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मोदी को ‘माया मिली न राम’ : किसानों को भरोसा नहीं, कॉरपोरेट लॉबी में साख संकट में
आज एक बार फिर कॉरपोरेट-राज के ख़िलाफ़ किसानों की लड़ाई लखनऊ होते हुए देश और लोकतंत्र बचाने की लड़ाई और नीतिगत ढांचे में बदलाव की राजनीति का वाहक  बनने की ओर अग्रसर है।
लाल बहादुर सिंह
22 Nov 2021
kisan mahapanchayat

"भाजपा-हराओ"  मिशन UP को धार देते  हुए आज 22 नवम्बर को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में किसानों की विशाल महापंचायत हो रही है।

ऐतिहासिक किसान-आंदोलन के आगे मोदी सरकार के घुटने टेक देने के बाद यह किसानों का पहला विराट समागम है जो एक तरह से विजयोत्सव भी है और न्याय के लिए लड़ाई जारी रखने के संकल्प का ऐलान भी।

अवध किसान-आंदोलन की केन्द्रस्थली लखनऊ में किसान-आंदोलन की दस्तक का गहरा प्रतीकात्मक अर्थ है। चंपारण सत्याग्रह के बाद यह बाबा रामचन्दर और मदारी पासी के नेतृत्व में अवध का किसान-आंदोलन था जिसके रास्ते किसान-प्रश्न आज़ादी की लड़ाई में दाखिल हुआ था। बरास्ते चंपारण भारत की धरती पर गांधी के सत्याग्रह की शुरुआत हुई तो, अवध किसान आंदोलन के ताप को महसूस करने के बाद नेहरू का  "रैडिकल " अवतार हुआ था। कालांतर में पूर्ण स्वतंत्रता के चार्टर में जमींदारी उन्मूलन का एजेंडा शामिल हुआ था और किसान आज़ादी की लड़ाई की सबसे बड़ी ताकत बने थे।

आज एक बार फिर कॉरपोरेट-राज के खिलाफ किसानों की लड़ाई लखनऊ होते हुए देश और लोकतंत्र बचाने की लड़ाई और नीतिगत ढांचे में बदलाव की राजनीति का वाहक  बनने की ओर अग्रसर है।

20 नवम्बर को किसान-आंदोलन के मुख्यालय सिंघु बॉर्डर पर संयुक्त किसान मोर्चा ने कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद अपनी पहली बैठक में भारत के सभी किसानों और श्रमिकों को एक साल के अभूतपूर्व संघर्ष के बाद उनकी ऐतिहासिक जीत के लिए हार्दिक बधाई देते हुए प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र भेजा, जिसमें लाभकारी MSP की गारंटी के लिए केंद्रीय कानून सहित किसान आंदोलन की लंबित मांगों को उठाया गया है। मोर्चा ने पूर्व घोषित सभी कार्यक्रमों को जारी रखने का निर्णय लिया है। अगली बैठक 27 नवंबर 2021 को होगी, जिसमें घटनाक्रम की समीक्षा की जाएगी और आगे की दिशा तय की जाएगी।

जाहिर है उनके फ़ैसलों पर पूरे देश और दुनिया की निगाह लगी रहेगी।

मोर्चा के बयान में कहा गया है, " करीब एक साल से शांतिपूर्ण और चट्टानी संकल्प के साथ धरना प्रदर्शन कर रहे किसानों ने आस्था के साथ तपस्या की है। ये अन्नदाता अपनी तपस्या से ऐतिहासिक आंदोलन को पहली ऐतिहासिक जीत के शिखर पर ले गए हैं और इसे लगातार मुकम्मल जीत की ओर ले जा रहे हैं जो वास्तव में लोकतंत्र की जीत होगी। यह जीत किसी के घमंड या अहंकार की नहीं, बल्कि लाखों उपेक्षित और हाशिए पर पड़े भारतीयों के जीवन और आजीविका की बात है। "

