भाजपा की राजनीतिक नीतियों को जिस तरह से विपक्ष कट्टरपंथी और देश को बांटने वाले बता रहा है, उतनी आक्रामकता से वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आर्थिक नीतियों का विरोध नहीं कर रहा है। इसके बजाय वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आर्थिक मामलों में अज्ञानी बताने की निरंतर कोशिश कर रहा है। प्रधानमंत्री मोदी को आर्थिक मामलों से अनभिज्ञ बताने का यही प्रयास विपक्ष की मंशा पर कई सवाल खड़े करता है। क्योंकि ये तो सबको पता है कि 1991 के बाद से बनने वाली सभी सरकारों ने उसी आर्थिक नीति का अनुसरण किया है, जिसका डिजाइन निवर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने वित्त मंत्री के कार्यकाल में तैयार किया था।
नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद ऐसे दो कदम उठाए हैं, जिनका विरोध कांग्रेस कर रही है। इनमें से एक जीएसटी को तो कांग्रेस की सरकार में ही आगे बढ़ाया था। उस वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने जीएसटी का विरोध किया था। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने ही इसे लागू किया। नोटबंदी लागू करने का फैसला जरूर नरेंद्र मोदी ने अपनी मर्जी से उठाया था। भारत की आधी जनसंख्या खेती पर और बाकी छोटे-मोटे व्यवसाय में लगी हुई है। यह तो स्पष्ट ही है कि नकदी के संकट के कारण इनका प्रभावित होना तय था। इसके बावजूद मोदी ने नोटबंदी जैसा कदम क्यों उठाया? नोटबंदी के साथ जीएसटी ने मिलकर ऐसा कहर ढाया की संपन्नता की कुलांचे भरने वाला वर्ग बुरी तरह डर गया। क्या फलती-फूलती अर्थव्यवस्था को आग लगाने का काम प्रधानमंत्री मोदी ने बिना सोचे-समझे ही कर दिया?
जिस तरह समाजवाद के कई रूप हैं, उसी तरह पूंजीवाद की भी कई धाराएं हैं। किसी व्यवस्था में राज्य द्वारा विनियमित पूंजी-श्रम संबंध में जो अंतर होता है, वास्तव में वही महत्वपूर्ण है। प्राथमिक मानदंडों के रूप से आर्थिक विकास को बढ़ावा देने और रोजगार की रक्षा करने और आर्थिक असमानता को कम करने के उद्देश्य से विनियमन के स्तरों का उपयोग करते हुए आधुनिक विकसित देशों में पूंजीवादी समाज के कुछ मॉडल की पहचान साफतौर पर की गई है। इनमें "उदार लोकतांत्रिक मॉडल" एंग्लो-सैक्सन देशों (अंग्रेजी भाषी देशों) की विशेषता है। "सामाजिक लोकतांत्रिक मॉडल" सामाजिक रूप सबसे विकसित यूरोपीय और स्केंडेनेवियन देशों की विशेषता है। इससे अलग "स्वदेशी सामाजिक एकीकरण मॉडल" या "जापानी मॉडल" भी है।
विकासशील देशों में गरीब देशों के साथ-साथ मध्यम आय वाले देश भी पूरी तरह से पूंजीवादी "विकास मॉडल" अपना चुके हैं। ये चीन, भारत और अन्य तेजी से आर्थिक वृद्धि कर रहे एशियाई देशों की विशेषता है। अर्जेंटीना, ब्राजील, तुर्की, मैक्सिको और दक्षिण अफ्रीका, जिनकी औसत जीडीपी विकास दर काफी कम है-"लिबरल-डिपेंडेंट मॉडल" को अपनाए हुए थे। विकास को बढ़ावा देने, वित्तीय स्थिरता और असमानता को कम करने में लिबरल-डिपेंडेंट मॉडल की विफलता ने 2000 के दशक में इन देशों को भी पूंजीवाद के विकास मॉडल की ओर बढ़ने के लिए मजबूर किया।
