NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
बिहार की ज़मीन पर मालिकाना हक का ज़मीनी इतिहास
बिहार में तो ज़मीन का मालिकाना हक बिहारी समाज के भीतर रची-बसी, पली-बढ़ी और टूट रही जातिगत हैसियत की तस्वीर बताने में बहुत अधिक मददगार साबित होता है। 
अजय कुमार
04 Sep 2020
ज़मीनी इतिहास

ज़मीन के मालिकाना हक से जुड़ी   व्याख्याएं केवल मौजूदा वक्त की तस्वीर नहीं उकेरती बल्कि अपने साथ अतीत के तस्वीर को भी साफ करती हैं। बिहार में तो ज़मीन का मालिकाना हक बिहारी समाज के भीतर रची-बसी, पली-बढ़ी और टूट रही जातिगत हैसियत की तस्वीर बताने में बहुत अधिक मददगार साबित होता है। 

भारत की कुल आबादी का तकरीबन 8.7 फ़ीसदी हिस्सा बिहार में रहता है। यह देश की तीसरी सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य है। बिहार का सामाजिक जीवन गांव में रचा है। इसकी जनसंख्या का तीन चौथाई से अधिक का हिस्सा खेती किसानी से जुड़ा हुआ है। इसलिए यह कहा जाए कि भारत के दूसरे राज्यों की अपेक्षा बिहार में ज्यादातर लोग खेतिहर हैं तो इसमें कोई गलत बात नहीं होगी।

अब भी बहुत सारे बिहारी परिवारों में शादी तय करने में ज़मीन की मिल्कियत बड़ी भूमिका निभाती है। मर्द और औरत दोनों पक्ष के लोग पूछते हैं कि आखिरकार आप की ज़मीन कितनी है?

मतलब परिवार की प्रतिष्ठा और समाज की प्रतिष्ठा की सीढ़ियां तय करने में भूमि पर मालिकाना हक बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।

Economic and political weekly के अपने आर्टिकल में अलख एन शर्मा जिक्र करते हैं कि इन सब के बावजूद खेती किसानी का ढांचा यहां पर व्यवस्थित तौर पर नहीं है। खेती किसानी के लिए जिस तरह के सरकारी मदद की जरूरत थी, वह मदद सरकार से अब तक नहीं मिल पाई है। 

बिहार में हाशिए पर पड़े हुए लोगों के सशक्तिकरण का इतिहास खंगाला जाए तो इसकी शुरुआत आज़ादी से पहले से कही जा सकती है।

लेकिन 1970 और 90 के बीच सशक्तिकरण के आंदोलनों ने जोर पकड़ना शुरू किया। इस समय बिहार की तकरीबन 80 फ़ीसदी आबादी खेती किसानी से जुड़ी हुई थी। खेती किसानी ही बिहार की अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी। अधिकतर ज़मीनें ऊंची जातियों के पास थी। ब्राह्मण भूमिहार राजपूत जैसी जातियों का ज़मीनों की हकदारी पर बोलबाला था। बची खुची ज़मीने यादव, कोइरी और कुर्मी जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग के जातियों के पास थी। फिर भी पिछड़ा वर्ग से जुड़े सभी जातियों के अधिकतर लोग भूमिहीन थे।

ज़मीदार हिंदू धर्म की ऊंची जातियों से ताल्लुक रखते थे या मुस्लिम धर्म के अशरफ़ समुदाय से। इसीलिए ऊंची जातियों का बिहार के ग्रामीण इलाकों के रोजाना के जीवन में मजबूत दखल था। किसी को मज़दूरी कितनी मिलेगी? समाज का रहन-सहन क्या होगा? रहने की आपसी तौर तरीके क्या होंगे? कोई झगड़ा हुआ तो उसका निपटारा कैसे होगा? इन सारे विषयों पर ऊंची जातियों की सलाह अनिवार्य थी। और इस सलाह को समाज का आदेश मानकर लोग मानते भी थे।

इस तरह से ज़मीन के मालिकों ने एक ऐसी व्यवस्था भी बना ली थी जिसमें एक ऐसी कृषि प्रणाली विकसित हुई, जिसके केंद्र में शोषण था। खेती किसानी करने वाली बहुत बड़ी आबादी कर्जे के जाल में फंसते चली गई। अगर सारी प्रवृत्तियों को संक्षेप में बांधने की कोशिश की जाए तो यह कहा जा सकता है कि समाज के हाशिए पर समाज का बहुत बड़ा हिस्सा रहता था। जबकि यह बहुत बड़ा हिस्सा ऊंची जातियों के बहुत ही छोटे से समूह द्वारा नियंत्रित होता था। ऊंची जातियों के पास समाज की अधिकतर जमीनें थी। इस तरह से समाज के बहुत बड़े हिस्से की आज़ादी और गरिमा ज़मीन के मालिकों के यहां बंधक रखी हुई थी। 