जहाँ तक 3 कानूनों की बात है, प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद उनका fate तो अब सील हो ही चुका है। 29 नवंबर से शुरू हो रहे सत्र में जरूरी औपचारिकताओं को पूरा करते हुए कानून रद्द हो जायेंगे।

बहरहाल, जैसा किसान नेताओं ने कहा है MSP को कानूनी दर्जा देने की मांग  "आंदोलन का अभिन्न अंग है" , साथ ही बिजली बिल, पराली, गृहराज्यमंत्री की बर्खास्तगी, पूरे देश भर में किसानों पर से मुकदमों की वापसी जैसी अन्य अहम मांगें अभी भी अधूरी है। MSP पर कमेटी बनाने के मोदी जी के प्रस्ताव पर किसानों ने स्पष्टीकरण मांगा है। किसान कह रहे हैं कि सरकार पहले इसे सिद्धांततः स्वीकार करे, फिर उसकी modalities तय करने के लिए कमेटी बने। उनका कहना है कि MSP को कानूनी जामा पहनाने की संस्तुति तो स्वयं मोदी जी एक दशक पहले 2011 में Working group on consumer Affairs  के तत्कालीन अध्यक्ष के बतौर कर चुके हैं। अब प्रधानमंत्री के बतौर वे उसे लागू करें, नई कमेटी की इसके लिए क्या जरूरत है?

किसान नेताओं का नाखुशी जाहिर करना बिल्कुल उचित है कि मोदी ने फिर द्विपक्षीय प्रक्रिया में किसानों को शामिल किए बिना  टीवी और ट्वीट के माध्यम से एकतरफा घोषणा कर दिया, किसान-नेताओं ने बिल्कुल सही ही मोदी जी की इस गैर-लोकतान्त्रिक अधिनायकवादी राजसी शैली पर आपत्ति किया है और  इसे एक तरह से किसानों का अपमान माना है। क्या प्रधानमंत्री ने यह इसलिए किया है कि कहीं किसान-नेताओं को इसका श्रेय न मिल जाय? किसान-नेताओं ने इस मौके पर भी किसानों को विभाजित करने और "कुछ" "नासमझ " किसानों पर कानूनों के लागू न होने देने की तोहमत मढ़ने के प्रधानमंत्री के शातिर खेल को नोट किया है।

कानून वापसी के बाद किसान-आंदोलन का अंजाम ठीक-ठीक क्या होगा, इसे जानने के लिए तो अगले कुछ दिन और इंतज़ार करना होगा, पर दोनों पक्षों की ओर से-मोदी, संघ-भाजपा समर्थकों, रिफार्म लॉबी के बुद्धिजीवियों तथा किसान-आंदोलन के नेताओं और समर्थकों की ओर से-जिस तरह की प्रतिक्रियायें आयी हैं,  उनसे इतना तय है कि कृषि-विकास के रास्ते को लेकर दोनों पक्षों के बीच नीतिगत लड़ाई सारतः जारी है, बस लड़ाई के रूप बदलते रहेंगे। 

तात्कालिक तौर पर महान किसान-आंदोलन के हाथों कॉरपोरेट लॉबी की करारी शिकस्त हुई है, और यह विश्व-ऐतिहासिक महत्व की घटना है। पर यह साफ है कि नीतिगत दिशा के प्रश्न पर वे पीछे नहीं हटे हैं।

कृषि कानूनों के मुख्य सूत्रधार कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी ने निराशा और खीझ के साथ  पूछा है कि प्रधानमंत्री का यह कदम टैक्टिकल रिट्रीट है या surrender ! उन्हें दर्द है कि अब शायद लंबे समय तक भविष्य की कोई भी सरकार कृषि क्षेत्र में "सुधार" के कदम उठाने की हिम्मत न जुटा सके !

