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विशेष : कोरोना काल, दुनिया और भारत और मीडिया की स्वतंत्रता
हमारे देश में प्रेस की स्वतंत्रता का मामला सरकार बनाम प्रेस जैसा सरल नहीं है। यह प्रेस के दो वैचारिक धड़ों के संघर्ष की जटिलता को स्वयं में समेटे है जिसमें सरकार की भूमिका एक पक्षपातपूर्ण रेफरी जैसी है। 3 मई, अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता स्‍वतंत्रता दिवस पर डॉ. राजू पाण्डेय का विचारोत्तेजक आलेख।
डॉ. राजू पाण्डेय
03 May 2020
International Journalism  Freedom Day
प्रतीकात्मक तस्वीर

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा तैयार 2020 का विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक कोरोना काल में प्रेस की स्वतंत्रता को मिल रही चुनौतियों को रेखांकित करता है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के विशेषज्ञों के अनुसार आने वाला दशक पत्रकारिता के भविष्य के लिए निर्णायक सिद्ध होगा। कोविड-19 पैनडेमिक ने बिना किसी बंधन के स्वतंत्रता पूर्वक रिपोर्ट की गई विविधतापूर्ण और विश्वसनीय सूचनाओं की उपलब्धता के मार्ग में आने वाले संकटों को प्रमुखता से दर्शाया है।

आरएसएफ के महासचिव डलुआ के अनुसार कोविड-19 पैनडेमिक न केवल उन नकारात्मक कारकों को उजागर कर रही है जो विश्वसनीय सूचना प्राप्त करने के मार्ग में खतरा उत्पन्न कर रहे हैं अपितु यह स्वयं  इन नकारात्मक कारकों की वृद्धि में योगदान भी दे रही है। सन् 2030 में सूचना की स्वतंत्रता, विश्वसनीयता और बहुलवाद की क्या स्थिति होगी- इस प्रश्न का उत्तर आज की परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।

अनेक देशों ने इस वैश्विक महामारी की आड़ में मीडिया की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की कोशिश की है और वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में उनकी रैंकिंग पर इसका नकारात्मक प्रभाव भी पड़ा है। वुहान में कोरोना के प्रारंभिक आक्रमण से संबंधित खबरों के प्रसार पर रोक लगाने के आरोप झेल रहे चीन की रैंकिंग 180 देशों में 177 वीं है। अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों का मानना है कि चीन ने वायरस के कारण हुई मौतों के आंकड़ों को छिपाने के लिए डॉक्टरों और मीडिया कर्मियों पर दबाव बनाया तथा दमनकारी तरीकों का इस्तेमाल किया।

यही स्थिति कोविड-19 विषयक खबरों को सेंसरशिप के दायरे में लाने वाले  ईरान की है जो तीन पायदानों की गिरावट के साथ 173 वें स्थान पर है। इराक में रायटर्स का लाइसेंस तीन माह के लिए तब छीन लिया गया था जब एजेंसी द्वारा कोविड-19 से संक्रमित और मृत लोगों के विषय में इराकी सरकार द्वारा दिए गए आंकड़ों पर प्रश्नचिह्न लगाने वाली खबरें प्रकाशित की गई थीं। इराक 156 वें स्थान से 162 वें स्थान पर पहुंच गया है। 

यूरोपीय देशों में हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान द्वारा तो भारी विरोध और आलोचनाओं के बीच कोरोना वायरस कानून ही पारित कराया गया जिसके माध्यम से कोरोना वायरस से संबंधित गलत जानकारी के प्रकाशन पर 5 वर्ष तक के कारावास का प्रावधान किया गया है। हंगरी की रैंकिंग 2 स्थान गिर कर 89वीं हो गई है। 

