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भारत
राजनीति
जम्मू-कश्मीर : परिसीमन को लोकतंत्र के ख़िलाफ़ हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रही है बीजेपी
बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर श्रीनगर में हिंदू मुख्यमंत्री बनवाने का जुनून सवार है। इसके लिए केंद्र सरकार कश्मीर घाटी व दूसरी जगह के लोगों को, ख़ुद के द्वारा पहुंचाए जा रहे दर्द को नज़रअंदाज़ कर रही है।
अशोक कुमार पाण्डेय
24 Dec 2021
jammu and kashmir
फाइल फोटो।

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून में कश्मीरी नेताओं की सर्वदलीय बैठक बुलाई थी, हर किसी को कश्मीर घाटी में राजनीतिक प्रक्रिया के दोबारा शुरू होने की उम्मीद थी। लेकिन इस बैठक से एक सामूहिक फोटो के अलावा कुछ निकलकर नहीं आया। लेकिन सरकार इसे 'अच्छी शुरुआत' बताती है। लेकिन इस बैठक के बाद से पूरी प्रक्रिया की कोई सुध नहीं ली गई और पूरी कवायद महज़ सुर्खियां बटोरने का कार्यक्रम बनकर रह गई। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह कई बार दोहरा चुके हैं कि कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत सिर्फ़ परिसीमन की प्रक्रिया (इसे विधानसभा चुनाव पढ़ें) के होने के बाद ही शुरू हो पाएगी। इसी के बाद जम्मू और कश्मीर को राज्य का दर्जा वापस मिल पाएगा। 

लेकिन घाटी के राजनीतिक दल परिसीमन को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहे हैं और इसके असल उद्देश्य को लेकर शंका जाहिर करते रहे हैं। अब जब परिसीमन आयोग की अनुशंसाएं बाहर आ गई हैं, तो यह आशंकाएं सही साबित हुई हैं।

जम्मू-कश्मीर विधानसभा में घाटी का ज़्यादा प्रतिनिधित्व नहीं है

पूर्व का जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य था। हमेशा इस राज्य का मुखिया मुस्लिम रहा और राज्य की राजनीति हमेशा घाटी के आसपास केंद्रित रही। सिर्फ़ गुलाम नबी आजाद को छोड़कर, सभी मुख्यमंत्री घाटी के रहने वाले रहे हैं। यह स्वाभाविक भी हैं, क्योंकि घाटी की आबादी राज्य के भौगोलिक क्षेत्रों में सबसे ज़्यादा रही, हालांकि क्षेत्रफल के लिहाज से सबसे बड़ा इलाका जम्मू का है। पारंपरिक तौर पर बीजेपी और आरएसएस का समर्थन आधार जम्मू क्षेत्र में रहा है। घाटी में मुस्लिम तुष्टीकरण और विधानसभा में इसके ज़्यादा प्रतिनिधित्व होने का आरोप लगाते हुए आरएसएस-बीजेपी यहां कई तरह की योजनाएं बनाते रहे हैं। लेकिन तथ्य इन आरोपों को गलत साबित करते हैं।

चलिए 1995 में हुए आखिरी परिसीमन को उठाते हैं। यह 1981 की जनगणना पर आधारित था, क्योंकि राज्य में उग्रवाद, विप्लव और राज्य तंत्र के विफल होने के चलते अगली जनगणना नहीं हो पाई थी। 1981 की जनगणना के मुताबिक़, जम्मू-कश्मीर की आबादी में कश्मीर घाटी में रहने वाले लोगों की संख्या 56.16 फ़ीसदी है। जबकि जम्मू क्षेत्र में 43.84 फ़ीसदी आबादी रहती है। उस परिसीमन में, जम्मू और कश्मीर जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1957 के तहत, कुल 87 सीटों में से जम्मू को 37 और कश्मीर घाटी को 46 सीटें आवंटित की गई थीं। इसका मतलब हुआ कि कश्मीर घाटी का 55.42% और जम्मू क्षेत्र का 44.57% प्रतिनिधित्व विधानसभा में रहा। यह तथ्य साफ़ बताता है कि कश्मीर नहीं, बल्कि जम्मू का विधानसभा में अपनी आबादी के लिहाज से ज़्यादा प्रतिनिधित्व रहा है। 

