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राजनीति
मादा को ख़त्म करने पर आमादा मर्दाना समाज...!
देश की आधी आबादी असुरक्षा में जी रही है। हालात में बदलाव लाना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी होनी चाहिए, वरना वो वक़्त दूर नही जब औरतें समय पर नहीं खूंटियों पर टंगी नज़र आएंगी।

नाइश हसन
07 Oct 2020
Hathras

घरों से जारी अघोषित हुक़्मनामे औरत को कमज़ोर रखने की साज़िश रचते है, और औरत की दुनिया को अपने मुताबिक तैयार करने का फरमान सुनाते है। उसमें तनिक भी हेर-फेर उस मर्दाना ज़ोम को जामें से बाहर कर देती है। वह औरत को अपने काबू से जरा भी बाहर देखना पसन्द नही करता। यही नफ़रतज़दा सोच हम बलात्कार के मामले में भी देखते है, और जब सवाल दलित या हाशिया आधारित समुदाय की महिला से बलात्कार का हो तो उसमें नफ़रत का एंगल ज़्यादा पुख़्ता तौर पर नुमाया होता है।

हाथरस बलात्कार कांड में भी ऐसा ही देखा गया। हमारे सभ्य समाज होने की सारी पोल खुल गई। सभ्यता लिबास बदल कर नही आती, उसका रिश्ता हमारी ज़ेहनियत से होता है। यूं मालूम होता है कि मादा से ऊबा हुआ समाज उसे खत्म करने पर आमादा है। एक ऐसे हिन्दुस्तान का तसव्वुर कीजिए जहां एक भी औरत नहीं होगी। वह मार डाली जाएगी, उसका बलात्कार हो जाएगा, लगता है अब पुरुष सत्ता को अपनी निगाह के सामने बेटी नहीं चाहिए वह उसके खात्में पर उतारू हो गया है। एक बेहतर समाज बनने की उम्मीद हर-पल, हर-रोज़ टूटती नजर आती है।

सन् 2012 में निर्भया आन्देालन के दौरान देश सड़कों पर था, क्या महिला क्या पुरुष, क्या नौजवान सभी बस एक आवाज़ में कह रहे थे अब बस्स!! इससे ज़्यादा ये मुल्क और बर्दाश्त नही कर सकता, जस्टिस वर्मा कमीशन की सिफारिशों ने भी उम्मीदें बढा दी थी, लेकिन उसके एक माह के अन्दर ही हमने निर्भया से भी ज्यादा दर्दनाक हादसा नोएडा में देखा था, उसके बाद अनेकों घटनाओं के हम गवाह बने। हमने जस्टिस ए.के. गांगुली, तरूण तेजपाल, आर.के. पचौरी, एम.जे. अकबर, डा. अय्यूब, चिन्मयानन्द, कुलदीप सेंगर आदि सफेदपोशों को भी देखा ऐसी फहरिस्त काफी लम्बी है। हमने हाथरस के फौरन बाद यानी कुल 20 दिन के अन्दर जब टीवी और अखबारों में हाथरस बलात्कार का ही हंगामा नजर आ रहा था ऐसे समय में भी बलरामपुर, आज़मगढ, लखनऊ, भदोही में बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के मामले देखे।

तो क्या यह महज एक सनकीपन है? क्या ये बलात्कारी दिमागी तौर पर बीमार हैं? नहीं! जब हम इसे सनकी, या बीमार कहते हैं तो एक तरफ उस अपराधी के आपराधिक इरादे के पहलू को कमजोर कर देते हैं और साथ ही हम उसकी शिकार बनी पीड़िता की तकलीफ को भी हल्का कर देते है।

यह खुद को आला और महिला को कमजोर साबित करने की ज़ेहनियत है। साथ ही क़ानून व्यवस्था के प्रति बेख़ौफ़ होना भी है। क़ानून से बेख़ौफ़ इन्सान कब होता है जब क़ानून को लागू कराने वाले बेपरवाह हों, ज़ात मज़हब में बंटे हों, हर सवाल चुनावी गणित से देखा जा रहा हो, औरत को इंसान ही न माना जा रहा हो, ऐसी स्थिति तभी सामने आती है। साथ ही जिस तरह की परवरिश हम देते है उसमें अपनी बेटी को सवाल करने की छूट नहीं होती, उस पर यक़ीन नही किया जाता, उत्पीड़न को छुपाने के लिए कहा जाता है। इन सारी बातों से बलात्कारी भी तो परिचित ही होता है। मनोवैज्ञानिक इन्हें बीमार बताते है पर सवाल है कि हर तीसरा-चौथा आदमी मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार नहीं हो सकता। अगर ऐसा है तो पूरे देश का कम से कम 80 फीसदी पुरुष बीमार ही हुआ। उसे शासन-प्रशासन, राजनीति, और बाकी काम-काज भी छोड़ देना मुनासिब होगा, औरतें एक बेहतर समाज बना सकती हैं।

