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कोविड-19
भारत
राजनीति
घर-घर टीकाकरण कार्यक्रम चलाने की ज़रूरत
इसमें कोई शक नहीं है कि देश की सार्वजानिक और निजी क्षेत्र दोनों के पास कोरोना महामारी के टीके बनाने की पर्याप्त विशेषज्ञता है, लेकिन सरकारी नीतियों की विफलता नें आज भारत को कई देशों के सामने हाथ फैलाने को मजबूर कर दिया है। 
अमृता पाठक
12 Jun 2021
घर-घर टीकाकरण कार्यक्रम चलाने की ज़रूरत

देश में चल रही भयावह महामारी कोरोना वायरस से निबटने के लिए चलाए जा रहे टीकाकरण अभियान भगवान भरोसे सभी राज्यों में चल रहा था जिसमें केंद्र सरकार के द्वारा बड़ा बदलाव करने की घोषणा की गयी है। देश के प्रत्येक जनता को मुफ्त और अनिवार्य टीकाकरण हो इसकी मांग महीनों से अलग-अलग राज्यों के मुख्यमंत्रियों और नेताओं के द्वारा किया जा रहा था। यह प्रसंशनीय है कि केंद्र सरकार द्वारा आंशिक रूप से ही सही उनकी मांग को मान कर टीकाकरण नीति में बदलाव कर दिया गया है। अब 21 जून 2021 से देश में नई टीकाकरण नीति लागू हो जाएगी जिसमें 18 वर्ष से अधिक उम्र के 94 करोड़ लोगों को मुफ़्त में टीके लगाए जाने की बात की गयी है। प्रधानमंत्री द्वारा घोषित इस नीति के मुताबिक़ वैक्सीन कंपनियों से केंद्र सरकार 75 प्रतिशत टीके खरीदेगी जबकि 25 प्रतिशत टीके प्राइवेट अस्पताल सीधे इन कंपनियों से खरीद सकेगी। निजी अस्पताल को टीके की कीमत के अतिरिक्त 150 रूपये तक सर्विस चार्ज लेना तय किया गया है जिसकी निगरानी करना राज्य सरकार के जिम्मे होगा। 

सवा महीने में बदल डाली टीकाकरण नीति

टीकाकरण की कमान को एक बार फिर केंद्र सरकार द्वारा अपने हाथ में लिए जाने के फैसले को कोई भी सही ही कहेगा लेकिन इस फैसले को लेने में देरी जरुर हो गयी है। यही फैसला अगर पहले ले लिया जाता तो अभी तक टीकाकरण का असर देश में दिखने शुरू हो गए होते। नीतिगत फैसलों में असमंजस की स्थिति व् केंद्र और राज्यों में तालमेल की कमी के कारण लोगों को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। केंद्र सरकार नें मई 2021 में टीकाकरण नीति में बदलाव किए थे जिसके तहत राज्य सरकारों को 18 वर्ष से अधिक आयुवर्ग के लोगों के लिए टीके की व्यवस्था खुद ही करनी थी इस प्रक्रिया में राज्यों के सामने कई प्रकार की दिक्कतें आई। कई राज्यों द्वारा ग्लोबल टेंडर देने के बाद भी टीके नहीं मिल सके। इसके बाद राज्यों द्वारा केंद्र सरकार पर टीके उपलब्ध करवाने को लेकर दबाब बनाया गया। 

गौरतलब है कि 2 जून 2021 को उच्चतम न्यायालय नें 18-44 साल तक के आयु वर्ग के लिए बनाए गए केंद्र सरकार की टीकाकरण नीति पर सवाल उठाए थे और कहा था कि प्रथम दृष्टि में यह कदम अतार्किक और मनमानीपूर्ण प्रतीत होता है। सुप्रीम कोर्ट नें केंद्र सरकार से अपनी टीकाकरण नीति की समीक्षा करने के लिए भी कहा था। उच्चतम न्यायालय ने यह भी सवाल उठाया था कि दो चरणों में 45 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को टीके की मुफ्त खुराक दी गयी और उसके बाद 18-44 आयु वर्ग के लोगों से राज्यों और निजी अस्पतालों को शुल्क वसूल करने की अनुमति दे दी गयी। शीर्ष अदालत द्वारा यह भी जानने की इच्छा जाहिर की गयी कि टीकाकरण के लिए निर्धारित 35,000 करोड़ रूपये कैसे खर्च किए गए और 18-44 आयु वर्ग के लोगों के टीकाकरण में उपयोग क्यूँ नहीं हो रहा है? 

