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कला प्रेमी समाज के लिए चाहिए स्तरीय कला शिक्षा: आनंदी प्रसाद बादल
"अब पटना में लगने वाली कला प्रदर्शनियों को ही ले लीजिए, उनमें कलाकारों की तो उपस्थिति रहती है, लेकिन कला प्रेमी समाज कहां रहता है? जब कला प्रेमी ही नहीं है तो कला के खरीदार कहां से आयेंगे? "
डॉ. मंजु प्रसाद
06 Dec 2020
आनंदी प्रसाद बादल अपनी पत्नी के साथ
आनंदी प्रसाद बादल अपनी पत्नी के साथ। फोटो : मंजु प्रसाद

'मैं हूं बादल' शीर्षक है आनंदी प्रसाद बादल की कविता का। जो जीवन के गहरे सच का एहसास करा ही देती है। कवि हृदय वरिष्ठ कलाकार आनंदी प्रसाद बादल को उनकी पुरानी परंपरागत आकृतिमूलक चित्रण शैली  और आधुनिक अमूर्त चित्रण शैली के आधार पर देश के महत्वपूर्ण चित्रकारों में शुमार किया जा सकता है। उनके ढेर सारे चित्रों को कई बार देखने का सुअवसर मिला। जिन्हें वे बाल सुलभ अंदाज में दिखाते हैं। उनकी विशेषता है कि वे निश्छल ढंग से स्वीकार करते हैं  कि  उन्हें कहां-कहां से प्रेरणा ली है। यह बहुत बड़ी बात है।

उनसे मेरा सर्वप्रथम परिचय 2001 में मेरी एकल चित्र प्रदर्शनी में हुआ, जो कला एवं शिल्प महाविद्यालय पटना में चल रही थी। स्नातक के बाद की पढ़ाई के लिए ज्यादातर मेरे बिहार से बाहर रहने के कारण कई वरिष्ठ कलाकारों को मैं नहीं पहचानती थी। मेरे चित्र अभिव्यंजनावाद और अमूर्त अभिव्यंजनावाद से प्रभावित थे जिसमें मैंने रंगों रेखाओं और टेक्सचर का इस्तेमाल निर्भिकता से किया था। अतः सीधे-सरल आनंदी प्रसाद बादल मेरे चित्रों को पसंद करेंगे ऐसी मेरी आशा नहीं थी। परन्तु इसके विपरीत बादल जी ने मेरी कृतियों को बहुत पसंद किया। जो मेरे लिए बहुत उत्साह-जनक रहा। यही खास बात है आनंदी प्रसाद बादल जी में कि वे नवीन कला शैली और नये कलाकारों में सदा रूचि लेते रहे हैं। शायद उनमें यह विशिष्टता समकालीन भारतीय कला परिदृश्य से थोड़ी दूरी की वजह से ही आयी।  क्योंकि लंबे समय तक वे खादी ग्रामोद्योग में कार्यरत थे। मेरी उनसे कला के ऊपर अक्सर बातचीत होती रही है। आज भी समकालीन कलाकारों के कृतियों पर उनके विचार बड़े सटीक होते हैं।

आनंदी प्रसाद बादल का जन्म 11 जनवरी, 1933 में पूर्णिया जिले (बिहार) के श्रीपुर गांव में हुआ था जो कि कोशी नदी के कछार क्षेत्र में था। आनंदी प्रसाद बादल ने 1954 में कला एवं शिल्प महाविद्यालय पटना में दाखिला लिया था और 1956 में ललित कला में स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी। उपेन्द्र महारथी जैसे प्रख्यात मूर्तिकार के सानिध्य में उन्हें कला सृजन करने का मौका मिला। उपेन्द्र महारथी वाश शैली में सिद्धहस्त थे। बटेश्वर नाथ उनके गुरु थे,जिनसे उन्होंने टेम्परा चित्र शैली सीखी। फलस्वरूप बादल जी ने टेम्परा और वाश शैली में बहुत सारे चित्र बनाए। राधामोहन बाबू से उन्होंने शबीह चित्रण शैली सीखी। जिसके कई उत्कृष्ट उदाहरण उनके निवास स्थल के अतिथि कक्ष में टंगे हुए हैं।

