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भारत
राजनीति
भारतीय आर्किटेक्चर के लिए अलग-अलग विषयों के समायोजन का वक़्त?
यहां राष्ट्रीय महत्व की चार प्रस्तावित परियोजनाओं की स्थापत्य शैली का विश्लेषण किया गया है।
सुदेश प्रभाकर
01 Mar 2021
भारतीय आर्किटेक्चर के लिए अलग-अलग विषयों के समायोजन का वक़्त?

सभी तरह के मानवीय ज्ञान की तरह, स्थापत्य कला भी मानवीय सीखों को एक करने की कोशिश करता है। एडवर्ड ओ विल्सन की शब्दावलियों का इस्तेमाल करें, तो नई संसद और सेंट्रल विस्टा, राम जन्मभूमि मंदिर, अयोध्या मस्जिद और नव भारत उद्यान व प्रतिष्ठित संरचना, यह चार परियोजनाएं अलग-अलग विषयों की समग्रता का एक अहम मौका हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इन इमारतों में भारतीय स्थापत्य को दोबारा परिभाषित करने और नया सीखने में बिना ज़्यादा वक़्त गंवाए, अतीत के विचारों को हिला सकने का दम है।

यह चार परियोजनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए राष्ट्र के प्रतीक होंगे। बिल्कुल वैसे ही जैसे हम अतीत की महान इमारतों को देखकर उस दौर की राष्ट्रीय, धार्मिक, सांस्कृतिक और शक्ति की जगहों की पहचान करते हैं। लेकिन ऐसा करने के लिए सिर्फ़ नए मुहावरे गढ़ने की ही नहीं, उनकी व्याख्या करने की भी जरूरत है।

इन इमारतों की योजनाओं से राष्ट्रीय प्रतीक बनाने का विचार का कई तथ्यों से पता चलता है; पहला, यह सभी निर्माण किसी ना किसी तरीके से हमसे जुड़े हुए हैं। उदाहरण के लिए राजपथ देश की सबसे अहम सड़क है। दूसरा महान गलियारे (ग्रेट एक्सिस) का विस्तार यमुना के पश्चिमी किनारे तक किया जाएगा, जिससे अब इसकी सीमित भूमिका का विस्तार होगा। तीसरा, संसद का परिसर राजनीतिक अखाड़ा होता है। चौथा, अयोध्या हजारों साल से धार्मिक नगरी है और यहां की मस्जिद उस विकल्प का प्रतीक होगी, जो दो समुदायों के बीच एक सदी के तनाव से उभरा है।

यहां हर परियोजना के कुछ ऐसे मुद्दे भी हैं, जिनपर व्यक्तिगत ध्यान देने की जरूरत है। नीचे जो टिप्पणियां की गई हैं, वे इस लेख के लेखक द्वारा महीनों तक इकट्ठा की गई जानकारियों के आधार पर हैं। यह जानकारियां तबसे इकट्ठा की जा रही हैं, जबसे इन परियोजनाओं की बात सार्वजनिक तौर पर होना शुरू ही हुई है। 

नई संसद और सेंट्रल विस्टा

सेंट्रल विस्टा के शहरी फैलाव (अर्बन स्ट्रैच) को 2.9 किलोमीटर से 6.3 किलोमीटर तक बढ़ाने का प्रस्ताव है। मतलब राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट, राष्ट्रीय युद्ध स्मारक, राष्ट्रीय स्टेडियम, पुराने किले के हिस्सों से होते हुए यमुना के पश्चिमी घाट तक इसका विस्तार किए जाने की योजना है।

इंडिया गेट तक सेंट्रल विस्टा में कार्यालय बनाए जाने का प्रस्ताव है, यह वाशिंगटन डीसी में हिलबरसीमर के मेट्रोपॉलिस आर्किटेक्चर और पेंसिलवेनिया एवेन्यू की याद दिलाएगा। नए ढांचे में इन सिद्धांतों से दूर जाने की मंशा नहीं है और यह एक शहरी दृष्टिकोण को सामने लाता है।

यहां आईटी सेवाओं, भूमिगत आवागमन और सुरक्षा व्यवस्था को छोड़ दीजिए, तो नया निर्माण, मौजूद निर्माण की ही तस्वीर बनाता नज़र आता है, जबकि यह मौजूदा निर्माण जल्द ध्वस्त किए जाने की राह पर है। शहरी निर्माण स्थापत्य का ऐसा तरीका, जिसमें पुराने और नए निर्माण में कुछ अंतर होता, तो वह स्थापत्य के पेशे के लिए बेहतर होता। लेकिन दुखद तौर पर यहां ऐसा नहीं है। नया निर्माण और विकास 'ऐतिहासिक संबद्धता' की काल्पनिक अवधारणा को बनाए रखने की कोशिश कर रहा है।

