केंद्र सरकार ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य को पद्मभूषण देने का ऐलान किया, लेकिन बुद्धदेब बाबू ने लेने से मना कर दिया। सवाल है कि सरकार ने बुद्धदेब भट्टाचार्य को पद्मभूषण देने का ऐलान किया ही क्यों? क्या सचमुच सरकार को लगा कि उनके योगदान के लिए उनको पद्म अलंकरण दिया जाए? फिर ऐसा वीएस अच्युतानंदन, माणिक सरकार या दिवंगत नृपेन चक्रबर्ती जैसे किसी दूसरे कम्युनिस्ट नेताओं के लिए क्यों नहीं लगा? बड़ा सवाल यह भी है कि सरकार को पता है कि कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता इस तरह के पुरस्कार नहीं लेते हैं फिर क्यों बुद्धदेब भट्टाचार्य के नाम का ऐलान किया गया? क्या सरकार ने सब जानते बूझते उनके नाम ऐलान किया ताकि वे मना करें और उसके बाद कम्युनिस्टों को देश विरोधी बताने का अभियान चले?
ध्यान रहे बुद्धदेब भट्टाचार्य के पद्मभूषण ठुकराते ही यह अभियान छिड़ गया कि कम्युनिस्ट देश विरोधी होते हैं। सरकार ने एक ओर देश भर के कम्युनिस्ट एक्टिविस्टों को पकड़ कर जेल में डाला हुआ है और दूसरी ओर एक कम्युनिस्ट नेता को पद्मभूषण देने का ऐलान कर दिया! सरकार और उसकी एजेंसियों को पता है कि इसी तरह 1992 में पीवी नरसिंहराव की सरकार ने केरल के पूर्व मुख्यमंत्री और दिग्गज कम्युनिस्ट नेता ईएमएस नंबूदिरिपाद को पद्म अलंकरण देने का ऐलान किया था और उन्होंने लेने से मना कर दिया था। इसी तरह 2007 में मनमोहन सिंह की सरकार ने ज्योति बसु को पद्म अलंकरण देने की घोषणा की थी और उन्होंने भी लेने से मना कर दिया था। फिर क्यों बुद्धदेब भट्टाचार्य को पद्म अलंकरण देने की घोषणा हुई? सब जानते हुए उनके नाम की घोषणा इसलिए हुई ताकि यह बताया जाए कि सरकार कम्युनिस्टों के खिलाफ नहीं है। दूसरा मकसद यह मैसेज प्रसारित करना था कि कम्युनिस्ट देश विरोधी होते हैं।
अब क्या कहेगी सरकार और क्या करेगा सुप्रीम कोर्ट?
विवादास्पद इजराइली जासूसी सॉफ्टवेयर पेगासस के जरिए विपक्षी नेताओं, सुप्रीम कोर्ट के जजों, सैन्य अधिकारियों, नौकरशाहों, पत्रकारों, वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के फोन टेप किए जाने के मामले में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में बार-बार हलफनामा देकर कहा कि उसने यह सॉफ्टवेयर नहीं खरीदा। जबकि सॉफ्वेयर बनाने वाली इजराइली कंपनी लगातार कह रही थी कि वह यह सॉफ्टवेयर सिर्फ सरकारों को ही बेचती है। अब द न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक ताजा रिपोर्ट के हवाले से इंडियन एक्सप्रेस और द वायर ने खबर दी है कि भारत सरकार ने 2017 में इजराइल से एक बड़े हथियार सौदे के तहत यह विवादास्पद जासूसी स्पाईवेयर टूल यानी पेगासस खरीदा था। जाहिर है कि इस बारे में सरकार सुप्रीम कोर्ट में झूठ बोलती रही है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की बनाई एक कमेटी इस मामले की जांच कर रही है। अब देखने वाली बात होगी कि उस जांच से क्या निकल कर आएगा, इस ताजा खुलासे पर सरकार क्या कहेगी और सुप्रीम कोर्ट क्या करेगा? यह भी देखना दिलचस्प होगा कि इंडियन एक्सप्रेस और द वायर का क्या होगा यानी सरकार उनको किस तरह सबक सिखाएगी? हो सकता है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और इनकम टैक्स छापेमारी की तैयारी में जुट गए हों!