भूमि सुधार को लेकर आज़ादी के पहले हो रहे आंदोलन आज़ादी के बाद सरकार से मांग के रूप में बदल गए। लेकिन सरकार में ऊंची जातियां ही थी, इसलिए जो कानून बने उनका ढांचा ही ऐसा था कि निचली जातियों में ज़मीनों का बंटवारा ठीक से नहीं हो पाया। लेकिन भूदान आंदोलन के कारण ज़मीनों का बंटवारा हुआ। इसकी वजह से ऊंची जातियों की भूमि पर वर्चस्व की स्थिति थोड़ी सी कमजोर हुई।

ज़मींदारी उन्मूलन के कानून के पहले दो चरणों में फायदा केवल ऊंची जातियों और ऊंची जातियों के ज़मीन के जोतदारों और पट्टीदारों को हुआ। वजह यह थी कि  ऊंची जातियों ने अपनी ज़मीन का बंटवारा अपने ही पटेदारों और जोतदारों में किया।  1980 में छपे इकोनामिक एंड पॉलीटिकल वीकली के एक आर्टिकल में यह बात लिखी हुई है कि इस भूमि उन्मूलन कानून के पहले दो चरणों में ऊंची जातियों के अलावा यादव कोइरी और कुर्मी जातियों को इनका फायदा पहुंचा।

साल 1972 - 73 में भूमि सुधार कानून में बदलाव किया गया। नियम यह बना कि एक निश्चित सीमा से अधिक ज़मीन किसी के पास नहीं होगी। बाग बगीचे चरवाहे फुलवारी सारी  ज़मीनें एक साथ मिलाकर जोड़ी जाएगी और यह तय किया जाएगा कि किसी के पास कितनी ज़मीन हैं।

निश्चित सीमा से अधिक ज़मीन होने पर उस ज़मीन पर मालिकाना हक सरकार का होगा। यह नियम आने के बाद साल 1972 में राज्य द्वारा नियंत्रित भूमि 22% हो गई। लेकिन फिर से ज़मींदारों ने अपनी भूमि को अपने पास रखने के लिए कई तरह के रास्ते ढूंढ निकाले। जैसे कि निश्चित सीमा से अधिक भूमि यानी अधिशेष भूमि को बेनामी संपत्ति घोषित कर देना और गैर कानूनी तरीके से उसका मालिक बने रहना।

अपने सगे संबंधियों और अपने अधीन काम करने वाले लोगों के बीच ज़मीन का बंटवारा कर देना, जिससे अप्रत्यक्ष तौर पर ज़मीन का मालिकाना हक ज़मींदार के पास ही रहे। अधिशेष ज़मीन पर मंदिर, तालाब, पुस्तकालय बनवा कर ज़मीन पर मालिकाना हक बनाए रखना।

इन सारे तिकड़मों के बावजूद यह तो हुआ ही की ज़मीन का संकेंद्रण टूटा। ज़मीन के मालिकाना हक में थोड़ा बहुत बिखराव हुआ। ज़मीन उच्च जातियों के सिवाय थोड़ी बहुत दूसरी जातियों में भी पहुंची।

लेकिन ज़मीन तो केवल ज़मीन होती है। इस पर पैदावार करने के लिए बहुत सारे दूसरी चीजों की भी जरूरत होती है। उन दिनों केंद्र सरकार कृषि को लेकर केवल सिंचाई पर ध्यान देती थी, बिहार में भी ऐसा हो रहा था इसलिए जिन इलाकों में सिंचाई की व्यवस्था बन पाई, बस वही ठीक ठाक पैदावार हुआ।

खेती किसानी तभी मुनाफे में बदल सकती थी, जब ज़मीन अधिक होती और सरकारी मदद अधिक मिलती। खेती किसानी को यह दोनों नसीब नहीं हुआ, वह पिछड़ गई। 

केंद्र सरकार ने अपनी योजना में उद्योगों को प्राथमिकता देना शुरू किया। उद्योगों के लिए उच्च शिक्षा को प्राथमिकता देना शुरू किया। यही कांग्रेस की भी योजना थी। कांग्रेस से सजी हुई क्षेत्रीय दलें बिहार में शासन कर रही थी। इनमें उच्च जातियों की भरमार थी। इन लोगों को भी यही ठीक लगा। जब ज़मीन चली गई तो दूसरी तरफ देखा जाए। और राज्य ने हूबहू केंद्र का नकल कर लिया। इसलिए कृषि का विकास नहीं हो पाया।

