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भारत
राजनीति
क्या भारतीय मुसलमान नेतृत्व के अभाव में पिछड़ रहे हैं?
स्पष्ट रूप से ज़रूरत एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व की है जो जनता की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आकांक्षाओं और उसके महत्व को समझने के मामले में दूरदर्शी हो।  
सैयद ऊबेदउर रहमान 
18 May 2020
Translated by महेश कुमार
भारतीय मुसलमान
प्रतीकात्मक तस्वीर

भारतीय मुसलमान राज्य के हाथों तीव्र दमन और नेताओं की कमी की दोहरी मार झेल रहा है, ऐसा नेतृत्व जो प्रभावी ढंग से उनकी बात दुनिया के सामने पेश कर सके। समुदाय भविष्य के प्रति चिंतित और भयभीत महसूस कर रहा है क्योंकि नए प्रकार के उत्पीड़न जिसमें हिंसक भीड़ द्वारा हमले, मीडिया द्वारा समुदाय के खिलाफ खबरों को तोड़-मरोड़कर पेश करना, महामारी से लड़ने की आड़ में समुदाय को बदनाम करना, यहाँ तक कि कानून की अदालतों में समुदाय को बेज़्जत करना शामिल है- जिसे आज एक नई सामान्य स्थिति मान लिया गया है।

निष्पक्ष रूप से कहा जाए तो भारतीय मुसलमानों के लिए चीजें इतनी रूखी तब भी नहीं थीं, खासकर बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद भी ऐसा नहीं देखा गया था। लेकिन हाल ही में उन्हें सीएए-एनपीआर-एनआरसी  के माध्यम से मताधिकार के हक़ के विघटन की संभावना का सामना करना पड़ा। स्वाभाविक रूप से, मुस्लिम नेतृत्व के बारे बात की जाए जो इस बात की आवश्यकता मौजूदा परिस्थितियों ने पैदा की है। ज़ाहिर है नए उभरते हालत ने मुस्लिम नेताओं की आवश्यकता पर बात करने की स्थिति को तैयार किया है? लेकिन सवाल उठता है कि आखिर ऐसा नेता कौन हो सकता है?

स्वतंत्रता के बाद से ही, मुसलमानों के बीच धार्मिक नेता और इस्लामी संगठन फले-फुले। ऐसा बड़े पैमाने पर हुआ क्योंकि समुदाय का मध्यम वर्ग और अमीर या सामाजिक रूप से संपन्न तबका नए बने पाकिस्तान में चला गया, जबकि ज्यादातर अशिक्षित और गरीब मुसलमान देश में रह गए। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उनके बीच धार्मिकता पनपती रही है, जैसा कि किसी भी कमजोर वर्ग में होता है। हालांकि, इससे समुदाय के भीतर काफी तबाही मची, क्योंकि धार्मिक नेतृत्व को इस बात की कोई समझ नहीं थी कि समुदाय की  समृद्धि और विकास के लिए किस तरह की पैंतरेबाज़ी करनी है।

धार्मिक नेतृत्व के प्रभुत्व ने मुसलमानों के दरमियान सामाजिक-राजनीतिक नेतृत्व की कमी को स्पष्ट रूप से जग ज़ाहिर किया है। अली नदीम रिजवी, जो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं, ने मुझसे कहा कि, “भारत में आज कोई मुस्लिम नेतृत्व नहीं है, न कभी रहा है और अगर हम भारत को लोकतंत्र मानते हैं तो इसकी जरूरत भी नहीं थे। क्योंकि हम कभी भी ’हिंदू’ नेतृत्व की बात नहीं करते हैं, फिर मुसलमानों के लिए अलग से नेतृत्व की बात क्यों?”

फिर भी, दुर्भाग्य से, धार्मिक हस्तियों ने मुसलमानों की ओर से "नेतृत्व" करने का दंभ भरा है – रिज़वी के मुताबिक यह, बहुसंख्यक समुदाय में सांप्रदायिक ताक़तों द्वारा प्रोत्साहित की गई एक घटना है, क्योंकि यह उनकी बात को ही साबित करता है कि मुसलमान राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग हैं। "उलेमाओं ने अपने उन हितों को आगे बढ़ाने की कोशिश की है, जो समुदाय के बड़े हिस्से को नुकसान पहुंचाते हैं।" किसी भी अन्य पादरियों या पुजारियों की की तरह, मुसलमान भी हाल ही में अज्ञानता का सबब बना है।

एक लेखक और तीन निबंध संग्रह के संस्थापक, असद जैदी, जो एक प्रकाशन चलाते हैं कहते हैं कि कोई अंतर्निहित या आंतरिक अक्षमता मुसलमानों को अपने नेतृत्व की कल्पना करने से नहीं रोकती है, लेकिन राजनीतिक और सामाजिक स्पेक्ट्रम में इस बात की "मज़बूत सर्वसम्मति" है, कि ऐसा कतई नहीं होना चाहिए। यह इसलिए भी कि अगर मुस्लिम सामाजिक-आर्थिक या राजनीतिक मुद्दों पर संगठित होने का प्रयास करते हैं, तो इसे "खतरनाक और सांप्रदायिक रूप से विस्फोटक" करार दिया जाएगा।