नए सीडीएस की नियुक्ति अभी तक नहीं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2019 को लाल किले से ऐलान करने के बाद बड़े धूम धड़ाके से देश के पहले चीफ ऑफ स्टाफ यानी सीडीएस की नियुक्ति की थी। ऐसा करते हुए उन्होंने यह जताने की कोशिश की थी कि वे देश की सुरक्षा को लेकर बहुत गंभीर हैं। सेना प्रमुख के पद से रिटायर हुए जनरल बिपिन रावत को पहला सीडीएस बनाया गया था। एक दुर्भाग्यपूर्ण हेलीकॉप्टर दुर्घटना में पिछले साल आठ दिसंबर को उनका निधन हो गया। उसके बाद डेढ़ महीने बीत गए। उस हेलीकॉप्टर हादसे की जांच के लिए बनी तीनों सेनाओं की साझा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंप दी है और वह रिपोर्ट भी सार्वजनिक हो गई है। इसमें कहा गया है कि दुर्घटना मौसम की गड़बड़ी और पायलट के स्थान भटकने की वजह से हुई थी। यानी तकनीकी खराबी नहीं थी और न कोई साजिश थी। इतना सब हो जाने के बाद भी अभी तक नए सीडीएस की नियुक्ति नहीं हो पाई है। सरकार वहां भी तदर्थ व्यवस्था से काम चला रही है। थल सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवणे को सीडीएस की कुछ जिम्मेदारियां सौंपी गई हैं। वे चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी यानी सीओएससी के अध्यक्ष के नाते यह जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। वे तीनों सेना प्रमुखों में सबसे वरिष्ठ हैं और इसलिए उनको सीडीएस बनाए जाने की चर्चा थी। उनकी जगह नए सेनाध्यक्ष के नाम की चर्चा भी शुरू हो गई थी। कहा जा रहा है कि उप प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल सीपी मोहंती को नया सेनाध्यक्ष बनाया जाएगा। लेकिन किसी दिशा में कोई पहल नहीं हुई है। ऐसे समय में जब देश की सीमाओं पर कई तरह के दबाव बने हुए हैं तब पूर्णकालिक सीडीएस का नहीं होना कितनी चिंता की बात हो सकती है। लेकिन भारत में सीडीएस की नियुक्ति को भी किसी सामान्य सरकारी बाबू की नियुक्ति की तरह रूटीन का काम माना जा रहा है। सरकार के इस रवैये से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह सुरक्षा संबंधी मामलों को लेकर कितनी गंभीर है!
ध्यान हटाने के लिए नेताजी की प्रतिमा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर दूसरे मंत्री और भाजपा के तमाम नेता यह समझाने में लगे हैं कि गांधी परिवार ने नेताजी की अनदेखी की इसलिए उनकी 125वीं जयंती के मौके पर इंडिया गेट पर उनकी मूर्ति लगाने का फैसला हुआ। सवाल है कि अगर ऐसा है तो फिर 125वीं जयंती के दिन यानी 23 जनवरी 2022 को क्यों नहीं ग्रेनाइट की बनी मूर्ति लगाई गई? क्यों प्रधानमंत्री ने कहा कि जब तक ग्रेनाइट वाली मूर्ति तैयार होकर नहीं आती है तब तक होलोग्राफिक मूर्ति लगेगी? प्रधानमंत्री ने क्यों होलोग्राफिक मूर्ति का अनावरण किया? असल में इंडिया गेट पर बनी यह छतरी 1960 के बाद खाली पड़ी हुई थी। उस समय किंग जॉर्ज पंचम की मूर्ति वहां से हटाई गई थी। अब भी उस छतरी में नेताजी की मूर्ति लगाने की कोई योजना नहीं थी। लेकिन जब अमर जवान ज्योति बुझाने और सिर्फ एक ही जगह राष्ट्रीय समर स्मारक पर ज्योति जलने देने का फैसला हुआ और एक दिन पहले इसकी घोषणा हुई तो पूरे देश में और दुनिया में भी इस पर सवाल उठे। सरकार को इसका अंदाजा रहा होगा तभी अमर जवान ज्योति को बुझाने का फैसला गोपनीय रखा गया था। उसी समय यह तय हुआ होगा कि अगर आलोचना होती है तो लोगों का ध्यान हटाने के लिए नेताजी की मूर्ति लगाने का ऐलान किया जाएगा। वैसे भी इस प्रचार का कोई मतलब नहीं है कि नेताजी की मूर्ति राजधानी में नहीं है। संसद भवन परिसर में प्रधानमंत्री कार्यालय के बगल में ही नेताजी की भव्य मूर्ति लगी हुई है।
प्रतिनियुक्ति का फैसला राज्यों के वोट से होगा!