पूंजीवाद के 30 नव-उदारवादी वर्षों (1979-2008) के सबसे चरम पर 1990 के दशक में इसके समर्थक बुद्धिजीवी एंग्लो-सैक्सन मॉडल के पूंजीवाद की जीत की घोषणा कर रहे थे। उसके मॉडल को "बाजार समाज" या "बाजार अर्थव्यवस्था" का सबसे शुद्ध बताया जा रहा था। कई लोगों को अमेरिकी और ब्रिटिश पूंजीवीद एक ही लगता है। जबकि इसमें एक मौलिक अंतर है। ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कींस की 1936 में प्रकाशित किताब "द जनरल थ्योरी ऑफ एंप्लॉयमेंट, इंटरेस्ट एंड मनी" (The General Theory of Employment, Interest and Money) में मुक्त बाजार व्यवस्था या पूंजीवाद के सुधार के कुछ तरीके सुझाए गए थे। 20वीं सदी का यह सबसे बड़ा आर्थिक सिद्धांत था, जिसके पक्ष और विपक्ष में काफी कुछ कहा गया। पूंजीवाद के समर्थकों ने अहस्तक्षेप (Laissez-faire) के सिद्धांत में कटौती के लिए इसकी निंदा की तो दूसरी ओर समाजवादी लोगों ने कींस पर यह आरोप लगाया कि मजदूर वर्ग को पूंजीवाद की कड़वी गोली निगलने के लिए कींस ने उस पर एक मीठा लेप लगा दिया है। कींस ने स्वयं भी कहा कि वर्ग-युद्ध में वे शिक्षित बुर्जुआओं के पक्ष में पाए जाएंगे।
कींस की नीतियों को आज भी सबसे ज्यादा प्रगतिशील माना जाता है और सोशल डेमोक्रेट्स कींस की नीतियों पर बहुत ज्यादा निर्भर करते हैं। पूंजीवाद के कई आलोचक भी अब इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि बदले माहौल में कार्ल मार्क्स की अपेक्षा कींस के सिद्धांत ज्यादा उपयोगी और लाभदायक हैं। वे यह मानते हैं कि कींस के सिद्धांत एक खराब व्यवस्था की क्रूरता को कम करते हैं। दूसरी और पूंजीवाद के समर्थक समझते हैं कि यह पूंजीवाद को एक बेहतर व्यवस्था बनाता है, जिससे वह अच्छे ढंग से काम करती है। कांग्रेस की नीति इन्हीं से प्रेरित है। कांग्रेस ने शिक्षित बुर्जुआ मध्यम वर्ग के विकास के लिए पिछले 70 सालों में काफी कुछ किया है। उसकी नीतियों से यही लोग सबसे ज्यादा लाभान्वित भी हुए हैं।
जबकि अमेरिका के शिकागो स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से प्रेरित रूढ़िवादी बाजार समर्थक कींस की नीतियों का विरोध करते हैं। शिकागो स्कूल का मुख्य सिद्धांत है कि मुक्त बाजार एक अर्थव्यवस्था में संसाधनों का सबसे अच्छा वितरण करता है और सरकार का न्यूनतम या कोई हस्तक्षेप नहीं करना आर्थिक समृद्धि के लिए सबसे अच्छा है। शिकागो स्कूल के सबसे प्रमुख अर्थशास्त्री नोबेल पुरस्कार विजेता मिल्टन फ्रीडमैन थे, जिनके सिद्धांत कीन्स के अर्थशास्त्र से काफी भिन्न थे। केवल एक बड़ा आर्थिक संकट ही उनको कींस की नीतियों से समझौता करने को मजबूर करता है।
जब भी कोई कठिन आर्थिक संकट खड़ा होता है, ये मुक्त बाजारवादी अर्थशास्त्री कींस के सिद्धांतों को एक तात्कालिक इलाज के लिए उपयोग करते हैं। लेकिन वे इसको निरंतर जारी रखने का विरोध करते हैं। ऐसे समय में तो खुले बाजार का समर्थक राजनीतिक तंत्र भी ऐसे उपाय करता है, जिसे वामपंथी राजनेता भी नहीं सोच सकते हैं। कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार ने मनरेगा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून जैसे उपायों से कींस के सिद्धांतों का प्रयोग करके 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के समय भारतीय अर्थव्यवस्था को दुष्प्रभावों से बचा लिया था।
