NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
संपूर्ण क्रांति की विरासत और जेपी-संघ का द्वंद्व
जेपी की बूढ़ी आंखों में भारत के लिए एक सपना था और उन्हीं के माध्यम से देश के युवाओं ने भी उस सपने को देखा था, लेकिन...। वरिष्ठ पत्रकार और समाजवादी लेखक अरुण कुमार त्रिपाठी का विशेष आलेख
अरुण कुमार त्रिपाठी
05 Jun 2021
 जेपी

पांच जून 1974 को समाजवादी नेता और स्वाधीनता सेनानी जयप्रकाश नारायण ने पटना के गांधी मैदान में विशाल जनसमूह को देखकर कहा था---

``यह एक क्रांति है मित्रों, हम सिर्फ विधानसभा भंग कराने नहीं आए हैं। यह हमारी यात्रा का मील का पत्थर है। आजादी के 27 साल बाद हमारे लोग भूख, महंगाई, भ्रष्टाचार से परेशान हैं, अन्याय से दबे हैं। यह संपूर्ण क्रांति है, उससे कुछ कम नहीं।’’

उस समय 72 वर्षीय जेपी की बूढ़ी आंखों में भारत के लिए एक सपना था और उन्हीं के माध्यम से देश के युवाओं ने भी उस सपने को देखा था। लेकिन उनका वह सपना देश में आपातकाल लागू किए जाने और उसके बाद इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाकर समाप्त हो गया। उस सपने पर सबसे बड़ी छाया राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की देखी जाती है जो उस आंदोलन में शामिल होकर लगातार वैधता पाता गया और शक्तिशाली होता गया। हालांकि उसका किसी क्रांति से कभी कोई लेना देना नहीं रहा।

यह सही है कि जेपी ने भारत में व्यवस्था परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सांगठनिक शक्ति पर भरोसा किया। क्योंकि उनके पास वैसा कोई संगठन नहीं था और उन्हें कम्युनिस्टों पर भरोसा नहीं था। संघ पर हुए उस भरोसे को मजबूत करने के लिए अपने करीबी साथियों के मना करने के बावजूद वे संघ के एक कार्यक्रम में गए और यहां तक कह आए कि अगर संघ फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूं। हालांकि गांधी की हत्या के समय वे संघ की भूमिका को देख चुके थे और उन्होंने उसकी आलोचना भी की थी। लेकिन 8 अक्तूबर 1979 को अपने निधन से पहले उन्होंने जनता पार्टी की सरकार गिरते और उसे खंड खंड होते देख लिया था। उनके अंतिम दिन भी उसी तरह निराशा और दुख के थे जिस तरह महात्मा गांधी के थे। जेपी ने कहा था कि एक बार और देश छला गया। इसके लिए वे अपने को दोषी मानते थे। यह उनका बड़प्पन था। लेकिन इसके लिए सिर्फ जेपी को दोष देना और उन्हें फासिस्ट बता देना ठीक नहीं है। जेपी उसी तरह अपने आंदोलन से दक्षिणपंथी समूह को अलग नहीं कर पाए और न ही उन्हें परिवर्तित कर पाए जिस तरह गांधी कांग्रेस और सरकार से उन्हें अलग नहीं कर पाए थे। यह उनकी विफलता थी लेकिन इसके लिए उन्होंने कोई साजिश नहीं की थी।

यही वजह है कि जेपी के अंतिम दिनों को लेकर देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मूर्धन्य पत्रकार राजेंद्र माथुर की टिप्पणियां बहुत कुछ सटीक लगती हैं। अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि जेपी के लिए दो रूपक उचित जान पड़ते हैं। एक तरफ वे भीष्म पितामह जैसे लगते हैं जो शर शय्या पर पड़े हुए युद्ध देख रहे थे। लेकिन उन्होंने भीष्म पितामह की तरह अन्याय के पक्ष में युद्ध नहीं किया था बल्कि उसके विरुद्ध लड़े थे। दूसरा रूपक ईसा मसीह का है जो अपने कांधे पर सलीब लेकर चल रहे थे और सत्य के लिए उस पर झूल गए। राजेंद्र माथुर अपने प्रसिद्ध लेख एक मसीहा के आखिरी तीन वर्ष में लिखते हैं कि जेपी की स्थिति अर्नेस्ट हेमिंग्वे के पुलित्जर पुरस्कार पाने वाले छोटे से उपन्यास `द ओल्ड मैन एंड द सी’ के नायक बूढ़े मछुआरे सैंटियागो की तरह से है। जो युवाओं के उकसावे पर समुद्र में मार्लिन नाम की एक विशाल मछली पकड़ने के चक्कर में शार्क के समूह से घिर जाता है और किसी तरह से लड़ते और घायल होते हुए तट तक पहुंचता है।

