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कोविड-19
भारत
राजनीति
कभी न भूलें: कोविड-19 से बचे एक पीड़ित की अपील
केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी ने कई विधानसभा चुनावों में लगातार प्रचार-प्रसार इसलिए किया, क्योंकि इनके लिए राजनीति कहीं ज़्यादा अहम है।
तान्या अग्रवाल
17 Jun 2021
कभी न भूलें: कोविड-19 से बचे एक पीड़ित की अपील

नोबेल पुरस्कार विजेता और होलोकॉस्ट(हिटलर के नरसंहार) में बच गये एली विज़ेल ने कहा था,'तटस्थता पीड़ित को नहीं,बल्कि उत्पीड़क को मदद पहुंचाती है। मौन उत्पीड़ित को नहीं,बल्कि ज़ुल्म करने वालों को ही हमेशा प्रोत्साहित करता है।' इसी रौशनी में कोविड-19 के प्रकोप से बच गयी तान्या अग्रवाल हाल के इतिहास में किसी सरकार की सबसे बुरी व्यवस्थागत नाकामियों और ज़िम्मेदारियों की अनदेखी को कभी नहीं भूलने के सिलसिले में लिखती हैं। तान्या ने अस्पताल में ऑक्सीजन सपोर्ट के सहारे कोविड-19 से लड़ाई लड़ी। उनके पति भी अस्पताल में भर्ती थे और सौभाग्य से वे ठीक हो गये।मगर,कई भारतीय बच्चे उनके बच्चे जितना भाग्यशाली नहीं थे।

'तो,क्या हम ऐसे ही जीते थे ? लेकिन,हम तो आम ज़िंदगी की तरह जीवन जी रहे थे।हर कोई वही सब कर रहा है,जैसे कि ज़्यादातर समय कोई कर रहा होता है। जो कुछ हो रहा है,वह पहले की तरह ही हो रहा है। यह भी अब हमेशा की तरह ही तो है।

हम हमेशा की तरह अनदेखी करते हुए ही तो जी रहे थे। मगर,अनदेखी करना,अज्ञानता के बराबर नहीं होता,आपको इस पर ध्यान देना होगा।

कुछ भी तुरंत नहीं बदलता: यह जानने से पहले ही धीरे-धीरे गर्म होने वाले बाथटब में आपको मौत के घाट उतार दिया जायेगा।'-मार्गरेट एटवुड

एटवुड अपने द हैंडमेड्स टेल नामक इस उपन्यास में उस गिलियड के अधिनायकवादी व्यवस्था के बारे में लिखती हैं,जो अपने ख़ुद के अलावा सभी धर्मों को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर देता है,अमेरिकी संविधान को निलंबित कर देता है और अभिव्यक्ति,प्रेस और एक साथ कहीं एकट्ठा होने की स्वतंत्रता सहित तमाम अधिकारों को ख़त्म कर देता है। इसकी जगह लिंगगत जैसी व्यक्तिगत विशेषताओं के आधार पर सामाजिक वर्गों का एक पदानुक्रम बनाया जाता है।

स्टेडियमों को जेलों और प्राणदंड दिये जाने वाले मैदानों में बदल दिया जाता है। एक पवित्र शैक्षणिक संस्थान उत्पीड़कों के गुप्त अड्डे में तब्दील हो जाता है,जिसकी दीवारों पर "अपराधियों" को फ़ासी देकर चिपका दिया जाता है। महिलायें पुरुष स्वामियों की दया के हवाले कर दी जाती हैं और उन्हें प्यार करने, पढ़ने, लिखने या ज़ायदाद रखने का कोई अधिकार नहीं होता है।

क्या यही अति नहीं दिखायी देती ?  

एटवुड ने “द हैंडमेड्स टेल” को एक काल्पनिक कहानी माना था और इसे आमतौर पर इसे एक मनहूस रचना के की क़तार में रखा जाता है। हालांकि,भारत में पिछले कुछ सालों पर नज़र डालें,तो ऐसा लगता है कि नागरिक “यात्री अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करें” जैसे हालात में हैं। ख़ासकर नोवल कोरोनावायरस महामारी की दूसरी लहर के बाद तो हमें किसी दिन यह भी पता चल सकता है कि हमारे पास अब वोट देने या देश छोड़ने का भी अधिकार नहीं रहा। यह अब किसी जोखिम से कहीं ज़्यादा मुमकिन हो जाने जैसी हालत है। हम धीरे-धीरे गर्म होने वाले बाथटब में हैं।