इसी बिंदु पर आकर कांग्रेस और भाजपा की राहें अलग हो जाती हैं। यदि कांग्रेस ब्रिटिश और यूरोपीय तरह का पूंजीवाद पसंद करती है, तो आम आदमी पार्टी और उसके नेता केजरीवाल को स्कैंडेनेवियन देशों यानी फिनलैंड, नॉर्वे, स्वीडन और डेनमार्क जैसे देशों का पूंजीवाद पसंद है। भारतीय जनता पार्टी सीधे-सीधे अपनी प्रेरणा अमेरिकी ढंग के पूंजीवाद से लेने का जोखिम उठाती है। ये परंपराएं आज की नहीं है। कांग्रेस का पूरा नेतृत्व ही ब्रिटिश शिक्षित था और उनकी परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी का सिद्धांत साफ तौर पर पूंजीवाद का समर्थन करता है। वे पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था की अपनी प्राथमिकता को कभी छुपाते भी नहीं हैं।
प्रधानमंत्री मोदी की आर्थिक नीतियों का विरोध करने वाले बचकाने ढंग से केवल मोदी के आर्थिक ज्ञान पर ही सवाल उठा रहे हैं। वे ये नहीं बता रहे हैं कि अगर सत्ता में आएंगे तो उनकी आर्थिक नीतियां किस तरह इस पूंजीवादी आर्थिक ढांचे से भिन्न होंगी। केवल कुछ स्कूल बना देने या लोगों को थोड़ी मात्रा में बिजली-पानी मुफ्त देने भर से तो संविधान में शामिल किये गये समाजवाद की कल्पना सच नहीं होने वाली है।
भारत की अर्थव्यवस्था की जीडीपी वृद्धि दर यदि 10% से भी ज्यादा हो तो भी गरीबों को कोई विशेष लाभ होने वाला नहीं है। इसका पूरा लाभ अमीर और उच्च मध्यम वर्ग ले जाएंगे। ऑक्सफेम की ताजा रिपोर्ट से पिछले 30 वर्षों में बढ़ी आर्थिक असामनता साफ है। इसी बिंदु पर आकर प्रधानमंत्री मोदी की आर्थिक समझदारी को कमजोर बताने वाले लोगों की समझदारी और मंशा पर संदेह पैदा होता है। ये लोग जनता को ये नहीं बताना चाहते नहीं हैं कि मोदी की वास्तविक मंशा क्या है? जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने इशारों-इशारों में कई बार अपनी मंशा का संकेत दिया है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने कई सार्वजनिक भाषणों में साफ कहा है कि देश में अब केवल दो तरह के लोग रहेंगे, एक वे जो गरीब हैं और दूसरे वे जो उनकी गरीबी हटाने में किसी तरह की मदद कर सकते हैं। इससे साफ है कि प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं कि देश में या तो केवल सुपर रिच लोग हों या फिर सुपर पुअर। यानी इस देश में पढ़े-लिखे मध्यम-वर्ग की प्रधानमंत्री मोदी की आर्थिक कल्पना में कोई जगह और जरूरत नहीं है।
ये उच्च शिक्षित मध्यम वर्ग अच्छी और सुरक्षित नौकरियों और व्यवसायों में लगा है। यह भी पूरी तरह सही है कि पिछले 30 सालों में आर्थिक उदारीकरण से सबसे ज्यादा लाभान्वित भी यही उच्च शिक्षित मध्यम-वर्ग हुआ है। देश के गरीबों में इनके प्रति एक ईर्ष्या का भाव पहले से ही मौजूद था। वह जातिगत और आर्थिक कारणों से और तेजी से बढ़ा है।
प्रधानमंत्री और उनके समर्थक इस उच्च शिक्षित मध्यम-वर्ग की सामाजिक प्रतिष्ठा को धूल में मिलाने या उपहास करने का कोई भी मौका शायद ही कभी छोड़ते हैं। हावर्ड बनाम हार्डवर्क का जुमला इसका एक उदाहरण है। प्रधानमंत्री मोदी का डॉक्टरों के खिलाफ दिया गया अपमानजनक बयान भी इस मध्यम वर्ग की सामाजिक प्रतिष्ठा को ध्वस्त करने के विभिन्न कार्यों का ही एक अंग है। पूरे देश में इस तरह का सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषण विपक्षी दलों को पसंद नहीं आता है, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आर्थिक नीतियों की सतही मुखालफत की जा रही है।