 पनघट की ओर , कागज पर टेम्परा चित्रकार: आनंदी प्रसाद बादल

बादल जी के एक भीषण अग्निकांड में लगभग 1600 अमूल्य चित्र नष्ट हो गये। इसके साथ बहुत सारी पुस्तकें, रंग-ब्रश एवं अन्य कला सामग्रियां भी राख हो गईं। परंतु अपने प्रियजनों और शुभाकांक्षियों विशेष कर पटना के कला प्रेमी श्री  विवेकानंद जी ने उन्हें कला सामग्री उपलब्ध करा कर उनकी हिम्मत को बढ़ाया।

एक चित्रकार निरंतर सृजनशील है और यथार्थ चित्रण पर भी उसकी पकड़ है तो उसकी चित्रण शैली कौन सा रूप लेगी यह आप नहीं निश्चित और निर्धारित कर सकते। स्वतंत्रता पश्चात देश के कलाकार बाहर जाने लगे। पाश्चात्य कला शैली का आकर्षण व प्रभाव से पहले ही प्रभावित थे भारतीय कलाकार। यह स्वाभाविक ही था। विश्वभर‌ की कला शैलियों, लोककला शैलियों ने अपने अनोखेपन व सौंदर्य दृष्टि के कारण मान्यता प्राप्त कर ली। भारतीय टेम्परा चित्रण शैली, लघुचित्रण शैली ने विश्व कला में अपनी पहचान बनाई। भारतीय कलाकारों को भी आधुनिक चित्रण शैली ने प्रभावित किया। वे भी नये रंगों, रेखाओं, तूलिका घात की तलाश में, अपने को परम्परावादी चित्रण शैली की बंधी हुई आकृतिमूलकता, निरंतर पुनरावृत्त होने वाले रंग संगति के दोष से बचने के लिए एक्सपेरिमेंटल कला सृजन करने लगे।

आनंदी प्रसाद बादल को भी विदेश जाने का मौका मिला। वे स्वीकार करते हैं कि कला शिक्षा पूर्ण करते ही उन्हें जापान और फिलिपिंस जाने का मौका मिला। जहां उन्हें आधुनिक कला को देखने और जानने का अवसर मिला। यहीं से उनकी कला ने नया मोड़ लिया और वे अमूर्त चित्रण शैली से बेहद प्रभावित हुए।

इतिहास गवाह है कि भारत भूमि आरंभ से ही कला और संस्कृति के लिए उर्वर भूमि रही है। भारतीय कलाकारों ने विश्व कला शैलियों से प्रेरणा ग्रहण की है और अपनी कला को परिष्कृत किया है। रही बात चित्रकला में आकृति मूलकता या अमूर्तन की वर्तमान समय में ये कलाकार की अपनी पसंद मानी जा रही है। बादल जी वरिष्ठ कलाकार हैं उन्होंने लंबे समय तक परंपरागत विषयों और शैली में कला सृजन किया है। आरंभ में वे तैल रंगों में शबीह चित्रण, टेम्परा और वाश शैली में ग्राम्य परिवेश पर चित्रण करते थे। उपेन्द्र महारथी से उन्होंने वाश चित्रण सीखा और बटेश्वर नाथ से टेम्परा। पोट्रेट में राधा मोहन बाबू थे ही। इन कला महारथियों के प्रभाव में उन्होंने बहुत सारे चित्र बनाए। परंतु जैसे ऊपर बताया कि एक भीषण अग्निकांड में उनके लगभग 1600 अमूल्य चित्र भस्म हो गये।

दुःख और विषाद के बावजूद अपने प्रिय और आत्मीय जनों के सहयोग से उन्होंने पुनः चित्रण शुरू किया। संभवतः यहीं से वे अमूर्तन‌ की ओर अभिमुख हुए।