नई संसद के लिए लुटियन की नियो-पालाडिअम शैली को अपनाया जा रहा है, लेकिन इसका खाका महान पालाडियो द्वारा बनाए गए सिद्धांतों के आधार पर खींचा जा रहा है। पालाडियो 16 वीं शताब्दी में इटली के महान स्थापत्य विशेषज्ञ थे, लुटियन्स और बेकर ने उन्हीं का अनुसरण किया। या यहां नया निर्माण एक मिला-जुला तरीका है? ऐसा लगता है जैसे हम अब भी औपनिवेशिक ढांचे का पालन कर रहे हैं। 1947 के गुजरने के लंबे अरसे बाद भी हम अपने राष्ट्रीय प्रतीकों को सौंदर्य गढ़ने का तरीका उधार ले रहे हैं। स्थापत्य अभिव्यक्ति की नकल इमारतों की भव्यता कम करेगी।

संसद के नए परिसर को त्रिभुज आकार का प्रस्तावित कर एक प्रतीकात्मक संकेत देने की कोशिश की गई है। स्थापत्यविदों को प्रशिक्षण में बताया जाता है कि त्रिभुज हर धर्म का बुनियादी तत्व होता है। लेकिन चतुर्भुज, वृत्त और अष्टभुज के साथ भी ऐसा ही है। बल्कि प्रस्तावित संसद असल में एक अनियमित षट्भुज (6 भुजाओं वाली बंद आकृति) है। यह कोई मंदिर नहीं बल्कि हमारी संसद है। 

अगर नया परिसर त्रिभुजाकार है भी, तो जरूरी नहीं है कि नई संसद भी ऐसी ही आकृति की हो। यह कोई नियम नहीं है कि इमारत को परिसर के हिसाब से आकार दिया जाना चाहिए। 

मौजूदा संसद वृत्ताकार है, जिसका आधार त्रिभुजाकार है, जिसमें कॉलम बाहर की तरफ निकले हुए हैं। यह ग्रीक स्टोस, पुनर्जागरण के दौर की स्थापत्य शैली, 20वीं शताब्दी के शुरुआत की जर्मनी और इस स्थापत्य शैली के झंडाबरदार बेकर की याद दिलाती है। यह मुख्य बात यह है कि लुटियंस और बेकर की शैली के केंद्र में लोकतंत्र नहीं था, जबकि इसी शैली के आधार पर हमारी मौजूदा संसद बनाई गई थी। 

जहां तक बाहरी और आंतरिक शैली की बात है, तो पालाडियो-लुटियंस-बेकर शैली में बनी इमारतों यहां एकरूपता मिलती है। इन इमारतों में चलते हुए समानांतर निर्माण और एकरूपता मिलना स्वाभाविक है। लेकिन प्रस्तावित नई संसद के आंतरिक हिस्से के साथ ऐसा नहीं है।

नई संसद पर उपलब्ध तमाम लेखन सामग्रियों के आधार पर लेख का लेखक इस नतीज़े पर पहुंचता है कि हम एक ऐसा निर्माण कर रहे हैं, जो निश्चित तौर पर 'नुओवो मिशरन' या नई मिश्रित शैली कही जा सकती है।

डच स्थापत्य/योजनागत् फर्म, XML अपनी किताब 'पार्लियामेंट' में 193 तरह की संसद इमारतों का जिक्र करती है। किताब कहती है, "स्थापत्य हमारी सामूहिकता के ढांचे पर पुनर्विचार में क्या भूमिका अदा कर सकता है? क्या संसदों का स्थापत्य किसी दूसरी तरह की राजनीति का उद्भव कर सकता है?"

यह महज कोई उन्माद नहीं है, बल्कि स्थापत्य के सामने अध्ययनगत् चुनौती है। आज स्थापत्य क्या दे सकता है? स्थापत्य अलग-अलग विषयों की सीखों को आपस में जोड़कर ज्ञान की व्यापकता और स्थापत्य शैली के फलक को बढ़ा सकता है।

राम जन्मभूमि मंदिर

यह लेखक मंदिरों को दो तरीके से देखता है। पहला वे मंदिर हैं, जो किसी एक जगह से अध्यात्मिक शक्ति का प्रवाह करते हैं। दूसरे वे मंदिर हैं, जो किसी एक जगह पर अध्यात्मिक शक्ति का प्रवाह करते हैं। पहले प्रकार में किसी बड़े विमर्श या जनमान्यता के बाद कोई मंदिर बनाया जाता है। वहीं दूसरे प्रकार में मंदिरों की योजना आंतरिक व बाहरी, दोनों ही स्तर पर जटिल रेखागणित के ऊपर आधारित होती है, जहां भक्त को देवताओं के साथ जोड़ने के लिए बड़े स्तर का दृष्टिगत संरेखन अपनाया जाती है। 