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ 31 जुलाई तक सरकार के पास 54 करोड़ टीके उपलब्ध होंगे अभी तक 23 करोड़ टीके लगाए जा चुके हैं। आगामी 50 दिनों में केंद्र के पास 31 करोड़ नए टीके उपलब्ध होंगे। इस अवधि में सरकार के पास पर्याप्त टीके की उपलब्धता होगी इसलिए ही 21 जून से 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के टीकाकरण की बात की गयी है। एक आंकड़े के अनुसार अगस्त से दिसम्बर 2021 के बीच 153 दिनों में 18 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के सभी लोगों का टीकाकरण करने के लिए देश को 134 करोड़ वैक्सीन डोज की आवश्यकता होगी। इसके अनुसार 88 लाख टीके प्रतिदिन लगाने की जरुरत पड़ेगी। टीके की उपलब्धता होने के बाद भी उसके वितरण को लेकर कोई सवाल बने हुए हैं। अनुमानित आंकड़ों के अनुसार अगस्त से दिसंबर तक कोविशील्ड के 50 करोड़ टीके, कोवैक्सीन के 38 करोड़, बायोलाजिकल ई के 30 करोड़, नोवावैक्स के 20 करोड़, स्पूतनिक वी के 10 करोड़, जायकोव डी के 5 करोड़ टीके सरकार को मिल सकते हैं जो कुल मिलाकर 153 करोड़ टीके की डोज होती है और इस लिहाज से टीकों की पूर्ति देश में मांग से अधिक हो सकती है। इतने बड़े पैमाने पर टीकाकरण अभियान को चलाने के लिए देश की स्वास्थ्य व्यवस्था कितनी सक्षम है यह भी आज एक सवाल है। हालाँकि विश्व में सबसे बड़ा टीकाकरण प्रोग्राम भारत द्वारा ही चलाया गया है लेकिन वह बच्चों को लेकर किया गया है।  सम्पूर्ण आबादी के लिए टीकाकरण अभियान को इतने बड़े पैमाने पर चलाया जाना निश्चित तौर पर चुनौतीपूर्ण होगा। 

टीकाकरण की राह में टीके की बर्बादी है बड़ी बाधा 

कोरोना महामारी के ख़िलाफ़ चलाए जा रहे टीकाकरण अभियान में टीकों की बर्बादी होना एक बड़ी बाधा है। तमाम कोशिशों के बाद भी कुछ राज्यों में टीके की बर्बादी पर रोक नहीं लगाया जा सका है। आंकड़े बताते हैं कि केवल झारखण्ड राज्य में ही 33।95 फ़ीसदी यानि एक तिहाई टीके की बर्बादी हुई है। इसके आलावा 15।79% छतीसगढ़, 7।35% मध्यप्रदेश, और ३ से 4 प्रतिशत के बीच राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र उतरप्रदेश और दिल्ली में टीके की बर्बादी हुई है। इस राज्यों में टीके की बर्बादी आने वाले टीकाकरण अभियान के लिए चिंताजनक है। इस बीच केरल और बंगाल जैसे राज्य उम्मीद की किरण भी दिखा रहे हैं जहाँ टीके की नेगेटिव वेस्टेज है। मतलब यह है कि इन राज्यों में टीके का इस्तेमाल इतने किफ़ायती तरीके से हुआ है कि उपलब्ध कराए गए टीके के डोज से अधिक लोगों का टीकाकरण करने में सफलता मिली है। असल में टीके की हर बोतल में थोड़ी मात्रा बची रह जाती है जिसका सही इस्तेमाल कर अतिरिक्त लोगों को लगाया गया है।

कोर्ट नें पूछा बिना पहचान पात्र वालों को कैसे लगेगा टीका 

कोरोना महामारी आज देश और दुनिया का सबसे बड़ा संकट है। सरकार द्वारा टीकाकरण को लेकर बनते-बदलते नीति के बीच बंबई हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार के साथ ही महाराष्ट्र सरकार से पूछा है कि किसी भी व्यक्ति को टीका लगवाने के लिए जो सात पहचान पत्र निर्धारित किए गए हैं। अगर उनमें से किसी के पास कोई भी पहचान पात्र नहीं हो तो उस व्यक्ति का टीकाकरण कैसे होगा? सरकार नें ऐसे लोगों के लिए क्या इंतजाम किए हैं? इस तरह के आधारभूत सवालों पर सरकारी चुप्पी चिंताजनक है। 

