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मज़दूर विहीन राष्ट्र एवं कोरोना!
क्या 21वी सदी में जो राष्ट्र अपने मज़दूरों का कोई रिकॉर्ड ही नहीं रखता हो वह विकसित राष्ट्र हो सकता है? मज़दूर विहीन राष्ट्र की परिकल्पना उन्हीं की हो सकती है जो मध्यकालीनता में जीते हों एवं प्राचीनता में गोताखोरी करते हों।
सिद्धेश्वर प्रसाद शुक्ल
30 May 2020
मज़दूर
Image courtesy: India

श्रमेव जयते, नमामि गंगे, वन्दे भारत, स्वनिर्भर भारत, एशिया टाइगर, पांच ट्रिलियन बनने वाली अर्थव्यवस्था, सौ स्मार्ट सिटी, मंगल पर भारत, सर्जिकल स्ट्राइक कर देने वाला देश, स्वच्छ भारत, आयुष्मान भारत, डिजिटल भारत, नोटबंदी करने वाला भारत, स्टार्ट अप इण्डिया, स्टैंड अप इंडिया जैसे अति गौरवान्वित देश में जहाँ 65 से ज्यादा खरबपति, एशिया के सबसे अमीर आदमी के निवास स्थान एवं 545 में 300 से ज्यादा करोड़पति सांसदों वाले देश ने क्या 1991 की नवउदारवादी नीतियों के आगमन के बाद मज़दूरों के बारे में कोई दीर्घ योजना या नीति बनाई है?

जिस देश की 130 करोड़ आबादी में से 40 करोड़ मज़दूर हो, एक सौ उनतालीस मिलियन के करीब प्रवासी मज़दूर हो तथा बाकी जनसंख्या का बड़ा हिस्सा छोटी और सीमांत किसानी पर निर्भर हो, जो पहले से ही कर एवं आत्महत्यायों से ग्रसित हो; जिसका बड़े हिस्से के पास असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों में शामिल होने के अलावा कोई विकल्प न हो, यह सवाल सभ्य समाज के सामने यक्ष प्रश्न की तरह खड़ा है कि वाकई पिछले तीन दशकों ने देश में किस दिशा की तरफ रुख किया है।

हजारों की संख्या में पैदल चलते प्रवासी मज़दूर, भूखे-प्यासे बच्चें, गर्भवती महिलाएं, बुजुर्ग लोग नंगे पैर हजारों मील नांपते गाँव की तरफ चल रहे हो; रेल की पटरियों पर कट रहे हो या सैकड़ों की संख्या में मर रहे हो तो सवाल सिर्फ रेलगाड़ी, बस चलाने, खाना पहुंचा देने, जूते-चप्पल बाँट देने, हज़ार बस दे देने,  किराया भर देने, आत्मग्लानी से भर जाने का नहीं है बल्कि इस प्रपंच से आगे जाकर परीक्षण करने का है कि आखिर पिछले तीन दशकों में हम कैसी नीतियों पर चल रहें हैं जिसका इतना विपरीत असर मज़दूर वर्ग पर पड़ा है। वैसे इन नीतियों के महाजनक अमेरिका की सर्वाधिक आबादी मानसिक तनाव से ग्रस्त है और 3 करोड़ 6 लाख लोग “फूड बैंक” के भोजन पर आधारित है।

इन तीन दशकों में मज़दूरों के लिए सामाजिक सुरुक्षा के नाम पर “भवन निर्माण बोर्डों” का गठन एवं रेहड़ी पटरी कानून का निर्माण 1913 हुआ है। निर्माण कार्यों पर एक प्रतिशत सेव जमाकर करीब 600 करोड़ की जमापूंजी निर्माण बोर्डों के पास है। बोर्डों की खस्ता हालत के चलते इस पैसे को भी वास्तविक मज़दूरों पर, खर्च नहीं किया गया है। रेहड़ी-पटरी कानून अभी तक सुचारू रूप से अमल में नहीं लाया जा सका है। मनरेगा एवं जवाहर रोजगार योजना में फैले व्यापक भ्रष्टाचार की कहानियां अख़बार में छपती रहती है।

