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आंदोलन
मज़दूर-किसान
भारत
राजनीति
अब 8 दिसंबर के ‘भारत बंद’ से ही खुलेंगे नए रास्ते!
दिल्ली पर आज जिस तरह का घेरा पड़ा है, लोगों का कहना है, देश के इतिहास में उसका दूसरा कोई उदाहरण नहीं है, न भूतो, न भविष्ययति!
लाल बहादुर सिंह
07 Dec 2020
भारत बंद
Image courtesy: Social Media

किसान संगठनों के साझा राष्ट्रीय प्लेटफार्म संयुक्त किसान मोर्चा ने, जिसमें देश के 500 से अधिक किसान संगठन शामिल हैं, अपने आंदोलन को और तेज करते हुए कल 8 दिसंबर को भारत बंद का आह्वान किया है।

5 दिसंबर को किसान नेताओं और सरकार के बीच हुई पांचवें चक्र की वार्ता विफल होने के बाद किसान अपनी माँगों पर और दृढ़ता के साथ डटे हैं, उनके आंदोलन का दायरा और आक्रामकता बढ़ती जा रही है। पंजाब के किसानों से शुरू हुए इस आंदोलन की अनुगूंज अब पूरे देश में सुनी जा सकती है। पंजाब में तो यह पूरे पंजाबी समाज का जनांदोलन बन ही चुका है, लम्बा खिंचने के साथ यह राष्ट्रव्यापी शक्ल और राजनीतिक आयाम ग्रहण करता जा रहा है। वामपंथी पार्टियां, उनके तमाम जनसंगठन तो पूरी ताकत से उतरे ही थे, अब अन्य दल भी आंदोलन के समर्थन में आते जा रहे हैं। पिछले कार्यकाल तक NDA के प्रमुख रहे प्रकाश सिंह बादल ने अपना पदम् विभूषण वापस कर दिया है और ओलंपिक में पदक दिलाने वाले हॉकी टीम के पूर्व कप्तान परगट सिंह और बॉक्सर विजेंदर सिंह समेत अनेक बड़े खिलाड़ियों ने भी अपने मेडल वापस करने  का एलान किया है। चर्चित पंजाबी गायक दिलजीत दोसांझ और अन्य तमाम कलाकार सीधे बॉर्डर पहुंचकर आंदोलनकरियों का हौसला बढ़ा रहे हैं।

दिल्ली पर आज जिस तरह का घेरा पड़ा है, लोगों का कहना है, देश के इतिहास में उसका दूसरा कोई उदाहरण नहीं है, न भूतो, न भविष्ययति!

पूर्व आईपीएस अधिकारी श्री विकास नारायण राय ने याद दिलाया है कि 1982 में लोंगोवाल अकाली दल का मोर्चा, जिसमें मूलतः किसान ही थे, दिल्ली  प्रवेश में विफल रहा था, उसे बलपूर्वक अपमानित करके हरियाणा में रोक दिया गया था।

लेकिन अबकी बार पंजाब के किसान, मोदी-खट्टर सरकार की इंदिरा गांधी की 82 जैसी ही मंशा के बावजूद, सारी विघ्न-बाधाओं को रौंदते हुए दिल्ली पहुंचने में न सिर्फ सफल हुए बल्कि बुराड़ी मैदान की अस्थायी जेल में कैद करने की अमित शाह की शातिर चाल को धता बताते हुए, उन्होंने दिल्ली को ही चारों ओर से घेर लिया।

एक बेटा जिस समय सीमा पर शहादत दे रहा था, उसका बाप मोदी सरकार से  अपने जिंदा रहने का हक मांगता दिल्ली सीमा पर डटा हुआ था। देश की राजधानी दिल्ली के बॉर्डर पर शहीद होते किसानों की कतार लम्बी होती जा रही है। और उसी के साथ मजबूत होता जा रहा है उस सरकार के खिलाफ आर-पार की लड़ाई का उनका determination, जिसे अब वे अम्बानी-अडानी की सरकार के रूपमें पहचानने लगे हैं, जिसने दिसंबर की ठिठुरती रातों में, महामारी के बीच, खुले आसमान के नीचे उन्हें लड़ने-मरने को मजबूर कर दिया है।

सरकार किसानों के प्रति जिस अंतहीन संवेदनहीनता का परिचय दे रही है, वह बेमिसाल है। जाहिर है इसकी स्मृतियां अब बचे पूरे कार्यकाल भर मोदी सरकार का पीछा करती रहेंगी। क्रूरता की यह महागाथा इतिहास में दर्ज हो रही है। मोदी सरकार के काले कानूनों के खिलाफ लड़ाई में किसी को कम्पनी राज और अंग्रेजों के नमक कानून की याद आ रही है तो किसी को रौलट एक्ट की।

