकार इन्हीं की वकालत करते हैं। होना भी यही चाहिए।  प्रसिद्ध पंक्तियां हैं कि – इंसान का इंसान से हो भाईचारा- यही पैगाम हमारा। अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस भी हमें यही याद दिलाता है।   

लेखक सफाई कर्मचारी आन्दोलन से जुड़े हैं.

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