विभाजन और उस पर पाकिस्तान के गठन को आमतौर पर इसके लिए दोषी ठहराया जाता है, लेकिन जैदी बताते हैं कि बहुमतवाद, 1947 की तुलना में एक पुरानी बुराई है। इस उपमहाद्वीप में "जातीय, राजनीतिक या धार्मिक अल्पसंख्यकों के स्थान को हमेशा सामान्यीकृत किया गया है,"। वे कहते हैं, कि इसी  बहुमतवाद को समान रूप से "विभाजन के कारण के रूप में देखा जा सकता है।" उन्हे लगता है कि विभिन्न हिंदू आबादी और जैन जैसे अन्य समुदायों में मुस्लिम विरोधी एकता से इस समस्या को समझना महत्वपूर्ण है।

इस जटिल और लंबे इतिहास का बोझ इतना है कि भारतीय मुसलमानों के बीच संगठन का एकमात्र "स्वरूप" या तो धार्मिक या फिर अर्ध-धार्मिक है। ऐसे संगठनों के अग्रणी नेताओं को मीडिया और मुख्यधारा के राजनीतिक संगठनों द्वारा सभी मुद्दों के मामले पर मुसलमानों के प्रतिनिधियों के तौर पर मान लिया जाता है। जैदी कहते हैं, "मुस्लिम संगठनों का यह तबका मुसलमानों को विफल कर रहा है- और कहा जाए कि उन्हे विफल करने के लिए ही इसे डिज़ाइन किया गया था तो गलत न होगा।"

फिर भी जैदी ऐसा नहीं मानते हैं कि मुस्लिम नेतृत्व पूरी तरह से मौलानाओं के हाथों में है और इसलिए इसके पिछड़ने के लिए वे जिम्मेदार है। उनका मानना है कि मौलाना स्वाभाविक रूप से नेतृत्व के लिए अक्षम हैं, क्योंकि उनके पास इसकी मूल अनिवार्यताओं की कमी है – जैसे कि जन आधार, राजनीतिक समझ और यहां तक कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की अल्पविकसित स्वीकृति है। न ही अधिकांश मुस्लिम, नेतृत्व के लिए मौलानाओं का मुह ताकते हैं। इन सभी कारणों के चलते समुदाय को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि भारतीय मुसलमानों का हाशिए पर होना उनके '' पिछड़ेपन'' का परिणाम नहीं है, बल्कि वे उपेक्षित हैं और इसलिए पिछड़े बने हुए हैं। वे कहते हैं, '' मुसलमान सिर्फ सरकार की लापरवाही के शिकार नहीं हैं, बल्कि वे लक्षित संरचनात्मक अन्याय और हिंसा के शिकार भी हैं,'।

मोटे तौर पर, मुस्लिम नेतृत्व की कहानी मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जो देश के पहले शिक्षा मंत्री थे से लेकर उत्तर प्रदेश के राजनीतिज्ञ बुक्कल नवाब तक जाती है जो अपने विवादास्पद बयानों के लिए जाने जाते हैं, और 2017 में वे समाजवादी पार्टी छोड़ सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे। इसके अलावा, आज अगर कोई भी नेताओं का राजनीतिक तबका मुसलमानों की ओर से बात करता हैं, तो वह बहुमतवाद के हमलों के चलते जल्द ही अपनी आवाज खो देते हैं।  जैदी कहते हैं, कि मसला "यह है कि दलितों और पिछड़े वर्गों के विपरीत, मुसलमानों को अपने सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक, यहां तक कि मानवाधिकारों का राजनीतिक रूप से उपयोग करने की अनुमति नहीं दी गई है।"

मुस्लिम दुखों का परिणाम या कारण यह भी है कि समुदाय के भीतर संस्थानों के निर्माण की दिशा में उनके प्रयासों में कमी रही है। देश के 20 करोड़ मुसलमानों के लिए एक भी सार्थक नागरिक स्वतंत्रता संगठन नहीं है। यही वजह है कि पुलिस को बिना किन्ही परिणामों के डर के मुस्लिम युवाओं को लक्षित करना आसान लगता है। दिल्ली में फरवरी में हुई हिंसा को अंजाम देने के लिए लोगों को बिना किसी सबूत के, जैसे-तैसे उठाकर जेल में डाल दिया गया। ऐसे स्रोतों की बेहद कमी है जहां से व्यक्ति कुछ मदद ले सकता है और उस पर राज्य का उत्पीड़न बरपा हो, तो ऐसी स्थिति लंबे समय तक समुदाय पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।