ई.एस.आई एवं पी.एफ,  असंगठित क्षेत्र जो कुल मज़दूरों की संख्या का 94 प्रतिशत है पर लागू ही नहीं होता। सीवर-सफाई के कामों में लगे मज़दूरों के सुरक्षा उपकरणों की कमी के कारण 2019-2020 में अब तक 282 मज़दूरों की मौत हो चुकी है। दिहाड़ी मजदूरी हर राज्य निर्धारित करते है। त्रिपुरा में दिहाड़ी मजदूरी 40 रुपये तथा अन्य राज्यों में मज़दूरों की तय दिहाड़ी का आधा पगार भी नहीं मिलता।

इसके अतिरिक्त अन्य सेक्टरों में लगे असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के लिए न तो कोई कानून बना और न ही कोई सामाजिक सुरक्षा का प्रावधान। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी केरल के अलावा किसी भी राज्य ने बोर्ड तक गठित नहीं किया है। किसी भी राज्य के पास उसके भौगोलिक क्षेत्र में काम करने वाले असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों का कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है। आशा एवं आंगनबाड़ी में काम करने वाली महिलाओं को मज़दूर मानने से ही; राज्य सरकारें इनकार करती रही है। आंकड़ों एवं रिकॉर्ड के आभाव में राज्य सरकारें कोरोना संकट के समय ई- राशन कूपन के अतिरिक्त चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही है। दिल्ली सरकार द्वारा घोषित ड्राइवरों के लिए 5000 की स्कीम का फायदा कैबों के मालिक ले गये एवं ड्राइवर ताकते ही रह गये। यही कारण है कि शहरों से लाखों की संख्या में असंगठित क्षेत्र के मज़दूर पलायन कर रहे हैं।

नव उदारवादी नीतियों ने सबसे ज्यादा सर्विस सेक्टर की विकास का रास्ता खोला था। होटल, टूरिज्म, मॉल, मार्ट, फ्लिपकार्ट, अमेज़न, मेक्डोनाल्ड, पीजा हट, सप्लाई चेन, बड़े ई-कॉमर्स कर्मचारी, सेल्स के क्षेत्र में कार्यरत मज़दूर, सिक्योरिटी सर्विस एवं ढाबा चलाने वाले   इंटीरियर्स डिजाईनिंग, स्पोर्ट्स के कारोबार में लगे मज़दूर, मेडिकल क्षेत्र के कर्मचारी, इफ  सप्लाई, मीडिया क्षेत्र के कर्मचारी, प्राइवेट ऑफिस कर्मचारी इत्यादि। सर्विस सेक्टर का शायद ही कोई मज़दूर स्थायी नौकरी तथा स्थायी पगार पाता हो, काम के घंटे भी निर्धारित नहीं हैं। आमतौर पर 12 घंटे काम कराया जाता है और स्थायी सैलरी की जगह इंसेंटिव पर ज्यादा जोर है। कोरोना काल में इन मज़दूरों की दशा शोचनीय है। पलायन के कारण अमेज़न जैसी कम्पनियों को मजबूरन 50000 स्थायी नियुक्तियां करनी पड़ी। पलायन रोकने का सबसे कारगर तरीका स्थायी-सेवा शर्तों वाली नौकरी ही है।