मीडिया के दमन की यह प्रवृत्ति अनेक देशों में फैल रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी मीडिया के प्रति अपने असहिष्णु रवैये के कारण चर्चा में रहे हैं। जो खबरें उन्हें नापसंद होती हैं उनको फेक न्यूज़ का दर्जा देना और अपनी कार्य शैली और बदलते बयानों को सवालों के दायरे में लाने वाले पत्रकारों के साथ अपमानजनक व्यवहार करना ट्रम्प की आदत रही है।

कोविड-19 से निपटने में अपनी नाकामी से बौखलाए ट्रम्प मीडिया के प्रति और कठोर रुख अपना सकते हैं। अनेक विशेषज्ञ यह मानते हैं कि अपनी जवाबदेही से बचने के लिए ट्रम्प द्वारा मीडिया पर प्रत्याक्रमण करने की नीति न केवल अमेरिकी प्रजातंत्र के लिए ख़तरनाक है बल्कि यह विश्व के अनेक देशों के शीर्ष नेतृत्व को मीडिया के साथ दुर्व्यवहार करने के लिए प्रेरित करने वाली भी रही है।

कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स, न्यूयॉर्क ने कोविड-19 को आधार बनाकर सरकारों द्वारा किए जा रहे पत्रकारों के विश्वव्यापी दमन की ओर ध्यान खींचा है।  इथियोपिया के पत्रकार शिमेलिस को कोविड-19 के विषय में एक रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद 27 मार्च 2020 को हिरासत में ले लिया गया और अब उन पर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने का आरोप लगाया गया है।

मार्च 2020 के अंत में म्यांमार सरकार ने स्थानीय इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को 221 वेबसाइट्स पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया। सरकार के अनुसार यह वेबसाइट्स कोविड-19 के बारे में फेक न्यूज़ फैला रही थीं। म्यांमार सरकार को आपात दशाओं में टेलिकम्युनिकेशन कंपनियों को किसी भी वेबसाइट को ब्लॉक करने हेतु आदेशित करने की शक्ति प्राप्त है। सरकार ने कोविड-19 को एक इमरजेंसी मानते हुए यह आदेश जारी किया। पोर्टो रिको के गवर्नर वांडा वज़केज़ ने वहां के जन सुरक्षा कानून में संशोधन करते हुए पत्रकारों द्वारा कोविड-19 से जुड़ी किसी भी भ्रामक जानकारी के प्रसार को  दंडनीय अपराध घोषित कर दिया है।

मार्च माह में ही फिलीपींस में दो पत्रकारों- मारियो बचुगास और अमोर विराता - पर सरकार ने कोविड-19 के बारे में गलत खबरें प्रसारित करने के आरोप में आपराधिक मुकद्दमे दर्ज किए।

चेचेन्या के प्रमुख रमज़ान कादिरोव ने 13 अप्रैल 2020 को पत्रकार एलेना मिलाशिना को सार्वजनिक धमकी दी। एलेना पर यह आरोप है कि उसने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें यह बताया गया था कि चेचन्या के नागरिकों को कोरोना संक्रमण के लक्षण बताने से रोकने की कोशिश की जा रही है और संक्रमित लोगों को आतंकवादी घोषित कर दिया जा रहा है।

वुहान में कोरोना संक्रमण की कवरेज करने वाले पत्रकार चेन  क्विशी फरवरी 2020 से ही गायब हैं। ईरानी पत्रकार मोहम्मद मोसैद पर कोविड-19 से मुकाबला करने की सरकारी नीतियों की आलोचना करने के बाद प्रतिबंध लगा दिया गया है।  ईरानी सरकार के कोविड-19 से मुकाबले के प्रयासों के विषय में ईरानियन लेबर न्यूज़ एजेंसी द्वारा 23 अप्रैल 2020 को अपने टेलीग्राम चैनल में एक कार्टून प्रकाशित किया गया था जो कुछ समय बाद हटा भी लिया गया था। 27 अप्रैल को ईरान की सरकार ने इस न्यूज़ एजेंसी के एमडी मसूद हैदरी और एजेंसी के टेलीग्राम चैनल के एडमिनिस्ट्रेटर हामिद हगजू को गिरफ्तार कर लिया।