दरअसल, कॉरपोरेट घरानों, सुधार-समर्थक लॉबी, बौद्धिकों को स्पष्ट सन्देश देने के लिए ही प्रधानमंत्री ने अपने बयान में यह बात बिल्कुल स्पष्ट तौर पर और जोर देकर रेखांकित किया कि वे अब भी सैद्धांतिक तौर पर मजबूती से  कृषि कानूनों के पक्ष में खड़े हैं।

किसानों को इस बात के लिए प्रधानमंत्री का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने बिना लाग-लपेट 3 कृषि कानूनों को एक बार फिर मजबूती से defend किया, और "कुछ" किसानों को समझा न पाने के लिए देश से माफी मांगी कि  अपनी तपस्या के बावजूद, "दीपक की ज्योति जैसे पवित्र सत्य " से उन्हें पीछे हटना पड़ा! 

बहरहाल मोदी जी कुछ लोगों को समझा न पाने से अपने फैसले बदलने के लिए नहीं जाने जाते। किसान इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि यह फैसला, सब लोगों को समझा कर ही कानून लागू करने की किसी लोकतांत्रिकता से प्रेरित हृदयपरिवर्तन नहीं, बल्कि शुद्ध रूप से आंदोलन के दबाव में चुनावी मजबूरी में उठाया गया कदम है। वरना लोकतन्त्र और किसानों को कुचलकर भी इन कानूनों को हर हाल में लागू करने की अपनी शातिर कोशिश में मोदी जी ने एक साल में कुछ भी उठा नहीं रखा।

कुछ हलकों में पंजाब से जुड़े सिक्योरिटी concerns को कानूनों की वापसी का एक प्रमुख कारण बताए जाने की बात में ज्यादा दम  नहीं लगता, यह फेस-सेविंग प्रोपेगंडा अधिक लगता है, अगर इतनी चिंता होती तो इसका समय 26 जनवरी के घटनाक्रम के आसपास होना चाहिए था, जब आंदोलन में "खालिस्तानी" penetration का हौवा अपने चरम पर था।

बहरहाल, मोदी जी की अपनी "56 इंची" छवि से इस betrayal से उनके समर्थकों में गहरी निराशा है।

गोदी मीडिया-भक्तों समेत वह कट्टरपंथी जमात, जिन्हें साल भर से किसान-आंदोलन विरोधी उन्माद की घुट्टी पिलाकर नशे में रखा गया था, वे मोदी जी की इस "गद्दारी" पर बिलबिला उठे हैं और अनाप-शनाप बक रहे हैं, जिनमें अनेक स्वनामधन्य पत्रकार-एंकर-कृषि विशेषज्ञ-अर्थशास्त्री-नई नवेली राष्ट्रवादी बनी फिल्म तरीका तक शामिल हैं।

बेहद निराश शेखर गुप्ता जैसे दक्षिणपंथी pro-reform पत्रकार कानूनों की वापसी को मोदी द्वारा "सुधारों की राजनीतिक मार्केटिंग कर पाने में विफलता" को मानते हैं। उन्हें लगता है कि मोदी द्वारा सिखों और पंजाब को ठीक से समझ न पाने और वहां उनके कमजोर प्रभाव के कारण यह स्थिति पैदा हुई है। 

अशोक गुलाटी भी कहते हैं कि सुधारों की प्रक्रिया को अधिक consultative और पारदर्शी होना चाहिए तथा लोगों को उनका लाभ बेहतर ढंग से समझाया जाना चाहिए। ये सारे लोग अन्तर्वस्तु में वही बात कह रहे हैं जो मोदी जी ने कही है कि कुछ किसानों को समझा नही पाने के कारण यह स्थिति पैदा हुई है।

दरअसल, वे सारे लोग जो यह सोचते हैं कि इन सुधारों को सबको ठीक से समझा-बुझाकर लोकतान्त्रिक ढंग से लागू किया गया होता तो यह सफल हो जाता, वे इसे महज रूप और प्रक्रिया में  देख रहे हैं, इस द्वंद्व के मूल चरित्र को समझने से इनकार कर रहे हैं। 