तीन वर्षों की ऐतिहासिक लड़ाई में जीतकर भी हार जाने वाले जेपी को इस बात का दोष दिया जाता है कि आज अगर देश पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेतृत्व में हिंदुत्ववादी ताकतें हावी हैं और फासीवादी आचरण कर रही हैं तो इसके लिए वे जिम्मेदार हैं। लेकिन ऐसा कहना एक ऐसे नायक के साथ अन्याय होगा जिसने अपने लिए कुछ चाहा नहीं। उसने सिर्फ एक स्वतंत्र, समृद्ध और समतामूलक देश बनाने के लिए ही आजादी की दूसरी लड़ाई लड़ते हुए अपनी जान दे दी। जेपी स्वाधीनता संग्राम के उन नेताओं में थे जिनके समक्ष युवा अवस्था में कैबिनेट मंत्री, फिर राष्ट्रपति और बाद में प्रधानमंत्री बनने का खुला प्रस्ताव था। लेकिन उन्होंने उसे विनम्रता से ठुकरा दिया। बाद में जनता पार्टी का गठन और प्रधानमंत्री का चयन भी उन्हीं के कहने पर हुआ था। उस सरकार में प्रधानमंत्री बनने वाले मोरारजी देसाई से जेपी छह साल छोटे थे और उसमें मंत्री पद लेने वाले जगजीवन राम उनसे छह साल छोटे। इसलिए सत्ता का रंचमात्र लोभ उन्हें छू नहीं गया था।

इसीलिए उन्होंने 21 जुलाई 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर कहा था, ``  तुम जानती हो कि मैं एक बूढ़ा आदमी हूं। मेरे जीवन का काम पूरा हो चुका है। प्रभा की मृत्यु के बाद मेरे पास ऐसा कोई नहीं है जिसके लिए मैं जीऊं। मैंने अपना पूरा जीवन देश को दे दिया है। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद मैं देश की सेवा में ही लग गया और बदले में कुछ चाहा नहीं। इसलिए आपके शासन में एक कैदी के रूप में मरकर मैं संतुष्ट रहूंगा।’’

लेकिन इस अवस्था में भी उनके भीतर संघर्ष करने और अन्याय को हराने का जज्बा था। जब वे चंडीगढ़ में नजरबंद थे तो वहां के डीएम एम.जी देवसहायम उनके संपर्क में आए। वे उनसे प्रभावित होते गए और जेपी की निराशा को उम्मीद में बदलने और उनके आमरण अनशन के फैसले को वापस करवाने में भी उन्होंने भूमिका निभाई। जेपी जब लगातार बीमार होते चले गए और उनके गुर्दे खराब होने लगे तो उन्हें बंबई के जसलोक अस्पताल ले जाया गया। चंडीगढ़ हवाई अड्डे पर उन्होंने देवसहायम से कहा, `` देवसहायम तुम मेरे बेटे जैसे हो। हालांकि मेरा अपना कोई बेटा नहीं है। मेरी सेहत जरूरी नहीं है। देश और लोकतंत्र की सेहत महत्वपूर्ण है। मैं उस औरत को हराऊंगा और लोकतंत्र की सेहत ठीक करूंगा।’’

