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मोदी “सुरक्षा चूक” मामला: “हाकिमों को इन रस्तों पर रोकना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है”
इस सारी बहस में प्रधानमंत्री की सुरक्षा के तकनीकी नुक्तों के अलग-अलग पहलुओं पर जवाबदेही तय करने का अपना स्थान है। पर यह लोगों के रोष प्रदर्शन के लोकतांत्रिक अधिकार से ऊपर नहीं है। देश के प्रधानमंत्री के आगे अपना रोष व्यक्त करना लोगों का बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार है।
पावेल कुस्सा
08 Jan 2022
मोदी “सुरक्षा चूक” मामला: “हाकिमों को इन रस्तों पर रोकना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है”

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पंजाब से बैरंग लौटने पर खड़ा किया जा रहा विवाद, हो-हल्ला, भाजपा की तरफ से मुद्दों को प्रतिगामी रंगत देने का प्रचलित चलन है। प्रधानमंत्री की राजनीतिक नमोशी को देश की सुरक्षा का मसला बनाने की भरकस कोशिश की जा रही है, और ऐसा हमेशा की तरह पूरी बेशर्मी से किया जा रहा है। भाजपाई प्रवक्ता देश के टीवी चैनलों पर चिंघाड़ रहे हैं - देश के अपमान की बातें कर रहे हैं और पंजाब में राष्ट्रपति राज लगाने का आह्वान कर रहे हैं।

यह सारा मसला एक तीर से कई शिकार करने की कोशिश है। सबसे पहले तो यह मोदी की बुरी तरह विफल हुई रैली को ढकने का प्रयत्न है। प्रधानमंत्री के लिए चुनावों में सहानुभूति बटोरने का प्रयास है। 'मोदी ही राष्ट्र है' के दम्भी वृतांत को मजबूत करने की कोशिश है। अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी - पंजाब कांग्रेस को मात देने की कोशिश है।

हालांकि यह हकीकत जग जाहिर है कि प्रधानमंत्री को किसी ने पूर्वनियोजित फैसला करके नहीं घेरा, बल्कि खुद उनकी अपनी तरफ से ही ऐन मौके पर सड़क मार्ग का चयन किया गया था। जिस कारण उन्हें मार्ग में हो रहे प्रदर्शनों के समीप 10 मिनट के लिए रुकना पड़ा।

किसी ने प्रधानमंत्री के नजदीक जाने की कोशिश तक भी नहीं की। फिर भी अगर प्रधानमंत्री को अपने ही लोगों से इतना खतरा महसूस होता है तो यह उनके लिए सचमुच ही सोच विचार का मसला बनना चाहिए।  

इस 10 मिनट की रुकावट को सुरक्षा दृष्टि से बहुत ही खतरनाक घटना बनाकर पेश किया जा रहा है ताकि बुरी तरह विफल रही रैली की तस्वीर को इस सारे दृश्य से ओझल किया जा सके। मोदी के वापस जाने का फैसला उनकी रैली को पंजाब के लोगों द्वारा नाकार दिए जाने के कारण करना पड़ा। पर उन्होंने जाते-जाते अपनी घोर प्रतिगामी प्रवृत्ति के चलते नया बखेड़ा खड़ा कर दिया। शारीरिक तौर पर तो किसी ने उन्हें छुआ तक भी नहीं है और ना ही ऐसा करने की किसी की तरफ से कोई मंशा व्यक्त हुई है।

सही बात तो यह है कि मोदी अपनी राजनीतिक पिछाड़ को सहन नहीं कर पा रहे हैं। इस सारी बहस में प्रधानमंत्री की सुरक्षा के तकनीकी नुक्तों के अलग-अलग पहलुओं पर जवाबदेही तय करने का अपना स्थान है। पर यह लोगों के रोष प्रदर्शन के लोकतांत्रिक अधिकार से ऊपर नहीं है। सबसे पहले लोगों के रोष प्रदर्शन के लोकतांत्रिक अधिकार को बुलंद किया जाना चाहिए। देश के प्रधानमंत्री के आगे अपना रोष व्यक्त करना लोगों का बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार है।

