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भारत
राजनीति
आर्टिकल 370 के ख़ात्मे का एक साल: कश्मीर की सच्चाई और मिथकों में बड़ा अंतर
केंद्र का कहना है कि राज्य के लोगों ने अपने विशेष दर्जे के खात्मे और केंद्रशासित प्रदेश में राज्य के बदलाव का स्वागत किया है। लेकिन तथ्य इस दावे को झूठा ठहराते हैं।
एजाज़ अशरफ़ वानी
06 Aug 2020
कश्मीर
Image Courtesy: Rediff.com

कश्मीर के विशेष दर्जे को खोने के करीब़ तीन महीने बाद गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में 20 नवंबर, 2019 को कहा था कि कश्मीर में किसी तरह का कर्फ्यू जारी नहीं हैं और हालात पूरी तरह सामान्य हो चुके हैं। शाह की पार्टी बीजेपी भी उन्हीं के शब्दों और 5 अगस्त, 2019 से उनके दावे को दोहराए जा रही है। यह दावा कुछ इस तरह है: केंद्र सरकार के फ़ैसले के खिलाफ़ एक गोली तक नहीं चली है। इसलिए वह कहते हैं कि अपने विशेष दर्जे को खोने और केंद्रशासित प्रदेश में बदलाव का कश्मीरियों ने स्वागत किया है।

अब एक साल बाद श्रीनगर के जिला प्रशासन ने दो दिन का कर्फ्यू घोषित किया है, जो 5 अगस्त की सुबह से लागू होना है। यह कर्फ्यू उन सूचनाओं पर आधारित हैं कि अलगाववादी और पाकिस्तान प्रायोजित समूह 5 अगस्त के दिन काला दिवस मनाएंगे। जहां बीजेपी ने पूरे भारत में 5 अगस्त को "एक भारत कैंपेन" और "एक भारत एक आत्मा दिवस" मनाने की योजना बनाई थी, वहीं जम्मू-कश्मीर की बीजेपी ने एक 15 दिन की योजना बनाई, जिसमें लोगों से हर साल 5 अगस्त को कैसे "अपने जीवन का सबसे चमकदार दिन" मनाएं, इसकी जानकारी दी जानी है। इस बीच पुलिस ने श्रीनगर शहर में अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं और प्रतिबंध लगा दिए। एक बार फिर कश्मीर के मिथकों और वास्तविकताओं के बीच बड़ा अंतर सामने आया है।

उग्रवाद और हिंसा

दावा किया गया कि अनुच्छेद 370 को हटाने से उग्रवाद के खात्मे और शांति बहाली में मदद मिलेगी, जिससे नए कश्मीर में प्रगति और खुशहाली आएगी। लेकिन इस दावे के उलट पिछले एक साल में हिंसा और उग्रवाद में तेजी ही आई है। इस साल जनवरी और जून के बीच में कश्मीर में 220 लोगों की हत्या हुईं और 107 हिंसा के मामले सामने आए। इनमें से 143 हत्याएं उग्रवादियों से संबंधित हैं, जबकि 2019 में यह आंकड़ा 120 और 2018 में 108 था।

इस दौरान उग्रवादियों और सुरक्षाबलों के बीच मुठभेड़ों में नागरिक संपत्तियों के होने वाले नुकसान में भी इज़ाफा हुआ है। युवाओं में हथियार उठाने का चलन बदस्तूर जारी है। "जम्मू-कश्मीर कोऑलिशन ऑफ सिविल सोसायटी" के अनुमान के मुताबिक़, इस साल की शुरुआत से अब तक 85 से 95 युवाओं ने उग्रवाद का रास्ता अख़्तियार किया है। अब तक 157 उग्रवादियों की हत्याएं की जा चुकी हैं, जिनमें से केवल 17 विदेशी थे।