2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला ने नए विधानसभा क्षेत्रों का गठन रोक दिया। यह कदम देश में तत्कालीन प्रतिबंध के समानांतर लगाया गया था। लेकिन जम्मू के राजनेता उस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गए, जहां रोक को सही ठहराया गया। 

1957 से जम्मू में सीटों की संख्या में हुई बढ़ोत्तरी, घाटी की तुलना में दोगुनी है। 1957 में पहले विधानसभा चुनावों में जम्मू को 30 सीटों का आवंटन किया गया था, जबकि कश्मीर के पास 43 सीटें थीं। 1995 में जम्मू क्षेत्र में 7 विधानसभा सीटें बढ़ाई गईं, जबकि घाटी में सिर्फ़ 3 ही सीटें बढ़ाई गईं। 

जम्मू-कश्मीर विधानसभा में कश्मीर घाटी को ज़्यादा प्रतिनिधित्व देने का शिगूफा अक्सर दक्षिणपंथी समूह छोड़ते रहते हैं, ताकि यह झूठी धारणा बनाई जा सके कि मुस्लिम बहुल राज्य में एक मुस्लिम मुख्यमंत्री होना, हिंदू बहुल जम्मू के साथ अन्याय है। बीजेपी हमेशा जम्मू-कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री के लिए जोर लगाती रही है। इस प्रोपगेंडा से बीजेपी को 2014 में जम्मू में बीजेपी को प्रभुत्व बनाने में मदद मिली। उस चुनाव में बीजेपी ने 25 सीटें जीतते हुए कांग्रेस पार्टी से इस क्षेत्र की प्रभुत्वशाली पार्टी होने का दर्जा छीन लिया। तब बीजेपी ने पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई। 

लेकिन दक्षिणपंथी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए यह काफ़ी नहीं था, जो जम्मू-कश्मीर राज्य में तथाकथित कश्मीर प्रभुत्व का विरोध कर रही थीं। संसद में एक स्पष्ट बहुमत होने से दक्षिणपंथियों को कश्मीर में विधानसभा को भंग कर, स्वायत्ता को खत्म कर और राज्य का दर्जा छीनकर अपनी डिज़ाइन लागू करने का मौका मिला। 

अनुच्छेद 370 को निरस्त करना और नया परिसीमन आयोग

अनुच्छेद 370 के निरसन से 'जम्मू और कश्मीर जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1957' का वैधानिक दर्जा खत्म हो गया और, जम्मू और कश्मीर परिसीमन आयोग नाम से 'जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019' के तहत एक नई संस्था बनाई गई। इस आयोग से केंद्र शासित प्रदेश में विधानसभा और संसदीय क्षेत्रों का सीमांकन करने के लिए कहा गया। सरकार ने चार पूर्वोत्तर राज्यों में भी इसी तरह की कवायद शुरू की थी, लेकिन मार्च 2021 में इन राज्यों को इस कवायद से बाहर कर दिया गया। लेकिन केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में परिसीमन कराने के लिए अड़ी हुई थी और आयोग को एक साल का समय विस्तार और दिया गया था। 

अधिनियम कहता है कि नई विधानसभा में कुल 90 सीटें होंगी। इसलिए आयोग पर घाटी और जम्मू में सिर्फ़ 7 अतिरिक्त सीटों के वितरण की जिम्मेदारी है। आयोग ने इनमें से 6 सीटें जम्मू क्षेत्र में आवंटित करने की सलाह दी और घाटी के लिए सिर्फ़ एक सीट छोड़ी। इसके चलते कश्मीर में बीजेपी को छोड़कर सभी पार्टियों ने जमकर इस कदम की आलोचना की। 

आबादी का विमर्श और आवंटन पर दिया गया तर्क

अपनी अनुशंसाओं को सही ठहराने के लिए आयोग ने आबादी का तर्क पेश किया। आयोग ने कहा, "आयोग ने कुछ जिलों में एक अतिरिक्त विधानसभा बनाए जाने का सुझाव दिया है, ताकि पर्याप्त संचार सुविधा उपलब्ध ना होने वाले भौगोलिक क्षेत्रों के प्रतिनिधित्व का संतुलन बनाया जा सके, क्योंकि यह क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय सीमा पर स्थित हैं और इनकी दूरी बहुत ज़्यादा है और इन तक पहुंच की स्थितियां भी खराब हैं।"  

