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मी लॉर्ड!, सवाल शाहीन बाग़ के रास्ते का नहीं, देश के रास्ते का है कि देश किस तरफ़ जाएगा?
मध्यस्थ के पास हमेशा बीच का रास्ता होता है। बात मानने की एवज में कुछ देने का विकल्प या अधिकार होता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इन वार्ताकारों या मध्यस्थों के पास आदेश रूपी सुझाव के अलावा कुछ भी नहीं!
मुकुल सरल
22 Feb 2020
shaheen bagh

सुप्रीम कोर्ट की ओर से तैनात दो वरिष्ठ वकीलों को वास्तव में क्या कहा जाए?, वार्ताकार? मध्यस्थ? क्या ये लोग वाकई समस्या सुलझाने आए हैं? लेकिन कैसे, ये दोनों सरकार या सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से क्या आश्वासन लेकर आए हैं? इनके पास क्या प्रपोजल/ऑफर या अधिकार है? मध्यस्थ के पास हमेशा बीच का रास्ता होता है। बात मानने की एवज में कुछ देने का विकल्प होता है कि अगर आप ये करेंगे तो हम ये करेंगे। मसलन अगर आप शाहीन बाग़ से धरना उठा लेते हैं तो सुप्रीम कोर्ट तीन या छह महीने में सीएए की सुनवाई पूरी करके फ़ैसला दे देगा, या कोर्ट, सरकार को ये निर्देश देगा कि वह तत्काल अपने नुमाइंदे आंदोलनकारियों के बीच भेजे और उनकी बात सुनकर उसका हल निकाले।

हालांकि सुनने-सुनाने को कुछ बचा नहीं है क्योंकि आंदोलनकारियों की एक ही मांग है कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) वापस लिया जाए और एनआरसी का विचार छोड़ दिया जाए, और ये बात या मांग सरकार समेत सबको पता है। सरकार को तो इस क़दर पता है कि उसके नुमाइंदे यानी उसकी पार्टी दिल्ली का पूरा चुनाव इसके ईर्द-गिर्द बुनती और लड़ती है और शाहीन बाग़ को देेशद्रोहियों का अड्डा तक बता देती है। उसके मंत्री-नेता करंट लगाने से लेकर 'गोली मारो...’ तक का आह्वान करते हैं।

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इसे भूल भी जाएं तो सीएए-एनआरसी की क्रोनोलॉजी समझाने वाले और 'एक इंच भी पीछे न हटेंगे' कहने वाले गृहमंत्री जब दिल्ली चुनाव में बुरी हार के बाद एक टेलीविज़न चैनल पर ये बयान देते हैं, "जो कोई भी सीएए से जुड़े मुद्दों पर मुझसे चर्चा करना चाहता है मेरे कार्यालय से समय ले सकता है। हम तीन दिनों के अंदर समय देंगे।" और जब उनसे बातचीत के लिए आंदोलनकारी उनके दफ़्तर की तरफ़ पैदल मार्च करते हैं तो उन्हें रोक दिया जाता है।

इसी समय प्रधानमंत्री अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में सार्वजनिक सभा में कहते हैं कि तमाम दबाव के बावजूद उनकी सरकार फ़ैसले पर अडिग है। वे कहते हैं, ‘चाहे अनुच्छेद 370 पर फ़ैसला हो या फिर नागरिकता संशोधन कानून पर फ़ैसला हो, यह देश हित में ज़रूरी था। दबाव के बावजूद हम अपने फ़ैसले के साथ खड़े हैं और इसके साथ बने रहेंगे।' तो अब जब पुनर्विचार की ही गुंजाइश नहीं छोड़ी जा रही तो क्या बातचीत, किससे बातचीत, कैसी बातचीत? किससे उम्मीद की जाए!

सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त वार्ताकार तो सिर्फ़ रास्ते पर अड़े हैं कि कैसे रास्ता खुलवाया जाए, लेकिन वे यह नहीं बता रहे कि देश के रास्ते का क्या?, कई आंदोलनकारियों ने सीएए-एनआरसी के संदर्भ में वार्ताकारों से सवाल भी पूछना चाहा, लेकिन उनके पास केवल एक ही जवाब है कि ये विषय उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं। वे सिर्फ़ रास्ता खुलवाने पर बात करने आए हैं। उनके पास कोई दिलासा नहीं, कोई आश्वासन नहीं, उनके पास एक सुझाव है कि धरना-आंदोलन कहीं और शिफ्ट कर लिया जाए और एक भावुक जुमला कि 'सबसे बड़ा रास्ता दिल का रास्ता है, उसे खोलिए। आप शुरुआत कीजिए, देखिए कितने दिल के रास्ते खुलेंगे।'

