NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
विश्लेषण : स्थानीय आबादी के आरक्षण का संवैधानिक आधार
मध्यप्रदेश सरकार द्वारा हाल में जन्मस्थल के आधार पर नौकरियों में आरक्षण की घोषणा की गई है। इस लेख में स्थानीय लोगों के लिए जन्म के आधार पर आरक्षण, जिसे मूलनिवासी आरक्षण भी कहा जाता है, उससे जुड़े संवैधानिक सवालों की व्याख्या की गई है।
उज्जैयनी चटर्जी
24 Aug 2020
विश्लेषण : स्थानीय आबादी के आरक्षण का संवैधानिक आधार

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने हाल में प्रदेश की सभी सरकारी नौकरियों को केवल वहां के मूलनिवासियों के लिए आरक्षित करने की बात कही। स्वाभाविक तौर पर इस घोषणा पर तीखी प्रतिक्रिया आई और बहस शुरू हो गई। आरक्षण पर भारत में लंबी कानूनी बहस और कई अदालती फ़ैसले आ चुके हैं। लेकिन "सकारात्मक कार्रवाई और मूलनिवासी आरक्षण" की समानताओं और उनमें भेद पर सवाल खड़े होते रहते हैं। लेखक ने यहां मूलनिवासी/स्थानीय आरक्षण और सकारात्मक कार्रवाई के अर्थों और उनसे जुड़ी दूसरी जानकारियों की व्याख्या की है।

——–

संविधान का अनुच्छेद 16(1) भारत के सभी नागरिकों के लिए नियुक्तियों और रोजगार में अवसरों की समानता की बात करता है। अनुच्छेद 16 (2) यह भी तय करता है कि किसी भी नागरिक के साथ लिंग, जाति, धर्म, भाषा, जन्मस्थल आदि के आधार पर किसी रोजगार या पद पर नियुक्ति में भेदभाव नहीं हो सकता, इन आधारों पर उसे अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता।

लेकिन अनुच्छेद 16 (3) इन नियमों के संबंध में अपवाद की बात करता है। इसके मुताबिक़, संसद कोई ऐसा कानून बना सकती है, जिसमें किसी सार्वजनिक पद या रोज़गार में नियुक्ति के लिए किसी खास इलाके में निवास स्थान होना जरूरी हो सकता है।

यह ऐसी ताकत है, जो स्पष्ट तौर पर संसद में निहित है, ना कि राज्य विधानसभा में। इसका मतलब हुआ कि सार्वजनिक रोज़गारों में जन्मस्थल के आधार पर किसी भी तरह के आरक्षण को दिए जाने का अधिकार सिर्फ़ भारत की संसद को है। ना कि कोई राज्य ऐसा करने में सक्षम है।

इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि अनुच्छेद 19(1) के तहत, भारत के हर नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में रहने और वहां बसने का अधिकार है। साथ में भारत के नागरिक के तौर पर, किसी भी राज्य के किसी भी सार्वजनिक दफ़्तर में उनके जन्मस्थल के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता।

आखिर संविधान किस तरह के सकारात्मक कदम का प्रबंधन करता है और कैसे यह समता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता? जाति आधारित आरक्षण के बारे में क्या?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) के जरिए सकारात्मक कार्रवाईयों का प्रावधान किया जाता है। इनसे राज्य को उच्च शिक्षण संस्थानों और नियुक्तियों में सामाजिक, शैक्षिक पिछड़े वर्गों या फिर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों से आने वालों के लिए विशेष प्रावधानों के जरिए आरक्षण की व्यवस्था करने का अधिकार मिलता है। यह वह समुदाय होते हैं, जिनका राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में जरूरी प्रतिनिधित्व नहीं होता।

इस व्यवस्था के पीछे समान लोगों के लिए समान मौके और कुछ कमज़ोर तबकों (शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक पिछले समुदाय, जिनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है) के लिए आरक्षित मौकों की व्यवस्था किए जाने का विचार है।

जन्मस्थल के आधार पर नौकरियों में आरक्षण दिए जाने का कानूनी नज़रिया अब तक क्या रहा है?