अगर लोग पूर्वन्योजित कार्यक्रम के तहत भी 2 घंटे मोदी की कार को घेरकर नारेबाजी कर देते तो भी आसमान से कोई बिजली नहीं गिर जाने वाली थी! लोग अपने लोकतांत्रिक अधिकार को ही लागू कर रहे होते।

किसान आंदोलन अभी स्थगित किया गया है, खत्म नहीं हुआ। किसान दिल्ली के बॉर्डर से उठ गए हैं यद्यपि एम.एस.पी. और केसों को रद्द किए जाने सहित सारे मुद्दे अभी भी उसी तरह खड़े हैं। और इन मसलों पर कोई भी बात ना सुनने वाली मोदी सरकार का रवैया सामने आ चुका है। इस तरह की स्थिति में अगर किसान अपना रोष ना व्यक्त करें तो और क्या करें। यह बात प्रधानमंत्री को पंजाब में आने से पहले सोचनी चाहिए थी। पर वह तो आए ही 'पंजाब विजय' के लिए थे। वह तो केंद्रीय कोष पर काबिज होने के अहंकार रथ पर सवार हो पंजाबियों को खरीदने आए थे।

यह प्रधानमंत्री की सुरक्षा का मसला नहीं है, बल्कि उनकी लोगों के प्रति जवाबदेही का मसला है। अगर वह पंजाब के लोगों को सचमुच की खुशहाल जिंदगी के पैकेज देने के ऐलान करने आ रहे थे तो क्यों वही लोग उनके विरोध में सड़कों पर थे। तो उनको प्रश्न अपनी सुरक्षा के मसले में नहीं, बल्कि उनके लोगों के साथ रिश्ते के मामले में उठना चाहिए था।

जब प्रधानमंत्री मोदी फिरोजपुर की तरफ जा रहे थे, ठीक उसी समय पंजाब के शहरों और कस्बों में उनके पुतलो को फूंका का जा रहा था। गांव देहात के सीधे साधे लोगों को बसों में भर कर फिरोजपुर ले जाना भाजपाइयों के लिए मुश्किल क्यों हो गया था!

प्रधानमंत्री की रैली बुरी तरह खाली रही।

जो कुछ हुआ वह-

कारपोरेटों से उनकी वफादारी का नतीजा है।

लखीमपुर खीरी में कुचल दिए गए किसानों की शहादतों का नतीजा है।

साल भर किसानों को दिल्ली की सड़कों पर परेशान करने का नतीजा है।

700 से ऊपर किसानों की जान लेने का नतीजा है।

अभी तक भी कारपोरेटों को मुल्क लुटाने की नीतियों को लागू करते रहने का नतीजा है।

लोगों को झूठे सुहावने ख़्वाब दिखाकर पंजाब विजय कर लेने की ख़्वाहिशें पालने का नतीजा है।

भाजपा की इस हाहाकार के दरमियान हमें डटकर कहना चाहिए कि यह धरती और इसके मार्ग हमारे हैं। हमारी जिन्दगी में तबाही मचाने वाले हाकिमों को इन रस्तों पर रोकना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।

हमारी इज्जत और प्रधानमंत्री की इज्जत एक नहीं है। इसमें हमेशा से टकराव है। उन्होंने तो हमेशा ही देश के लोगों की शान-इज्जत को अपने पैरों तले रौंदा है। और इस इज्जत को पैरों तले रौंदे जाने के बारे में सवाल करने के लिए लोग उनके सामने भी आएंगे और उनके मार्ग भी रुकेंगे। सभी इंसाफ पसंद और जागृत देशवासियों को भाजपा की इस झल्लाई मुहिम का डटकर विरोध करना चाहिए। लोगों के विरोध व्यक्त करने के लोकतांत्रिक अधिकार को डट कर बुलंद करना चाहिए। और इस को सुरक्षा मसले में परिवर्तित कर भटकाने की कोशिशों का पर्दाफाश करना चाहिए । किसान संघर्ष की जय-जय कार करनी चाहिए, और इसकी हिमायत करनी चाहिए। 

(पंजाब स्थित लेखक पावेल कुस्सा एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और किसान आंदोलन से जुड़े रहे हैं। आप मासिक पत्रिका ‘सुरख़ लीह’ के संपादक भी हैं।)

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