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भारत
राजनीति
नौकरियां? हां हां! वे बस आ ही रही हैं!
वित्त मंत्री ने सिर्फ़ नौकरियां पैदा करने के संकेत दिए हैं और कहा है कि रोज़गार बढ़ेगा, लेकिन क्या इतना काफ़ी है?
सुबोध वर्मा
04 Feb 2021
नौकरियां

वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने तीन बार ‘Jobs ’ बोला। लेकिन लगभग दो घंटे के अपने लंबे भाषण में उन्होंने “employment” शब्द का जिक्र छह बार किया। इन शब्दों के जिक्र के साथ उन्होंने बताया कि कैसे टेक्सटाइल पार्कों, सार्वजनिक बसों, मर्चेंट शिप को बढ़ावा देने, तमिलनाडु में सीवीड फार्मिंग और शिपब्रेकिंग यार्ड बनाने से तमाम नौकरियां पैदा होंगीं। वित मंत्री सोच रही होंगी कि यह नौकरियां पैदा करने के लिहाज से काफी होगा। जबकि हकीकत कुछ और है।

ताजा आकलनों के मुताबिक देश में लगभग 50 करोड़ वर्कफोर्स है। यानी ये 50 करोड़ लोग या तो काम कर रहे हैं या काम की तलाश में हैं। इनमें बच्चे और बुजुर्ग शामिल नहीं हैं। इनमें वे लोग भी शामिल नहीं है जो काम करने की उम्र में हैं लेकिन काम नहीं मांग रहे हैं। क्योंकि वे या तो पढ़ रहे हैं या घरों में रहने वाली ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें बाहर जाकर काम करने से हतोत्साहित किया जाता है।

दस करोड़ बेरोज़गारों की फ़ौज

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी यानी CMIE के मुताबिक इन 50 करोड़ लोगों में 40 करोड़ 10 लाख लोग ही ही रोजगार मे हैं। लगभग दस करोड़ की आबादी काम तलाश रही है। इनमें से अधिकतर युवा हैं। यह उन बेरोजगारों की फौज है जो नौकरियों पर टकटकी लगाए किनारे खड़े हैं।

नीचे चार्ट में आप देख सकते हैं कि (CMIE के सैंपल सर्वे का डेटा) जिन लोगों के पास रोजगार है उनकी तादाद पिछले दो साल से 40 करोड़ लोगों के आसपास अटकी हुई है।

हर साल 1.2 करोड़ लोग नौकरी करने की उम्र में आ जाते हैं और काम तलाशने लगते हैं। इसका मतलब यह कि बेरोजगारों की आबादी लगातार बढ़ती जा रही है। ये सारे आंकड़े चौंकाने वाले हैं और ये एक ही चीज बताते हैं कि देश में रोजगार की भारी किल्लत है। ये लोगों के जीवनस्तर को तहस-नहस कर रही है। परिवारों को गरीबी की ओर धकेल रही है और यहां तक कि उन्हें भुखमरी के कगार पर ला कर छोड़ दे रही है। बढ़ती बेरोजगारी से भारी तनाव पैदा हो रहा है और भारत को जिस युवा आबादी का लाभ मिलने की बात कही जाती है वह घटता जा रहा है।

CMIE के डेटा के मुताबिक इस साल जनवरी में देश में बेरोजगारी दर 6.5 फीसदी थी। शहरी इलाकों में यह आठ फीसदी थी और चूंकि रबी की फसल में लोग लगे हुए हैं इसलिए ग्रामीण इलाकों में यह छह फीसदी थी। जॉबलेस रेट लगातार पिछले दो साल के दौरान ऊंचा बना हुआ है। अप्रैल, 2020 में लॉकडाउन के दौरान तो यह बढ़ कर 24 फीसदी हो गया था। हालांकि इसमें रिकवरी दिखाई दे रही है लेकिन अभी भी इसकी दर ऊंची बनी हुई है। (यहां चार्ट देख सकते हैं).