प्रकृति समेत अपने आंतरिक भावनाओं को विशुद्ध रंगों और आकारों में चित्रित करने के प्रयास में ही प्रथम विश्व युद्ध के बाद अमूर्त चित्रण शैली का प्रादुर्भाव भी हुआ। 19वीं के अंत में  विश्वयुद्ध के भीषण और त्रासदी पूर्ण भयावह परिणाम हुए जिससे आम जनता के साथ साथ कलाकार भी प्रभावित हुए। कला के नियमों और सिद्धांतों पर कलाकारों का स्वतंत्र चिंतन होने लगा। नवीन वैज्ञानिक आविष्कारों ने भी उन्हें प्रयोगधर्मी बनाया। 1912 में रशियन कलाकार वासिली कान्डिन्स्की ने अपने विचारों को शाब्दिक रूप देने के लिए अपनी पुस्तक प्रकाशित की ' कला में आत्मिकता' , जिसमें उन्होंने कला को भौतिकवाद से दूर करते हुए अपनी आंतरिक भावनाओं से जोड़ने पर जोर दिया।

उन्होंने संगीत के समान चित्रकला को वाह्य बंधनों से मुक्त करते हुए रंगों और रेखाओं में अपनी पहला अमूर्त चित्र 1910 में बनाया। जिससे उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली। अमूर्त चित्रण शैली का प्रयोग भारतीय कलाकारों ने बहुत बाद में किया। यद्यपि जैन कला में तंत्रचित्र के नाम पर ज्यामितीय आकारों में बहुत पहले से ही चित्रण किया जा रहा था।

आनंदी प्रसाद बादल अपने शुरुआती चित्रों में आकृतियों के ‌मोह से मुक्त नहीं होते‌ हैं। परंतु वर्तमान समय के चित्र वास्तव में वस्तु निरपेक्ष कला के सुंदर उदाहरण हैं जिनमें उन्होंने एक्रेलिक रंगो और तूलिका घात का अभूतपूर्व प्रयोग किया। हालांकि उनकी तैल रंगों पर भी अच्छी पकड़ है। मुझे और श्याम (सिंह) कुलपत को कई बार उनके घर जाकर उनकी छोटी सी सुविधाहीन स्टुडियो में चित्रावलोकन करने का अवसर मिला है। आनंदी जी 93 वर्ष के हो चुके हैं लेकिन उनमें कला सृजन का जज्बा युवा कलाकारों से ज्यादा है। उनके चित्र चाहे मूर्त आकृति मूलक हों या अमूर्त वे तत्कालीन, समाज और व्यक्ति विशेष का ही चित्रण हैं जो अभिव्यंजनात्मक रूप में गूढ़ ढंग से प्रकट होते रहते हैं। उन्होंने विश्व व्यापी आतंकवाद, राजस्थान में भूकंप से हताहत हुए असंख्य लोगों और गुजरात दंगों पर चित्र शृंखला बनाई जो उनके मानवीय और संवेदनशील होने का परिचायक है।  अमूर्त चित्रण के साथ एक बात ये भी है कि आपमें अगर सौंदर्य बोध (एस्थेटिक सेंस) नहीं है तो आप उसका अनुभूत नहीं कर सकते, आनंद नहीं ले सकते। आम लोगों में संप्रेषण की समस्या तो होती ही है।

आनंदी प्रसाद बादल की कला का एक दूसरा पक्ष है कि उनकी छात्र जीवन से ही हिन्दी साहित्य और नाटक में भी गहरी रुचि रही है। हिन्दी के दिग्गज साहित्य कार आचार्य शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, फणीश्वर नाथ रेणु आदि से उनकी घनिष्ठता थी। वे कविताएं खूब लिखते हैं। जो समय-समय पर पुस्तक रूप में प्रकाशित हुईं ।