जस्टिस रंजना पी देसाई की अध्यक्षता वाले आयोग ने कहा कि जिलों को विधानसभा क्षेत्रों के आंवटन के अपने प्रस्ताव में सभी 20 जिलों को तीन वर्गों में बांटा गया था, जिसमें हर विधानसभा क्षेत्र के लिए तय की जाने वाली औसत आबादी में, गलती के लिए 10 फ़ीसदी सीमा रखी गई थी। इस तरह जम्मू क्षेत्र में कठुआ, सांबा, राजौरी, रेआसी, डोडा और किश्तवाड़ जिले को एक-एक सीट मिली। जबकि कश्मीर घाटी में कुपवाड़ा जिले को एक सीट मिली। 

आयोग में पिछले राज्य के चुने हुए प्रतिनिधि सहायक सदस्यों के तौर पर शामिल हैं। लेकिन केंद्र शासित प्रदेश में कोई भी विधानसभा नहीं है, कश्मीर से सिर्फ़ पांच संसद सदस्य ही इसके सहायक सदस्य हैं: इनमें से तीन नेशनल कॉन्फ्रेंस से हैं और दो बीजेपी से। शुरुआती बॉयकॉट के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के सदस्य भी इसकी बैठकों में हिस्सा लेने लगे। इस बात पर गौर फरमाना जरूरी है कि हाल में कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के तीन सांसदों में से एक हसनैन मसूदी ने कहा था कि सहायक सदस्यों के तौर पर उनके पास असहमत होने या वीटो करने का कोई अधिकार नहीं है। उनकी असहमति रिकॉर्ड पर नहीं जाएगी, ना ही उनके विचारों को दर्ज किया जाएगा। 

ऊपर से आयोग ने भूगोल पर गैरजरूरी जोर डालते हुए, आबादी की अर्हता को पूरी तरह नज़रंदाज कर दिया। 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि कश्मीर में जम्मू की तुलना में 15 फ़ीसदी ज़्यादा मतदाता हैं। इस तरह केंद्र शासित प्रदेश में कश्मीर घाटी की आबादी का हिस्सा 56.2 फ़ीसदी है, जबकि जम्मू में 43.8 फ़ीसदी। अगर आयोग की अनुशंसाओं को लागू किया जाता है, तो नई विधानसभा में कश्मीर घाटी के लोगों का प्रतिनिधित्व 52.2 फ़ीसदी सीटों पर रहेगा, जो उनके आबादी में हिस्से से 4 फ़ीसदी कम है, जबकि जम्मू की हिस्सेदारी उनकी कुल आबादी की हिस्सेदारी की तुलना में 4 फ़ीसदी ज़्यादा रहते हुए 47.8 फ़ीसदी हो जाएगी। इसी चीज को गुस्से में बताते हुए जम्मू-कश्मीर के पूर्व कानून सचिव मोहम्मद अशरफ मीर कहते हैं, "जम्मू संभाग में 1,25,081 लोगों के लिए एक विधानसभा का गठन किया गया है। जबकि कश्मीर 1,46,563 लोगों के लिए एक विधानसभा का गठन किया गया है। प्रभावी तौर पर घाटी के 10,09,621 लोगों से मतदान का अधिकार छीन लिया गया है।"

ऊपर से नई जोड़ी गई सीटों में से कठुआ, सांबा और ऊधमपुर एकतरफा ढंग से हिंदू बहुल सीटें हैं, जहां हिंदू आबादी 85 फ़ीसदी से भी ज़्यादा है। जबकि किश्तवाड़, डोडा और राजौरी में हिंदुओं की आबादी 35-45 फ़ीसदी तक है। इसलिए आयोग की अनुशंसाओं से जम्मू-कश्मीर विधानसभा में मुस्लिम सदस्यों की संख्या कम होगी और बीजेपी को मुस्लिम बहुल राज्य में हिंदू मुख्यमंत्री बनाने का मौका मिलेगा। 