सरकारी क्षेत्र के कर्मियों का 4 प्रतिशत रोक दिया गया है। जबकि महंगाई तेजी से बढ़ी है। प्रोमोशन दस सालों से रुके हुए हैं। ज्यादातर नौकरियां अस्थायी, कांट्रेक्ट या ठेकेदारी पर आधारित  हुई है। रेलवे, सरकारी दफ्तर, डाक, ट्रांसपोर्ट विभागों आदि की क्रोनोलोजी ही बदल गयी है। यहाँ परमानेंट कर्मचारी ढूँढना मुश्किल काम होगा। केंद्र सरकार के स्ट्रेटिजिक मंत्रालयों के भी बहुतायत कर्मचारी कांट्रेक्ट पर ही काम करते है जिन्हें 18000 रुपये नियत सैलरी दिया जाता है और उनसे फाइलों को गोपनीय रखने की उम्मीद की जाती है। दिल्ली सरकार के अधीनस्थ दिल्ली जल बोर्ड एवं डी टी सी इसके सबसे बेहतर उदाहरण है जहाँ स्थायी कर्मियों की संख्या शून्य की तरफ अग्रसर हैं। रेलवे के कंटेनर कॉर्पोरेशन को पहले प्राइवेट किया गया अब बेच देने की तैयारी है। स्वास्थ्य सेवाओं के ऊपर कोरोना महामारी से लड़ने का पूरा जिम्मा है। उन पर फूल बरसाये तो जा रहे है परन्तु पिछले तीन दशकों में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को प्राइवेट हाथों में सौपने का काम ही सरकारों ने किया है। क्या किसी ने पता करने की जहमत उठाई कि सरकारी अस्पतालों के ज्यादातर डॉक्टर, नर्स, पारामेडिक्स कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारी हैं। बिहार सरकार इन डॉक्टरों को महज 40,000 रुपये की सैलरी देती है।

क्या अब यह सही समय नहीं है कि इनको परमानेंट कर दिया जाए। तथा बेरोजगार डॉक्टरों, नर्सों एवं पारामेडिक्स को सरकार नौकरी दे दे। अन्यथा उनके लिए फूल बरसाने, दीप जलाना या ताली-थाली आदि बजाना बकरे को चना खिला कर सूली पर चढ़ाने जैसा नहीं है? सरकारी स्कूल क्वारंटीन सेंटर बनाये गये हैं और उनके प्रबंधन की जिम्मेवारी स्कूल के शिक्षकों पर है। क्या यह सूचना भी प्रसारित की गयी है कि बहुत सारें स्कूलों के प्रिंसिपल भी शिक्षा मित्र हैं। जिनकी सैलरी 12000 से 18000 के बीच है। नीतीश कुमार जी के मुस्कुराते चेहरे पर शिकन भी आती है कि ये शिक्षा मित्र जिनकी अपनी नौकरी अस्थायी है, दबंग लोगों के रिश्तेदारों को क्या वह क्वारंटीन सेंटरों में रोक पाएंगे। सरकारी क्षत्रों के संस्थानों के निजीकरण एवं केन्द्रीकरण के चलते उनके हालात किसी भी विपरीत परिस्थितियों से निपटने में लचर हुए हैं। कोविड-19 सरकारी तंत्र के इन हालात को बुरी तरह से पारदर्शी बना दिया है।

संगठित क्षेत्र के करीब 90 प्रतिशत मज़दूरों को मार्च-अप्रैल और मई के महीनों का वेतन नहीं दिया गया। जो मज़दूर फैक्टरी में रहते हैं उनके सामान सड़क पर फेंक कर ताला बंद कर दिया गया है। जिन मकानों में रहते है वहां सरकारी निर्देशों के बावजूद उनसे किराया वसूला जाता रहा। कई जगहों पर किराया नहीं देने पर उनके सामान सड़कों पर फेंके गये और माकन खाली करने के लिए कहा गया। महिला मज़दूरों ने अपने जेवरात गिरवी या बेच कर घर जाने के लिए किराये का इंतज़ाम किया। ट्रक मालिकों ने मज़दूरों की स्थिति का फायदा उठाते हुए मनमाना किराया वसूल किया। गरीब एवं दूर-दराज के क्षेत्रों से आने वाले प्रवासी मज़दूर अपने घरों में “दड़बे की मुर्गी” बने बेठे रहें। 

