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भारत
राजनीति
क्या लोकलुभावनवाद, बहुसंख्यकवाद से अलग है?
उदारवादी होने के अपने ख़तरे हो सकते हैं,लेकिन ज़रूरी तो नहीं कि लोकतांत्रिक या समावेशी होने के भी ऐसे ही ख़तरे हों।
अजय गुदावर्ती
19 Nov 2020
क्या लोकलुभावनवाद, बहुसख्यकवाद से अलग है?

लोकलुभावनवाद समकालीन दौर की सबसे अहम राजनीतिक परिघटना के तौर पर उभरा है, लेकिन लोकतंत्र को लेकर इसके संभावित नतीजों पर बहुत कम सहमति बन पायी है। लोकलुभावनवाद पर ये विवाद उस शैली,जो भीतर ही भीतर काम करती है और इसके कामकाज के नज़र आने वाले असर के बीच की खाई से पैदा होते हैं।

ऐसे में ज़ाहिर है कि पहला सवाल तो यही बनता कि क्या लोकलुभावनवाद ज़रूरी तौर पर अपने मूल रूप में सत्तावादी और बहुसंख्यकवादी है या फिर इसका झुकाव कहीं ज़्यादा समावेशी लोकतंत्रीकरण की ओर भी हो सकता है। सवाल तो यह भी है कि क्या अपने कार्यशील तर्क के केन्द्र में लोकलुभावनवाद उदारवादी लोकतंत्र द्वारा निर्धारित सीमाओं से बाहर शब्दों के एक नये समूह को आगे बढ़ाता है?

क्या ये शब्द हमें लोकतंत्र को लेकर अलग तरीक़े से सोचने के लिए मजबूर करते हैं, या फिर वे लोकतांत्रिक भागीदारी को कम करने वाले सत्तावादी रुझान पैदा करते हैं? सीधे-सीधे शब्दों में कहें, तो क्या लोकलुभावनवाद बहुसंख्यकवाद से अलग है?

ब्लूम्सबरी द्वारा प्रकाशित प्रसांता चक्रवर्ती की संपादित किताब,“पॉपुलिज़्म एंड इट्स लिमिट्स: आफ़्टर आर्टिकुलेशन” इस जटिल भंवरजाल वाले सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश करती है; "लोगों" के विचार के संकेत को पढ़ने और उदार सीमाओं के ब्योरे से सीधे-सीधे एक प्रामाणिक मतदाता वर्ग का निर्माण करने का भी प्रयास करती है।

बाक़ी जो सीधा सवाल है,वह यह कि क्या लोकलुभावनवाद "लोगों" की एक चेतनशील और प्रामाणिक स्वर की नुमाइंदगी करता है या फिर यह सिर्फ़ रणनीति और साधन बनकर रह जाता है; और इसलिए कई चरणों में उसकी लफ़्फ़ाज़ी और जोड़ तोड़ के तौर-तरीक़ो के सामने आने की संभावना होती है?

जो एक सरल और सपाट सवाल दिखता है,उसका एक तर्कसंगत जवाब खोज पाना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि लोकलुभावनवाद एक स्तर पर तो सार्वभौमिक मानक आधिकारिक सूची या सरकारी रिकॉर्ड में काम करता है और दूसरे स्तर पर "लोगों" की रोज़मर्रा की नैतिकता और कमज़ोरियों को लेकर ख़ुद का आकलन करता है।

लोकप्रिय बयानबाज़ी करने वाले राजनीतिक नेताओं को लगता है कि वे उन "लोगों की तरह" सोचते हैं,जिनकी वे नुमाइंदगी करते हैं,जबकि धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील संविधानवादियों को लगता है कि वे हाशिये पर खड़े लोगों के बारे में सोचते हैं। अपनी "इस तरह की सोच" के साथ लोकलुभावनवादी न केवल स्थानीय और रोज़मर्रा की सांस्कृतिक शैलियों में संवाद करते हैं, बल्कि कमज़ोरियों, झूठ, नैतिक निर्बलता और यहां तक कि उन पूर्वाग्रहों को भी स्वीकार करने में ज़्यादा सहज होते हैं,जो सामाजिक और सामूहिक जीवन से बने होते हैं।

सामाजिक गंदगी का "प्रतिनिधित्व" करने वाला वास्तव में करता क्या है? क्या यह महज़ वर्चस्ववादी प्रभुत्व वाले लोकाचार को गहरा करता है और उन्हें थोपता है, या इसके उलट, वास्तव में उस "मानवीय अवस्था" की सीमाओं के लिए एक तर्कसंगत गुंज़ाइश मुहैया कराता है, जो उस नागरिकता और विश्वबंधुत्व के खाके से परे है,जिसका अनुसरण उदारवादी नागरिकता के मक़सद को पाने के लिए करते हैं? क्या यह ध्रुवीकरण ही है,जिसे लोकलुभावनवादी अंजाम देने के लिए आगे बढ़ते हैं, ये रणनीति तैयार करने के बाद रोज़मर्रे के प्रतीकवाद के चारों तरफ़, नीचे-ऊपर हर तरफ़ से ये मुलम्मा चढ़ा देते हैं?