भारतीय अर्थव्यवस्था का एक और खतरनाक पहलू है। यहां कम आय वाली नौकरियां है और वह भी अस्थायी। यह एक तरह की छिपी हुई बेरोजगारी है। लोग जो अपने मौजूदा काम से ज्यादा अच्छा काम कर सकते हैं और करना भी चाहते हैं लेकिन वे कम पैसे वाली अस्थायी नौकरियों में घिसट रहे हैं। क्योंकि अवसरों की कमी है। पिछले साल जब कोरोना की वजह से लॉकडाउन लगा तो कृषि सेक्टर ने शहरों में बेरोजगार हो चुके लोगों को खपाया। ऐसा नहीं कि खेती-बाड़ी में काम करने वालों की जरूरत थी। लोग उसमें घुस गए। यानी कृषि सेक्टर में काम करने वाले लोग तो बढ़ गए लेकिन मुनाफा नहीं बढ़ा। यही वजह है कि आंदोलन कर रहे किसानों की सबसे बड़ी चिंता खेती में मुनाफा बढ़ाना है। इसी तरह शिक्षित युवाओं का एक बड़ा हिस्सा मामूली वेतन पर काम कर रहा है। वे मुंह से एक शब्द नहीं निकाल पाते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि नौकरी से निकाल दिया गया तो दूसरी नौकरी नहीं मिलेगी। यही वजह है कि नौकरी के इस संकट ने मजदूरी तो घटाई ही है वेतनशुदा लोगों का वेतन भी घटा दिया है।

वेल्थ क्रिएटर्स को सिर्फ़ मुनाफ़े से मतलब

क्या वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री को देश में बेहद भयावह हो चले बेरोजगारी के संकट का पता नहीं है। (वित्त मंत्री ने अपने भाषण में बार-बार प्रधानमंत्री का यह कह कर आभार जताया कि पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की योजना बनाने में वह किस तरह मार्गदर्शक बने हुए हैं)। क्या उन्हें पता नहीं है कि नौकरी का संकट किस कदर भारत को खा रहा है। क्या सिर्फ 20 हजार बसें खरीद लेने से या सीवीड फार्म खोल देने से भयावह बेरोजगारी की समस्या को कुछ हद तक कम किया जा सकेगा।

अगर वे ऐसा सोचते हैं तो यह न सिर्फ उनकी खामख्याली  और मूर्खता है। वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार कॉरपोरेट सेक्टर को वेल्थ क्रिएटर यानी संपत्ति बनाने वाले और जॉब क्रिएटर यानी नौकरियां देने वाला कहा है। पूरी थ्योरी इस तरह है कि उद्योगपति चीजों का उत्पादन करने वाली फैक्टरी लगाएं या सर्विस सेक्टर में कंपनी खोलेंगे और इससे लोगों को रोजगार मिलेगा। इसलिए सरकार को उद्योगपतियों को ज्यादा से ज्यादा प्रोत्साहन और वित्तीय लाभ देना चाहिए, जिससे वे उद्योग लगा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों को नौकरियां दें। यह थ्योरी बड़ी लुभावनी है। यह बेहद सीधी थ्योरी है जो बड़ी आकर्षक लगती है।