आनंदी प्रसाद जी ने अपने कला जीवन में खुद को स्थापित करने में एक संघर्षमय रास्ता तय किया है। इसलिए युवा कलाकारों के प्रति उनका रवैया बहुत ही संवेदनशील और सहानुभूति पूर्ण रहा है। खास कर बिहार के युवा कलाकारों के वे हमेशा मददगार और परोपकारी रहे हैं।

बिहार के कला परिदृश्य पर उनकी स्पष्ट दृष्टि एक समीक्षक समान रही है। मैंने पाया है कि कला पर उनका सार्थक और समीक्षात्मक वक्तव्य रहता है।

फोक आर्ट पिडिया पर कलाकार रविन्द्र दास को दिये साक्षात्कार में उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं। जैसे

- " अलग-अलग प्रदेशों में रह रहे बिहार के कलाकार अपना नाम खूब रोशन कर रहे हैं। राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी। वो खूब कला सृजन कर रहे हैं। पूर्व में भी यहां जो कलाकार रहे वे जीवन भर पोट्रेट बनाते रहे। आप गौर कीजिए राधामोहन बाबू अच्छे कलाकार होते भी आगे नहीं बढ़ पाये। श्यामानंद बहुत आगे नहीं बढ़ पाये। जबकि दूसरे प्रदेश से आए कलाकारों ने बिहार को अपनी कर्मभूमि बनाया और चमके भी। जैसे उपेन्द्र महारथी उड़ीसा से, विरेश्वर बाबू बंगाल से, श्याम शर्मा, पाण्डेय सुरेन्द्र, बटेश्वर नाथ उत्तर प्रदेश से ...। पटना आर्ट्स कालेज के ज्यादातर प्रिंसिपल बाहर के प्रदेशों से रहे। वर्तमान प्रिंसिपल भी उत्तर प्रदेश से है। क्या बिहार का कोई भी कलाकार यह साबित नहीं कर पाया कि उनमें प्रिंसिपल बनने क्षमता है? अपने इस सवाल को और स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा, '' यह विचारणीय प्रश्न है। मुझे लगता है इन सबकी एक वजह यह भी रही है कि बिहार के कलाकारों को न तो सामाजिक स्तर पर प्रोत्साहन मिला है, न ही सरकार की ओर से प्रशासनिक स्तर पर बिहार के कलाकारों के हित में न्याय हुआ। ऐसा आर्ट्स स्कूल की स्थापना के समय से ही रहा है। पटना आर्ट्स कालेज को अच्छे शिक्षक चाहिए उनकी नियुक्तियां कहां है? बिहार में वह कला प्रेमी समाज विकसित-शिक्षित ही नहीं हुआ जिससे कला संपोषित होती है। प्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजीत रे का कथन है, " एक स्तरीय कला फिल्म को समझने के लिए अभ्यस्त संवेदनशीलता की जरूरत है।" स्पष्ट है यहां अभ्यास और अभिरूचि का प्रश्न है। ये कला दृष्टि से सम्पन्न और अकादमिक शिक्षण से ही एक कला प्रेमी समाज विकसित होगा। आनंदी जी के अनुसार "आज भी उस समाज का अभाव है।"

बिहार के नागरिक समाज को लेकर उनका सवाल है , "अब पटना में लगने वाली कला प्रदर्शनियों को ही ले लीजिए, उनमें कलाकारों की तो उपस्थिति रहती है , लेकिन कला प्रेमी समाज कहां रहता है? जब कला प्रेमी ही नहीं है तो कला के खरीदार कहां से आयेंगे? "

सचमुच बादल जी ने कलाकारों के हित में बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठायें हैं। उन्हें साधुवाद!

बहरहाल आनंदी प्रसाद बादल ने अपने कला जीवन में बहुत सारी उपलब्धियां हासिल की हैं। देश विदेश में महत्वपूर्ण जगहों पर उनकी कलाकृतियां संग्रहित हैं। वो बिहार ललित कला अकादमी के चेयरमैन भी रह चुके हैं। आज भी निरंतर सृजनशील हैं।

(लेखिका डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।)

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