सरकार पूरी तरह clueless है, इस आंदोलन से निपटने की रणनीति पर। उसे अब इस से निकलने का कोई exit/escape route नहीं सूझ रहा है।

सरकार की दुविधा यह है कि वोट के लिए वह दिखना चाहती है किसानों के साथ, पर है वह मूलतः कारपोरेट के साथ। उसके नए कानूनों के तार  कारपोरेट हितों के साथ गहरे जुड़े हुए हैं।

मोदी-अमित शाह को मालूम है कि भारतीय राजनीति की धुरी किसान हैं, उनके इस आयाम के लोकप्रिय आंदोलन का दमन वह अपने राजनीतिक सर्वनाश की कीमत पर ही कर सकती है, दूसरी ओर, क्योंकि कृषि क्षेत्र में युगांतकारी बदलाव लाने वाले ये कानून शासक वर्गों के लिए आज  संकट से उबरने और संकट को अवसर में बदलते हुए 62 लाख करोड़ के विराट कृषि व्यापार को अपने कब्जे में ले लेने के सबसे अचूक नुस्खे हैं, इसलिए BJP को अब वे उससे पीछे हटने नहीं दे रहे।

विशाल अनाज भण्डारण की क्षमता वाले अडानी के साइलो (Silo ) बनकर तैयार खड़े हैं।

जाहिर है, इन दोनों के बीच का-  किसान हित और कारपोरेटपरस्ती के बीच दरअसल कोई middle path है ही नहीं ।

किसानों के 8 दिसंबर के भारत बंद का  10 बड़े ट्रेड यूनियन फेडरेशन्स तथा वामपंथ समेत अनेक विपक्षी दलों ने समर्थन किया है। ताकतवर आल इंडिया मोटर्स असोसिएशन ने भी इसके समर्थन का एलान कर दिया है। आंदोलन की कमान बेहद परिपक्व नेतृत्व के हाथों में है, जिसमें से अनेक पुराने तपे तपाये कम्युनिस्ट नेता और बुद्धिजीवी हैं।

धीरे धीरे आंदोलन ने राजनैतिक बलि लेना शुरू कर दिया है। सबसे पहले भाजपा के सबसे पुराने सहयोगी अकाली दल ने साथ छोड़ा, कैबिनेट मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दिया और अब अकाली दल ने राष्टीय स्तर पर NDA विरोधी मोर्चा बनाने की पहल भी शुरू किया है। NDA के एक घटक दल RLP के राष्ट्रीय संयोजक सांसद बेनीवाल ने किसान आंदोलन के पक्ष में उतरने का एलान किया है और NDA  छोड़ने के लिए अमित शाह को पत्र लिखा है।

हरियाणा में इनके समर्थक विधायकों के छिटकने का सिलसिला जारी है, जिस पार्टी की बैसाखी पर खट्टर सरकार टिकी है, उस JJP के नेता अजय चौटाला ने MSP को लेकर सरकार से अलग होने की धमकी दी है। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि आंदोलन खिंचा तो खट्टर सरकार की विदाई तय है। 

आंदोलन में मोदी सरकार को मुँह की खानी पड़ी अथवा सरकार ने आंदोलन के दमन की मूर्खता किया तो आसन्न बंगाल चुनाव पर इसका असर पड़ सकता है, जिसे लेकर भाजपा ने बड़ी महत्वाकांक्षायें पाल रखी है। ठीक इसी तरह अब से क़रीब एक साल बाद 2022 में आने जा रहा उत्तर प्रदेश का महत्वपूर्ण चुनाव भी इसके असर से बच नहीं पायेगा, पश्चिम उत्तर प्रदेश और तराई से आंदोलन में भागेदारी बढ़ती जा रही है ।

गौरतलब है कि इन कानूनों को बनाने की पूरी प्रक्रिया बेहद अलोकतांत्रिक रही। जितने भी stake-holders थे, किसी से विचार-विमर्श की भी जरूरत नहीं समझी गयी, उनकी बात मानना तो दूर, न किसानों व उनके संगठनों से, न कृषि-विशेषज्ञों से,  न राज्य सरकारों से जबकि कृषि राज्य का विषय है, न विपक्षी दलों से। अध्यादेश आने के बाद से ही पंजाब में किसानों का जोरदार धारावाहिक आन्दोलन चल रहा था पर उसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं की गयी।