बिहारी समाज की यह सारी कहानी 1970 और 80 के आसपास की है। इसके बाद अगड़ी जातियां पारंपरिक पेशे से अलग होते हुए सरकार और नौकरशाही का हिस्सा बनती हैं और हाशिए पर मौजूद अगड़ी जातियों के अलावा सभी जातियां तो हाशिए पर रहती हैं लेकिन इनमें से कुछ एक जातियां जैसे यादव और कुर्मी जातियां थोड़ी बहुत सशक्त होती हैं। और बिहार में अगड़ी जाति बनाम पिछड़ी जाति का तीखा संघर्ष सामने आता है।

साल 1970 से लेकर अगले 30 सालों तक बिहार में जातिगत संघर्ष ने कई लोगों की जान ले ली। यह अनुमान लगाया जाता है कि तकरीबन 700 लोग इस संघर्ष में मारे गए इस संघर्ष में मारे गए अधिकतर लोग अनुसूचित जातियों से संबंध रखते थे। लोक स्मृतियों की माने तो इसकी शुरुआत साल 1977 के पटना के बेलछी नरसंहार से हुई। जिसमें अनुसूचित जातियों के 14 लोगों की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई थी। सबसे ज्यादा लोग साल 1994 से लेकर साल 2000 के बीच मरे। इस समय ऊंची जातियों के भू स्वामियों से बनी रणवीर सेना का बोलबाला था।

और निचली जातियों की प्रतिनिधि भाकपा ( माले) और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर जैसे समूहों से जुड़े लोग थे।

अब जब रणवीर सेना का जिक्र आ ही गया है तो थोड़ा इसके बारे में भी जान लेते हैं। ऊंची जाति के गुस्से का प्रतिनिधित्व रणवीर सेना ने खूनी आतंक के जरिए किया। इस सेना के कर्ताधर्ता का नाम ब्रह्मेश्वर मुखिया था। 2012 में प्रकाशित एक मीडिया रिपोर्ट में ब्रह्मेश्वर मुखिया ने रणवीर सेना के अस्तित्व को नकारते हुए कहा था कि मैंने जिस संगठन की स्थापना की है वह राष्ट्रवादी किसान संघर्ष समिति है। यह पुलिस और मीडिया ही है जो इसे रणवीर सेना के तौर पर पुकारती आ रही है। ब्रह्मेश्वर मुखिया पर 22 नरसंहार के मामले दर्ज थे। इस संगठन का प्रतीक खून की गिरती हुई बूंदे थी। जिसे इस संगठन ने विरोध बदला और बलिदान जैसे शब्दों से परिभाषित किया था। इस संगठन से जुड़ी डायरियो के आधार पर इस संगठन के कुछ तथ्यों को मीडिया ने प्रकाशित किया था। जिंदा डायरियों मैं सामूहिक हत्या, परिवार के लिए हत्या, किसी व्यक्ति विशेष की हत्या जैसे मसलों का जिक्र किया गया था।

यही समय बिहार में लालू प्रसाद यादव की अगुवाई का था। इस अगुवाई में पिछड़ी जातियों का समूह उत्तेजित हो चला था और अगड़ी जातियों के मन में भय का माहौल बनने लगा था। लालू सरकार के गठन से अगड़ी जातियों में डर घर कर गया था कि पिछड़े और निचले जाति से जुड़े लोग हमला करके उनसे उनकी ज़मीन छीन लेंगे।

जातियों की निजी सेनाएं बनने लगी जैसे कि ब्राह्मण सेना, सत्येंद्र सेना, श्री कृष्ण सेना, कुंवर सेना, समाजवादी क्रांतिकारी सेना, आजाद सेना।

इन सेनाओं की आपसी टकराहट में कई लोग मारे गए। इनके मरने और मारने की कहानी बहुत अधिक दहलाने वाली है। कई बार तो वैसा होता था कि गांव के किसी एक व्यक्ति को मरने मारने के जरिए गांव के बहुत सारे लोगों को मर जाते थे।

जैसे 11 जुलाई 1996 को कथित रणवीर सेना के लोगों ने भोजपुर जिले के बथानी टोला में स्त्रियों और बच्चों सहित दलित समुदाय के तकरीबन 21 लोगों की हत्या कर दी। कहा गया कि यह नरसंहार भोजपुर जिले के 9 गांव में हुए 9 भूमिहारों की हत्या का बदला था। बिहार एक हिंसक क्षेत्र में तब्दील हो चुका था और बिहार की सरकार और इसकी अधिकारी से रोकने में बिल्कुल लाचार और खुद को असहाय महसूस कर रहे थे। लेकिन धीरे-धीरे साल 2000 के बाद ऐसी घटनाओं में कमी आनी शुरू हुई। सीएसडीएस की मानी जाए तो साल 2014 में भोजपुर में रणवीर सेना द्वारा 6 दलित महिलाओं की बलात्कार की घटना ऐसे सामूहिक जातिगत हिंसक कार्रवाई की संभवतया अंतिम घटना है।