ऐसा लग रहा है कि केंद्र सरकार अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति का कानून बदलने का फैसला राज्यों के बीच जनमत संग्रह के आधार पर करेगी। इस समय तक नौ राज्यों ने केंद्र सरकार के इस प्रस्ताव का विरोध किया है और आठ राज्यों ने सरकार के प्रस्ताव का समर्थन किया है। दो राज्यों- मेघालय और कर्नाटक ने पहले विरोध किया था लेकिन अब ये दोनों राज्य अपने प्रस्ताव पर फिर से विचार कर रहे हैं। केंद्र सरकार आईएएस सहित सभी अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की केंद्र की प्रतिनियुक्ति का अधिकार अपने पास रखना चाहती है। राज्य इसे संघवाद के खिलाफ बता कर इसका विरोध कर रहे हैं। सचमुच संघवाद की अवधारणा को चुनौती देने वाले इस प्रस्ताव पर भी राज्य दलगत आधार पर बंट गए हैं। भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों की सरकारें इसका समर्थन कर रही हैं और विपक्षी पार्टियों की सरकारें इसका विरोध कर रही हैं। सो, स्वाभाविक रूप से राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब की कांग्रेस सरकार ने इसका विरोध किया है। कांग्रेस के समर्थन वाली तमिलनाडु, महाराष्ट्र और झारखंड सरकार ने भी इसका विरोध किया है और पश्चिम बंगाल, केरल और तेलंगाना की सरकार भी इसके विरोध में है। तीन राज्यों- ओड़िशा, आंध्र प्रदेश और बिहार की सरकार का रुख देखना सबसे दिलचस्प है। ओड़िसा ने इस प्रस्ताव का विरोध कर दिया है। अगर बिहार और आंध्र प्रदेश भी इसका विरोध करते हैं तभी इस बात की संभावना बनेगी कि सरकार इस कानून के प्रस्ताव को वापस ले। ध्यान रहे बिहार में जनता दल (यू) और भाजपा की साझा सरकार है लेकिन वहां कई मसलों पर दोनों के बीच मतभेद है। आंध्र प्रदेश और ओड़िशा की सरकारें गाहेबगाहे केंद्र सरकार का साथ देती रहती हैं। इस मसले पर अगर उन्होंने साथ नहीं दिया तो सरकार के पास पीछे हटने के अलावा कोई और चारा नहीं बचेगा।
पिएगी दिल्ली क्या तभी आगे बढ़ेगी दिल्ली?