चक्रवर्ती की यह किताब  "इस तरह की सोच" और "इसे लेकर बनने वाली सोच" के हालात से बचने के लिए "लोगों" के "साथ-साथ" तारतम्यता बनाने को लेकर "तीसरा रास्ता" सुझाती है। चक्रवर्ती इस बात को स्वीकार करते हैं कि "इस बारे में सोचते हुए" उनके पास अभिजात्यवाद और सरपरस्ती के जाने पहचाने रूपक हैं, "इस तरह की सोच" में एक का फ़ायदा दूसरे के नुकसान के बबरार वाला एक ऐसा खेल हो सकता है,जो उस संवाद और विचार-विमर्श की गुंज़ाइश को ही ख़त्म कर देता है, जो लोकतंत्र की ज़रूरत हैं। इसके ठीक उलट, "इसके साथ सोचने" का मतलब लोकप्रिय सहमति को सावधानी के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ाना हो सकता है।

चक्रवर्ती की प्रस्थापना इस बात से गहरे तौर पर जुड़ी हुई है कि कोई किस तरह “निरंतर, धीरे-धीरे, विशिष्ट और रचनात्मक टीमवर्क को फिर से हासिल कर सकता है, जो कि किसी शून्य में उग्र जोश को लम्बे समय तक बनाये रखने के बजाय एक सामान्य राजनीतिक भाषा पर निर्भर करता है ? शायद,इसके लिए एक बार फिर आपस में एक दूसरे को सुनने और एक –दूसरे की परेशानियों से रचनात्मक होने की एक क्रमिक, श्रमसाध्य प्रक्रिया की ज़रूरत होगी ”। (पृष्ठ 17)।

यही वह संभावना है,जहां यह किताब लोकलुभावनवाद की सीमाओं को उजागर करती है। यहां तक कि जो कुछ भी लोकसम्मत के पास है,उसे तर्कसंगत तरीक़े से समर्थन करने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि यह सवाल तब भी बना हुआ रहता है कि "इसके साथ की सोच" की यह वाह्यता कहां से आती है और यह कहां स्थित है ताकि यह सामाजिक शक्ति के "अभिव्यक्ति" से विमुख हो? क्या इस वाह्यता को लेकर कोई नैतिक गुंज़ाइश और कोई ऐसी ताक़त भी है, जो लोकलुभावनवाद के शुरुआती स्वरों के दावों और प्रकाशिकी का मुक़ाबला करने के लिए इसे और ज़्यादा प्रामाणिक और प्रभावी बना सकता है, ख़ासकर जब लोकलुभावनवाद की रणनीतियां अमानवीय और व्यावहारिक होने को लेकर सटीक तौर पर प्रभावी हों?

जब तक कोई शख़्स कटुता और ईर्ष्या, तमक, ग़ुस्सा और चिंता वाली भावनाओं की एक कड़ी को उचित जगह दिलाने को लेकर उन्हें सिद्धांत में नहीं ढालता,जबतक कि वह इसके ख़ात्मे में अपना योगदान नहीं करता,तबतक वह उदारवादी नहीं हो सकता,लेकिन जरूरी नहीं कि वह लोकतांत्रिक और समावेशी भी हो। मिसाल के तौर पर,कोई भी लोकप्रिय राजनीति में अपराध की जगह को भली भांति जान नहीं लेता है,जैसे कि इन सवालों से समझा जा सकता है कि अपराध किन चीज़ों से निर्मित होता है, यह किस तरह ग़ुस्से और विरोध से अलग है, और "शुद्ध राजनीति" के साथ इसका ठीक-ठीक किस तरह का रिश्ता है ? क्या अपराध उस मार्कर की तरह है,जो जनसमूह को भीड़ से अलग करता है ?

यह सवाल उदार संस्थानों से भी पूछे जाने की ज़रूरत है। संस्थागत कामकाज और प्रक्रियाओं के लिए ज़रूरी सामाजिक आकर्षण सामाजिक विशेषाधिकार और व्यक्तिवाद के अलावा कहां से आता है ? इसी तरह, सवाल है कि क्रांतियां तब कहां से आती हैं,जब उन्हें एक ऐतिहासिक और भौतिक तर्क का हिस्सा कहा जाता है, इसके बावजूद एक दरार तो पैदा होती ही है ? क्या इससे एक ऐसा बुनियादी अंतर्विरोध पैदा नहीं होता है, जो बाद में क्रांतिकारी समाजों की नाकामी में योगदान देता है और उन्हें "सर्वाधिकारवादी" के रूप में चिह्नित करता है ? उदारवाद ख़ुद ऐसा ‘मानकर’ कार्य करता है कि तमाम समाज सभ्य और बराबरी वाले हों, और  नागरिक क्षेत्र की कार्यपद्धति को सही ‘मानते’ हुए इसका उद्देश्य इस कार्यपद्धति के ज़रिये स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लक्ष्यों को हासिल करना होता है। लेकिन,वहीं लोकलुभावनवाद इस "मानकर" वाले काल्पनिक आधार पर नहीं,बल्कि राजनीतिक लामबंदी के कहीं ज़्यादा प्रत्यक्ष और प्रामाणिक संस्करण के रूप में काम करता है।

हालांकि लोकलुभावनवाद की सीमाओं की ओर इशारा करते हुए इस किताब में सुझायी गयी सावधानी को बहुत ही सटीक तरीक़े से बताया गया है, लेकिन ज़रूरी नहीं है कि इससे हमें एक रास्ता मिले। लेकिन,कोई शक नहीं कि यह किताब इस पर बात करने का एक विकल्प तो देती ही है कि क्या हमारे पास सोचने का एक उचित समय है या नहीं "और क्या ज़रूरी है कि लोकलुभावन के इस मुश्किल हालात से बाहर आने का यही एकमात्र तरीक़ा है।"

लेखक जेएनयू के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Is Populism any Different from Majoritarianism?

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Democracies
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