सामान्य तौर पर सुप्रीम कोर्ट इस तरह के आरक्षण के खिलाफ़ रहा है। प्रदीप जैन बनाम् भारत संघ के मामले में कोर्ट ने पाया कि मूलनिवासियों के लिए आरक्षण दिया जाना संविधान का उल्लंघन है। लेकिन कोर्ट ने इसके खिलाफ़ कोई तय फ़ैसला नहीं दिया, क्योंकि यहां मामला समता के अधिकार से जुड़ा था। कोर्ट ने अपने परीक्षण में कहा कि ऐसा करना प्राथमिक तौर पर संविधान के हिसाब से सही नहीं लगता, हालांकि कोर्ट ने इस पर कोई तय नज़रिया व्यक्त करने से इंकार कर दिया।

1995 में सुप्रीम कोर्ट ने सुनंदा रेड्डी बनाम् आंध्रप्रदेश राज्य मामले में भी प्रदीप जैन केस के फ़ैसले को ही बरकरार रखा गया और तेलुगु माध्यम में परीक्षा देने वाले बच्चों के लिए 5 फ़ीसदी ज़्यादा नंबर वाले प्रावधान को रद्द कर दिया। इस फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रदीप जैन मामले में फ़ैसले का उद्धरण दिया। कोर्ट ने कहा:

अब जब भारत एक राष्ट्र है और जहां एक ही नागरिकता का प्रावधान है, सभी नागरिकों को पूरे देश में भ्रमण करने, रहने और बसने की आजादी है, तो ऐसा मानना मुश्किल है कि तमिलनाडु में स्थायी तौर पर रहने वाले या तमिल बोलने वाले को उत्तरप्रदेश से बाहरी करार दिया जा सकता है। अगर उसे उत्तरप्रदेश में बाहरी बताया जाता है, तो उसे उसके संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा होगा और ऐसा करना देश की एकता और अखंडता की पहचान करने से इंकार होगा, ऐसा लगेगा जैसे इस देश महज़ स्वतंत्र राज्यों का एक गठजोड़ बताया जा रहा हो।

कैलाश चंद शर्मा बनाम् राजस्थान राज्य और अन्य में तर्क दिया गया कि भौगोलिक वर्गीकरण को किसी खास इलाके के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन में शामिल किया जा सकता है, इसलिए सार्वजनिक नौकरियों में भौगोलिक वर्गीकरण आरक्षण का आधार बन सकता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने परीक्षण में कहा कि इस तरह के एकतरफा तर्क, जिनमें संकीर्णता झलकती है, उन्हें संविधान के अनुच्छेद 16 (2) और अनुच्छेद 16 (3) के आधार पर सीधे खारिज किया जा सकता है।

आखिर कुछ राज्य स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण किसा आधार पर उपलब्ध करवा रहे हैं?

भारतीय संसद ने, संविधान के अनुच्छेद 16 (3) में दी गई अपनी ताकतों का इस्तेमाल कर पब्लिक एंप्लायमेंट एक्ट (रिक्वॉयरमेंट एज़ टू रेसिडेंस) पारित किया। इसके ज़रिए सार्वजनिक नियुक्तियों में राज्य में निवास की सभी अर्हताओं का खात्मा कर दिया गया। लेकिन इसमें आंध्रप्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा और हिमाचल प्रदेश को छूट दी गई। 

संविधान के अनुच्छेद 371 में भी कुछ राज्यों के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। अनुच्छेद 371D के तहत आंध्रप्रदेश को चिन्हित इलाकों में स्थानीय आबादी से सीधे लोगों को भर्ती करने की छूट दी गई है।

अलग-अलग राज्यों की स्थानीय लोगों की भर्तियों पर आरक्षण की नीतियां क्या हैं?

महाराष्ट्र में, जो भी कोई राज्य में 15 या उससे ज़्यादा सालों तक रह चुका हो, उसे सरकारी नौकरियों में आवेदन करने की छूट है। बशर्ते वह मराठी में धाराप्रवाह हो। तमिलनाडु में भी इसी तरह का एक भाषायी टेस्ट होता है। इन आरक्षणों का कानूनी आधार सार्वजनिक दफ़्तरों की आधिकारिक भाषा है, जो सरकारी नौकरियों के क्रियान्वयन के लिए बेहद जरूरी है। पश्चिम बंगाल में भी कुछ पदों के लिए भाषा परीक्षा ली जाती है, हालांकि सामान्य तौर पर वहां सरकारी नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए कोई आरक्षण नहीं है।

उत्तराखंड में तीसरे और चौथे दर्जे की सरकारी नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित हैं। मेघालय में खासी, जयंतिया और गारो जनजातियों के लिए समग्र तौर पर 80 फ़ीसदी स्थानीय नौकरियों में आरक्षण है, जबकि अरुणाचल प्रदेश में 80 फ़ीसदी नौकरियों में स्थानीय लोगों को आरक्षण है।

मध्यप्रदेश की तरह, कौन से ऐसे दूसरे राज्य हैं, जिन्होंने मूलनिवास पर आधारित आरक्षण का प्रस्ताव दिया है?