साल 2000 के बाद बिहार की परिस्थितियां गवर्नेंस के लिहाज से पहले के मुकाबले थोड़ा अच्छा होना शुरू हुई तो यह सब रुक गया। लेकिन फिर भी मौजूदा स्थिति यह है की बिहार में तकरीबन 91.9 फ़ीसदी आबादी के पास 1 हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है। और इस ज़मीन में औसतन केवल 0.25 हेक्टेयर ज़मीन ही खेती करने लायक होती है।

Bihar
Land history in Bihar
Land Reforms
Land Owners
Religion and Land
Religion Politics
hindu-muslim

Related Stories

बिहार: पांच लोगों की हत्या या आत्महत्या? क़र्ज़ में डूबा था परिवार

बिहार : जीएनएम छात्राएं हॉस्टल और पढ़ाई की मांग को लेकर अनिश्चितकालीन धरने पर

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 

बिहारः नदी के कटाव के डर से मानसून से पहले ही घर तोड़कर भागने लगे गांव के लोग

मिड डे मिल रसोईया सिर्फ़ 1650 रुपये महीने में काम करने को मजबूर! 

बिहार : दृष्टिबाधित ग़रीब विधवा महिला का भी राशन कार्ड रद्द किया गया

बिहार : नीतीश सरकार के ‘बुलडोज़र राज’ के खिलाफ गरीबों ने खोला मोर्चा!   

बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका

बनारस में ये हैं इंसानियत की भाषा सिखाने वाले मज़हबी मरकज़

बिहार पीयूसीएल: ‘मस्जिद के ऊपर भगवा झंडा फहराने के लिए हिंदुत्व की ताकतें ज़िम्मेदार’


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    दिल्ली उच्च न्यायालय ने क़ुतुब मीनार परिसर के पास मस्जिद में नमाज़ रोकने के ख़िलाफ़ याचिका को तत्काल सूचीबद्ध करने से इनकार किया
    06 Jun 2022
    वक्फ की ओर से प्रस्तुत अधिवक्ता ने कोर्ट को बताया कि यह एक जीवंत मस्जिद है, जो कि एक राजपत्रित वक्फ संपत्ति भी है, जहां लोग नियमित रूप से नमाज अदा कर रहे थे। हालांकि, अचानक 15 मई को भारतीय पुरातत्व…
  • भाषा
    उत्तरकाशी हादसा: मध्य प्रदेश के 26 श्रद्धालुओं की मौत,  वायुसेना के विमान से पहुंचाए जाएंगे मृतकों के शव
    06 Jun 2022
    घटनास्थल का निरीक्षण करने के बाद शिवराज ने कहा कि मृतकों के शव जल्दी उनके घर पहुंचाने के लिए उन्होंने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से वायुसेना का विमान उपलब्ध कराने का अनुरोध किया था, जो स्वीकार कर लिया…
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    आजमगढ़ उप-चुनाव: भाजपा के निरहुआ के सामने होंगे धर्मेंद्र यादव
    06 Jun 2022
    23 जून को उपचुनाव होने हैं, ऐसे में तमाम नामों की अटकलों के बाद समाजवादी पार्टी ने धर्मेंद्र यादव पर फाइनल मुहर लगा दी है। वहीं धर्मेंद्र के सामने भोजपुरी सुपरस्टार भाजपा के टिकट पर मैदान में हैं।
  • भाषा
    ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉनसन ‘पार्टीगेट’ मामले को लेकर अविश्वास प्रस्ताव का करेंगे सामना
    06 Jun 2022
    समिति द्वारा प्राप्त अविश्वास संबंधी पत्रों के प्रभारी सर ग्राहम ब्रैडी ने बताया कि ‘टोरी’ संसदीय दल के 54 सांसद (15 प्रतिशत) इसकी मांग कर रहे हैं और सोमवार शाम ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ में इसे रखा जाएगा।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: देश में कोरोना ने फिर पकड़ी रफ़्तार, 24 घंटों में 4,518 दर्ज़ किए गए 
    06 Jun 2022
    देश में कोरोना के मामलों में आज क़रीब 6 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है और क़रीब ढाई महीने बाद एक्टिव मामलों की संख्या बढ़कर 25 हज़ार से ज़्यादा 25,782 हो गयी है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License