देवसहायम ने जेपी और आपातकाल पर तीन पुस्तकें लिखी हैं। पहली है इंडियाज सेकेंड फ्रीडम-एन अनटोल्ड स्टोरी। दूसरी है जेपी इन जेल—एन अनसेंसर्ड अकाउंट। तीसरी है—जेपी मूवमेंट—इमरजंसी एंड इंडिया सेकेंड फ्रीडम। देवसहायम का चंडीगढ़ में जेपी से जो परिचय हुआ वह आखिर तक बना रहा। वे उनसे कदमकुआं में भी जाकर मिलते रहते थे। उन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि जेपी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कार्यप्रणाली से दुखी थे। बल्कि जनता पार्टी टूटने और एक वैकल्पिक सरकार के प्रयोग को विफल होने में संघ की भूमिका मानते थे। जेपी एक तरह से संघ से छला महसूस कर रहे थे। जेपी और संघ की सोच का अंतर उनके और सरसंघचालक बाला साहेब देवरस के इंदिरा गांधी को लिखे पत्र के फर्क से भी महसूस कर किया जा सकता है। देवरस ने 22 अगस्त 1975 को इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर उनके लाल किले वाले भाषण की तारीफ की थी। फिर जो माफीनामा सरकार की ओर से लिखवाया गया उसमें यह भी कहा गया था कि `बाहर निकलने के बाद ऐसा कुछ नहीं करेंगे जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हो। न ही वे आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई रोकेंगे और न ही किसी गैर कानूनी गतिविधि में हिस्सा लेंगे। न ही वे आपातकाल की आलोचना करने वाली किसी गतिविधि का हिस्सा बनेंगे।’ दरअसल जेपी से संघ और जनसंघ के बड़े नेताओं ने वादा किया था कि वे दोहरी सदस्यता का मुद्दा नहीं आने देंगे। लेकिन जनता पार्टी की सरकार गिरी दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर ही।

इस बात को जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चंद्रशेखर ने भी माना। उन्होंने कहा,`` मैं उम्मीद करता था की बाला साहेब देवरस अपना वादा निभाएंगे। पर मुझे हैरानी नहीं हुई जब आरएसएस ने दूसरा रुख अपनाया। लेकिन मुझे यह बात समझ में नहीं आई। ’’  दरअसल जनता पार्टी संसदीय बोर्ड का प्रस्ताव था कि जनता पार्टी के सदस्य शाखा में न जाएं। चंद्रशेखर इसे जेपी के कहने पर ही लाए थे। लेकिन उसे लागू नहीं करवा सके और आखिरकार पार्टी टूटी और सरकार गिर गई।

जहां तक हिंदू राष्ट्र, गोरक्षा और हिंदू इतिहास का सवाल है तो उस पर जेपी के विचार स्पष्ट थे और उन्हें किसी प्रकार का भ्रम नहीं था। उन्होंने कहा था, `` राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की तरह के कुछ लोग खुले तौर पर भारतीय राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र के रूप में देख सकते हैं। कुछ लोग उसे ज्यादा परोक्ष रूप से पेश कर सकते हैं। लेकिन इस तरह की पहचान के भीतर राष्ट्रीय विखंडन छुपा हुआ है क्योंकि दूसरे समुदाय के लोग इस स्थिति को कभी स्वीकार नहीं करेंगे और दूसरे दर्जे के नागरिक बनने को तैयार नहीं होंगे। इस तरह की स्थिति अपने भीतर स्थायी रूप से विवाद रखे हुए है और आखिरकार इसका परिणाम बिखराव में ही होगा।’’

जेपी ने कहा था कि जब हम भारत के इतिहास को हिंदू इतिहास के रूप में देखने की कोशिश करते हैं तो हम भारत के महान इतिहास और सभ्यता को छोटा करके आंकते हैं। गोरक्षा के बारे में वे कहते हैं, `` मैं नहीं समझता कि हिंदू धर्म ने कभी ऐसा सोचा था कि कोई भी जानवर कितना भी पवित्र हो लेकिन उसका जीवन मनुष्य के जीवन से ज्यादा पवित्र है। यह प्रभाव तो दरअसल बौद्धों और जैनियों से प्रेरित होकर आया है जिन्होंने मांसाहार और जीव हत्या पर रोक लगाने की कोशिश की। उसी के बाद गायों को ज्यादा पवित्रता प्रदान की गई।’’