एएमयू में आधुनिक भारतीय इतिहास के प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद कहते हैं, "नागरिक अधिकारों के संगठनों को स्थापित करने के [प्रयास किए गए हैं] लेकिन वे हिस्सेदारी के पर्याप्त स्तर तक नहीं पहुँच पाए," हैं। "अगर बारीकी से विश्लेषण किया जाए, तो उन्हें कभी प्राथमिकता नहीं दी गई क्योंकि समुदाय यह समझने में असमर्थ रहा कि नागरिक अधिकारों के निकायों की आवश्यकता क्यों है,"।

मोहम्मद रियाज़, जो कोलकाता के आलिया विश्वविद्यालय में पत्रकारिता पढ़ाते हैं, यह नहीं मानते कि मौलाना  समुदाय के पिछड़ेपन का नतीजा हैं। "कोई भी नेतृत्व आलोचना से ऊपर नहीं होना चाहिए, लेकिन धार्मिक नेतृत्व तथाकथित उदार मुस्लिम नेताओं की तुलना में दीन और अन्य संबंधित कार्यों के माध्यम से समुदाय के लिए बहुत अधिक काम करते हैं और इसलिए उदार तबका समुदाय से दूर हो जाता हैं," वे कहते हैं। वे भी सरकारों को समुदाय की वर्तमान स्थितियों के लिए जिम्मेदार ठहराते है। “सरकार की उदासीनता ही इसके लिए जिम्मेदार है और हाँ, विभाजन के बाद, कोई भी सच्चा नेतृत्व मुसलमानों के बीच नहीं उभर सका है। सीएए के विरोध प्रदर्शनों ने कुछ नए नेताओं की उम्मीद जगाई थी, लेकिन सत्तारूढ़ राजनीति ने उन्हें कुचलने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया है, ”रियाज़ कहते हैं।

आजादी के लिए संघर्ष के दौरान, उपमहाद्वीप के मुसलमानों के सबसे बड़े नेता मौलाना आजाद थे, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और एक प्रसिद्ध विद्वान थे, जिन्होंने पूरे जीवन भर भारत के लिए संघर्ष किया और इस प्रक्रिया में कई लोगों का विरोध किया था, विशेष रूप से जो मांग करते थे कि अलग से मुस्लिम देश बनाया जाए।

मौलाना हुसैन अहमद मदनी भी थे, जिनके प्रशंसक विभिन्न राजनीतिक और धार्मिक स्पेक्ट्रम से हुआ करते थे। जो एक देवबंदी आलिम या विद्वान और स्वतंत्रता सेनानी भी थे, उन्होंने उपमहाद्वीप में मुसलमानों के लिए समग्र राष्ट्रवाद या "मुत्तहिदा क़ौमियत" के विचार का समर्थन किया था। मदनी को तीन साल के लिए माल्टा में कैद कर दिया गया था, साथ उनके मौलाना महमूद हसन भी थे, जो व्यक्ति रेशमी रूमाल तहरीक के पीछे थे।

जाकिर हुसैन, भारत के तीसरे राष्ट्रपति और जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापक एक अन्य  ऐसी शख्सियत थे, जो एक राष्ट्रवादी थे, जिन्होंने गांधीवाद को अपना मुख्य विचार माना था। मई 1969 में उनकी मृत्यु के बाद, मुसलमानों ने सही मायने में अपने अंतिम राष्ट्रीय नेता को खो दिया था। इसके बाद, समुदाय ने अपने आपको राजनीतिक और सामाजिक रूप से अनाथ महसूस किया, एक भावना जो समय के साथ बढ़ती गई थी। इसके बाद जो भी मुस्लिम नेता रहे हैं, वे ज्यादातर क्षेत्रीय "चेहरे" थे-या फिर धार्मिक हस्ती-और इनमें से कोई भी इस तिकड़ी के कद तक नहीं पहुँच पाया।

भारतीय मुस्लिमों के बीच, विशेष रूप से पढ़े-लिखे लोगों में यह इच्छा है कि नदवी, जमाती, बुखारी, फिरंगी महली और जववाद इबादत का नेतृत्व कर सकते हैं लेकिन उन्हें राजनीति पर बात करना बंद कर देना चाहिए। उनमें से प्रत्येक के पास अथाह संपत्ति और धन हैं, जबकि जिन लोगों को वे बात करते हैं, वे सचमुच में भूखे और वंचित तबके हैं। उनके खुद बेटे और बेटियाँ आधुनिक शिक्षा हासिल कर रहे है, जबकि वे जिस समुदाय का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं, वह अनपढ़ है और अज्ञानता में डूबा है।

तो आज के मुसलमान के लिए नेतृत्व के बारे में किसी का क्या विचार होगा? जैसा कि रिज़वी कहते हैं, "उन्हें एक दूरंदेशी धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व की आवश्यकता है जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हितों और जनता की आकांक्षाओं को समझ सके।"

(लेखक, एक लेखक और स्तंभकार है। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Is Lack of Leadership why Indian Muslims are Falling Behind?

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