टीके के मामले में पश्चिमी देशों से सबक लेना बेहतर 

कोरोना महामारी से आए वैश्विक भूचाल के बाद दुनिया के लगभग सभी देशों नें माना कि टीकों की आपूर्ति करने के लिए उन्हें बड़े पैमाने पर निवेश करना होगा और इस दिशा में उन्होंने बड़ी-बड़ी कंपनियों के साथ अनुबंध कर काम भी शुरू कर दिया। इन देशों नें यह भी माना कि टीकों की उपलब्धता सुनिश्चित करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसे केवल बाज़ार के भरोसे तो बिलकुल भी नहीं छोड़ा जा सकता है। और टीका उत्पादन करने वाली कंपनियों के साथ एक साझेदार की भूमिका में काम करना होगा। हालाँकि भारत की कहानी कुछ और ही है यहाँ सार्वजानिक उपक्रमों की उपस्थिति होने के बावजूद भी सरकार केवल ग्राहक की भूमिका निभाती रही है। इससे भी अफ़सोसजनक यह है कि सरकार एक जागरूक ग्राहक की भूमिका भी नहीं निभा पाई है और समय रहते टीकाकरण को लेकर जरुरी आपूर्ति का आर्डर तक नहीं दे पायी। सरकार ने केवल तीन टीका आपूर्तिकर्ताओं या उत्पादनकर्ताओं को अनुमति दी और उन्हें अलग-अलग कीमत को तय करने की छुट भी दे दी। राज्यों और निजी अस्पतालों को स्वयं टीकों का बंदोबस्त करने की अनुमति दे दी जिससे हालात बिगड़े और चारो तरफ अफरातफरी मच गयी। ज्यादातर पश्चिमी देश 2020 में ही कोरोना की चपेट में आ चुके थे और वो समझ चुके थे कि देश की स्थिति और कारोबार को सामान्य बनाने के लिए अपने नागरिकों के टीकाकरण पर खर्च करना ही बेहतर विकल्प है और इन्होने गंभीरता को समझते हुए टीके पर निवेश किया। टीकों की खरीदारी के लिए कनाडा, यूरोपीय संघ, आस्ट्रेलिया सहित कुछ अन्य देशों नें अग्रिम आर्डर दिए। इन देशों ने टीके की उत्पादन की तरफ़ ध्यान नहीं दिया बल्कि अपने देश की जनता को सुरक्षित करने के लिए कंपनियों के साथ अनुबंध आधारित प्रयास में लगे रहे।  जबकि भारत विश्व का सबसे बड़ा टीका उत्पादक देश होने के बावजूद सरकार नें यह गणना करने की जरूरत तक नहीं समझी कि जितने लोगों को टीके लगाए जाएंगे उसके लिए देश में प्रयाप्त उत्पादन क्षमता भी है या नहीं। इसमें कोई शक नहीं है कि देश की सार्वजानिक और निजी क्षेत्र दोनों के पास कोरोना महामारी के टीके बनाने की पर्याप्त विशेषज्ञता है लेकिन सरकारी नीतियों की विफलता नें आज भारत को कई देशों के सामने हाथ फैलाने को मजबूर कर दिया है। 

कोरोना वायरस आज समाज का सबसे बड़ा दुश्मन है। ऐसे में सरकार का ‘घर के पास’ टीकाकरण कार्यक्रम सीमा पर खड़े होकर दुश्मन के आने का इन्तजार करने जैसा है। कोरोना के इस हालात में घर में घुस कर महामारी पर वार करने की जरुरत है या यूँ कहें कि घर-घर टीकाकरण कार्यक्रम को चलाए जाने की जरूरत है। वर्तमान में टीके की खरीद और वितरण को लेकर जो नीति है और आंकड़े उपलब्ध हैं वो बहुत उत्साहित करने वाले नहीं हैं। अब केद्र सरकार को सीमा पर खड़े होकर वायरस के इन्तजार करने के बजाए महामारी के ख़िलाफ़ असली वाली ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करने की जरुरत है जिससे इस गंभीर परिस्थिति से और अधिक नुकसान हुए बगैर काबू किया जा सके।

अमृता पाठक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

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