दूसरी लहर

हाल ही में प्रधानमंत्री को दूसरी लहर पर जीत का श्रेय दिया गया था। उन्होंने अपनी सरकार के टीकाकरण कार्यक्रम के कुप्रबंधन से लोगों का ध्यान हटाने के लिए एक और एकतरफ़ा राग अलापा। उद्धारकर्ता जैसे दिखावे से मूर्ख मत बनिए। प्रधानमंत्री का वह एकरफ़ा संवाद तब सामने आया था,जब दूसरी लहर पहले से ही अपने उतार पर थी,चूंकि टीके की आपूर्ति कम होने की आशंका है,और तीसरी लहर के आने में इसलिए अभी कुछ समय और लगेगा,क्योंकि हम में से कई लोग प्राकृतिक संक्रमण के शिकार हुए हैं और इसलिए हमारे शरीर में वायरस के ख़िलाफ़ एंटीबॉडी विकसित हो चुकी है।

जब केन्द्र सरकार के सामने निराशाजनक प्रदर्शन के बाद मुश्किलें पैदा हो गयी,तो नेतृत्व ने उसी संविधान की तरफ़ फिर से रुख़ किया,जिसकी अनदेखी उन्होंने अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अनगिनत बार की है,मगर,इस बार यह रुख इसलिए किया गया है,ताकि यह दावा किया जा सके कि स्वास्थ्य सेवा तो राज्य का विषय है।

राज्यों को जिस समय वैक्सीन की दरकार थी,उस समय वैक्सीन निर्माताओं ने वैक्सीन नहीं दिया। दूसरी लहर के दरम्यान ज़्यादातर समय तक नेतृत्व ग़ायब रहा,सिर्फ़ सोशल मीडिया को सेंसर करने, रुक-रुक कर एकतरफ़ा संवाद करने और रोने के लिए नेतृत्व सामने आता रहा।

दूसरी लहर के दरम्यान नेतृत्व आंख मुंदे रहा और आपको अच्छी तरह मालूम है कि नागरिक निजी तौर पर उन-उन कामों को अंजाम देते रहे,जिन्हें अंजाम देना निर्वाचित सरकारों की ज़िम्मेदारी थी। मेरे ख़ुद के परिवार और मैं सहित कई लोग उन लोगों के सहारे ज़िंदा रहे,जो निर्वाचित सरकारों का हिस्सा नहीं थे।

आख़िर हम इस अति तक पहुंचे कैसे ?

पिछली गर्मियों की शुरुआत में तब्लीग़ी जमात के लोगों के भारत में हज़ारों की संख्या में इकट्ठा होने के बाद उन्हें एक बड़ा ख़तरा बताया गया था, हालांकि भारत सरकार ने तबतक ख़ुद कोविड-19 को एक ख़तरा घोषित नहीं किया था और वायरस और इसके असर के बारे में उस समय तक अता-पता भी नहीं था।

पहली लहर के बाद भारत और बाक़ी दुनिया इसे क़ाबू कर चुकी थी,नेतृत्व ने नब्बे लाख से ज़्यादा लोगों के साथ कुंभ मेले को होने दिया  और इसे रोकने की कोशिश करने वाले एक शख़्स को बाहर कर दिया गया।

केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी ने कई विधानसभा चुनावों में लगातार प्रचार-प्रसार इसलिए किया,क्योंकि इनके लिए राजनीति कहीं ज़्यादा अहम है। वे लंबे समय से "हार्वर्ड के मुक़ाबले कड़ी मेहनत बेहतर है" के सिद्धांत को लागू कर रहे थे,ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सही लोगों को सही जगह मिले।

सुप्रीम कोर्ट ने राम लला को उनके जन्मस्थान वाले स्थल पर अधिकार दे दिया। जिन लोगों ने मंदिर को हक़ीक़त बनते देखने के लिए मतदान किया था,उन्हें विश्वास था कि राम लला उनकी रक्षा ज़रूर करेंगे।उन्हें तमाम बातों पर विश्वास था,जिनमें यह बात भी शामिल थी कि जनवरी 2021 तक महामारी क़ाबू में आ जायेगी।

हममें से भले ही कुछ लोग इस बेबुनियाद बातों में नहीं पड़े हों,लेकिन बाक़ियों ने मास्क पहनना और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना तक बंद कर दिया था। सवाल है कि उनके नेताओं ने ही इन मानदंडों का पालन नहीं किया, तो वे बेचारे इनका पालन क्यों करें ? हम सबको पता है कि आगे क्या हुआ-जो कुछ हुआ,उसका पर्याप्त सुबूत तो वे श्मशान थे,जहां लाश रखने तक की जगह नहीं बची थी।