जेपी की संपूर्ण क्रांति की विरासत में न तो हिंदुत्व है और न ही बहुसंख्यकवाद। उसमें सांप्रदायिक वैमनस्य तो हो ही नहीं सकता। यह सही है कि जेपी के कई शिष्य बहुत भ्रष्ट निकले पर यह नहीं भूलना चाहिए कि जेपी की लड़ाई भ्रष्टाचार के विरुद्ध ही थी। उन्होंने युवाओं के रोजगार की चिंता थी और चिंता थी भारत से जातिवाद और सांप्रदायिकता मिटाने की। लेकिन वे रोटी और स्वाधीनता के बीच कोई टकराव नहीं देखते थे। इंदिरा गांधी ने आपातकाल को इसी तरह से पेश करने की कोशिश की थी कि अगर रोटी चाहिए तो स्वाधीनता को कम करना होगा। आज की सरकार में बैठे लोग भले ही अपने को जेपी की विरासत का दावेदार बताएं लेकिन गौर करने लायक है कि वे उनकी संपूर्ण क्रांति का नाम नहीं लेंते। वे सिर्फ उनके इंदिरा गांधी विरोध की बात करेंगे और गैर कांग्रेसवाद का जिक्र करेंगे। वे दरअसल जेपी की रणनीति को उनका सिद्धांत बताने लगते हैं। जहां तक जेपी की नैतिकता और त्याग की बात है तो उसे तो उनके कोई आलोचक या प्रशंसक छू पाने की स्थिति में नहीं हैं। जेपी की संपूर्ण क्रांति की विरासत में नागरिक अधिकारों के लिए महत्वपूर्ण जगह है।

आज जिस तरह राष्ट्र, सरकार, बहुसंख्यक समाज के लिए नागरिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जा रहा है ऐसे में जेपी का वह कथन बहुत प्रासंगिक है जो उन्होंने इंदिरा गांधी को चुनौती देते हुए कहा था, `` मेरे लिए स्वाधीनता मेरे जीवन के आकाशदीप की तरह से है। यह हमेशा से ऐसे ही रही है। इसका मतलब है कि मानव व्यक्तित्व, मानव मस्तिष्क, मानवीय आत्मा की स्वतंत्रता मेरे जीवन का राग है। मैं नहीं चाहूंगा कि भोजन, सुरक्षा, समृद्धि, राज्य की गरिमा या किसी भी अन्य चीज के लिए इसके साथ समझौता किया जाए।’’

भला ऐसे जेपी की संपूर्ण क्रांति की विरासत को कैसे फासिस्ट विरासत कहा जा सकता है ? क्योंकि फासीवाद तो राष्ट्र और नस्ल की गरिमा के लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता को कुर्बान करने को तैयार रहता है।  जेपी वास्तव में एक क्रांतिकारी लोकतंत्र के स्वप्नद्रष्टा थे जिसमें गांधी के भारतीय लोकतंत्र की कल्पना भी शामिल थी और यूरोपीय लोकतंत्र के तत्व भी थे। यही वजह है कि आज के इस वक्त में यह कहने वालों की कमी नहीं है कि काश आज जेपी होते!   

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Jayaprakash Narayan
indira gandhi
INDIAN POLITICS
RSS
Atal Bihari Vajpayee
Janta Party
Emergency in India 1975

Related Stories

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

कटाक्ष:  …गोडसे जी का नंबर कब आएगा!

क्या ज्ञानवापी के बाद ख़त्म हो जाएगा मंदिर-मस्जिद का विवाद?

अलविदा शहीद ए आज़म भगतसिंह! स्वागत डॉ हेडगेवार !

कांग्रेस का संकट लोगों से जुड़ाव का नुक़सान भर नहीं, संगठनात्मक भी है

कार्टून क्लिक: पर उपदेस कुसल बहुतेरे...

पीएम मोदी को नेहरू से इतनी दिक़्क़त क्यों है?

कर्नाटक: स्कूली किताबों में जोड़ा गया हेडगेवार का भाषण, भाजपा पर लगा शिक्षा के भगवाकरण का आरोप

ज्ञानवापी मस्जिद विवाद : सुप्रीम कोर्ट ने कथित शिवलिंग के क्षेत्र को सुरक्षित रखने को कहा, नई याचिकाओं से गहराया विवाद


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License