मिस्र में जेल की सजा काट रहे पत्रकार अला अब्देलफतह के परिजनों को मिस्र सरकार ने तब गिरफ्तार कर लिया जब वे मिस्र की जेलों में कैदियों को कोविड संक्रमण से बचाने के उपायों की कमी के विषय में प्रदर्शन कर रहे थे।

ब्राज़ील के राष्ट्रपति जैर बोलसोनारो के अनुसार मीडिया इस ग्लोबल पैनडेमिक के दौर में केवल हिस्टीरिया और पैनिक फैला रहा है। भारत में भी तमिलनाडु प्रान्त में सिम्पलिसिटी न्यूज़ पोर्टल के संस्थापक और सीईओ पांडियन को एपिडेमिक डिसीज़ एक्ट के उल्लंघन के आरोप में हिरासत में लिया गया है।

कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स की 24 अप्रैल 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार  पांडियन ने शासन द्वारा किए जा रहे खाद्य वितरण कार्य  में कथित भ्रष्टाचार से संबंधित एक रपट प्रकाशित की थी जिसके बाद उनकी गिरफ्तारी हुई है। लॉक डाउन के नियम तोड़ने को लेकर नई दिल्ली और हैदराबाद में पत्रकारों के साथ पुलिस द्वारा की गई बदसलूकी की घटनाएं भी चर्चा में रही हैं।

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स और कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स जैसे अनेक संगठन यह मानते हैं कि विश्व भर में सरकारें कोविड-19  की आड़ में पत्रकारों का दमन कर रही हैं। दुनिया भर की अनेक सरकारों को प्रेस की स्वतंत्रता पर शिकंजा कसने का यह आदर्श समय जान पड़ रहा है। पूरा विश्व कोविड-19 के विनाशक स्वरूप को देखकर हतप्रभ है। राजनीतिक गतिविधियां ठप हैं। धरना-प्रदर्शन आदि पर रोक लगी हुई है। महामारी से उत्पन्न आपात स्थिति के मद्देनजर सरकारों को असीमित शक्तियां प्राप्त हैं। ऐसी अफरातफरी में सरकारों द्वारा पत्रकारों के दमन की कोशिशों पर लोगों का कम ही ध्यान जाएगा। सरकारें इसी का फायदा उठा रही हैं।

कोविड-19 की रोकथाम को आधार बनाकर सरकारें अपनी निगरानी बढ़ा रही हैं। सरकारों द्वारा की जा रही सर्विलांस की यह प्रवृत्ति यदि आगे भी जारी रहती है तो इसका दीर्घकालिक दुष्प्रभाव प्रेस की स्वतंत्रता पर पड़ेगा। 

आपात स्थितियां लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाओं के प्रमुखों को अधिनायकवादी शासकों की भांति अपरिमित और अनियंत्रित शक्तियों के प्रयोग का अवसर प्रदान करती हैं। प्रारंभिक संकोच के बाद वे इन शक्तियों का आनंद लेने लगते हैं और उनके मन के किसी गुप्त कोने में यह इच्छा भी पनपने लगती है कि सब कुछ इसी तरह चलता रहे। जहां चाटुकार मीडिया इन शिखर पुरुषों के आत्म सम्मोहन को गहरा करता है वहीं बेबाक और बेखौफ मीडिया उन्हें सच्चाई की पथरीली जमीन पर ला पटकता है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य आपात परिस्थितियों में मीडिया की भूमिका को महत्वपूर्ण और निर्णायक बना देता है।