जय श्री राम पर पूरा भरोसा करने वाले हताश होकर राम भरोसे का रोना रोते रहे। महामारी से बच गये लोगों, इस विश्वासघात को मत भूलना।

मत भूलना

“लेकिन,दर्द के गुज़र जाने के बाद उसे कौन याद रख पाता है ? जो कुछ बचा है,वह तो साया है,मन में भी नहीं, काया में भी नहीं। दर्द आपके भीतर टीस छोड़ जाता है,लेकिन वह टीस इतनी गहरी होती है कि उसे देखा नहीं जा सकता। नज़रों से दूर,समझ से बाहर।”-एम एटवुड, द हैंडमिड्स टेल।

पहली या दूसरी लहरों को मत भूलना। पहली लहर में हमें चार घंटे की मोहलत पर राष्ट्रीय लॉकडाउन मिला था और इस मोहलत के मिलने से दो दिन पहले हमें थाली बजाना था और मोमबत्ती जलाना था। वास्तविक कड़ी मेहनत के धीमे नतीजों के उलट यह एक ऐसा हथकंडा था,जिसकी प्राथमिकता के पीछे फ्रंट-पेज पर आने को लेकर मिलने वाली तात्कालिक संतुष्टि थी। हमने प्रवासियों को सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलते देखा था और बदले में हमें पीएम-केयर्स नाम का एक ब्लैक बॉक्स मिला था।

हमने एलोपैथी की जगह गौमूत्र का प्रचार-प्रसार देखा और हमने उन स्वास्थ्य कर्मियों पर दुर्भावनापूर्ण हमला करते एक अमीर स्वयंभू बाबा को फटकार नहीं लगा पाने की नाकामी भी देखी,जिन्होंने हमें ज़िंदा रखा। याद कीजिए कि कोविड-पॉजिटिव हुए गृह मंत्री ने एक विश्व प्रसिद्ध डॉक्टर की तरफ़ से चलाये जा रहे एक उत्कृष्ट निजी अस्पताल में अपनी जांच करवायी थी,लेकिन बेशुमार भारतीयों को अस्पतालों के बाहर मरने के लिए छोड़ दिया गया था।

मत भूलियेगा कि तत्कालीन शासकों ने समय से पहले महामारी पर जीत का ऐलान कर दिया था,कोविड-19 सुविधाओं वाले शिविरों को ध्वस्त कर दिया था और सेंट्रल विस्टा के पुनर्निर्माण के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा और बच्चों की शिक्षा वाले पैसों का इस्तेमाल कर लिया था। हम ऑक्सीज़न,अस्पताल में बेड और दवाओं की कम पड़ती आपूर्ति से परेशान हैं,हालांकि उनके पास इन सुविधाओं को उपलब्ध कराने की 'कड़ी मेहनत' के लिए एक साल का समय था।

टीकों की ख़रीद और उसके वितरण पर उनकी पूर्ण विफलता,दोनों टीके लिये जाने के अंतराल में किया जाने वाला अचानक विस्तार, कितने लोगों को वैक्सीन दिया गया,इसके आंकड़ों की भ्रामक प्रस्तुति, CoWIN के ज़रिये जनता को टीकाकरण से बाहर कर देना और टीकाकरण प्रमाण पत्र पर पीएम की तस्वीर,मगर कोविड से मरने वालों को कोई मृत्यु प्रमाण पत्र तक नहीं।इन तमाम बातों को बिल्कुल मत भूलियेगा।

सोशल मीडिया पर रोक, निशाने बनाये गये व्हिसल ब्लोअर और पोस्टर लगाने के आरोप में गिरफ़्तार लोगों को भी मत भूलियेगा। याद रखियेगा कि इस संकट पर क़ाबू पाने और संकटग्रस्त लोगों की सहायता को लेकर नेतृत्व के पास तक़रीबन कोई आर्थिक योजना नहीं है। स्वास्थ्य के अधिकार और आख़िरकार जीने के अधिकार को व्यापक रूप से ख़त्म किये जाने को भी बिल्कुल मत भूलियेगा।

यह न भूलियेगा कि कोविड-19 के पीछे हटने से पहले ही हमारा एक और नया दुश्मन सामने है,और वह है- ब्लैक फ़ंगस या म्यूकोर्माइकोसिस। मैं ख़तरे की ज़द में हूं, मेरी तरह अनगिनत दूसरे लोग भी ख़तरे में हैं। कई लोग तो पहले ही दम तोड़ चुके हैं। बेहद ज़हरीली और कम आपूर्ति वाली दवा के अलावा कोई दवा नहीं है। देश का नेतृत्व राज्यों से ब्लैक फ़ंगस को महामारी घोषित करने के लिए इसलिए कह रहा है,क्योंकि स्वास्थ्य सेवा राज्य का विषय है।