हाल में हरियाणा कैबिनेट ने एक अध्यादेश पारित किया है, जिसके कानून बन जाने के बाद प्राइवेट नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए 75 फ़ीसदी आरक्षण हो जाएगा। 2008 में महाराष्ट्र ने राज्य सरकार से मदद लेने वाले उद्योगों में 80 फ़ीसदी आरक्षण स्थानीय लोगों के लिए करने का प्रस्ताव रखा था, हालांकि इसे लागू नहीं किया गया। इसी तरह गुजरात में भी 1995 में स्थानीय लोगों के लिए 85 फ़ीसदी आरक्षण का प्रस्ताव रखा गया था। हालांकि ना तो निजी क्षेत्र और ना ही सार्वजनिक क्षेत्र में इस नीति को लागू किया गया।

जम्मू-कश्मीर में सभी सरकारी नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित हैं। हालांकि इस आरक्षण को जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय के सामने चुनौती मिल चुकी है और इसका फ़ैसला आना अभी बाकी है। असम में भी "असम समझौते" के प्रावधानों को लागू करने का सुझाव दिया जा रहा है। इन सुझावों में सरकारी नौकरियों में सिर्फ़ उन्हें ही जगह दिए जाने की बात है, जिनके पुरखे 1951 से पहले से राज्य में रह रहे हों।

क्या निजी दफ़्तरों में आरक्षण लागू होता है?

2016 में कर्नाटक सरकार ने निजी क्षेत्र में स्थानीय लोगों के लिए 100 फ़ीसदी आरक्षण का प्रस्ताव दिया। हालांकि इसमें इंफोटेक और बॉयोटेक को छोड़ दिया गया। 2018 की शुरुआत में कानून विभाग ने इस प्रस्ताव का विरोध किया, विरोध के लिए संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 16 को आधार बनाया गया। यह तर्क दिया गया कि राज्य सरकार निजी क्षेत्र से कर्नाटक के स्थानीय लोगों को प्राथमिकता देने की अपील कर सकती है, लेकिन निजी क्षेत्र पर स्थानीय आबादी से ही भर्तियां करने का कानून नहीं बना सकती। यह बहुत स्पष्ट है कि निजी कंपनियों को सार्वजनिक दफ़्तरों की तरह जाति या पंथ के आधार पर भर्तियां करने की बाध्यता नहीं होती है।

(लेखिका दिल्ली आधारित वकील हैं और वह The Leaflet में लगातार लिखती रहती हैं)

इस लेख को पहली बार The Leaflet में प्रकाशिक किया गया था।

लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Explainer: The Constitutionality of Domicile Job Reservations

Shivraj Singh Chauhan
Madhya Pradesh
Domicile Reservation
Constitutionality
Reservation for locals

Related Stories

परिक्रमा वासियों की नज़र से नर्मदा

कड़ी मेहनत से तेंदूपत्ता तोड़ने के बावजूद नहीं मिलता वाजिब दाम!  

मनासा में "जागे हिन्दू" ने एक जैन हमेशा के लिए सुलाया

‘’तेरा नाम मोहम्मद है’’?... फिर पीट-पीटकर मार डाला!

कॉर्पोरेटी मुनाफ़े के यज्ञ कुंड में आहुति देते 'मनु' के हाथों स्वाहा होते आदिवासी

एमपी ग़ज़ब है: अब दहेज ग़ैर क़ानूनी और वर्जित शब्द नहीं रह गया

मध्यप्रदेशः सागर की एग्रो प्रोडक्ट कंपनी से कई गांव प्रभावित, बीमारी और ज़मीन बंजर होने की शिकायत

सिवनी मॉब लिंचिंग के खिलाफ सड़कों पर उतरे आदिवासी, गरमाई राजनीति, दाहोद में गरजे राहुल

मध्यप्रदेश: गौकशी के नाम पर आदिवासियों की हत्या का विरोध, पूरी तरह बंद रहा सिवनी

राम सेना और बजरंग दल को आतंकी संगठन घोषित करने की किसान संगठनों की मांग


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License