जाहिर है अहंकार में डूबा संवेदनहीन मोदी शासन  इस आंदोलन की विस्फोटक सम्भावनाओं का आंकलन कर पाने में  बुरी तरह फेल हो गया।

इन कानूनों का क्रियान्वयन वित्तीय पूंजी के कुबेरों और कारपोरेट के लिए कितना अहम है, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके लिए पहल, मोदी सरकार ने 2014 में सत्ता में आने के तुरंत बाद अगस्त 2014 में गठित शान्ता कुमार कमेटी के माध्यम से कर दी थी। इसी दौरान योजना आयोग को खत्म कर बनाये गए नीति आयोग ने भी मार्च, 2015 में एक टास्क फोर्स के माध्यम से इस पर काम शुरू कर दिया। शायद तय chronology यह थी कि पहले भूमि अधिग्रहण कानून बदला जाएगा, फिर शांता कुमार की रिपोर्ट और नीति आयोग के सुझावों की रोशनी में ये कृषि कानून बनाये जाएंगे और इस तरह भारतीय कृषि के पूरे ढांचे- जमीन के  मालिकाने, उत्पादन, खरीद, storage, कृषि व्यापार का एक झटके में कारपोरेटीकरण पूरा कर लिया जाएगा।

पर पहले कार्यकाल में मोदी सरकार इस पर आगे नहीं बढ़ पायी। इस मेगा-प्रोजेक्ट को पहले ही कदम पर तब झटका लग गया जब भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव का कानून सरकार नहीं बनवा पाई, किसानों के प्रचंड प्रतिरोध के कारण सरकार को कदम पीछे खींचने पड़े। शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट और नीति आयोग का वह दस्तावेज भी ठंडे बस्ते में पड़ा रहा।

अब जाकर इन्हीं संस्तुतियों को अनुकूल अवसर पाकर कानूनों के माध्यम से अमली जामा पहनाया गया है।  सरकार बार बार दावा कर रही है कि ये कानून किसानों के फायदे के लिए बनाए गए हैं और जैसी किसानों की आशंका है, इसके पीछे कोई hidden agenda नहीं है। बकौल मोदी जी, इनसे किसानों को आज़ादी मिल जाएगी और बकौल कृषि मंत्री MSP व्यवस्था जारी थी, जारी है और जारी रहेगी!

बहरहाल, शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट और नीति आयोग का पेपर इन दावों की पोल खोलने के लिए पर्याप्त हैं।

दिसंबर, 2015 में जारी नीति आयोग के टास्क फोर्स के पेपर में स्प्ष्ट तौर पर कहा गया है कि सरकारी खरीद पर आधारित MSP की व्यवस्था ठीक नहीं है  और price policy को  reorient करना जरूरी है। यह साबित करने के लिये तरह तरह के तर्क दिए गए हैं, मसलन इससे खाद्यान्न उत्पादन के पैटर्न में असंतुलन, दलहन-तेलहन आदि के लिए आयात पर बढ़ती निर्भरता, क्षेत्रीय असंतुलन, जलस्तर में गिरावट, soil degradation आदि अनेक समस्याएँ पैदा हो रही हैं। 

निष्कर्षतः यह कहा गया है कि सरकार के लिए यह न सम्भव है, न वांछित है कि वह हर तरह के खाद्यान्न की किसानों से MSP पर खरीद करे, इस पर आने वाले वित्तीय भार के कारण fiscal consolidation खतरे में पड़ जायेगा। 

इसलिए MSP के आधार पर केवल (PDS से सस्ते अनाज की दुकानों के लिए) need-based खरीद की जाय। इसी कड़ी में शांता कुमार कमेटी की संस्तुति में कहा गया कि खाद्य सुरक्षा का लाभ पाने वालों की संख्या 67% गरीबों से घटाकर 40% की जाय। यह भी कहा गया कि राज्य सरकारें केंद्र द्वारा घोषित MSP में जो अपनी ओर से अतिरिक्त अनुदान देती है, वह बंद किया जाय।

यह साफ है कि इन दोनों दस्तावेजों की, जिनके आधार पर मौजूदा कृषि कानून बने हैं, संस्तुतियों की मूल दिशा MSP आधारित सरकारी खरीद को क्रमशः कम करते हुए खत्म करने की है, जाहिर है इसी के साथ गरीबों को सस्ते दर पर खाद्यान्न की PDS व्यवस्था का भी खात्मा जुड़ा हुआ है, इसके सूत्र इन दस्तावेजों में मौजूद हैं। 