लेकिन अफसोस कि यह थ्योरी इतने सरल तरीके से काम नहीं करती। जो लोग सरकार से तमाम तरह के फायदे लेकर उद्योग खोलते हैं, उन्होंने खरीदारों की भी जरूरत पड़ेगी। ये खरीदार वही लोग होंगे जो नौकरियां कर रहे हैं। रोजगार में लगे हैं। अगर उनके हाथ में खरीदने की ताकत नहीं होगी तो वे अपनी जरूरतें कम से कम रख कर अपनी खरीदारी सीमित रखेंगे। कहने का मतलब यह है कि आपके दयालु ‘वेल्थ क्रिएटर्स’ की ओर से जिन वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होगा, उनकी मांग भी नहीं बढ़ेगी। ऐसे हालत में वेल्थ क्रिएटर सारा मुनाफा लेकर चलते बनेंगे। आखिर वे चैरिटी करने तो आए नहीं हैं। मुनाफा कमाने आए हैं।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और पीएम मोदी कॉरपोरेट सेक्टर को आसानी से कर्ज मुहैया करा रहे हैं। उनके टैक्स कम कर रहे हैं और ईज ऑफ डुइंग बिजनेस के नाम पर नियम-कानूनों को खत्म कर रहे हैं ताकि कर्मचारियों को जब चाहे तब निकाला जा सके। इन कॉरपोरेट्स को सस्ते में मुनाफे कमाने वाली पीएसयू बेची जा रही हैं। रक्षा और परमाणु ऊर्जा समेत कई सेक्टरों में विदेशी निवेश से जुड़े नियमों में छूट दी जा रही है।

इस बार के बजट में 1.75 लाख करोड़ रुपये के विनिवेश का लक्ष्य रखा गया है। इंश्योरेंस सेक्टर में एफडीआई की सीमा 49 से बढ़ा कर 74 फीसदी कर दी गई है। सड़क और हाईवे बनाने पर जो जोर दिया जा रहा है उससे सिर्फ बड़े बिल्डर, डेवलपर और विशालकाय इंजीनियरिंग कंपनियों को फायदा होने जा रहा है। मुनाफाखोर कॉरपोरेट कंपनियों को खुश करने की ऐसी होड़ मची है कि उन्हें हाईवे, पावर ट्रांसमिशन लाइन, पोर्ट, एयरपोर्ट और यहां तक कि स्पोर्ट्स स्टेडियम तक एसेट मोनेटाइजेशन के नाम पर सौंपे जा रहे हैं।

लेकिन सरकार के इस कदम से कुछ नहीं होगा। जब तक अर्थव्यवस्था में मांग पैदा नहीं होगी, इन कवायदों का कोई फायदा नहीं होने वाला। यह मांग अभी पैदा करनी होगी। पांच-साल बाद नहीं।

सरकार को चाहिए कि वह लोगों की आय बढ़ाने का उपाय करे। रोजगार बढ़ाने वाले कार्यक्रम चलाए। सरकार के नेतृत्व में औद्योगीकरण को बढ़ावा दे। पब्लिक हेल्थकेयर सिस्टम और एजुकेशन को रफ्तार देकर लोगों पर इलाज के बढ़ते बोझ को कम करे ताकि लोगों की जेब में पैसे बचे औरवे वस्तुओं और सेवाओं पर खर्च कर सकें।

सरकार किसानों को पूरे देश में उनकी लागत का डेढ़ गुना एमएसपी देने का ऐलान कर सकती थी। साथ ही फसलों की सार्वजनिक खरीद और खाद्य वितरण में निवेश का ऐलान कर सकती थी। इससे न सिर्फ किसानों बल्कि उपभोक्ताओं को भी फायदा होता और इकनॉमी को जबरदस्त रफ्तार मिलती।

लेकिन सरकार इस आइडोलॉजी को थाम कर बैठी है कि उसे लोगों की मदद नहीं करनी चाहिए। जब वित्त मंत्री बार-बार ‘मीनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ कहती हैं तो इसका मतलब होता है लोगों की कम से कम और अमीर कॉरपोरेट को सरकार को ज्यादा से ज्यादा मदद। मोदी सरकार ने अब तक अपने छह साल के शासन में यही तो किया है।

यही वजह है वित्त मंत्री और केंद्र सरकार ने देश में मौजूद भयावह बरोजगारी को दूर करने की जिम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ लिया है। पहला चुनाव (2014) ‘अच्छे दिन’ और दो करोड़ नौकरी देने जैसे जुमले उछाल कर जीतने में सफल रहे। अब दूसरी बार सरकार में आए तो ‘वेल्थ क्रिएटर’ कॉरपोरेट सेक्टर को खुश करने में लगे हैं।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें।

Jobs? Yes, Yes! They are Coming!

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