नरेंद्र मोदी ने जन-धन योजना, उज्ज्वला योजना, शौचालय निर्माण, आयुष्मान योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना और किसानों को हर साल 6000 रुपये की किसान सम्मान निधि जैसी लोक-लुभावनी योजनाओं की घोषणा करके खुद को गरीबों का हितैषी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। प्रचार तंत्र के उपयोग से भी बार-बार अपनी गरीब पृष्ठभूमि का उपयोग जनता के मन में यह भरने के लिए करते हैं, कि वे उनके बीच से ही हैं। जन-धन योजना का प्रचार तो यह कहकर भी किया गया कि 70 सालों में गरीबों के वित्तीय समावेशन की दिशा में कोई काम ही नहीं किया। गरीब लोग तो बैंकों में अपना खाता खोलने के भी हकदार नहीं हो सकते थे।
मोदी सरकार ने मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया, 2022 तक सबको आवास देने के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी 90 से अधिक योजनाओं की घोषणा की थी। वास्तव में इनसे क्या लाभ हुआ ये एक अलग मुद्दा है लेकिन इन सभी का बहुत ज्यादा भावनात्मक असर पड़ा।
मध्यम-वर्ग का एक बड़ा तबका भी राष्ट्रवाद और इस्लामोफोबिया के मिले-जुले असर से भाजपा की आर्थिक नीतियों की मुखालफत करने से संकोच करता है। उसका मानना है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रीय सशक्तिकरण सबसे ऊपर हैं। ऐसे वर्ग का भावनात्मक शोषण करने में भी प्रधानमंत्री मोदी बहुत हद तक सफल हुए हैं। जब उन्होंने उज्ज्वला योजना से पहले सब्सिडी गैस छोड़ने का आह्वान किया तो एक करोड़ से ज्यादा लोगों ने गैस सब्सिडी छोड़ दी।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने गरीबों के लिए कुछ काम नहीं किया या कोई योजनाएं नहीं चलाईं। कांग्रेस की कई योजनाएं जैसे मनरेगा, खाद्य सुरक्षा कानून, शिक्षा का अधिकार कानून और इंदिरा आवास योजना भी संचालित होती रही है। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह से इन योजनाओं का नाम बदलकर और इनको एक इवेंट बनाकर अपनी निजी ब्रांडिंग के साथ जोड़कर उपयोग किया है। वैसा करने में कांग्रेस विफल रही। कांग्रेस के नेता अब न्याय योजना की वकालत कर रहे हैं। जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने यूनिवर्सल बेसिंग स्कीम के नाम से शायद इसका ब्लूप्रिंट पहले ही तैयार कर रखा है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में सही समय पर वे सभी को प्रतिमाह 12 से 15 सौ रुपये की निश्चित रकम सीधे खातों में देने की घोषणा भी कर दें।
सबसे खरी बात है कि कांग्रेस के नेतृत्व से गरीब मतदाता अपने को जोड़ कर नहीं देख पाता। गरीबों की इच्छाओं, आकांक्षाओं और अस्मिता के प्रतीक आज भले मोदी हों लेकिन इससे पहले चौधरी चरण सिंह, मुलायम सिंह, लालू यादव और मायावती जैसे नेता उसका प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी भी इस अस्मिता की राजनीति का बहुत चतुराई से उपयोग करके अपने लिए एक वोट बैंक बना चुके हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)