अनेक विशेषज्ञ सरकारों द्वारा कोरोना काल में मीडिया के दमन की बढ़ती प्रवृत्ति की व्याख्या करने के लिए नाओमी क्लेन की शॉक डॉक्ट्रिन की अवधारणा का सहारा ले रहे हैं। इस अवधारणा के अनुसार सरकारें युद्ध, विद्रोह, आतंकवादी हमले, बाजारों की गिरावट और प्राकृतिक आपदा आदि का सहारा लेकर ऐसे कॉरपोरेट समर्थक सुधारों को लागू करने की कोशिश करती हैं जिन्हें सामान्य परिस्थितियों में क्रियान्वित करने पर भारी जन प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है। आपात स्थितियों के समय जनता घबराई हुई और अस्त-व्यस्त होती है । जनता की इस मनोदशा का उपयोग सरकारें उस पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए तथा प्रो कॉरपोरेट एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए करती हैं। मीडिया चूंकि जनता को सरकारों की इस निर्मम रणनीति के प्रति सतर्क करने की क्षमता रखता है इसलिए आपात परिस्थितियों का हवाला देकर उसका दमन पहले किया जाता है। नाओमी क्लेन के इस शॉक डॉक्ट्रिन से सहमत या असहमत हुआ जा सकता है किंतु वर्तमान परिस्थितियों की व्याख्या में इसके महत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती।

भारत सरकार भी मीडिया द्वारा कोविड-19 की संभावित गलत रिपोर्टिंग और उससे उत्पन्न अनुचित भय के वातावरण को लेकर सर्वोच्च न्यायालय से मार्गदर्शन की मांग कर चुकी है। भारत सरकार ने देश की सर्वोच्च अदालत को गृह सचिव द्वारा हस्ताक्षरित एक रिपोर्ट में बताया कि मीडिया और विशेषकर वेब पोर्टल्स द्वारा जानबूझकर अथवा अन्य कारणों से की गई गलत रिपोर्टिंग के कारण समाज के एक बड़े भाग में डर फैलने की गंभीर आशंका निश्चित रूप से बनी रहती है। यदि ऐसी रिपोर्टिंग के कारण आज की असाधारण और अप्रत्याशित परिस्थिति में आम लोगों में पैनिक फैलता है तो इसका नुकसान पूरे देश को होगा।

गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट से यह भी कहा कि समाज में पैनिक की स्थिति पैदा करना आपदा प्रबंधन कानून 2005 के अनुसार एक दंडनीय अपराध है। सर्वोच्च न्यायालय ने जो मार्गदर्शन दिया है वह प्रेस की स्वतंत्रता और इस महामारी के दौरान जिम्मेदारी पूर्ण रिपोर्टिंग के मध्य संतुलन स्थापित करने के एक  प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हम प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया से उत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार की आशा रखते हैं। मीडिया यह सुनिश्चित करे कि बिना सत्यापन के, कोई भी ऐसा समाचार जो पैनिक उत्पन्न कर सकता हो प्रसारित न होने पाए।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हम इस वैश्विक महामारी के बारे में मुक्त विचार विमर्श पर रोक नहीं लगाना चाहते किंतु मीडिया को कुछ भी सार्वजनिक करने से पहले इस संबंध में सरकार द्वारा दी गई अधिकृत जानकारी का अध्ययन करना और उसे प्रकाशित करना चाहिए।

अनेक विशेषज्ञ सुप्रीम कोर्ट के इस मार्गदर्शन को अस्पष्ट और अपर्याप्त मान रहे हैं और यह आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि इस अस्पष्टता का लाभ उठाकर सरकार मीडिया पर अंकुश लगाने की कोशिश कर सकती है।

 वैसे भी हाल के वर्षों में प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में भारत का रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है। इस वर्ष के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भी हम दो स्थानों की गिरावट के साथ 142 वें स्थान पर रहे हैं। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के अनुसार हमारे देश में निरंतर मीडिया की स्वतंत्रता का हनन हो रहा है। पत्रकार पुलिस की हिंसा के शिकार हो रहे हैं।