किसी मंदिर में अहम बात देवता और भक्त के बीच संबंध को स्थापित करने का होता है।  

पहले प्रकार के मंदिर में भक्त गर्भग्रह में पहुंचता है, वहां आशीर्वाद पाने के लिए झुकता है और बाहर निकल जाता है। यहां बिल्कुल साधारण, पर कई बार सुंदर प्रक्रिया होती है। जबकि दूसरी तरह के मंदिर में एक निश्चित पथ होता है, जहां केंद्रीय जगह पर पहुंचने के लिए प्रबल ध्यान केंद्रित होता है। यहां रेखागणित के नियम निर्माता और यात्री के बीच संबंध केंद्रित करने के लिए काम करते हैं।

राम जन्मभूमि मंदिर को जाने-माने विशेषज्ञों ने बनाया है। यह शैली इन विशेषज्ञों द्वारा हाल में प्रचलित तरीकों पर आधारित है। इन विेशेषज्ञों द्वारा हाल में निर्मित कई विश्व-विख्यात मंदिरों से भी यह स्पष्ट होता है। इन विशेषज्ञों को इस तरह की इमारतों का निर्माण करने में अनोखा ज्ञान प्राप्त है। राम मंदिर में इसकी अपनी विशेषता और भगवान राम के बाल्यकाल का अहसास केंद्र में रहने वाल मुख्य मुद्दा रहेगा।

जिस तरह से मंदिर निर्माण प्रस्तावित है और विशेषज्ञों ने जिन तकनीकों को इस्तेमाल किया है, उससे मंदिर में भगवान राम की "जन्म संबंधी अहसास वाली विशेषता" की कमी नज़र आती है। शायद दीवारों पर चित्र या तस्वीरें इस कमी को पूरा कर सकें। लेकिन अगर ऐसा होता है, तो निश्चित ही यह देवता और भक्त के बीच नज़रों के मेल में भटकाव पैदा करेगा। 

प्रस्तावित मंदिर में अलग-अलग तरह की निर्माण सामग्री का इस्तेमाल ना करने का फ़ैसला जानबूझकर लिया गया है। खास शैली और उसके कार्य में किसी तरह के बदलाव से भी बचा गया है। यहां शैली का मुख्य उद्देश्य मंदिर को भगवान राम की जन्मस्थली के तौर पर व्यख्या करना है। हालांकि अच्छे महान निर्माता, निर्माण शैली में बदलाव कर सकते थे। ऐसा करने से भारत में मंदिर निर्माण के सिद्धांतों में व्यापकता आती। इसलिए यह मंदिर भी 'नुओवो मिशरन' शैली का एक उदाहरण समझ आता है। किसी मंदिर को संग्रहालय के तौर पर पेश करने से भक्त-देवता के बीच आंखों के मेल का उद्देश्य बाधित होगा। साथ ही भक्त के लिए आंतरिक जुड़ाव के अहसास में प्रबलता की कमी होगी।

अयोध्या/धन्नीपुर मस्जिद

भारत में निर्मित मस्जिदें, खासकर शाहजहां ने जिनका निर्माण करवाया, वे दृष्टिगत संरेखण के सिद्धांत पर बनी थीं। यह ऐतिहासिक तौर पर स्थापित सिद्धांत है। आगरा किले की मोती मस्जिद इसका एक उदाहरण है, शाहजहां के शासनकाल में ऐसी और भी ख्यात मस्जिदें बनीं। 

प्रस्तावित मस्जिद परिसर का निर्माण अतीत से अलग है। इस शैली में रेंजो पियानो, डेविड अड्जाये घराने की अभिव्यक्तियों को शामिल करने की कोशिश की गई है। मस्जिद ने अपना परिसर स्थानीय-विशेष कार्यक्रमों के लिए खोला है और यहां संपन्न करवाए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में भी फेरबदल किया है। प्रस्तावित मस्जिद की शैली भारत में मस्जिद निर्माण की शैली के विचार से अलग है।