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लेकिन हक़ीक़त इसके उलट है और ये सुप्रीम कोर्ट और उसके वार्ताकार भी जानते हैं कि दिल के रास्ते किसने बंद कर रखे हैं! इसके अलावा यह धरना आंदोलन सरकार की आंखों में गड़ ही इस वजह से रहा है कि ये रास्ते पर है और इसकी वजह से देशभर में प्रतिरोध के कई और 'शाहीन बाग़' खड़े हो गए हैं। सरकार की नज़र में इससे एक बड़ी आबादी की आवाजाही प्रभावित हो रही है। हालांकि इसमें भी पुलिस की भूमिका सवालों के घेरे में है।

लेकिन अगर इसे मान भी लिया जाए और इस धरना-आंदोलन को किसी कोने या पार्क में शिफ्ट कर दिया जाए (सही सरकारी शब्दों में कहें कि 'फेंक' दिया जाए) तो क्या आपको फ़र्क पड़ेगा! नहीं, बिल्कुल नहीं, किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। आप देते रहिए सालों-साल धरना। करते रहिए आंदोलन। जंतर-मंतर तक पर ऐसे ही कई आंदोलनकारियों की उम्र गुज़र गई। बाल सफेद हो गए, लेकिन उनकी सुनवाई नहीं हुई। ऐसे एक नहीं कई उदाहरण हैं जब जनता के शांतिपूर्ण आंदोलनों को अनदेखा कर दिया गया या बेरहमी से कुचल दिया गया। मणिपुर की इरोम शर्मिला तो अपनी जान पर ही खेल गईं। करती रहीं 'अफस्पा' के ख़िलाफ़ सालों साल अकेली आमरण अनशन, लेकिन किसी को कोई फ़र्क़ पड़ा क्या?

ख़ैर, शाहीन बाग़ का रास्ता तो आज नहीं कल खुल जाएगा, लेकिन देश के आगे सीएए-एनपीआर-एनआरसी का जो अवरोध लगा दिया गया है, वो कैसे हटेगा, देश का रास्ता कैसे खुलेगा। जिस देश को सत्ताधारी ही हिन्दू-मुसलमान में बांटने की कोशिश कर रहे हैं, जहां धर्म ही नागरिकता का आधार बनाया जा रहा है, वह देश किस रास्ते पर और कैसे आगे बढ़ेगा। सवाल देश और देश के भविष्य का है और भविष्य निश्चित तौर पर देश की 130 करोड़ जनता है, जिसमें दिल्ली का शाहीन बाग़ भी शामिल है तो लखनऊ का घंटाघर और उजरियांव भी। इलाहाबाद का रौशन बाग़ भी शामिल है तो कोलकाता का सर्कस मैदान भी। महाराष्ट्र भी शामिल है तो कर्नाटक भी और तमिलनाडु, केरल भी।

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पहली नज़र में सुप्रीम कोर्ट की पहलक़दमी का स्वागत किया जा सकता है। ऐसे मुश्किल समय में इतना भी बहुत लगता है, लेकिन यही सुप्रीम कोर्ट सीएए को लेकर इस कदर उदासीन है कि इस मुद्दे को सुनने के लिए भी प्राथमिकता के आधार पर तुरंत समय नहीं निकाल पा रहा है। कभी सर्दियों की छुट्टियों के बाद, कभी होली की छुट्टियों के बाद सुनवाई की बात की जा रही है।

आज हम खुश हो सकते हैं सुप्रीम कोर्ट ने दो वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े और साधना रामचंद्रन आंदोलनकारियों के बीच वार्ता के लिए भेजे, और वे काफी संवेदनशीलता से बात भी करते और समझते दीख रहे हैं। उनके पास धरना-आंदोलन कहीं और ले जाने के कई सुझाव हैं। लेकिन अगर बात नहीं बनी तो सुप्रीम कोर्ट की यही पहलक़दमी उसकी सख़्ती का बहाना भी बन सकती है और उस समय शायद आप भी या तो ताली बजाएं, सहमति जताएं या ख़ामोश हो जाएं, मन में ये धारणा लिए कि "देखिए कोर्ट ने तो बहुत कोशिश की लेकिन 'यही लोग' नहीं माने, इसलिए अब क्या विकल्प था, सख़्त कार्रवाई के सिवा।"

इसे भी पढ़े : शाहीन बाग़ आंदोलन : क्या वार्ताकार खत्म कर पाएंगें गतिरोध?

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Protest against NRC
Sanjay Hegde
Sadhana Ramachandran
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