सुऱक्षा ऑपरेशन में जान गंवाने वाले 88 फ़ीसदी उग्रवादी स्थानीय थे। जबकि 2019 में यहीं आंकड़ा 79 फ़ीसदी था। यह चीज, स्थानीय भर्तियों का रुझान स्पष्ट कर देता है। हाल में दक्षिण कश्मीर में 48 साल का एक ऐसा पिता उग्रवादी बन गया, जिसका उग्रवादी बेटा मारा जा चुका था। श्रीनगर में भी उग्रवादी गतिविधियों में इज़ाफा हुआ है। 2019 में श्रीनगर जिले में सिर्फ़ चार उग्रवादी मारे गए थे, लेकिन इस साल अब तक 10 उग्रवादियों को मारा जा चुका है। भारत-पाक सीमा पर संघर्षविराम उल्लंघन अब सबसे ऊंचे स्तर पर हैं। इस साल के शुरुआती 6 महीनों में अब तक संघर्ष विराम उल्लंघन की घटनाओं में 60 से 70 फ़ीसदी का इज़ाफा हुआ है।

विकास

राज्यसभा में गृहमंत्री ने अनुच्छेद 370 और 35A को जम्मू-कश्मीर की गरीबी और वहां कम विकास होने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया था। गृहमंत्री ने कहा कि इन प्रावधानों ने लोकतंत्र में बाधा डाली है, भ्रष्टाचार बढ़ाया है और विकास में अवरोध पैदा किया है।  उन्होंने कहा, "अनुच्छेद 370 तय करता है कि वहां PPP मॉडल काम न कर पाए, किसी तरह का निजी निवेश ना हो पाए, स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं में बाधा आती है, पर्यटन नहीं हो पाता है। इस सबकी वजह सिर्फ़ अनुच्छेद 370 है।" बीजेपी नेतृत्व एक चंहुमुखी विकास वाले नये कश्मीर की बात करने लगा, जिसके मूल में लोग हैं। लेकिन क्या जम्मू और कश्मीर कोई कम विकसित राज्य था? क्या विशेष दर्जा विकास में बाधा था? पिछले एक साल में कश्मीर में क्या बदलाव आए हैं?

एक उपभोक्ता राज्य होने के नाते, जिसके वित्तीय संसाधन बहुत सीमित थे, पहले का जम्मू-कश्मीर भारत के सबसे कम विकसित राज्यों में से एक था।  बीजेपी और उसके समर्थक यह तर्क आगे बढ़ाते रहते हैं कि अनुच्छेद 35A से गैर स्थानीय लोगों को ज़मीन या संपत्ति नहीं मिल पाती थी, इसलिए निजी निवेशक राज्य में निवेश करना नहीं चाहते थे।  यह तर्क दिया जाता है कि पहले के जम्मू-कश्मीर राज्य के सीमित संसाधन और कम निजी निवेश के चलते बड़े स्तर पर युवाओं में बेरोज़गारी आई और संपदा का राज्य से निर्यात हो गया, क्योंकि लोग स्वास्थ्य, शिक्षा और काम से जुड़े मौकों की तलाश में राज्य से बाहर प्रवास करते रहे।

लेकिन यह तर्क तथ्यात्मक तौर पर गलत हैं। अनुच्छेद 35A और 370 ने जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था में ढांचागत परिवर्तन किए थे। बड़े स्तर पर 1950 के दशक में हुई "जोतने वाले को ज़मीन" की प्रक्रिया तब वैधानिक तौर पर भारतीय संविधान के तहत संभव नहीं थी, क्योंकि संपत्ति का अधिकार, अनुच्छेद 19 के तहत तब एक मौलिक अधिकार था। 1950 से 1973 के बीच जो भूमि सुधार किए गए, उनसे ग्रामीण कश्मीरियों की जि़ंदगी में बहुत बदलाव आए। इसलिए 2017 में 0।68 के साथ जम्मू-कश्मीर का HDI या मानव विकास सूचकांक बिहार, आंध्रप्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों से बेहतर था। जम्मू कश्मीर में गरीबी अनुपात 10.35 फ़ीसदी था, जो भारते आंकड़े 21.92 फ़ीसदी से आधा था।