हाथरस घटना के दूसरे तमाम पहलू भी काबिले गौर है जिन्हें नज़रअन्दाज नहीं किया जा सकता। पुलिस जिसे क़ानून की सबसे ज्यादा जानकारी होती है, वह पुलिस जब बलात्कार की इस घटना में वीर्य की तलाश करे और कहे कि बलात्कार नहीं हुआ क्योंकि वीर्य वहां बरामद नहीं हुआ, तो यह कभी आप को हास्यास्पद भी लग सकता है, और सीना ज़ोरी भी, या आम अवाम को गुमराह करने की एक साज़िश भी कह सकते हैं। बलात्कार की परिभाषा कहती है कि स्त्री की इच्छा के विरूद्व, उसकी सहमति के बिना, उसकी सहमति मृत्यु या चोट के भय में डाल कर प्राप्त की गई हो वह बलात्कार माना जाएगा। इस परिभाषा को सामने रखने के बाद पुलिस से दूसरा सवाल तो बनता ही है कि क्या जब तरूण तेजपाल, ए.के. गांगुली, आर.के. पचौरी, विपुल कुमार, गौरव शुक्ला, चिन्मयानन्द, डॉ. अय्यूब, कुलदीप सिंह सेंगर को पुलिस ने गिरफ्तार किया और उन्हें जेल भेजा तो क्या पुलिस वीर्य की तलाश में निकली थी? उन्हें गिरफ्तार महिला के बयान के आधार पर किया गया था न कि वीर्य के आधार पर।

दूसरी बात जब उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री नार्को टेस्ट की घोषणा करते है उसमें भी सुप्रीम कोर्ट के डायरेक्शन का उल्लंघन होता है। आरोपी के साथ पीड़ित पक्ष के लोगों का भी नार्केा टेस्ट कराए जाने की बात की जाती है, जबकि महिला का मृत्यु पूर्व का बयान जिसकी क़ानून में बहुत अहमियत है पुलिस के पास पहले से मौजूद है। साथ ही गुजरे 20 दिनों में सारे सुबूत भी मिटाए जा चुके है, लड़की की लाश को पुलिस ने घर वालों को सुपुर्द न करके उसे सुपुर्द-ए-आतिश कर दिया, यह भी मंशा पर गंभीर सवाल खड़े करता है। मुख्यमंत्री अपने एक बयान में कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में महिला के खिलाफ अपराध में सजा़ का प्रतिशत 55 है और यह देश में सबसे ज्यादा है, लेकिन बाकी की 45 प्रतिशत महिलाएं क्या न्याय के लिए भटकती रहे, मुख्यमंत्री अगर यह भी आंकड़ा देते कि उत्तर प्रदेश में महिला अपराधों में प्रथम सूचना दर्ज करने का प्रतिशत कितना है, कितनी महिलाएं थाने से भगा दी जाती है, कितनों को पुलिस घर पहुंच कर धमका देती है, वह सारे आंकड़े सामने आते तो अन्य प्रदेशों से उत्तर प्रदेश की तुलना करना ज्यादा आसान होता।

यह भी देखा गया है कि जब भी ऐसी जघन्य वारदात पेश आती है सीबीआई जांच की मांग जोर-शोर से उठने लगती है, ऐसी घोषणा कई बार आम अवाम का गुस्सा ठंडा करने के काम भी आती है, माहौल को अपने पक्ष में करने के काम भी।

मैनपुरी में नवोदय विद्यालय में पढ़ने वाली छात्रा का मामला, कानपुर का संजीत यादव का कामला, जिनमें सीबीआई जांच की सिफारिश की गई थी, इसके पहले की सरकार में भी आशियाना बलात्कार कांड में भी ऐसी सिफारिश हुई थी जिसे केन्द्र सरकार ने स्वीकार तक नही किया था, और अन्जाम इतना भर रहा कि फिर कोई दूसरी संनसनी मुल्क में फैल गई और वह सारी चीखें उसी तले दब गईं, फिर उनका नामलेवा कोई न बचा। क़ानून और प्रशासनिक तिकड़म बहुत समझदारी से किए जाते हैं जो कमजोर को दबा देते हैं और ताकतवर से दब जाते हैं।

भारत ने दुनिया के मंच पर भारत की स्त्रियों की गरिमा बचाने की गारंटी ली है, 1993 में वियना में सीडॉ संधि पर हस्ताक्षर किए हैं। चौथे विश्व सम्मेलन बीजिंग-1995 में भारत जिसका सदस्य था जहां लैंगिक भेदभाव व महिलाओं के प्रति होने वाली यौन हिंसा को पूरी तरह से ख़ारिज़ किया गया था।

दूसरी ओर हमारा संविधान महिला को गरिमापूर्ण जीवन जीने की गारंटी देता है। अनुच्छेद 51(ए) (ई) सामन्जस्य के बढ़ावा देना तथा औरतों की गरिमा के विरूद्व जाने वाले तौर-तरीकों का परित्याग किए जाने की बात करता है। अनुच्छेद 21 जीवन और दैहिक स्वतन्त्रता का संरक्षण देता है। महिला की गरिमा का प्रश्न गैर-पराक्राम्य (non- negotiable) है। विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) के मामले में भी न्यायालय ने यौन हिंसा के प्रश्न पर कहा था कि महिला की गरिमा पूरे विश्व में मान्य बुनियादी मानवाधिकार है। मानवाधिकार अधिनियम 1993 की धारा 2(डी) के अनुसार मानवाधिकार का अर्थ जीवन, स्वतन्त्रता, समानता और गरिमा के अधिकार से सम्बन्धित है। परन्तु अफसोस कि सरकारों का इस प्रकार का रवैया अन्तर्राष्ट्रीय संधियों, मानवाधिकार और संविधान का भी उल्लंघन है। ऐसे में सरकार को अपनी जवाबदेही स्पष्ट करना ही चाहिए, ऐसा हिन्दुस्तान बनाकर हम दुनिया के नक्शें पर विश्वगुरू तो नहीं हो सकते, हां, बलात्कारी देश जरूर बन जाएंगे। देश की आधी आबादी असुरक्षा में जी रही है। हालात में बदलाव लाना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी होनी चाहिए, वरना वो वक़्त दूर नही जब औरतें समय पर नहीं खूंटियों पर टंगी नज़र आएंगी।    

 

(लेखिका रिसर्च स्कॉलर व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

 

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