एक दशक पहले अरविंद केजरीवाल जब आम आदमी पार्टी का गठन कर राजनीति के मैदान में उतरे थे तो उन्होंने उन्होंने दावा किया था कि वे राजनीति को बदल देंगे और उसे जनोन्मुख बनाएंगे। उनके राजनीति में आने के बाद राजनीति में तो रत्तीभर भी सकारात्मक बदलाव नहीं आया, उलटे राजनीति ने ही केजरीवाल को बदल दिया। पिछले करीब सात साल से सरकार चलाते हुए वे भी अपनी सरकार की कमाई बढाने के लिए उसी ढर्रे पर काम कर रहे हैं, जिस पर दूसरे दलों की सरकारें अन्य राज्यों में कर रही हैं। इस समय उनकी सरकार दिल्ली के हर रिहाइशी इलाके में शराब की दुकानें खुलवा रही है। सिर्फ शराब के ठेकों की संख्या ही नहीं बढ़ाई जा रही है, बल्कि यह उपाय भी किया जा रहा है कि दिल्ली में शराब पीने वालों को आसानी से और हर वक्त शराब उपलब्ध हो। शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ ही अपनी सरकार के प्रचार-प्रसार पर बजट का बड़ा हिस्सा खर्च करने वाली केजरीवाल सरकार शराब बेच कर कमाई बढ़ाने के उपाय कर रही है।
दिल्ली में शराब के ठेकों की संख्या पांच सौ से बढ़ कर साढ़े आठ सौ हो गई है। दिल्ली सरकार ने एक नया फरमान जारी किया है, जिसके तहत दिल्ली में अब सिर्फ तीन दिन ड्राई डे होंगे यानी सिर्फ तीन ही दिन शराब नहीं मिलेगी। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गांधी जयंती को ड्राई डे होंगे। इनके अलावा होली, दिवाली, दशहरा हर दिन शराब बिकेगी। अभी तक दिल्ली में एक साल में 21 दिन ड्राई डे होते थे। आम आदमी पार्टी की सरकार बनने से पहले दिल्ली में 47 ड्राई डे होते थे, जिसे घटा कर पहले 21 किया गया और अब सिर्फ तीन कर दिया गया है। दिल्ली सरकार ने ऐसे उपाय किए हैं कि लोगों को हर समय शराब उपलब्ध हो। दिल्ली में पहले 11 बजे रात के बाद शराब नहीं मिलती थी लेकिन अब तीन बजे तक शराब मिल सकेगी। इस तरह दिल्ली बेवड़ों का स्वर्ग बन रही है। आखिर पिएगी दिल्ली तभी तो आगे बढ़ेगी दिल्ली!
अपनी भद्द पिटवा रहे हैं कैप्टन
भारतीय राजनीति में दलबदल कोई नई बात नहीं है। नेता दलबदल करते रहते हैं। गोवा में तो पांच साल के अंदर 60 फीसदी विधायकों ने दलबदल किया। लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसी मिसाल कहीं नहीं मिलेगी। आज तक दलबदल करने वाला कोई नेता ऐसा नहीं दिखा, जो अपनी पिछली पार्टी के प्रति इतनी कड़वाहट से भरा हो। पार्टी छोड़ने के बाद ज्यादातर नेता अपनी पुरानी पार्टी पर हमला नहीं करते हैं और अगर करते हैं तो थोड़ी बहुत बयानबाजी के बाद अपने काम में लग जाते हैं। लेकिन कैप्टन हर दिन कोई न कोई झूठा-सच्चा दावा कर रहे हैं, जिससे कांग्रेस की कम और उनकी अपनी भद्द ज्यादा पीट रही है। उन्होंने पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को भ्रष्ट बताते हुए कहा है कि वे बालू की तस्करी कराते थे। सवाल है कि जब कैप्टन मुख्यमंत्री थे और उस समय चन्नी बालू की तस्करी कराते थे तो कैप्टन ने उसे रोकने के लिए कोई कार्रवाई क्यों नहीं की? उनकी नाक के नीचे तस्करी होती रही और उन्होंने नहीं रोका! उन्होंने नवजोत सिंह सिद्धू पर आरोप लगाया कि सिद्धू रेत के तस्करों को बचाते थे। जब सिद्धू तस्करों को बचाते थे तब बतौर मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह क्या करते थे? अब एक बेसिरपैर का दावा उन्होंने यह किया है कि जब उन्होंने सिद्धू को सरकार से हटाया था तब पाकिस्तान से सिद्धू को मंत्री बनाए रखने के लिए फोन आया था। सोचें, पाकिस्तान की एक पत्रकार अरुषा आलम उनके महल में रहती थीं और वे दूसरे पर पाकिस्तानपरस्ती का आरोप लगा रहे हैं!
ये भी पढ़ें: ख़बरों के आगे-पीछे : संसद का मखौल, बृजभूमि का ध्रुवीकरण और अन्य