"ऑक्सफोर्ड पॉवर्टी एंड ह्यूमन डिेवेल्पमेंट इनीशिएटिव" के "मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स (MPI)" से हासिल हुए हालिया आंकड़ों की मदद से रुक्मणि एस ने अनुमान लगाया है कि जम्मू कश्मीर को 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 15 वें नंबर पर रखा जा सकता है। जम्मू कश्मीर का प्रदर्शन हिंदी बेल्ट के राज्यों समेत कई राज्यों से बेहतर है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी और जस्ट जॉब्स नेटवर्क द्वारा राज्यों के लिए बनाए गए "जस्ट जॉब्स इंडेक्स" में अलग-अलग राज्यों में नौकरियों की संख्या और गुणवत्ता के बारे में बताया गया है। इसमें जम्मू-कश्मीर का स्थान 21 राज्यों में 11वां है। जम्मू-कश्मीर ने गुजरात से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया, जो 10वें स्थान पर है। जबकि उत्तरप्रदेश 21वें, बिहार 20वें, मध्यप्रदेश 17वें और राजस्थान 15वें स्थान पर है।

पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS) 2019 के मुताबिक़, जम्मू-कश्मीर में बेरोज़गारी दर 5.3 फ़ीसदी है, जबकि राष्ट्रीय दर 6.1 है। शिशु मृत्यु दर, जीवन दर, प्रति व्यक्ति कुल राज्य जीडीपी, आबादी से डॉक्टरों के अनुपात समेत कई पैमानों पर जम्मू-कश्मीर ने ज़्यादा बेहतर प्रदर्शन किया।

35A के खिलाफ़ दिए जाने वाले तर्क से बिलकुल उलटे, राज्य में 90 साल की लीज़ पर ज़मीन दिए जाने का प्रावधान था, जिसे आगे भी बढ़ाया जा सकता था। इसी तरीके से विख्यात बिरला समूह ने 1963 में चिनाब कपड़ा मिल की स्थापना की थी। 1990 में होटल ग्रांड ललित खोला गया,  इंडियन होटल समूह ने होटल ताज विवांता खोली, फोर सीज़न्स, रेडिसन और ITC भी राज्य में आईं। कश्मीरियों और गैर कश्मीरियों के बीच साझेदारी से कई निजी अस्पताल भी खोले गए। राज्य में बिसको-मैलींसन, दिल्ली पब्लिक स्कूल, जीडी गोयंका समेत कई दूसरे स्कूल भी मौजूद हैं।

यह सही बात है कि जम्मू और कश्मीर में बड़े स्तर का निजी निवेश नहीं हुआ, लेकिन इसकी बुनियादी वजह वहां का राजनीतिक संकट था, ना कि अनुच्छेद 35A के चलते ऐसा हुआ।पिछले एक साल में जो स्थिति बनी है, वह प्रोत्साहित करने वाली नहीं है। बीजेपी नेताओं ने पुराने राज्य के युवाओं को 50,000 नौकरियां देने का वायदा किया था। लेकिन हाल में अपनी उपलब्धियों पर जारी किए गए एक दस्तावेज़ खुद कहता है कि अभी पहले चरण में 10,000 नौकरियों पर "भर्ती की जानी है", बाद में 25,000 भर्तियां भी की जाएंगी। अब तक एक भी भर्ती नहीं हुई है।

"फोरम ऑफ ह्यूमन राइट्स इन जम्मू-कश्मीर" नाम के एक नागरिक अधिकार समूह ने एक रिपोर्ट निकाली है, जिसका नाम "जम्मू एंड कश्मीर: इंपेक्ट ऑफ लॉकडाउन्स ऑन ह्यूमन राइट्स" है। इस रिपोर्ट के मुताबिक़, लॉकडाउन के शुरुआती चार महीनों में राज्य में उद्योगों को 17,817.18 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। जबकि पिछले साल 5 लाख नौकरियां जा चुकी हैं। यह आंकड़े JKCCI या जम्मू और कश्मीर चेंबर ऑफ कॉमर्स के हवाले से लिए गए हैं। JKCCI के हालियां आंकड़ों में कुल नुकसान कोो 40,000 करोड़ रुपये आंका गया है। केवल पर्यटन क्षेत्र में ही 74,500 लोगों की नौकरियां गई हैं।