जिस समाधान से इस समस्या को रोका जा सकता है,उसके लिए नेतृत्व को चाहिए कि वह स्टेरॉयड के अंधाधुंध इस्तेमाल के नियंत्रण को प्रोत्साहित करे,स्वच्छ ऑक्सीज़न की आपूर्ति को सुनिश्चित करे और गाय के गोबर सहित उन जैविक कचरे को ख़त्म करने के लिए राष्ट्रव्यापी प्रयास शुरू करे,जो हमारी गली-कूचों में बिखरे पड़े हैं।

कुछ लोगों का कहना है कि इसके लिए हम महज़ किसी एक व्यक्ति या एक पार्टी को दोष नहीं दे सकते। कोई शक नहीं कि पिछली सरकारें सही मायने में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर खर्च करने में विफल रहीं। लेकिन, क्या यह बात माफ़ करने लायक़ है कि मौजूद शासन इस संकट के दौरान भी सार्वजनिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को बढ़ा पाने में विफल रहा ? बिल्कुल,भारत का यह महामारी संकट,प्रबंधन,पूर्वानुमान,योजना,रोकथाम और इलाज के लिहाज़ से व्यवस्थागत नाकामी का प्रतीक बन गया है।

मसलन, जब दूसरी लहर अपने चरम पर थी,उस समय एक राज्य सरकार गायों के लिए हेल्पडेस्क स्थापित करने में व्यस्त थी, कोई ऑक्सीजन संयंत्र स्थापित करने में विफल रही, और कई लोग तो कोविड-19 प्रोटोकॉल के तोड़ने या उसकी अनदेखी करते हुए बिना मास्क के घूमते रहे। यहां तक कि अगर मैं ऐसे हर व्यक्ति के लिए सिर्फ़ एक नाम कहूं-तो सबके सब सिर्फ़ सबसे ऊपर बैठे शख़्स के आदेशों का पालन करने की याचना कर सकता था-जिसे नूर्नबर्ग डिफेंस (सुरक्षा की एक ऐसी दलील,जिसमें कहा जाता है कि उसने जो कुछ किया है,वह उसका अपना फ़ैसला नहीं था,बल्कि वह ऐसा अपने सुप्रीमो के फ़ैसले को मानने की बाध्यता के तहत किया है) भी कहा जाता है।

"जब हम अतीत के बारे में सोचते हैं,तो हम इसके लिए अतीत की ख़ूबसूरत चीज़ों को ही चुन लेते हैं। हम यक़ीन करना चाहते हैं कि यह सबकुछ तो ऐसा ही था।”-एम एटवुड,द हैंडमिड्स टेल।

महामारी से पहले जो कुछ हुआ या शुरू हुआ,वह सब भी मत भूलियेगा। प्रधानमंत्री की पहली और आख़िरी प्रेस कॉफ़्रेंस याद है- याद कीजिए कि मई 2019 में उस बहुप्रतीक्षित दिन को क्या हुआ था-उन्होंने "रिपोर्टरों के सवालों का जवाब कभी नहीं देने वाले एकलौते प्रधानमंत्री होने के अपना रिकॉर्ड को क़ायम रखा था.."।

जिस देश को हम गर्व से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं,उसके नेतृत्व का यह आचरण कैसे स्वीकार्य हो ? यहां तक कि एक बार के लिए चुने गये अजीब-ओ-ग़रीब डोनाल्ड जे ट्रम्प ने भी कई प्रेस कॉन्फ़्रेस कर डाली थी। अगर उनके दिये गये जवाबों की विश्वसनीयता को जाने भी दें,तो कम से कम उन्होंने सवाल का सामना करने और अपने सवाल-जवाब को दुनिया के सामने सीधा प्रसारित करने का साहस तो दिखाया था।

सभी तरह के लोगों पर देशद्रोह का आरोप लगा देना, बार-बार इंटरनेट बंद कर देना, बलात्कार के मामलों से बेहरहम तरीक़े से निपटना, "लव जिहाद" क़ानून, मीडिया का गला घोंट देना, गोरक्षकों की भीड़ द्वारा पीट-पीट कर हत्या कर देना, चलाये जा रहे अभियान में पैसों की पारदर्शिता का नहीं होना, नागरिकता क़ानून में भेदभावपूर्ण संशोधन, राष्ट्रीय नागरिक पंजी, राजधानी में मुस्लिम विरोधी हिंसा,इन सबको मत भूलियेगा।

चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थानों पर व्यवस्थित रूप से कब्ज़ा करना,उस नोटबंदी की निरर्थकता,जहां 99% से ज़्यादा रद्द नोट वापस कर दिये गये थे, न्यायपालिका का समझौता और एक अधिकार संपन्न अदालत से एक कार्यकारी अदालत में बदल दिये जाने तक का सुप्रीम कोर्ट का पतन, प्रधानमंत्री के नाम पर स्टेडियम के नाम का रखा जाना,जो कि (सद्दाम हुसैन और किम II जुंग, जैसे नाम रखने वाले कुछ अधिनायकों) से प्रेरित है,इस स्टेडियम में दो मंडपों का नाम उन उद्योगपतियों के नाम पर रखा गया है, जिनकी संपत्ति में तेजी से वृद्धि हुई है।इन बातों को भी नहीं भूलियेगा।

वह स्टेडियम भारत की वर्तमान स्थिति के लिए एकदम आदर्श मिसाल है। यह सांडों से लड़ने वाला एक ऐसा अखाड़ा है,जिसके अंदर एक अरब लोग भरे हुए हैं, जहां बच्चों के लुका-छिपी के खेल जितनी जगह भी नहीं, मुश्किल से सांस ले पाने की स्थिति है। वे बारी-बारी से हम पर बैल दौड़ा देते हैं।

आगे का रास्ता

तत्कालीन दुश्मन-कोविड-19 से लड़ने के लिए हम सभी को मास्क पहनने और वैज्ञानिकों की ओर से सुझाये गये सभी सुरक्षा प्रोटोकॉल का पालन करने की ज़रूरत है। इस बात पर फिलहाल ध्यान दिये बिना कि टीके की स्थिति क्या है और नेतृत्व इन प्रटोकॉल का अनुपालन करता है या नहीं,हमें इनका पालन ज़रूर करना चाहिए।

द हैंडमिड्स टेल की नायिका-ऑफ्रेड इस बात को सामने रखती है कि नौकरी से निकाले जाने के बाद वह विरोध मार्च में शामिल नहीं हुई, बल्कि इसके बजाय उसने अपने परिवार पर ध्यान केंद्रित करना पसंद किया था। उसे यह सब व्यर्थ लग रहा था और लोग शक्तिहीन महसूस कर रहे थे। फिर उसे एक दिन पता चलता है कि उसका परिवार वैसे भी तबाह हो गया है,क्योंकि ज़्यादतर लोग तो लड़े ही नहीं।

"जबतक कोई चूहा चक्रव्यूह के भीतर रहता है,वह उस चक्रव्यूह के भीतर कहीं भी जाने के लिए आज़ाद होता है।"

आइयें, हम चूहे वाली वही ग़लती न करें। आइये, हम "स्वतंत्रता पाने" की जगह "स्वतंत्रता" हड़प लेने की अनुमति नहीं दें। आइये, हम एक समाधान तैयार करें और 2024 में इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने के लिए अपने मतदान के अधिकार की रक्षा करें। पद पर बैठे उन लोगों से वोट के लिए उसी तरह भीख मंगवायें,जिस तरह उन्होंने हमसे ऑक्सीज़न, अस्पताल के बेड और जीवन रक्षक दवाओं के लिए भीख मंगवायी है। हम उन लाखों लोगों के कर्ज़दार हैं, जो मरते हुए यह तय कर गये कि उन्हें वोट न मिले।

एटवुड का गिलियड चरमपंथी ईसाई धर्म का अनुसरण करने वाला एक धर्मतंत्र है। उत्तर कोरिया सोंगुन (सैनिक सबसे पहले वाले सिद्धांत) का अनुसरण करता है। अगर हम समाधान नहीं ढूंढ पाये,तो भारत हिंदुत्व (सबसे पहले हिंदुत्व के सिद्धांत) का अनुसरण करेगा और हममें से जो लोग बाथटब में रहेंगे,वे उबलते हुए दम तोड़ देंगे, जबकि पद पर बना हुआ वह शख़्स सेंट्रल विस्टा में मौज-मस्ती करते हुए समय बितायेगा।

प्रिय रहनुमा,अगर भारत के लोग जीत जाते हैं,तो मैं आपको वही सलाह देना चाहूंगी,जो आपके वकील ने खुली अदालत में उस शख़्स को दी थी,जिसने ऑक्सीज़न आवंटन दिशानिर्देशों का पालन करने में आपकी विफलता की शिकायत की थी।

"हम कोशिश करें और रोते हुए बच्चे नहीं बनें।"

(तान्या अग्रवाल ने अस्पताल में ऑक्सीज़न के सहारे कोविड-19 के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी। वह दिल्ली स्थित वकील हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

यह लेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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