सच्चाई यह है कि अपनी अन्तर्वस्तु में यह कृषि पर कब्जे की लड़ाई है, वैश्विक पूँजी और कॉरपोरेट की ताकतें भारत के विराट कृषि-उत्पादन और  व्यापार को अपने हितों के अनुरूप restructure करना चाहती हैं और किसान अपने हित के अनुरूप उस पर अपना नियंत्रण बनाये रखने के लिए उसका प्रतिरोध कर रहे हैं। जाहिर है इस लड़ाई में बीच का कोई golden mean या मिडिल path है ही नहीं।

उदारवादी बुद्धिजीवी प्रताप भानु मेहता कहते हैं कि,  "इन कानूनों की वापसी से यह सम्भावना पैदा हुई है कि कृषि क्षेत्र की चुनौतियों पर नए सिरे से विचार हो और एक नई सर्वानुमति कायम हो।" सवाल वही है इस "सर्वानुमति" के केंद्र में किसानों-मेहनतकशों का हित और चौतरफा कृषि-विकास होगा या वैश्विक पूँजी और दैत्याकार कारपोरेशन्स का हित और सुपर-प्रॉफिट?

मोदी जी ने जिस राजनैतिक लाभ के लिए यह फैसला लिया है, क्या वह उन्हें हासिल हो पायेगा? इसे लेकर उनके समर्थकों और दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों को भी गहरा शक है। बल्कि अशोक गुलाटी जैसे लोगों को तो उल्टे यह चिंता सता रही है कि मोदी की अपराजेय, लौह छवि का तिलिस्म टूटने के बाद तमाम विरोधी ताकतें, किसान और समाज के अन्य तबके भी और emboldened हो जाएंगे। किसान-नेताओं की प्रतिष्ठा और बढ़ जाएगी, MSP की कानूनी गारंटी से लेकर पब्लिक सेक्टर के निजीकरण और लेबर कोड जैसे सुधारों को roll-back करने के लिए आंदोलन और तेज हो जाएंगे।

सच्चाई यह है कि UP जैसे राज्यों में राजनीतिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया अब advance stage में है, लोगों के political choices कमोबेश fix हो चुके हैं। किसान-आंदोलन का इस पर जो असर होना था, वह हो चुका है। मोदी-योगी सरकार द्वारा लखीमपुर किसान-हत्याकांड के हत्यारे का खुला बचाव पूरे चुनाव में विपक्ष के प्रचार में छाया रहेगा तथा  किसानों को भाजपाईयों के  "चाल, चरित्र, चेहरे" की याद दिलाता रहेगा। किसानों के मन मे मोदी सरकार के खिलाफ एक गहरा अविश्वास पहले ही घर कर चुका है। अब कृषि-कानून वापस लेने से इस पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। 

चुनाव की दृष्टि से मोदी जी ने यह फैसला लेने में शायद बहुत देर कर दी।

अधिक सम्भावना है कि मोदी जी के लिए माया मिली न राम वाली कहावत चरितार्थ हो। नवउदारवादी सुधारों को आगे बढ़ा पाने में बुरी तरह विफल होने के बाद वे कॉरपोरेट लॉबी और दक्षिणपंथी समर्थकों का विश्वास भी खो देंगे और किसानों का विश्वास और वोट तो पुनः नहीं ही हासिल कर पाएंगे। उनकी इस दुर्दशा से बहुतों को चोर के जूता और प्याज दोनों खाने की लोककथा की याद हो आयी है।

जाहिर है कृषि-विकास के कॉरपोरेट रास्ते और किसान-रास्ते के बीच का महाकाव्यात्मक युद्ध (epic war ) जारी है। यही युद्ध भारत को बदलेगा और उसके भविष्य की तकदीर लिखेगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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