इस नुकसान में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले, दैनिक भत्तेपर काम करने वालों, मज़दूरों और दूसरे लघु क्षेत्रों को हुए नुकसान को शामिल नहीं किया गया है।  अगस्त, 2019 के बाद के पांच महीनों में कश्मीर की अर्थव्यवस्था को 17,870 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था, इस दौरान हस्तकला, पर्यटन और सूचना तकनीक क्षेत्र से जुड़ी करीब़ 90,000 नौकरियां चली गईं। राज्य की अर्थव्यवस्था में 8 फ़ीसदी (8000 करोड़) का योगदान रखने वाले सेव उद्योग को सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ। लगभग सभी तरह के स्टार्टअप्स को बंद कर दिया गया, क्योंकि उन्हें इंटरनेट और फोन कनेक्टिविटी की जरूरत थी, जिन्हें ख़त्म कर दिया गया था।

दिसंबर, 2018 और जनवरी, 2020 के बीच प्रशासन ने नदियों की रेत और खनिजों के लिए ऑनलाइन नीलामी करवाई, इनसे लाखों स्थानीय लोगों को अपनी आजीविका से हाथ धोना पड़ा और उनके संकटापन्न पर्यावरण को नुकसान का अंदेशा पैदा हो गया। इन नीलामियों से जो समझौते हुए, उनमें से ज़्यादातर बाहरी लोगों को मिले, क्योंकि स्थानीय कांट्रेक्टर्स के पास इंटरनेट तक पहुंच नहीं थी।

मुख्यधारा की राजनीति

नई दिल्ली का जम्मू-कश्मीर में मुख्यधारा की राजनीति को जानबूझकर खत्म किया जाना एक प्रति-उत्पादक कदम है। स्थानीय राजनीतिक दलों की साख गिराने का काम अगस्त, 2019 के काफ़ी पहले से शुरू हो चुका था। जब मेहबूबा मुफ़्ती, बीजेपी के साथ सत्ता में थीं, तब उनके भाई तासदुक मुफ़्ती ने कहा था कि कश्मीर, खासकर घाटी में मुख्यधारा की राजनीतिक का आधार जानबूझकर खत्म किया जा रहा है। बीजेपी नेताओं द्वारा नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी को भ्रष्टाचारी, परिवारवादी, अलगाववादी समर्थक, पाकिस्तान समर्थक होने का आरोप लगाया गया और उन्हें भ्रष्टाचार और विकास ना होने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता रहा। जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्ज इन राजनीतिक दलों का मुख्य आधार हुआ करता था, इनकी राजनीति स्वायत्ता, आत्मशासन, बातचीत, सीमापार व्यापार समेत इसी तरह के मुद्दों के आसपास घूमती थी। अब इनकी स्थिति बहुत ज़्यादा कमजोर है, क्योंकि यह सब मुद्दे खत्म हो चुके हैं। चुनावी राजनीति और कश्मीर के वृहद राजनीतिक मुद्दे को अलग-अलग रखने पर इन पार्टियों द्वारा दिए जाने वाले जोर और उसकी शब्दावलियों से ही मुख्यधारा के राजनीतिक दल चलते थे। अब इनके पास क्या आधार बचा?

लेकिन इस सब के बावजूद केंद्र एक भरोसेमंद राजनीतिक विकल्प बनाने में नाकामयाब रहा। शुरुआत में केंद्र ने पंचायत और नगरपालिकाओं के प्रतिनिधियों को बढ़ावा दिया, जो 2018 के स्थानीय चुनाव में चुनकर आए थे। इन चुनावों का नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी ने बॉयकॉट किया था। इन चुनावों की ज़्यादातर सीटें खाली ही रह गई थीं। दो कश्मीरी सरपंचों के एक प्रतिनिधिमंडल ने तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह और उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू से भी मुलाकात की थी। लेकिन इन लोगों की कम क्षमताओं और घाटी के संवेदनशील और क्षणभंगुर माहौल को संभालने के लिए जरूरी राजनीतिक समझ न होने के चलते पंचायत प्रतिनिधियों को प्रोत्साहन वाला विचार हटा दिया गया।