मस्जिद निर्माण से संबंधित साहित्य और स्थापत्यविदों द्वारा बताए गए तथ्यों के आधार पर समझ आता है कि इस योजना में कई दूसरे निर्माण और कार्य (जैसे अस्पताल) भी शामिल हैं। यहां मस्जिद और इन दूसरे कामों में अलगाव पर दिया गया जोर ज़्यादा चिंताजनक है। खुद मस्जिद भी इसके परिसर में प्रस्तावित दो इमारतों से कमतर समझ आती है।

कई सवाल उठते हैं: क्या मुख्य इमारत महज़ एक स्थिर मुखौटा होगी या आपसी संपर्क वाली कोई जगह के तौर पर बर्ताव करेगी? क्या इस नई इमारत में वे अभिव्यक्तियां होंगी, जिसके आधार पर इस मस्जिद परिसर को देश की नई मस्जिदों के निर्माण के लिए नमूने के तौर पर देखा जा सकेगा? क्या प्रस्तावित अस्पताल को मस्जिद के पास होना चाहिए और उस ज़मीन को घेरना चाहिए, जो अस्पताल के उद्देश्य के लिए नहीं है? 

नव भारत उद्यान और प्रतिष्ठित संरचना 2020

विस्टा एक्सिस का यमुना नदी के पश्चिमी तट पर नया विस्तार प्रस्तावित है, जिसे नव भारत उद्यान परिसर कहा जाएगा, जिसके लिए 20 एकड़ ज़मीन दी गई है। इसमें कई सारी मनोरंजक, सांस्कृतिक और व्यापारिक गतिविधियां होंगी। इस उद्यान के केंद्र में अशोक स्तंभ की तरह 134 मीटर ऊंची प्रतिष्ठित संरचना होगी।

CPWD ने स्तंभ और इसके ढांचागत सिद्धातों के लिए एक प्रतिस्पर्धा भी आयोजित की थी। CPWD के मुताबिक़, यह निर्माण ऐसी सामग्री से होना चाहिए, जो कई शताब्दियों तक टिका रहे। इस प्रोजेक्ट के लिए 500 करोड़ रुपये का बजट रखा गया है।

राजपथ का विस्तार नेशनल स्टेडियम को हटा देता है, यह पुराना किला परिसर से होकर यमुना के पश्चिमी किनारे तक पहुंचता है। इस इमारत और स्तंभ का निर्माण आजादी के 75 वें साल के लिए हो रहा है, इसलिए इस परिसर को राष्ट्र का प्रतीक माना जा सकता है। यमुना से लगा यह परिसर कई भवन परिसरों को समायोजित करेगा और बड़े गलियारे का हिस्सा होगा।

इस बात पर गौर करना जरूरी है कि यहां पूरा ध्यान अंग्रेजों से आजादी के बाद के दौर पर केंद्रित है। पहले हम हजारों साल की सभ्यता थे, अब अचानक हमें याद दिलाया जाता है कि हमने आज़ादी की 10वीं, 25वीं, 50वीं और अब 75वीं वर्षगांठ पर क्या हासिल किया! हर गुजरता साल एक मील का पत्थर है, जिसमें मुल्क के हासिल का जश्न मनाया जाना है और यह हासिल ना केवल खुद के लिए बल्कि पूरी मानवता के लिए है।

इन इमारतों के लिए दी गई कम निर्माण अवधि का मतलब है कि हमें "पोस्ट-कंस्ट्रक्शन सिंड्रोम" के लिए तैयार रहना होगा। ऐसी कई इमारतें मौजूद हैं, जो खुद इस चीज को भोगती हैं और इनमें गुजर-बसर करने वालों को दुख पहुंचाती हैं।

शहरी और स्थापत्य तरीकों की अब अलग शब्दावलियां हैं। दुनियाभर में पुराने सिद्धातों को चुनौती दी जा रही है। यह एक अहम मौका है जब देश को भव्य प्रतीकों से नवाजा जाए। स्थापत्यविदों को शांति की धारणाओं, गलत या खुद के विवेक से बनाए गई धार्मिक अवधारणाओं और अपने द्वारा बनाई गई ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बजाए, स्थापत्यविदों को खुद को व्यक्त करने का मौका दिया जाना चाहिए था।

सांस्कृतिक, क्रियान्वयन और राजनीतिक आयामों से रहित कोरा कागज़ सृजनात्मक स्वतंत्रता की अनुमति देगी। यह इमारतें आने वाले वक़्त में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आयामों से संबंधित प्रतीकों के निर्माण का काम करेंगी। इसलिए यह क्षण समन्वित घटनाओं को समेटे हुए हैं। नहीं तो आप आराम से इन्हें "नुओवो मिशरन" कहकर छोड़ सकते हैं।

लेखक 1978 से दिल्ली में आर्किटेक्ट हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Moment of Consilience for Indian Architecture?

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