कश्मीर का औपनिवेशीकरण: नई भूमि उपयोग नीति और परिसीमन

जबसे 2014 में बीजेपी सत्ता में आई है, इसके नेताओं ने लगातार कश्मीरियों का आत्मविश्वास गिराने की कोशिश की है। अनुच्छेद 370 को हटाया जाना पहला कदम था, इसके बाद प्रेस और नागरिक समाज को नियंत्रित करने की कोशिश की गईं। बीजेपी ने कश्मीर में स्थिति का दोहन देश भर में सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने के लिए किया और राज्य में जितना कुछ लोकतंत्र बचा हुआ था, उसे भी छीन लिया। अब दो साल से ज़्यादा वक़्त से राज्य में कोई विधानसभा ही नहीं है। बहुचर्चित डीडीसी या जिला विकास परिषद चुनाव ने प्रतिनिधियों की सिर्फ़ एक फौज़ ही खड़ी की है, जिसके पास कोई अधिकार ही नहीं हैं, जबकि केंद्र अपनी तानाशाही जारी रखे हुए है। 

लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा की अध्यक्षता वाली एडमिनिस्ट्रेटिव काउंसिल (एसी) ने इस महीने की शुरुआत में एक और अहम फ़ैसला लिया। काउंसिल ने कृषि भूमि को गैर-कृषिगत कार्यों में इस्तेमाल के लिए राजस्व बोर्ड द्वारा बनाए नियमों को मान्यता दे दी। नए नियम जिला कलेक्टर को भू-उपयोग में बदलाव की अनुमति देते हैं। भू-उपयोग में बदलाव को कलेक्टर को अनुमति आवेदन करने के 30 दिन के भीतर देनी होगी। अगर कलेक्टर कोई फ़ैसला नहीं देता, तो नियम कहते हैं कि अनुमति दी हुई मानी जाएगी। 

जिला कलेक्टर साढ़े बाहर एकड़ तक के भू-उपयोग की अनुमति दे सकता है (इसके लिए इंडियन स्टाम्प एक्ट, 1899 के तहत संपत्ति के बाज़ार मूल्य का पांच फ़ीसदी शुल्क चुकाना होगा)। ऊपर से नियम यह भी कहते हैं कि अगर यह बदलाव रिहायशी उपयोग, खेत से जुड़ी इमारतों को बनाने के लिए किया जा रहा है, तो इसके लिए अनुमति लेनी की जरूरत नहीं होगी। इस तरह के उपयोग के लिए भू-उपयोग के लिए 400 वर्ग मीटर क्षेत्र की सीमा रखी गई है। राज्य के राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया था, लेकिन केंद्र सरकार ने हमेशा की तरह इसके ऊपर कोई ध्यान नहीं दिया।            

भूमि उपयोग में इस एक बदलाव से उन क्रांतिकारी भूमि सुधारों को दबा दिया जाएगा, जो पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला के कार्यकाल में किए गए थे। सामान्य अवधारणा से उलट, कश्मीर में कृषि एक अहम आर्थिक गतिविधि है। खासकर ग्रामीण इलाकों में। शेख अब्दुल्ला ने इसलिए भारत का साथ दिया था कि उन्हें उनके भूमि सुधारों को पूरा करने देने का वायदा किया गया था। जो उनकी पार्टी के ऐतिहासिक नया कश्मीर कार्यक्रम की रीढ़ की हड्डी थे। 

ध्यान दिला दें कि दक्षिणपंथी धड़े और जम्मू की डोगरा ताकतों ने अनुच्छेद 370 का विरोध तभी शुरू किया था, जब खेत जोतने वालों को भू-सुधारों का आश्वासन दे दिया गया था, जिससे जम्मू और कश्मीर में भू-ज़मीदारी के विखंडन का रास्ता बना था। भारतीय जनता पार्टी के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संविधान सभा में अनुच्छेद 370 के प्रस्ताव का कभी विरोध नहीं किया। बाद में वे अनुच्छेद 370 के खिलाफ़ होने वाले हिंसक प्रदर्शनों के नेता के तौर पर उभरे और बाकी तो इतिहास है। 