फिर नई दिल्ली द्वारा अपनाई जाने वाली एक पुरानी रणनीति अपनाई गई। मार्च में "अपनी पार्टी" नाम से एक दल बनाया गया, जिसमें ज़्यादातर मुख्यधारा के दलों के पुराने विधायक थे। नई पार्टी ने कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट के उस फ़ैसले का पालन करेगी, जिसमें 370 को हटाने की कार्रवाई करने वाली बात थी। लेकिन पार्टी ने राज्य का दर्जा वापस दिए जाने और मजबूत मूलनिवासी कानून के पक्ष में लड़ाई लड़ने की बात कही। लेकिन यह पार्टी को लेकर घाटी में अच्छी प्रतिक्रिया नहीं आई, इसे "उनकी पार्टी (नई दिल्ली की पार्टी)" और "बीजेपी की B टीम" कहकर चिढ़ाया गया।

जहां बीजेपी का दावा है कि ज़मीन पर लोकतंत्र की पकड़ मजबूत हुई है, लेकिन असल में किसी तरह की राजनीतिक प्रक्रिया चालू नहीं हुई है, क्योंकि ज़्यादातर राजनेता हिरासत में हैं। दिलचस्प है कि जहां भारत ने मुख्यधारा के राजनीतिक नेताओं को दफ़्न कर दिया है, वहीं पाकिस्तान ने अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी को पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया है। चुनी हुई सरकार और प्रतिनिधियों के आभाव में पूरा प्रशासन और राज्य का प्रशासनिक ढांचा अफसरशाही की चपेट में आ गया है।

शिक्षा:

शायद पिछले साल का सबसे बुरा प्रभाव शिक्षा पर ही पड़ा है। अमित शाह ने संसद में कहा था कि कश्मीर में 20,114 स्कूलों को दोबारा खोला जा चुका है, 50,272 छात्र (99.48 फ़ीसदी) परीक्षाओं के लिए बैठे हैं (नौवीं और दसवीं के मामले में 99.7 फ़ीसदी)। लेकिन तथ्य यह है कि छात्रों ने फरवरी के मध्य में ही स्कूलों में जाना शुरू किया था, लेकिन फिर मार्च में देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा हो गई।

पहले कोई कश्मीरी माता-पिता अपने बच्चों को घर से बाहर नहीं भेजना चाहता था, क्योंकि संचार के सभी माध्यम खत्म हो चुके हैं। मार्च के पहले हफ़्ते में इंटरनेट सेवाओं को दोबारा चालू कर दिया गया, लेकिन स्पीड को केवल 2G तक सीमित कर दिया गया। लॉकडाउन के दौरान प्रशासन ने शैक्षणिक संस्थानों को ऑनलाइन क्लास चलाने का निर्देश दिया, लेकिन तेज गति वाले इंटरनेट पर प्रतिबंध के चलते ऐसा करना नामुमकिन हो गया। एक शिक्षक होने के नाते मैं खुद बच्चों और शिक्षकों की परेशानी का अनुभव कर चुका हूं। दूर-दराज के इलाकों में क्लास चलाने में उपयोगी ऑनलाइन ऐप्स को कनेक्ट करने में काफ़ी दिक्कत होती है। शिक्षक कभी-कभार ही सामग्री को अपलोड कर पाते हैं और बच्चे घंटों तक उन्हें डॉउनलोड करने की कोशिश करते हैं।
सभी तीन क्षेत्रों में चिंताएं