क्या इस गौरवान्वित राष्ट्र के सभ्य समाज को जानकारी है कि आमतौर पर इन मज़दूरों को 8 घंटे काम के 7 या 8 हज़ार के बीच पगार मिलती है एवं इस श्रेणी के महिला मज़दूरों को 5-6 हज़ार रुपये ही मिलते है। सरकार के न्यूनतम वेतन कानून की धज्जियां उड़ाते मालिकों को लेबर विभाग मूकदर्शक बने देखता रहता है और सरकारें आँख मूँद लेती हैं। कोरोना काल ने विषमता के इस वैदिक गणित को सबके समक्ष आइने की तरह खोल के रख दिया है। आखिर कार इन मज़दूरों को कितने दिनों तक फ्री के रामायण, महाभारत एवं कृष्ण लीला के सीरियल दिखा कर जिंदा रखा जा सकता है। भूख तो सबको लगती है ना।

नरेद्र मोदी की सरकार ने श्रमेय जयते का नारा देकर भी श्रम कानूनों को बदल देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा है। यह श्रम कानूनों को 48 श्रम कानूनों को 4 लेबर कोड में तब्दील करने से उसकी ऐतिहासिकता और अंतरात्मा ही नष्ट हो जाती है। कई राज्य सरकारों ने क्रूरता की हद पार करते हुए कोरोना संकट का इस्तेमाल करते हुए श्रम कानूनों को बदल देने की मुहिम भी छेड़ रखी है। भवन निर्माण मज़दूरों के बोर्ड ई.एस.आई एवं पी.एफ विभाग में जमा मज़दूरों के पैसे पर भी केंद्र सरकार ने आरबीआई की तरह नज़र जमा रखी है। केंद्र सरकार ने मज़दूरों के लिए नीम,  फिक्स टर्म ओप्रेसिस कानून एवं हायर एंड फायर का कानून लाकर श्रमिकों को दासों की श्रेणी में धकेलने का ही काम किया है। चीन से भारत में भाग आने वाली कंपनियों के लिए पलक-पावड़े बिछाने वाली सरकार ने उनसे श्रम कानून लागू करने की बात की है। नोएडा में पहले से स्थापित मल्टी-नेशनल कंपनियां किसी प्रकार का श्रम कानून लागू  नहीं करती हैं।

मूल प्रश्न यही है कि 1951 के बाद देश के मज़दूरों की 40 करोड़ आबादी एवं उनकी समस्याओं से राष्ट्र बेपरवाह रहा है। उनके लिए बने कानून एवं अधिकारों को ख़त्म कर देने का दौर रहा है। क्या 21वी सदी में जो राष्ट्र अपने मज़दूरों का कोई रिकॉर्ड ही नहीं रखता हो वह विकसित राष्ट्र हो सकता है? मज़दूर विहीन राष्ट्र की परिकल्पना उन्हीं की हो सकती है जो मध्यकालीनता में जीते हों एवं प्राचीनता में गोताखोरी करते हों। हमारा वर्तमान शासक वर्ग और उनसे जुड़ा हुआ कॉर्पोरेट इसी सोच का अनुगामी है “जहाँ लूट पड़े वहां टूट पड़े जहाँ मार पड़े तो भाग चले।”

मुनाफे में सबसे आगे बैंक लोन लूटने में माहिर हमारा पूंजीपति वर्ग किसी आधुनिक पूंजीवाद की परिभाषा में भी बंधने के लिए तैयार नहीं है। मज़दूर-मालिक के वह आधुनिक लिबास एवं तड़क-भड़क वाली इमारतों में बैठ कर बनियागिरी और महाजनी से ऊपर नहीं उठ पा रहा है। आधुनिक संबंधों को समझे बगैर किसी मजबूत राष्ट्र की परिकल्पना असंभव है। 

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के शिक्षक हैं। आपसे  sidheshwarprasadshukla@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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