आपराधिक समूहों या भ्रष्ट स्थानीय अधिकारियों एवं राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं द्वारा उन्हें निशाना बनाया जा रहा है। आरएसएफ की रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत में एक विशेष विचारधारा के समर्थक अब राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे सभी विचारों का दमन करने की चेष्टा कर रहे हैं, जो उनके विचारों से  भिन्न हैं। भारत में उन समस्त पत्रकारों के विरुद्ध एक देशव्यापी अभियान चलाया जा रहा है, जो सरकार और राष्ट्र के बीच के अंतर को समझते हुए अपने कर्तव्यों का सम्यक निर्वहन कर रहे हैं। सरकार से असहमति को राजद्रोह माना जाने लगा है।  जब महिला पत्रकारों को इस तरह के अभियानों का निशाना बनाया जाता है तो प्रेस की स्वतंत्रता का परिदृश्य और अंधकारमय दिखने लगता है।

आरएसएफ की रिपोर्ट यह साफ तौर पर उल्लेख करती है कि भारत में आपराधिक धाराओं का प्रयोग उन व्यक्तियों विशेषकर पत्रकारों के विरुद्ध किया जा रहा है, जो अधिकारियों की आलोचना कर रहे हैं।

विगत दिनों देश में पत्रकारों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 124A (राजद्रोह) के प्रयोग के अनेक प्रकरण सामने आए हैं। भारत की रैंकिंग में गिरावट का कारण हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा को प्रश्रय देने वाली सरकार के पक्ष में कार्य करने हेतु मीडिया पर दबाव बनाने की कोशिशों को माना जा सकता है। जरूरी मुद्दों पर बोलने का साहस करने वाले अनेक पत्रकारों के विरुद्ध हिंदुत्व की विचारधारा के समर्थकों द्वारा अभियान चलाया गया और उन पर अभद्र टिप्पणियां करते हुए उनके विरुद्ध घृणा फैलाने की कोशिश की गई।

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स अपनी रिपोर्ट में कश्मीर में प्रेस की आजादी पर आए संकट का भी उल्लेख करता है। राज्य में धारा 370 के कतिपय प्रावधानों को अप्रभावी बनाए जाने के बाद सरकार द्वारा फोन और इंटरनेट सेवा बन्द कर दी गईं और ऐसी परिस्थितियां निर्मित की गईं जिनमें किसी पत्रकार के लिए जम्मू कश्मीर के हालात को कवर करना असंभव हो गया। भारत के रैंकिंग में नीचे जाने का एक मुख्य कारण जम्मू कश्मीर में प्रेस की स्वतंत्रता का दमन भी है।

भारत में प्रेस की स्वतंत्रता का प्रश्न जटिल बन गया है। सरकार समर्थक कॉरपोरेट मीडिया ने सरकार के लिए मीडिया पर प्रत्यक्ष नियंत्रण करने की आवश्यकता लगभग समाप्त कर दी है। अब सरकार को सेंसरशिप जैसे अलोकप्रिय कदम उठाने की आवश्यकता ही नहीं है। सरकार का काम सरकार समर्थक मीडिया समूहों द्वारा किया जाता है जो एजेंडा सेट करने, विमर्श को इच्छित दिशा में ले जाने और सरकार विरोधी पत्रकारों पर आक्रमण करने जैसे कार्यों को संपादित करते हैं। इसके लिए हिंसक एंकरों की एक फौज तैयार की जाती है जो शाब्दिक हिंसा और वैचारिक मॉब लिंचिंग में दक्ष होती है। इन्हें विरोधी विचारधारा की हत्या के लिए लाइसेंस टु किल मिला होता है।

वैचारिक बहसों को गैंग वार का स्वरूप दे दिया गया है। रही सही कसर सोशल मीडिया पर सक्रिय कार्यकर्ताओं और ट्रोल समूहों द्वारा पूरी कर दी जाती है जो फेक न्यूज़ आदि के माध्यम से अल्प शिक्षित और अशिक्षित वर्ग का ब्रेन वाश करने में प्रवीण होते हैं। सरकार के लिए इनके क्रिया कलापों पर चुप्पी साध लेना या इनकी गतिविधियों से पल्ला झाड़ लेना सरल होता है।