कश्मीर में बड़े पैमाने पर यह विचार घर कर गया है कि जो बदलाव किए गए हैं, उनका मकसद कश्मीर में जनसांख्यकीय बदलाव लाना है। इस विचार को गृहमंत्रालय के नये मूलनिवासी कानूनों और नियमों से और बल मिला। नए ढांचे को भारत में मूलनिवासी प्रबंधन का सबसे कमजोर ढांचा माना जा रहा है। इस नए ढांचे से जम्मू और लद्दाख के लोग भी चिंता में आ गए हैं। शुरुआत में जम्मू के लोगों में बदलावों को लेकर जो जोश था, अब उसकी जगह ज़मीन और नौकरियां खोने के डर ने ले ली है। उन्हें अब धोखा महसूस हो रहा है, क्योंकि ज़्यादातर मूलनिवासी प्रमाणपत्र जम्मू क्षेत्र में ही बांटे गए हैं।

इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि विवादों में उलझे कश्मीर में लोगों को बसने के लिए तैयार करना मुश्किल है, लेकिन जम्मू इस मायने में लोगों को आकर्षित करेगा। लद्दाख में अभी सरकार को नया मूलनिवासी कानून बनाना है, लेकिन वहां भी नौकरियां और ज़मीन खोने का डर है। नये मूलनिवासी कानून की मांग के साथ-साथ, रोज़गार उत्पादन और भर्तियों की प्रशासनिक नीतियों के खिलाफ़ चिंता समेत गुस्सा दिखाने के लिए 24 जुलाई को लद्दाख में पूर्णबंद का आयोजन हुआ था।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर की वापसी

सिर्फ़ इतना नहीं है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कश्मीर मामले में मध्यस्थता की पेशकश की थी। अमेरिकी कांग्रेस के एक प्रस्ताव में भारत सरकार से कश्मीर में प्रतिबंधों को खत्म करने और बड़े स्तर की हिरासतों के कार्यक्रम को रोकने की अपील की गई थी। इस प्रस्ताव के कांग्रेस में 40 सह-प्रायोजक थे। इनमें बार्नी सैंडर्स, इल्हान ओमर, प्रमिला जयपाल, एलिजाबेथ वारेन जैसे अहम सीनेटर्स ने कश्मीर की स्थितियों पर चिंता जताई थी।

8 अगस्त 2019 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने कश्मीर में "अधिकतम संयम" बरतने की अपील की। 16 अगस्त को सुरक्षा परिषद के देशों के बीच अनौपचारिक और बंद दरवाजों के पीछे सलाह-मशविरा हुआ। यह सही बात है कि किसी तरह का कोई आधिकारिक वक्तव्य जारी नहीं किया गया, लेकिन कई लोगों ने इसे कश्मीर मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण की दिशा में एक अहम कदम के तौर पर देखा। 6 अगस्त 2019 को चीन के विदेश मंत्रालय ने कश्मीर में भारतीय कदम पर "गंभीर चिंताएं" जताईं। इसमें लद्दाख के दर्जे में हुए "बदलाव को स्वीकार न करने लायक" बताया। लद्दाख के कुछ हिस्से (अक्साई चिन) को चीन अपने देश का इलाका बताता है।

हाल में लद्दाख में चीन ने जो कार्रवाई की है, उसे भी इसी पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है। कई लोगों का दावा है कि 5 अगस्त को भारत ने जो कार्रवाई की, उससे कश्मीर के मुद्दे में चीन तीसरा पक्ष बन गया है। कश्मीर में बने हालातों की अभूतपूर्व अंतरराष्ट्रीय प्रेस कवरेज हुई थी।भारत सरकार और बीजेपी ने पूरे देश में यह बात फैलाई है कि जो बदलाव किए गए हैं, वह अतीत के हालातों से बेहतरी की ओर बढ़े कदम हैं। लेकिन ज़मीन की सच्चाई इन दावों के उलट है। कश्मीर, जम्मू और लद्दाख पर नई दिल्ली की स्थिति बताती है कि चीजों में बदलाव लाया जा सकता है, लेकिन यह बदलाव हमेशा भले के लिए नहीं होता।

एजाज़ अशरफ़ वानी "What Happened to Governance in Kashmir?" के लेखक हैं, जिसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2019 ने प्रकाशित किया था। यह उनके निजी विचार हैं। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Abrogation Widened Gap Between Myth and Reality of Kashmir

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