नीति आयोग के पेपर में बिल्कुल स्पष्ट ढंग से कहा गया है, " कारपोरेट सेक्टर agri-business में निवेश के लिए उत्सुक है ताकि विकासमान घरेलू एवं वैश्विक बाजार को काम में लगाया जा सके (पढ़िए: मुनाफे के लिए दोहन किया जा सके) इसलिए अब ऐसे कृषि सुधारों के लिए सही समय आ गया है जो इस सेक्टर को स्वस्थ business environment दे सकें।"

और फिर इसी संदर्भ में APMC एक्ट, आवश्यक वस्तु अधिनियम आदि में बदलाव और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की चर्चा है, जो आज नए कानूनों के रूप में हमारे सामने हैं।

सरकार के नीति नियंताओं की कारपोरेट के पक्ष में इतनी स्प्ष्ट स्वीकारोक्ति के बाद भी,  क्या इन कानूनों के पीछे सरकार के इरादों  को लेकर कुछ कहने-सुनने के लिए रह जाता है?

कृषि उत्पादन और व्यापार पर मुट्ठी भर दैत्याकार विदेशी और देशी कॉर्पोरेशन्स का एकाधिकार (monopoly ) कायम हो जाने का दुष्परिणाम केवल किसानों को ही नहीं भुगतना होगा बल्कि मेहनतकश-गरीब वर्ग,  आम मध्यवर्गीय उपभोक्ता सब पर  पड़ेगा। हमारी खाद्य सुरक्षा जिसे राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जोड़कर देखा जाता है, गम्भीर खतरे में  पड़ जाएगी। कृषि और ग्रामीण ढांचे में बुनियादी बदलाव से हमारे पूरे सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनैतिक ढांचे में उथल-पुथल मच जाएगी। गाँवों से अपनी जमीनों से बेदखल हुए सीमांत, लघु किसानों की विराट आबादी के लिए रोजगार का अकल्पनीय संकट खड़ा हो जाएगा जिनके लिए शहरों में भी रोजगार के अवसरों के अभाव में कोई विकल्प नहीं होगा। पूरा समाज एक अभूतपूर्व त्रासदी के रूबरू होगा।

बहरहाल, कारपोरेट लाबी के बहुत से अर्थशास्त्रियों का मानना है कि सरकार ने जिस मूर्खतापूर्ण ढंग से यह सब किया है, उसमें अब वह बुरी तरह फंस गई है और उल्टे उसने self - goal कर दिया है। इन कानूनों और उस पर आंदोलन के कारण अब MSP को कानूनी अधिकार बनाने की एक बिल्कुल नई मांग उठ खड़ी हुई है, जिसके गम्भीर निहितार्थ होंगे। MSP के दायरे को व्यापक बनाने तथा उसके निर्धारण में स्वामीनाथन आयोग की C-2 को आधार बनाने की बहस भी पूरे आंदोलन की लोकप्रिय मांग बनती जा रही है।

बेहतर हो कि सरकार ईमानदारी से, पारदर्शी ढंग से किसानों के सामने आये,  झूठ-फरेब से बाज आये और उन्हें बदनाम करने तथा दमनात्मक कार्रवाइयों के लिए माफी मांगे,  संसद का विशेष सत्र बुलाकर MSP समेत किसानों की सभी मांगों के अनुरूप चौतरफा कृषि विकास के लिए नए कानून बनाये और विधिक प्रक्रिया द्वारा अपने इन तीन काले कानूनों को रद्द करे।

किसान-आंदोलन का दायरा जितना व्यापक हो चुका है, देश और दुनिया की निगाह जिस तरह इस पर लगी हुई है, और शासक खेमे में जिस तरह division है, उसमें इसका दमन सरकार के लिए आसान नही रह गया है। आंदोलन को बदनाम करने और विभाजित करने की साजिशें अब तक परवान नहीं चढ़ सकी हैं, पर उसके लिए कोशिशें जारी हैं।

जाहिर है, इस आंदोलन की तकदीर (destiny) तो अभी भविष्य के गर्भ  में है, पर यह तय है कि इसका चाहे जो भी अंत हो, यह तारीख और समाज में अपनी अमिट छाप छोड़ जाएगा और देश की राजनीति में नए राजनीतिक ध्रुवीकरण की सम्भावनाओं के द्वार खोलेगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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