जिला कलेक्टर को 'भूमि-उपयोग में परिवर्तन की अनुमति देने के अधिकार' सौंपे जाने से जम्मू-कश्मीर की ग्रामीण तस्वीर बदल जाएगी और भू-सुधार के हासिल ख़त्म हो जाएंगे। लेकिन इस फै़सले को लेने के पहले विकास के नाम पर केंद्र और जम्मू-कश्मीर के प्रशासन ने ना तो राजनीतिक प्रतिनिधियों और ना ही दूसरे दावेदारों को विश्वास में लिया। ऐसा लगता है जैसे केंद्र सरकार कश्मीर की स्वायत्ता और आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने के लिए अपनी डिज़ाइन को लागू करना चाहती है, ताकि घाटी के जनसंख्या समीकरण में बदलाव लाया जा सके और जम्मू के पक्ष में राजनीतिक समीकरण बनाया जा सके। 

महत्वकांक्षाओं को दबाने से कभी लंबे दौर में शांति हासिल नहीं होती

ऐसा नहीं है कि पहले की सरकारों ने कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को निर्बाध चलने दिया हो। दो या तीन चुनावों के अलावा ज़्यादातर में धांधली की गई, ताकि यहां पिट्ठू सरकार बिठाई जा सके। वक़्त के साथ आई केंद्र सरकारों ने अनुच्छेद 370 का सिर्फ़ मुखौटा छोड़ा था और करीब़ तीन दशक पहले बेहद भयावह अफस्पा यहां लागू कर दिया गया। ऐसे ही कई काम किए गए। लेकिन कश्मीर के पास जो भी थोड़ी बहुत स्वायत्ता बची थी, मौजूदा सत्ता उसे भी छीनने पर लगी हुई है और कश्मीरी लोगों की महत्वकांक्षाओं और आत्म सम्मान का उल्लंघन कर रही है। यह ऐसे कदम हैं जिनके ज़रिए कश्मीर को हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद की योजना में उपनिवेश बनाए जाने की कवायद चल रही है।  कश्मीरियों के साथ पहले ही दूसरे दर्जे के नागरिकों की तरह व्यवहार किया जा रहा है, जिनके पास एक लोकतांत्रिक देश के नागरिकों को दिए जाने वाले नागरिक और लोकतांत्रिक अधिकार नहीं हैं।

परिसीमन के ज़रिए कश्मीर की लोकतांत्रिक शक्ति को सीमित करने, और भूमि-उपयोग के नियमों को बदलकर उनकी आर्थिक स्वायत्ता से छेड़छाड़ के चलते कश्मीरियों में नाराज़गी बढ़ी ही है। इससे घाटी में शांति और खुशहाली की किसी भी योजना को पटरी से हटा दिया है। इससे सिर्फ़ उनके आत्म सम्मान पर घाव बढ़ेंगे और उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचेगी। इससे भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा और हमारे लिए लंबे वक़्त में समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। साथ ही, पहले से तनाव में चल रहे सामाजिक-राजनीतिक ढांचे पर भी दबाव ज़्यादा बढ़ेगा। 

दक्षिणपंथी धड़े की योजनाएं, बाकी देश में इससे मिलने वाले राजनीतिक फायदे को देखते हुए किसी को लाभकारी लग सकती हैं। ऐसा भी लग सकता है कि हिंदू प्रधान बनाए जाने के सपने की दिशा में कश्मीर आगे बढ़ रहा है। लेकिन लंबे वक़्त में यह कार्रवाईयां और योजनाएं टिकने में अक्षम हैं। यहां तक कि दक्षिणपंथ के लिए भी यह हमेशा के लिए नहीं टिक पाएंगी। इतिहास हमें बताता है कि बहुमत में नाराज़गी पैदा कर कोई भी प्रशासन बना नहीं रह पाता है।

अशोक कुमार पांडे, "कश्मीरनामा" और "कश्मीर और कश्मीरी पंडित" के लेखक हैं। यह उनके निजी विचार हैं। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

In J&K, BJP Wields Delimitation as a Weapon Against Democracy

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