इस पूरे परिदृश्य की जटिलता यह है कि मीडिया की स्वतंत्रता के हनन का कार्य मीडिया का ही एक बड़ा वर्ग कर रहा है। यदि मुम्बई सिनेमा की भाषा में बात करें तो इस मेन स्ट्रीम मीडिया ने समानांतर मीडिया को बॉक्स ऑफिस की दौड़ में पछाड़ दिया है।

हमारे देश में प्रेस की स्वतंत्रता का मामला सरकार बनाम प्रेस जैसा सरल नहीं है। यह प्रेस के दो वैचारिक धड़ों के संघर्ष की जटिलता को स्वयं में समेटे है जिसमें सरकार की भूमिका एक पक्षपातपूर्ण रेफरी जैसी है। प्रेस की स्वतंत्रता की समस्या की जड़ें प्रेस के भीतर ही फैली हुई हैं और इसके समाधान का कोई भी प्रयास वैसा ही कठिन है जैसे रोगी द्वारा स्वयं की सर्जरी की कोशिश। कोविड काल में भी मीडिया के एक बड़े भाग ने सस्ते, दिखावटी और सजावटी राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया है, कोविड-19 के प्रसार की साम्प्रदायिक व्याख्याएं की हैं और नायक पूजा के नए आयामों को स्पर्श किया है। किंतु इसके बाद भी उम्मीद मीडिया से ही है।

भारत और उस जैसे अनेक विकासशील देशों में भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या रहा है। प्रशासन की असंवेदनशीलता भी चर्चा में रहती है। यह तय कर पाना कठिन है कि यह असंवेदनशीलता नीति निर्धारण के स्तर पर अधिक है या क्रियान्वयन के स्तर पर, यह तंत्र के स्तर पर अधिक व्याप्त है या व्यक्तिगत नेतृत्वकर्ताओं के स्तर पर इसका फैलाव अधिक है। इन देशों में जो जितना संपन्न होता है वह उतना ही अधिक सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं से लाभान्वित होता है और जो जितना निर्धन होता है उस तक सरकारी योजनाओं के लाभ उतने ही कम पहुंचते हैं जबकि इनकी सर्वाधिक आवश्यकता उसी को होती है।

हमारी शासन व्यवस्था अपना यह चरित्र कोविड-19 की चुनौती से मुकाबले के लिए बदल लेगी ऐसी कल्पना करना अतिशय भोलापन है। आशंका तो इस बात की अधिक है कि इस आपात स्थिति का लाभ उठाने के लिए शोषण और भ्रष्टाचार की नई और कारगर युक्तियां तैयार कर ली जाएंगी। इन परिस्थितियों में यह मीडिया ही है जो आम जनता की समस्याओं और कठिनाइयों को स्वर देता है। यदि इस वैश्विक महामारी के भीषण दौर में मीडिया को जनता की पीड़ा की अभिव्यक्ति से रोका गया तो प्रशासनिक अमले के निरंकुश होने का खतरा बढ़ जाएगा।

प्रशस्तिगान सभी को प्रिय होता है किन्तु यह समय इसका आनंद लेने का नहीं है, बदलाव के लिए कभी कभी जनता की करुण पुकार भी सुननी चाहिए। कोरोना बहुत कुछ नष्ट करने पर आमादा है किंतु हमें पुरजोर कोशिश करनी होगी कि यह स्वतंत्र, निर्भीक और सच्चाई पसंद मीडिया को अपना शिकार न बना सके।

(रायगढ़, छत्तीसगढ़ में रहने वाले डॉ. राजू पाण्डेय वरिष्ठ लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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